बाबू पुराण / अमृतलाल नागर
परम सुहावन महा-फलदायक इस बाबू को पढ़ते-सुनते आज के युग में कोई सूत, शौनक, काकभुशुंडि या लोहमर्षक यदि यह पूछ बैठे कि अद्भुत क्रान्तिकारी महाशक्ति बाबू आखिर हैं कौन, तो मेरे जैसे साधारण साहित्यसाधक के लिए सर्वसंतोषदायक उत्तर देना ज़रा कठिन हो जाएगा। अत: प्रश्न को टालने के लिए एक प्रश्न सुनाता हूं।
रेल के भीड़-भरे थर्ड क्लास कम्पार्टमेंटों में ऊपर की सीट यदि खाली मिल जाए तो स्वर्ग-सुखदायिनी होती है। सो इस राजगद्दी के लिए भी ब्लैक का फलता-फूलता धंधा चल पड़ा है। एक बार सुखद यात्रा के निमित्त एक बाबू साहब ने ब्लैक वाले छोकरे से राजगद्दी के लिए सौदा पटाना आरम्भ किया। सौदा कम्पार्टमेंट के दरवाजे पर खुसफुस स्वरों में चल रहा था, पास ही अपने होल्ड़-आल पर दब्बे-भिचे एक दूसरे बाबू साहब इस सौदा-वार्ता को सुन रहे थे। उनके मन में बाबुओचित चतुराई उदय हुई। ज्यों ही एक रुपया लेकर ब्लैक वाले ने अपनी दरी समेटी त्यों ही दूसरे बाबू साहब ने ऊपर की सीट पर अपना होल्ड-आल फेंक दिया। ब्लैक वाला तो यह लीला देखते ही अपनी काली कमाई का रुपया और दरी उठाकर दरवाज़े की भीड़ चीरता हुआ ये जा, वो जा, उधर रुपया देकर सीट खरीदने वाले बाबू एकदम लाल भभूका हो गए, बोले- बिस्तर हटाइए।
दूसरे ने बिस्तर खोलते हुए उत्तर दिया- क्यों हटाऊं, खाली बर्थ पर जो बिस्तर जमा ले उसी का अधिकार है। पहले बाबू का रुपया और रात भर का सुख-चैन खटाई में पड़ा जा
यह निबंध स्वाधीनता-प्राप्ति से पूर्व लिखा गया था और ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ था।
रहा था, वे एकदम गरज पड़े, कहा- पर मैंने इसके लिए रुपया दिया है।
दूसरे बोले- मैं यह सब कुछ नहीं जानता। कानून दिखाइए, आपने कैसे ये रिजर्व कराई है ?
बाबू के मुख से और बाबू के सामने ‘कानून’ शब्द निकलते ही वाक् युद्ध में प्रलयंकारी गर्मी उत्पन्न हो जाती है और वह बाबुओं की मातृ-भाषाओं को झुलसा देती है। उक्त अवसर पर भी यही हुआ। बाबुओं की कानूनी शक्ति को सम्भालने के लिए उसकी जिह्नाओं में अंग्रेजी भाषा चट से प्रकट हो गई और साथ ही अंग्रेजों का रोब भी उनकी हिन्दुस्तानी देहों में दमकने लगा। गर्मागर्मी का चढ़ाव ‘डू यू नो हू आई एम’ (जानते हो मैं कौन हूं) और ‘आल राइट आई विल सी’ (अच्छा, देख लूंगा तुम्हें) तक पहुंचकर उतरने लगा।
यह ‘डू यू नो हू आई एम’ और ‘आई विल सी यू’ का जोम ही इस देश की बाबू सभ्यता में सार्वभौतिक रूप से व्याप्त है। यह जोम और ‘योर मोस्ट हंबल सर्वेन्ट’ (आपका अति विनीत सेवक) का दैन्य बाबू रूपी थर्मामीटर का अनवरत गति से चढ़ता-उतरता पारा है और इसी के बीच में उसी समस्त क्रान्तियों का इतिहास उभरकर उसे और उसके देश को नया गौरव प्रदान करता रहा है। एक तरह से यह न मानने काबिल बात कि आर्यों और नागों के बाद भारतवर्ष के इतिहास को यदि सामूहिक रूप से यदि किसी ने सबसे अधिक प्रभावित किया है, तो बाबुओं ने ही। बाबुओं ने भारतीय सभ्यता को नया अर्थ दिया है और उसका अनर्थ भी किया है। आर्यों के द्वन्द के समान ही बाबुओं ने अनेक पुरानी मान्यताओं को अपने जोम के वज्र से तोड़ा है। पुरन्दर के समान अनेक रूढ़ियों में आग लगाई है, हिन्दुस्तान की प्राचीन मर्यादाओं के बांध तोड़ करके क्रान्तियों के सैलाब पर सैलाब लाए हैं। पिछली एक शताब्दी का भारतीय इतिहास बाबुओं की प्रगति गति और विकास का ही इतिहास है।
यों तो बाबू सभ्यता का जन्म उन्नीसवीं सदी के पहले-दूसरे दशक से ही आरम्भ हो गया था, पर उसकी जवानी गदर के बाद ही परवान चढ़ी। मैकाले की नीति के अनुसार बाबू बनाने के लिए अंग्रेज़ लोग हिन्दुस्तानी जवानों को अंग्रेजी पढ़ने की लालच-भरी प्रेरणा देने लगे।
गदर से पहले बादशाही-नवाबी ज़माने में महंगाई सिर उठाने लगी थी। इसके और जो भी कारण रहे हों मगर एक कारण मुख्य रूप से स्पष्ट है। शाही विलासिता ने गांवों को बुरी तरह चूसना आरम्भ कर दिया था। शासन-प्रबन्ध में रिश्वत और लूट के सिद्धान्त को छोड़कर और कोई भी नियम और न्याय लागू न होता था। शासन तंत्र के बारह भी जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धान्त ही लोक-प्रचलित था। खेती, जमीन-जायदाद और स्त्रियों का अपहरण करना ही शौर्य का सर्वश्रेष्ठ लक्षण माना जाता था। राहजनी और बटमारी अपनी सीमा पर पहुंच गई थी। ऐसी दशा में अनास्था और महंगाई का बढ़ना अनिवार्य था। अंग्रेज धीरे-धीरे पैर जमाते जा रहे थे। भारतीय साहूकार और सामन्तों से उनके गठबन्धन मजबूत हो रहे थे। इनके सहारे अंग्रेज प्रचलित शासन तंत्र की जड़ें खोद रहे थे। इस बार उनका महत्त्व खूब बढ़ गया था। बहुत से सामंत और साहूकार, जिन्हें बादशाही तंत्र से किसी प्रकार का आघात लगता, अंग्रेजों की शरण में अपने स्वार्थवश जाते थे। अंग्रेजों की साख बढ़ गई थी। छोटे-मोटों की कौन कहे, शासक वर्ग के लोग भी अपना रुपया कम्पनी सरकार में जमा करते, कम्पनी सरकार के बांड खरीदते इस व्यावसायिक-राजनैतिक रिश्तेदारी के कारण उभय पक्ष को एक-दूसरे की भाषाएं जानने की आवश्यकता हुई। गदर से पहले जिन क्षेत्रों में अंग्रेजी अमलदारी हुई, वहां अंग्रेजी के जानकार भारतीयों की आवश्यकता हुई।
इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अब सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति देखिए। साहूकारी मुख्यत: बनियों के हाथ में थी और ताल्लुकेदारी-ज़मीनदारी ठाकुरों और मुसलमानों के अधिकार में। ब्राह्मणों एवं कायस्थों में कुछ घराने अवश्य ठकुरैती भोगते थे, पर ऐसे घराने केवल कुछ ही थे। ब्राह्मणों के मुख्यत: चार धंधे थे- खेती, यजमानी, मुनीमत और सिपाहीगिरी। कायस्थ उर्दू-फारसी पढ़कर शाही नौकरियों में खप जाते थे। अमीर खत्रियों के हाथ में बज़ाजा़ और साहूकारा था, गरीबों के हाथ में मुनीमत। गांवों की महंगाई से तंग आकर अनेक ब्राह्मण युवक अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए लालायित होते थे। अंग्रेज़ी के लिए यह बात शुभ थी। यदि श्रेष्ठ वर्ग के लोगों में अंग्रेज़ी का प्रचार हो जाए तो इतर वर्णों में भी सहूलुयत से अंग्रेज़ी की घुसपैठ संभव हो सकती थी।
गदर से प्राय: सौ वर्ष पूर्व से ही कम्पनी सरकार के डाइरेक्टर और अनेक विद्वान इस बात पर जोरदार बहस करने लगे थे कि हिन्दुस्तानियों को अंग्रेज़ी सिखा दी जाती है। वे फिर अपने देश, जाति और धर्म से घृणा करने लगते हैं और पूरी तौर पर अंग्रेज़ जाति तथा पश्चिमी सभ्यता के भक्त हो जाते हैं।
इसी वज़न पर एक दूसरे विद्वान का मत अपने-आप से बड़ा पुष्ट दिखलाई देता है। उनका खयाल था कि भारतीय अपनी विभिन्न भाषाओं और जातियों के दायरे में बंधकर जितना ही अलग-अलग रहें उतना ही ब्रिटिश शासन के लिए शुभ होगा। इसी विद्वान ने यह भी कहा था कि अंग्रेज़ी भाषा की एक सूत्रता से बंधकर भारत की राष्ट्रीय भावना जाग उठेगी। दोनों की बातें सच हुईं और साथ सच हुई। बादशाही के अनियंत्रित शासन के बाद ब्रिटिशों की ‘डिसिप्लिन’ हर अंग्रेजी पढ़ने वाले युवक को पसंद आनेवाली वस्तु थी। यह बिल्कुल सच बात है कि सामंती हुकूमतों के बहुत बुरे शासन-प्रबन्ध के बाद अंग्रेज़ों का शासन प्रबन्ध हिन्दुस्तानी जनता को बहुत भाया था। रास्ते बटमार-डाकुओं से साफ हो गए थे। बाजार-हाट में प्रजा की सुरक्षा थी। दासों में भी अच्छा जीवन बिताने की इच्छा तथा अच्छे-बुरे मालिक की पहचान तो आखिर होती ही है, सदियों के दास भारत ने अपने पुराने मालिकों से नये मालिक को लाखगुना बेहतर समझा और सराहा। हिन्दी के भारतेन्दु-कालीन कवियों के प्राय: सभी ने मलका विक्टोरिया के राज को सराहा है। गदर के तुरन्त बाद ही भारत में अंग्रेज़ी और मलका विक्टोरिया के प्रति सहसा इतना आदर और भक्ति उमड़ पड़ना पहली दृष्टि में आश्चर्यजनक लगता है। भारतेन्दु, प्रतापनारायण मिश्र आदि अंग्रेज जाति के चाटुकार न थे मगर अंग्रेजी शासन के वे सभी गहरे भक्त थे। उनकी राजभक्ति में यही भक्ति बोलती थी।