बाब / प्रताप सहगल
सुबह की सैर से लौटकर सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था कि मोबाइल बजने की आवाज़ सुनाई दी। मैंने कदमों की रफ़्तार तेज़ कर दी, दरवाज़ा खोला, मेज़ पर रखे मोबाइल की ओर बढ़ा। देखा स्क्रीन पर बाब का नाम चमक रहा था? पीछे आती पत्नी मीरा ने घर में प्रवेश करते-करते पूछा-”कौन है?” “बाब”...मैंने कहा। फोन बजता रहा । मीरा ने कहा, “सुन तो लो”। मैंने जवाब दिया, “नाश्ता-वाश्ता करने के बाद फोन कर लूँगा” और फोन बज-बज कर खामोश हो गया।
सुबह-सुबह बाब का फोन बेसबब नहीं बजता था। सबब यानी उसका कोई बहुत ज़रूरी काम, जो मेरे लिए बहुत ही ग़ैर-ज़रूरी, वक़्त ज़ाया करने वाला और कई बार ऊब तथा खीझ पैदा करने वाला होता था। मसलन कई बार उसे अपनी दुकान के लिए इश्तिहार या मैटर बनवाना होता था, तो कई बार देश-प्रेम के प्रचार का। उसे अपने देश से बड़ा प्यार था और वह इस प्यार का प्रदर्शन भी बार-बार करता रहता। उसे लगता कि सभी राजनीतिक दल मिलकर देश की लुटिया डुबो रहे हैं, तो क्यों न एक ऐसा राजनीतिक दल बनाया जाये, जिसमें सिर्फ़ वही लोग शामिल हों, जो निस्पृह भाव से काम करें। उस राजनीतिक दल का एजेण्डा भी एक बार वह बना लाया, जो डायरी के कई पृष्ठों में ऐसे फैला हुआ था कि उसका सिर-पैर जो भी पकड़ सके, वह महान योद्धा कहलाए। वह चाहता था कि उसने जो भी ऊट-पटाँग लिखा है, मैं उसे एक तरतीब दे दूँ। फिर वह बड़े-बड़े नाम फेंकता कि फलां-फलां तो आनन-फानन में हमारे इस दल में शामिल हो जायेंगे। मेरा उसे यह समझाना अखरता कि कोई भी राजनीतिक दल ऐसे नहीं बनता, उसके लिए बहुत ग्राउंड-वर्क करना होता है। लोगों के बीच घूमना पड़ता है, उनकी समस्याओं से जुड़ना पड़ता है, उनका विश्वास जीतना पड़ता है। “पुख़्ता राजनीतिक दल के लिए वैचारिक आधार ले लो, देश का भला हो, समाज का भला हो, बस...जल्दी से इसका कार्यक्रम बना दो, मैं अभी यहीं से प्रेस में जाकर छपवा लाता हूँ...तुम लिखो, तब तक मैं नाश्ता कर लेता हूँ” और वह मीरा की ओर मुख़ातिब हो जाता-”भाभी जी, क्या खिला रहे हो” मीरा को मालूम था कि वह सुबह आयेगा तो नाश्ता लेगा ही, अगर शाम ढले आयेगा तो दो पैग पिएगा और खाना भी खाएगा। उसे भी कई बार उस पर खीझ थी और उस खीझ का ख़ामियाज़ा मुझे भुगतना पड़ता था। मैं मीरा की डाँट-डपट को याद कर ही रहा था कि फोन फिर बजा।
“उठातें क्यों नहीं” मीरा का डाँट भरा स्वर था।
“तुम्हीं तो कहती हो, उसे ज़्यादा मत चिपकाया करो, जब आता है, दो-चार घण्टे बर्बाद कर जाता है, और दो-चार घण्टे यूँ बर्बाद होने का अर्थ था पूरा दिन बर्बाद होना।”
“हाँ, हाँ, कहती हूँ, पर उसे कोई ज़रूरी काम भी तो सकता है।”
“ज़रूरी काम!” मैंने कहा-”याद है अभी पिछले इतवार ऐसे ही सुबह उसका फोन बजा था। हम अभी सोकर उठे ही थे। चाय पीने की तैयारी कर रहे थे, तभी, तभी बजा था फोन...मैंने उठा लिया।”
मेरे ‘हलो’ करते ही उसने बिना किसी भूमिका के कहा था-
“मैं बाब!”
“हाँ, हाँ बोल।”
“जल्दी से आ जा।”
“कहाँ?”
“थाने...मैं मायापुरी थाने में हूँ।”
मीरा ने चाय बनाते-बनाते पूछा-”क्या है?”
“बाब थाने में है...बुलाया है।”
मीरा भी चौंकी-”सुबह-सुबह, थाने में...कोई एक्सीडेंट हुआ है क्या?”
मैंने भी वैसे ही उससे पूछ लिया-”कोई एक्सीडेंट हुआ है क्या?”
“नहीं, तुम जल्दी से आ जाओ...यहीं सब बात बताऊँगा।”
“चाय!” मीरा ने चाय मेरे सामने रखी और पूछा-”जाओगे?”
“जाना तो पड़ेगा, बड़ी पुरानी दोस्ती है...पूरे तीस साल...”
“फिर कोई मुसीबत होगी?” मीरा ने कहा।
“जो भी हो...जाना तो पड़ेगा।”
चाय पीते-पीते मीरा कह रही थी-”हो न हो, नीलम से झगड़ा हुआ होगा।”
नीलम बाब की पत्नी थी। अपनी शादी की रजत-जयन्ती उन्होंने पिछले साल ही तो मनाई थी। हमें भी बुलाया था। उसके रिश्तेदार भी थे। दोस्तों में मैं ही था। साथ में मीरा। उसका एक दोस्त और भी था-बब्बर। बाब ने अपनी शादी की रजत-जयन्ती का न्यौता जिन शब्दों में दिया था, वे शब्द कुछ यूँ थे-”आज शाम को हम फ्लाइंग क्लब में मिल रहे हैं। आज मेरा मुक्ति दिवस है” ऐसा नहीं कि फ्लाइंग क्लब में वह हमें पहली बार बुला रहा था। इससे पहले भी हम कई शामें उसके साथ वहाँ गुज़ार चुके थे। उन शामों में उसके दो-तीन प्रिय विषयों पर ही बात होती। देश-सेवा, समाज-सुधार और फिर नीलम की तीखी आलोचनाएँ। नीलम को वह चुनिन्दा गालियाँ निकाल-निकाल कर अपने वैवाहिक जीवन के दुखड़े रोता। यह चुनिन्दा गालियाँ आलोचना में एक चटख रंगत पैदा कर देती थीं। नीलम की निन्दा करते-करते वह उसके बाप और भाइयों को लपेटने से कभी नहीं चूकता। धीरे-धीरे उसके बच्चे, खास तौर पर उसका जवान बेटा भी आलोचना के उस तल्ख़ दायरे में खासी जगह पा लेता।
हम उस रोज़ भी फ्लाइंग क्लब गये थे। बाहर लॉन में कुर्सियाँ लगी थीं और उसके परिवार के कुछ लोग वहाँ मौजूद थे। बेटा भी था, लेकिन नीलम और उनकी बेटी वहाँ नहीं दिख रही थीं। जाने से पहले हम दोनों ने सोचा था कि इस मौके पर उसे क्या तोहफा दिया जाये। कोई सुन्दर सी बेड शीट, घर की सजावट के लिए कोई कलात्मक वस्तु, शैम्पेन की बोतल या फिर एक खूबसूरत सा गुलदस्ता। बिस्तर के लिए बिछौने तो उसके पास एक से एक सुन्दर थे। भले ही उसे कला की बहुत समझ न हो, लेकिन कलात्मक चीज़ें उसके घर में बहुत थीं। सर्दियों के दिन थे। दिसम्बर का महीना। सर्दी अपने यौनव पर थी। ऐसे में अच्छे फूल भी दिल्ली में मुश्किल से मिल पाते हैं, लेकिन फूलों की एक महँगी दुकान पर अच्छे गुलाब मिल गये थे। हम गुलदस्ता बनवाकर वहाँ पहुँच गये थे।
गुलदस्ता बाब के हाथों में देते हुए मैंने पूछ ही लिया-”नीलम नहीं दिख रही।”
“आती होगी...आज के दिन भी उसे नाटक करना था।”
“तब क्यों मना रहे हो यह सब...”
“आज मेरा स्वतंत्रता-दिवस है” वह खांटी हिन्दी में बोला था।
“मतलब।”
उसने बगल में दबाए छोटे से थैले से कुछ काग़ज निकाले और कहा-”यह देख...हमारा एग्रीमेंट...आज से वह फर्स्ट फ्लोर पर रहेगी, मैं नीचे...देख...देख थाने में तय हुआ है सब...और कोर्ट में भी मैंने तलाक का मुकदमा दर्ज किया है।”
“यह तो तुम मुझे पहले भी बता चुके हो।”
“पर यह नहीं बताया कि कोर्ट में भी इसने लिखकर दे दिया है कि वह भी मेरे साथ नहीं रहना चाहती...लेकिन घर नहीं छोड़ती साली।”
“जायेगी कहाँ पर छोड़कर।”
“बहुत घर हैं इस कंजरी के, वो अब रखें न इसे” मुझसे रहा नहीं गया, मैंने कह ही डाला “यह शादी की रजत-जयन्ती मना रहे हो या मरण-दिवस।”
“स्वतंत्रता-दिवस” फिर वही जवाब और वह दूर से आते किसी मेहमान की ओर लपका।
मीरा खामोशी से खड़ी सब सुनती रही। उसके वहाँ से हटते ही बोली “हमें यहाँ नहीं आना चाहिए था।”
“न आते तो कल सवेरे ही आ धमकता घर में और सौ-सौ तरह से कोसता...”
मीरा परेशान हो गयी थी...”चलो उधर बैठते हैं” तभी ड्रिंक्स सर्व होने शुरू हो गये थे। हम दोनों ने अपना-अपना गिलास पकड़ा और खामोशी से पीने लगे। यह खामोशी सिर्फ बाहर ही नहीं, कहीं हमारे अन्दर भी उतर रही थी।
सामने गेट पर नज़र पड़ी, देखा नीलम अपनी बेटी के साथ आ रही थी। बाब अपने रिश्तेदारों और मित्रों के साथ व्यस्त रहा। उसने नीलम को देखकर भी अनदेखा कर दिया। वह सभी को ‘नमस्ते-नमस्ते’ करती और सबकी मुबारकबाद लेते-लेते हम तक भी पहुँची। ‘नमस्ते-नमस्ते’ के साथ ही वह हमारे पास ही बैठ गयी।
“यह सब क्या हो रहा है नीलम?” मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूछ लिया।
“यहाँ बात करना मुश्किल है, कल सुबह आपके घर आऊँगी, मिल सकेंगे न!”
मैंने मीरा की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।
“भाभी जी, आप भी ज़रूर रहें, वहीं बात करूँगी...पर यह बात इन्हें मत बताइए।”
“ठीक है”, कहकर हम दोनों ने इन्तज़ार करते बैरे की ट्रे से एक-एक गिलास और उठाया और धीरे-धीरे घूँट लेने लगे।
नीलम उठकर चली गयी। बाब हाथ में वही काग़ज़ पकड़े इधर-उधर सब को दिखाता घूम रहा था।
अगले दिन सचमुच नीलम हमारे घर आ पहुँची, उसकी बेटी भी थी उसके साथ। इससे पहले फोन पर उससे बातें होती रहती थीं। संक्षिप्त। वह अपने पति की कई आदतों से परेशान थी। यही कि उसके घर आने और जाने का कोई समय नहीं, कि देश और समाज-सुधार के चक्कर में हर साल दो-चार लाख रुपये डुबो देता है, कि वह रोकती है या कोई सलाह देती है तो उसे गालियाँ निकालता है और कभी-कभी मार-पीट करता है, कि पति-पत्नी के उनके बीच सम्बन्ध खत्म हो चुके हैं, कि उसके माँ-बाप और भाइयों को कोसने और गालियाँ देने का कोई भी अवसर नहीं चूकता, कि अपने बच्चों पर भी उसे भरोसा नहीं और इन्तहां तब होती है जब वह उन्हें अपनी सन्तान मानने से भी इन्कार कर देता है, कि अक्सर वह दोस्तों या इधर-उधर से किसी न किसी बहाने पैसे उधार माँग कर ले आता है। पैसे न लौटाने की स्थिति में वे पैसे उसे ही लौटाने पड़ते हैं, जो वह बड़ी मुश्किल से या तो बचा-बचा कर रख देती थी या फिर माँ से माँग कर लाती थी-पर वह यह सब कितनी बार करती। विस्तार से सब सुनने के बाद मैंने पूछा-”नीलम, इसमें मैं भला क्या कर सकता हूँ” तो उसका जवाब था “आप उसके दोस्त हैं, आपका उस पर प्रभाव है, वह आपकी बात सुनता है, उसे बताएँ कि वह ग़लत है।” मैंने मीरा की ओर देखते हुए कहा था, “उसे तो हम दोनों कई बार समझा चुके हैं, पर वो नहीं मानता। समाज-सुधार, देश-प्रेम का बहाना है, दरअसल वह कुछ भी उलटा-सीधा करके रातों-रात करोड़पति बनना चाहता है। उसने अपने मन में एक लक्ष्य पाल रखा है, किसी भी सफल व्यक्ति को देखकर, वह तुरन्त वैसा ही सफल हो जाना चाहता है, पर उस सफलता के पीछे मेहनत, समय और हालात के बारे में वह सोचता ही नहीं।” उसने फिर कहा-”आप ही उसे समझा सकते हैं, और हाँ, हो सकता है कल वह आप से भी पैसे उधार माँग ले, मत दीजिएगा...पैसा लौटेगा नहीं, तब मुझे मत कहिएगा” हम दोनों नीलम के चेहरे की ओर देख रहे थे। उसके चेहरे पर विक्षोभ, घृणा और उपेक्षा की मिली-जुली रेखाएँ उभरतीं और कौन सा भाव किस भाव में तिरोहित हो जाता, इसका अनुमान लगाना कठिन था।
लेकिन शायद चार या पाँच दिन बाद वह आया और उसने देहरादून में ज़मीन खरीदने, विकास करने और बेचकर करोड़पति बनने का सपना मेरे सामने परोस दिया और कहा-”एक प्लाट तुम्हारा, जल्दी ही दस हज़ार एडवांस दे दो।” मैं नहाने की तैयारी कर रहा था-मीरा और मेरी निगाहें क्षण भर के लिए मिलीं, दोनों की निगाहों में एक ही भाव “चक्कर में नहीं पड़ना” “मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं हैं”-मैंने कहा। “कोई बात नहीं, नहा लो, बैंक चलते हैं” वह बोला।
मुझे लगा कि वह मेरे बचने का कोई रास्ता छोड़ना नहीं चाहता तो मुझसे रहा नहीं गया-”देख भाई, लेन-देन की आयी बारी, समझो अपनी गयी यारी।”
“अरे सिर्फ़ दस हज़ार माँग रहा हूँ...इतना भी भरोसा नहीं, प्लॉट दूँगा, काट के बाकी दे देना” तब वह पंजाबी में बोला, “ए यारी ए या छोलयाँ दा वड्ढ।”
“जो भी समझ, मैं पहले ही भुगत चुका हूँ और प्लॉट-व्लॉट भी मुझे नहीं चाहिए।”
“सिर्फ़ दस हज़ार, क्या है तेरे लिए दस हज़ार, एक दिन में कमा सकता है तू...”
मैं चुप रहा। सोच रहा था कि वह जाये तो मैं नहा लूँ, लेकिन वह सोफे पर जमा रहा। मैं भी पूरी ढिठाई ओढ़कर नहाने के लिए बाथरूम में घुस गया। उस दिन नहाने में कुछ ज़्यादा ही वक़्त लगाया कि वह फ्रस्टेट होकर चला जायेगा, पर कितनी देर नहाता।
बाहर निकला तो भी विराजमान था। कुछ परेशान, कुछ मायूस सा बोला-”बात कुछ और है, जो तू मुझे पैसे नहीं दे रहा, वरना दस हज़ार तेरे लिए निकालना बायें हाथ का खेल है।” मेरा ध्यान अपने बायें हाथ की ओर गया, सही-सलामत था, पर वो खेल खेलने के लिए कतई तैयार नहीं था। अन्दर से मुझे उसकी हालत पर तरस आ रहा था। उसकी कोई जैनुइन ज़रूरत होती तो जैसे भी होता, पूरी करता, पर धन्धे में लगाने के लिए मेरे लिए पैसा लगाना, न मेरे स्वभाव में था, न मेरी ज़रूरत में।
हारकर उसने दूसरा पासा फेंका “चल, ऐसा करते हैं, तेरी भी पत्ती रख लेते हैं।”
“मुझे व्यापार करना नहीं आता, न मैं करना चाहता हूँ, मेरे पास जो है, मैं उसमें खुश हूँ...”
“अच्छा मेरे साथ चलेगा?”
“कहाँ”
“देहरादून!”
“किसलिए?”
“ज़मीन देखने।”
“क्या करूँगा देखकर?”
“अच्छी लगे तो खरीदना प्लॉट”
“मसूरी भी जाना है?” मैंने पूछा।
शायद घुमन्तू कीड़ा अन्दर कुलबुला उठा था।
“कहोगे तो, वहाँ भी।”
“घूमना मुझे अच्छा लगता था, इससे पहले भी मैं देहरादून और मसूरी घूम चुका था, फिर भी उसकी इस चाल में फँस ही गया।
“कैसे चलेंगे?”
“शताब्दी से।”
“वो तो निकल चुकी होगी?”
“कल सुबह चलेंगे न...मैं तुम्हारे पास साढ़े पाँच बजे आऊँगा, तैयार रहना।”
इस बार मीरा बोली, शायद वह मुझे बचाना चाहती थी।
“सारा खर्चा तुम करोगे बाब!”
“हाँ, हाँ, मैं करूँगा”, कहते हुए उसने अपना चौड़ा हाथ अपनी चौड़ी छाती पर मारा।
और अगले दिन सुबह साढ़े चार बजे ही फोन की घण्टी घनघना उठी थी।
मुझे थोड़ी देर से उठने की आदत थी। पर उठा, फोन उठाया, उधर से बाब ही था।
“भूले तो नहीं न, तैयार हो जा, मैं आ रहा हूँ।”
वह सचमुच साढ़े पाँच बजे मेरे घर के नीचे अपनी गाड़ी में बैठा हॉर्न बजा रहा था।
बाब की हर हरकत के पीछे एक दास्तान होती थी। यहाँ भी थी। स्टेशन पर पहुँचते ही मैंने पूछा था-”बोगी और सीट नम्बर क्या है?”
“सारी गाड़ी अपनी है।”
“मतलब?”
“मतलब, टिकट रिज़र्व करवाने का टाईम नहीं मिला।”
“फिर?”
“चलेंगे...सब टी.टी. अपने हैं, कई बार जा चुका हूँ।” मुझे यह अजीब लगा था। ऐसा करना तो क्या, ऐसा सोचना भी मेरे स्वभाव में नहीं था। मुझे याद है एक बार मैंने परिवार सहित बम्बई-गोवा घूमने का कार्यक्रम बनाया था। टिकट मिले, लेकिन प्रतीक्षा-सूची में। छह लोग ही हमसे ऊपर थे। पूरी उम्मीद थी कि समय रहते आरक्षण आसानी से मिल जायेगा। दरअसल दिसम्बर के आखिरी हफ़्ते में हमें दिल्ली से रवाना होना था। हम भी नया साल गोवा में मनाना चाहते थे। धीरे-धीरे प्रतीक्षा सूची में हमारा नम्बर एक, दो, तीन, चार हो गया। वो ऐसा हुआ कि आखिरी वक़्त तक वहीं लटका रहा। ठीक छह घण्टे पहले पता चला कि हमारे दो टिकट आर.ए.सी. में आरक्षित हो गये हैं। उम्मीद बँधी, सामान बाँधा, स्टेशन पहुँचे। आरक्षरण-चार्ट देखा। मैं स्तब्ध था। वहाँ हमारे नाम अभी भी एक से चार प्रतीक्षा-सूची में टँगे हुए थे। कम्प्यूटराइज्ड व्यवस्था में यह गोलमाल कैसे हुआ, यह आज भी मेरे लिए एक रहस्य की बात है। टी.सी. से बात की वह पहले ही लोगों से घिरा और झल्लाया हुआ था। बच्चों की राय थी कि गाड़ी में चढ़ जाते हैं, देखा जायेगा। लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पड़ी, मैंने उन्हें कहा-”कोई और गाड़ी होती तो यह जोखिम ले लेते, लेकिन यह राजधानी है।” ट्रेन हमारे सामने ही चल दी। हम घर के बूद्धू घर को आये।
और यह बाब! कैसा आदमी है। बिना टिकट ले जाना चाहता है देहरादून और वो भी शताब्दी एक्सप्रेस में।
मैंने साफ इनकार कर दिया, पर पता नहीं कहाँ से वह एक टिकट पैदा कर लाया, किसी ओर के नाम का था, पर टिकट तो था। सो एक ही बेनामी टिकट पर हम दोनों शताब्दी में सवार हो गये थे।
उसके किस्से बराबर चलते रहे, मुझे नहीं मालूम उसने टी.सी. को कैसे फिट किया। नाश्ता मिला और खाना भी।
मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि तब राजधानी में बम्बई न जाकर मैंने ठीक किया था, या अब उसके साथ शताब्दी में जाकर ठीक कर रहा था।
उस दिन तो हम सही-सलामत देहरादून पहुँच गये, लेकिन कुछ दिनों बाद वह मेरे घर आया था। आँखें सूजी हुई थीं, पर वैसे नार्मल ही दिख रहा था। यह तो उसने आकर बताया कि उसी देहरादून वाली शताब्दी में उसकी पिटाई की गयी थी-”सालों ने मारा भी ऐसा कि दर्द बहुत है, लेकिन बाहर से शरीर पर कोई चोट नज़र नहीं आती” वह रेलवे पर मानहानि का दावा ठोंकने के लिए तैयारी कर रहा था और इसमें मेरी मदद चाहता था। मैंने उसे समझाया भी कि ग़लती उसी की रही होगी और पब्लिक सर्वेंट को एसाल्ट करने का मुकदमा वे भी तुम कर सकते हैं, पर वह टस से मस नहीं हुआ। जैसा उसने कहा, वैसा ही एक विरोध पत्र बनाकर मैंने उसे थमा दिया और ताकीद कर दी कि भविष्य में वह इस सिलसिले में मुझसे कोई बात न करे। मुझे नहीं मालूम कि बाद में उसने केस दर्ज करवाया था या नहीं।
नाश्ता करने के बाद बाब को फोन करने के लिए मैंने अपना मोबाइल उठाया ही था कि लैण्डलाइन की घण्टी बजी। मैंने पहले उसी से फोन सुनना चाहा। उठाया। उधर से आवाज़ आयी-”मैं चैरी बोल रहा हूँ...सुबह से कई बार फोन किया।”
“हाँ...हाँ, हम सैर को निकले थे, आज सैर लम्बी की...बोल...।”
“अंकल, पापा इज़ नो मोर।”
“क्या!” कहने के साथ ही चोगा हाथ से गिरते-गिरते बचा। मीरा ने पूछा “कौन है।”
मैंने हाथ से ही उसे बरजते हुए चैरी से कहा-”कब, कैसे” मैं सचमुच सकते में था।
उधर से चैरी बता रहा था-”अंकल वो दो दोस्तों के साथ हरिद्वार गये थे, वहीं उन्हें अटैक आ गया और बस...ही इज़ नो मोर।”
“बॉडी?”
मीरान हैरान खड़ी सुन रही थी। मैंने फोन का स्पीकर खोल दिया-”दिल्ली ला रहे हैं...पहुँचने वाले ही होंगे।”
“आगे?” मैंने पूछा।
“शाम को चार बजे घर से चलेंगे।”
“आता हूँ”, कहकर मैंने फोन रख दिया।
“बाब नहीं रहा” मैंने मीरा की उत्सुक निगाहों में फैले सवाल का जवाब दिया। वह भी खामोश हो गयी। हम दोनों सकते में थे। जैसे कोई बड़ा सदमा लगा हो।
चैरी बाब का बेटा था। मुझे याद आया, जब पैदा हुआ था वो तो बाब बेहद खुश था और उसने मुझसे ताक़ीद की थी कि मैं उसे उस बच्चे का ऐसा नाम सुझाऊँ, जो हमारे देश के चारों प्रमुख धर्मों का प्रतिनिधित्व करता हो। उस नाम में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई-चारों समाहित हों।
मैं तब बहुत विचलित हुआ था यह सोचकर कि कैसी विडम्बना है कि नाम से धर्म की पहचान होती है, जाति की पहचान होती है और इन्हीं आधारों पर देश, समाज और व्यक्तियों की लड़ाइयाँ लड़ी जाती है और उन लड़ाइयों में इंसानियत मरती है। पर यह एक सच्चाई है, इससे मुँह मोड़ सकना सम्भव नहीं।
उस दिन वह आया था और हम तीनों ने मिलकर उस बच्चे का नाम तय किया था-चैरी नवीन मोहम्मद सिंह। जो भी सुनता वह हँसता भी, चौंकता भी कि यह कैसा नाम है। पण्डित ने नामकरण केवल नवीन के नाम से ही किया था लेकिन बाब ने अपने बेटे का यही नाम प्रचलित किया।
बाब ने अपना नाम भी खुद ‘बाब’ तय किया था। माँ-बाप ने उसका नाम नन्दकिशोर रखा था और वह एन.के. बाब या फिर सिर्फ़ बाब के नाम से ही जाना जाता था। बाब ऐसा संकल्पशील था जो संकल्पों से जल्दी ही विचलित होता रहता। आज यह एक संकल्प तो कल दूसरा। संकल्प लेकर मंज़िल पहुँचने की ज़िद हवा में ज़्यादा रहती। उसे पूरा करने के लिए जिस योजना, उद्यम और नैरंतर्य की ज़रूरत होती है, उनके आसपास ही घूमकर रह जाता था पर वह एक ज़बर्दस्त गेट क्रैशर था। यूँ तो उसने जीवन में कई बार गेट क्रैश किया था, लेकिन दो बड़े गेट क्रैश बड़े दिलचस्प हैं। पहला जो मुझे बताया गया। बताने वाले से सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के महासचिव। वे मेरे सहयोगी सहकर्मी थे। बाद में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति बने। एक दिन मिले, कहने लगे-”आपका यार बाब बड़ा ज़बर्दस्त आदमी है” “क्या हुआ?” मेरी उत्सुकता कुछ बाहरी थी, क्योंकि अन्दर से मैं जानता था कि बाब कुछ भी कर सकता है। उन्होंने बताया-”क्या बताऊँ, वो इतनी बड़ी सुरक्षा को चीरता मंच तक आ पहुँचा।”
“कौन सा मंच?”
दरअसल अखिल भारतीय स्तर पर आर्य समाज स्वामी दयानन्द का बोधि-दिवस मना रहा था। आर्य समाज द्वारा शिवरात्रि मनाने का ढंग। उस उत्सव में तब देश के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी प्रमुख अतिथि थे। सुरक्षा कवच मज़बूत था “न जाने कैसे वह उस मज़बूत सुरक्षा कवच को भेदकर मंच के पीछे पहुँच गया। वहीं से उसने अपना विज़िटिंग कार्ड राजीव गाँधी तक पहुँचा दिया। उन्होंने कार्ड देखा। उनके चेहरे पर हल्का सा स्मित फैला। उन्होंने संदेश भिजवाया-रुकें। बाद में मिलता हूँ।
वहाँ मौजूद सभी लोग हैरान थे। कार्यक्रम के बाद राजीव बाब के पास आये। बोले “हाऊ आर यू बाब...कभी ऑफिस में मिलो” इससे पहले कि बाब कुछ कह पाता, सुरक्षाकर्मी राजीव गाँधी को गाड़ी की ओर ले गये।
दूसरी बार मैं उसका लोहा तब माना गया, जब उसने हमारे सारे परिवार को बिना टिकट किसी विदेशी स्टार का रॉक शो दिखा दिया। वो रॉक शो इन्दिरा गाँधी इनडोर स्टेडियम में होने वाला था। टिकटों का मूल्य हज़ारों में और वे भी अनुपलब्ध। मेरे दोनों बच्चे परेशान कि पापा यह रॉक शो ज़रूर देखना है। कोई निमन्त्रण-पत्र मिलने का तो प्रश्न ही नहीं था। मैंने बाब से कहा-”यार बच्चे बहुत परेशान कर रहे हैं, यह रॉक शो देखने के लिए, कुछ करो।”
बच्चों ने भी अंकल बाब को मस्का लगाया।
रॉक शो वाले दिन शाम सात बजे उसका फोन आया “तैयार हो जाओ, चलते हैं।” मैंने जल्दी से बच्चों को तैयार किया। वो अपनी गाड़ी लेकर ठीक सात बजे आ गया, बोला-”चलो, यह रॉक शो ज़रूर देखेंगे, बस अपनी गाड़ी मेरी गाड़ी के पीछे रखना और किसी से कोई बात मत करना।”
“ठीक है।”
रॉक शो के लिए इतने लोग कि ट्रैफिक जाम। जैसे-तैसे स्टेडियम के बाहर पहुँचे। जगह-जगह सुरक्षा। टिकटों की चेकिंग...कई नाके थे...पर पता नहीं, वो क्या मन्त्र पढ़ता, कहीं कोई कार्ड दिखाता और पार, पीछे-पीछे हम...आखिरी नाके पर सुरक्षाकर्मियों ने रोकना चाहा, उसने उनकी तरफ देखा तक नहीं, मैंने भी नहीं देखा और गाड़ी पार्किंग की ओर। वहीं से स्टेडियम के अन्दर घुसे। बुरा हाल था, वहाँ हज़ारों की संख्या में खड़े लोग उस विदेशी नृत्यांगना के जलवों और संगीत पर थिरक रहे थे। यह किस्सा अलग है।
मैंने मीरा से कहा-”कपड़े बदल लो, चलते हैं।”
उसने कहा-”नहीं, आज कॉलेज जाना बेहद ज़रूरी है, फिर उसकी बॉडी दिल्ली पहुँचने में वक़्त लगेगा, मैं कॉलिज हो आती हूँ, तुम तब तक महरियों से घर का काम करवा लेना...आकर चलते हैं।”
“ठीक है”, कहने के अतिरिक्त मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था। मैं जानता था कि घर के काम करवाने के सामने दूसरा हर काम स्थगित हो सकता था। हो सकता था नहीं, होना ही चाहिए। मीरा ऐसा ही सोचती थी।
मीरा के कॉलिज चले जाने के बाद न जाने बाब से जुड़ी कितनी स्मृतियाँ मेरे इर्द-गिर्द घूमने लगीं। चित्र पटल बने, मन पर एक हल्की सी तरेड़ दिखाई दी।
“हाँ, अब यह सम्भव नहीं था...” पर उस तरेड़ के बीच से कहीं मेरा कमीनापन झाँक रहा था। एक बात जो उसे मैं बताना चाहता था, अब कैसे बता पाऊँगा।
वो नीलम से झगड़ा करके अक्सर मेरे पास आता था। हमें उससे कोई सहानुभूति नहीं होती थी, क्योंकि हमें लगता था कि उसे बर्दाश्त करना आसान नहीं। दरअसल उसे ऐसा लगता भी था कि हम उसका पक्ष लेकर नीलम को समझाते नहीं, समझाने का मतलब लताड़ना। नीलम के अपने प्रति व्यवहार से यूँ तो मैं खुश नहीं था, लेकिन बाब द्वारा उस पर चरित्रहीनता की लगाई तोहमतों से मैं सहमत नहीं था। फिर भी, बातों-बातों में एक दिन जाने कैसे मैंने कह दिया “नीलम के साथ मेरी बहुत बातें होती हैं, हुई हैं, बस उसके साथ सोया ही नहीं” किसी भी पति के लिए ऐसी बात बर्दाश्त से बाहर थी, उसका चेहरा लाल हो गया था, पर वो खुद नीलम की इतनी निन्दा कर चुका था कि क्या करता, क्या न करता वही हालत में था। उसकी हालत जो भी हो, लेकिन मुझे मालूम था कि मैं झूठ बोल रहा हूँ और मालूम था कि इस बात से उनके सम्बन्धों में आया तनाव और बढ़ जायेगा लेकिन अब तो तीर कमान से निकल ही चुका था। उसके चले जाने के बाद मैं अपनी कमीनगी पर शर्मिन्दगी महसूस करता रहा। मीरा को बताया-उसने कहा-”ठीक नहीं किया तुमने, उसे बता दो कि तुमने यह बात झूठ कही है।” मीरा की बात से मैं सहमत था, लेकिन उसने मुझे अपनी सफाई देने का अवसर ही नहीं दिया।
मुझे उसके घर जाना, नीलम के सामने होना...साहस ही नहीं बटोर पा रहा था। हम सीधे श्मशान ही पहुँचे। वे पहले ही पहुँच चुके थे। उसके अन्तिम संस्कार की तैयारी हो रही थी। मन हुआ कि अभी जाकर उसके शव के पास बैठकर सच बता दूँ, लेकिन नहीं गया। बब्बर दिखा। उसी के साथ ही गया था वह हरिद्वार। मैंने पूछा-”बब्बर साहब! यह अचानक कैसे हो गया।”
“आपको तो पता ही है, हमेशा टेंशन में रहता था...घर के झगड़े और दुनिया जीत लेने का एम्बीशन। ज़मीन देखने जाना था अगले दिन देहरादून के पास...बस रात को खाने-पीने लगे। घर की बात छिड़ गयी...आवेश में आ गया...हाई ब्लड प्रेशर तो उसे रहता ही था...और भरोसा था उसे अपनी नैचरोपैथी पर। बस कहने लगा-”बायें बाज़ू में दर्द हो रहा है, ज़रा दबा दो” दबाया, थोड़ी देर आराम मिला, फिर वही...और बस हाँफने लगा, पसीने-पसीने...हमने जल्दी से टैक्सी मँगवाई, डाला...अस्पताल तक पहुँचने से पहले ही वह जा चुका था...डॉक्टरों ने देखा-जाँचा, पर सब बेकार...मैं तो कहता था इसे, दो रोटी तूने खानी है, दो उसने, चैन से रहो...आप तो उसके दोस्त हो सब जानते हो।”
पीछे से अन्तिम संस्कार के मंत्रोच्चार मेरे कानों में पड़ रहे थे। मैंने मुड़कर देखा। उसकी देह को चिता पर लिटा दिया गया था। अन्तिम दर्शनों के लिए उसके मुख से कपड़ा हटाया गया। मैंने झलक भर देखा उसका मुख पीला पड़ा हुआ था। इससे अधिक देखने का साहस मैं नहीं जुटा पा रहा था। मैंने जल्दी से अपना मुँह दूसरी ओर फ़ेर लिया।