बायोपिक बनाना आसान नहीं / जयप्रकाश चौकसे

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बायोपिक बनाना आसान नहीं
प्रकाशन तिथि : 13 जुलाई 2013


धावक मिल्खा सिंह के जीवन से प्रेरित विश्वसनीय फिल्म राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने बनाई है। इस समय ध्यानचंद, किशोर कुमार, गुरुदत्त पर बायोपिक बनाने के प्रयास हो रहे हैं। भारतीय सिनेमा के प्रारंभिक कालखंड में संत-कवियों के जीवन पर बायोपिक बनाए गए हैं। कुछ समय पूर्व कथा फिल्म के जनक दादा साहेब फाल्के पर मराठी भाषा में अत्यंत विश्वसनीय और प्रभावोत्पादक बायोपिक बनाया गया था। मराठी भाषा में संत ज्ञानेश्वर पर एकाधिक बार फिल्में बनी हैं। न्यू थिएटर्स कलकत्ता ने भी 'विद्यापति' पर फिल्म बनाई है और दक्षिण भारत में मीराबाई के जीवन पर बनी अत्यंत सफल फिल्म में सुब्बालक्ष्मी के गीत थे। साईं बाबा के जीवन से प्रेरित फिल्में भी बनी हैं। हमारे यहां संत-कवियों पर बनी फिल्में हमेशा सराही गई हैं, परंतु नेताओं पर बने बायोपिक सफल नहीं रहे। केतन मेहता ने सरदार पटेल पर फिल्म रची, श्याम बेनेगल ने सुभाषचंद्र बोस पर फिल्म रची और बाबा साहेब आंबेडकर के जीवन पर भी बायोपिक बना है। नेताओं पर अमेरिका में साहसी बायोपिक बने हैं और ऑलिवर स्टोन का 'जे.एफ.के.' मील का पत्थर है। भारत में इंदिरा गांधी पर बायोपिक कई बार घोषित हुआ है, परंतु बना नहीं।

दरअसल, भारत में बायोपिक पर सेंसर से अधिक खतरा अघोषित सेंसर शक्तियों का है, जो थोड़ी-सी हुल्लड़बाजी करके किसी भी फिल्म को रोक सकते हैं। गांधीजी पर अत्यंत प्रभावोत्पादक फिल्म सर रिचर्ड एटनबरो ने रची। पश्चिम के फिल्मकार और दर्शक बेबाक साहसी बायोपिक देखने के अभ्यस्त हैं और वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सच्चे अर्थ में मौजूद है। हमारे यहां सेंसर के चक्र के भीतर अनेक चक्र हैं और कहीं न कहीं फिल्मकार फंस सकता है। भारत इतिहासबोध के प्रति विशेष आग्रह नहीं रखता। इतिहास के नाम पर कपोल-कल्पित रचना ही सराही जाती है। हम अफसाना पसंद करने वाले लोग हैं और इतिहास को भी अफसाने के रूप में देखना पसंद करते हैं, जैसे के. आसिफ की 'मुगले आजम', जिससे अधिक विश्वसनीय आशुतोष गोवारीकर की 'जोधा-अकबर' थी और आजकल इसी नाम से दिखाया जाने वाला सीरियल असत्य भी है और फूहड़ भी। उसका मकसद केवल मुगलों को बदनाम करने का है। संत-कवियों पर बनी फिल्मों में संत और कवि के पास करिश्माई ताकत दिखाने का भी हमारे यहां लोकप्रिय प्रचलन है। गुलजार ने निर्माता प्रेमजी के लिए हेमामालिनी और विनोद खन्ना जैसे सितारों के साथ 'मीरा' बनाई, जिसमें पंडित रविशंकर का संगीत था। उन्होंने अपनी मीरा को उसके विशुद्ध मानवीय स्वरूप में प्रस्तुत किया, जिसके पास कोई करिश्माई ताकत नहीं है। नतीजा यह हुआ कि भव्य सितारा जडि़त विश्वसनीय फिल्म इतनी असफल रही कि बेचारे प्रेमजी फिर कोई फिल्म ही नहीं बना पाए। फिल्मकार महेश कौल के मित्र लेखक अमृतलाल नागर ने संत-कवि तुलसीदास पर बायोपिक के लिए महीनों परिश्रम किया और नागरजी सारी तैयारी के साथ लिखने अपने गृहनगर पहुंचे। महेश कौल की मृत्यु हो गई। अमृतलाल नागर ने पटकथा के अंदाज से प्रेरित शैली में अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास 'मानस का हंस' लिखा, उनकी अपनी पुत्री के पास फिल्म पटकथा का अनुभव है, परंतु अभी तक उस पर सीरियल भी नहीं बना पाईं। पूंजी निवेशक जी.एन. शाह उसे केवल दिलीप कुमार के साथ बनाना चाहते थे। सच यह है कि उपन्यास में युवा तुलसीदास का वेश्या के साथ प्रेम-प्रसंग है और ऐसा दिखाने पर हुल्लड़बाज फिल्म रोक देंगे। हमारे यहां धार्मिक उन्माद सत्य का अन्वेषी नहीं होकर सत्य पर परदा डालने वाला है। उम्र के किसी दौर में वेश्या प्रेमी होने के कारण तुलसीदास की रचना का मूल्य कम नहीं हो जाता। शरतचंद्र के जीवन पर फिल्म बनाते समय उनका वेश्यागमन दिखाने पर विवाद हो सकता है, परंतु क्या इस तथ्य से उनके साहित्य का मूल्य कम हो जाता है। एक विवादास्पद प्रसंग रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन में भी है, परंतु इससे उनकी महानता कम नहीं होती। जिस देश में पांच हजार वर्ष की सांस्कृतिक परंपरा है, जिसका मूल मंत्र 'सत्यम, शिवम, सुंदरम' है, उस देश में सत्य प्रगट करना या सत्य की अपनी रिभाषा प्रस्तुत करना आसान नहीं है। गौरतलब यही है कि कहां हम अपनी विरासत से दूर होकर दोहरे मानदंड के दलदल में फंस गए? इसी के बेबाक साहसी उत्तर में निहित है वर्तमान के अनेक सवालों के जवाब।