बारहखम्भा / भाग-7 / अज्ञेय
“लेकिन एक पुरुष को सूत्रधार बना कर कहीं आपकी भी वही गति न हो जो पिछले तीन हजार वर्ष से नारी की होती आयी है।” बरामदे की सीढ़ियों से उतरते हुए हेम ने मानो गुदगुदाने के अभिप्राय से कहा।
“नहीं, इसकी कोई आशंका नहीं है,” श्यामा ने उसके पार्श्व में चलते हुए उत्तर दिया।
“क्यों?”
“क्योंकि यह सौदा नहीं, 'एडवेंचर' है।” श्यामा ने मुक्त-भाव से कहा, और अचानक उसे मथुरा-पर्यटन की याद आ गयी, इसलिए उसके चेहरे की ओर देखते हुए मुस्करा कर जोड़ा, “समझे गुरु जी!”
“हाँ समझा।” हेम बोला, और शान्त हो गया। बँगले का दरवाजा बन्द कर वे सड़क पर आ गये। एक क्षण हेम ने सड़क के दोनों ओर दृष्टि डाली, मानो कुछ खोज रहा हो। फिर सिर को निश्चय का एक झटका दे कर उसने बायीं ओर चलना शुरू किया। श्यामा कदम मिला कर चल रही थी।
दो डग चल कर हेम ने बात का खोया सूत्र पकड़ा “बल्कि जितना आप समझाना चाहती होंगी, उससे कुछ ज्यादा ही समझा।”
श्यामा कुछ चौंकी। वह भूल चुकी थी कि किस क्रम में यह बात कही गयी। पर फिर याद कर मुस्कराते हुए बोली, “जब तक नारी न समझाये, तब तक पुरुष को समझने का कोई अधिकार नहीं। यह 'गेम' के नियम विरुद्ध है।”
हेम ने भी मुस्कराते ही उत्तर दिया, “लेकिन श्यामा जी, नियम-विरुद्ध होना एक बात है, और नियम के परे होना दूसरी। गेंद गड्ढे में गिर जाय तो खिलाड़ी को झुँझलाहट हो सकती है, पर गेंद को चैन मिलता है।”
“मैं समझी नहीं,” श्यामा के वाक्य में भोलापन था।
“यदि नारी स्वयं न समझ पाये, तो पुरुष का समझाना भी तो नियम-विरुद्ध है। है न?” कह कर हेम मीठी हँसी हँस पड़ा।
“यह पुरुष की अहंता है जो सोचता है कि नारी नहीं समझती। वह सब समझती है हेम बाबू, और समझ कर भी शान्त रह सके, इतनी शक्ति भी उसमें है।”
श्यामा की बात का उत्तर हेम के ओठों पर था, पर उसने मुँह नहीं खोला। केवल एक मन्द नीरव मुस्कान उसके चेहरे पर खेल गयी, और वह चुपचाप चलता रहा।
श्यामा ने कुछ देर अपेक्षा कर कहा, “कुछ कहा नहीं तुमने, आइ मीन, आपने?”
“इसलिए कि जो मैं कहने जा रहा था उसमें तीखापन था, शायद रात के ग्यारह बजे इस सुनसान सड़क पर चाँदनी के आलोक में वह तीखापन कड़वा हो जाता।”
“हो जाता तो हो जाता। उसका डर क्यों हो?”
पर श्यामा के इस आत्म-विश्वास और आत्मीयता-भरे वाक्य को शायद हेम सुन भी नहीं पाया, क्योंकि वह सोच रहा था कि यह बात भी कम अजीब नहीं है कि तीखापन छुपाना चाह कर भी वह छुपा न सका। लेकिन क्यों है उसके मन में यह तीखापन। अभी कुछ पल ही तो बीते हैं जब श्यामा के उत्फुल्ल और उल्लसित रूप से प्रेरित हो कर वह अपनी कोमलता प्रकट कर चुका है। यही नहीं, स्टेशन पर अचानक श्यामा को देख कर क्या वह प्रसन्न नहीं हुआ था? और फिर घर आ कर भी क्या वह श्यामा के आने की राह नहीं देखता रहा था? जब पूरा एक घंटा बीत जाने पर भी वह नहीं आयी, तभी तो वह नहाने उठा था। फिर जब वही श्यामा इस समय निर्जन क्षण में इतने निकट उसके साथ है तब उसके मुँह से ऐसे निर्लिप्त वचन क्यों निकल रहे हैं? उसे लगा कि उसका यह व्यवहार केवल एक पैंतरा है। पर यदि पैंतरा है तो किसके प्रति? क्या श्यामा के प्रति? उस श्यामा के प्रति जो अभी आध घंटे पहले उसके कमरे में स्पष्ट शब्दों में प्रणय-निवेदन कर चुकी है? नहीं, उसके साथ पैंतरे का क्या प्रयोजन? तो फिर, क्या अपने ही साथ वह प्रवंचना कर रहा है? कौन-सा भाव सत्य हैः वह जो उसके शब्दों में बाहर आ गया है, या वह जो उसके मन को अभी कुछ क्षण पहले एक हल्के, सुहाने रंग से रँगे हुए था, एक शान्ति दे रहा था कि जैसे सब-कुछ ठीक है, दुनिया आखिर कोई बहुत बुरी जगह नहीं है!
और तभी अचानक हेम ने एक नये रहस्य की उपलब्धि की : श्यामा को समीप पा कर उसके मन में वह भाव नहीं टिक पाता, जो उसकी अनुपस्थिति में होता है। और उसने चौंक कर पूछा : आखिर ऐसा क्यों है। उसके मन में जो एक मीठा आकर्षण है क्या वह इस स्वतन्त्र, स्वावलम्बिनी नारी के प्रति है, अथवा उसकी कल्पना की श्यामा कोई और है? तो क्या उसका आकर्षण आत्म-रति का ही परिवर्तित रूप है? हेम का मन हिल उठा : स्वरति! इसी से बचने के लिए तो वह युगों से अपने जीवन को निर्मम प्रयोगों में लगाता रहा है। क्या वह सारा प्रयास निष्फल ही हुआ! उसके मन में हाल ही में पढ़ी यह पंक्ति गूँज उठी : 'अहं! अन्तर्गुहावासी! स्व-रति। क्या मैं चीन्हता कोई न दूजी राह!'
हेम के मुख पर कष्ट झलक आया। उसने बढ़ते हुए मौन को यत्नपूर्वक तोड़ते हुए कहा, “कार होती तो हम लोग दूर चल सकते थे।”
“लेकिन मुझे इस समय पैदल चलना अच्छा लग रहा है। न जाने क्यों, कभी-कभी कार की गति मुझे अस्वाभाविक लगती है, वह सुख नहीं देती।”
“क्योंकि हर भारतीय मूलतः पदचारी है। कार हमारे जीवन का अंग नहीं बन सकी है।”
“फिर भी हम में से हर-एक कार रखने का सपना देखता है। है न?”
“सपना! खैर, सपने तक कोई हर्ज नहीं, कठिनाई तो यह है कि वह हमारे जीवन में अस्वाभाविक यथार्थ की भाँति उपस्थित है, और अपनी उपस्थिति से हमारी समझ को विकृत करती है, खंडित भी करती है। पश्चिम में कार का आविष्कार हुआ क्योंकि पश्चिम के जीवन में उसकी आवश्यकता थी, सामाजिक विकास के सहज चरण के रूप में उसका उदय हुआ। लेकिन भारत में उसका आगमन साम्राज्यवाद और आर्थिक विषमता के आगमन का ही अनुषंग है। उसकी जड़ें हमारे सामाजिक विकास में नहीं हैं। और जिस प्रकार आर्थिक विषमता ने हमारे समाज में एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जो भारतीय होने पर भी विदेशों का मुखापेक्षी था, उसी प्रकार एक ऐसे सांस्कृतिक दल को जन्म दिया जो नाम में भारतीय होने पर भी विदेशों की अन्धानुकृति को ही संस्कृति मानता है। इस दल का व्यक्ति कार चाहता है, इसलिए नहीं कि उसके जीवन में उसकी आवश्यकता है, वरन् इसलिए कि उसके बिना वह 'कल्चर्ड' कहलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता।”
और इतना कहने के बाद जब हेमचन्द्र ने साँस ली तो वह सहम गया। आखिर यह हो क्या गया है उसे? भला इस 'लेक्चर' की यहाँ क्या तुक थी? या कि आज उसका 'मूड' ही कुछ बिगड़ा है कि जब भी मीठी बात करने की सोचता है तभी खाली और रूखा-सा लग उठता है! लेकिन अपने 'मूड' के वश में हो जाना भी तो पराजय है। और उसका भी तो वही परिणाम है जो यन्त्र के वश में हो जाने का होता है। और हेम के मन ने सूत्र उच्चरित किया : विवशता का परिणाम सदैव एक ही होता है, उसमें मात्रा का ही भेद सम्भव है, प्रकार का नहीं। और मुक्ति-पथ के प्रयोगी को सभी विवशताओं से लड़ना है, मन की विवशता से भी। ...अगर यों ही वह बक-बक करता रहा तो यह श्यामा भला क्या सोचेगी! नहीं, वह श्यामा को शिकायत का अवसर नहीं देगा। उसने बड़े मीठे भाव से अपना एक हाथ श्यामा के कन्धे पर रख दिया, और कुछ और भी समीप आ कर चलने लगा।
उधर श्यामा सोच रही थी कि हेम की बात कठोर होने पर भी कितनी सच है। उसने भी तो चाहा है कि उसके पास कार हो। पर क्या उसे कार की आवश्यकता है? क्या उसके जीवन की गति का कार की गति से मेल है? और कार ही क्यों, वह दिन-भर जिन व्यस्तताओं से घिरी रहती है - क्लब, पार्टियाँ, पिक्चर, रेस्तराँ - यही नहीं, वे एकान्त घनिष्ठ मुलाकातें भी जिन्हें वह 'एडवेंचर' मानती रही है - क्या उनकी गति में उसके प्राणों की लय-ताल समा सकी है? क्या वह भी एक प्रकार का नशा नहीं है - अस्वाभाविक गति का नशा जो 'मेरी-गो-राउण्ड' में मिलता है? अप्राकृतिक विस्मृति का नशा जो शराब में मिलता है, असामाजिक विकृति का नशा जो वर्ग-भेद में मिलता है। तो क्या वह भी प्रमाद में डूब कर अपने आपको तोड़ती नहीं रही है, नशा नहीं करती रही है? फिर वह रमानाथ से किस बात में ऊँची है, फिर वह केतकी को 'फ्लर्ट' कैसे मान बैठी है! क्या वह स्वयं 'फ्लर्ट' नहीं करती रही है; हेम, रमानाथ, अल्ताफ - और सिहरते हुए उसने सोचा - और डी.पी.! फिर... फिर... क्या कहा था हेम ने? “यह हमारे शहरी जीवन की परिस्थितियों की सजा है कि हम उसे घटिया बनाते चलते हैं - और उस घटियापन पर झल्लाते भी चलते हैं।” ठीक ही तो कहा था। खुद उसी की यह झल्लाहट क्या ठीक वैसी ही नहीं है? बल्कि क्या मालूम इधर हेम की प्रतीक्षा में उसने जो राग-विह्वल मन से वे दिन काटे हैं वह भी मात्र आवरण न हो, उसके नीचे भी कहीं यह घटियापन न हो! क्यों, बोलो, श्यामा! ठीक-ठीक सोच कर देखो, क्या चाहती हो तुम हेम से?
और तभी हेम का हाथ उसके कन्धे पर आ गया। उस मृदुल शीतल स्पर्श से उसका रोम-रोम भीग गया। चाँदनी का आलोक उसके मन में भी रस-वर्षा कर उठा। अपने ऊपर की उसकी झल्लाहट बह गयी और स्वयं उसकी भावनाएँ ही उसे सान्त्वना देने लगीं। उसे याद आया कि वह जिन्दगी से ऊब उठी थी; यह भी कि उस ऊब का कारण घटियापन की झल्लाहट नहीं, अकेलेपन की तीखी विवशता थी, वह विवशता जिससे बचने के लिए ही नशे की जरूरत होती है। उसे याद आया कि वह स्वतन्त्र है, और उसकी यह स्वतन्त्रता ही उसे नशे का आकर्षण देती है। असल में यह स्वतन्त्रता ही सबसे बड़ी विवशता है, यह स्वतन्त्रता मात्र भुलावा है। उसने कहीं पढ़ा था : 'फ्रीडम इज द रिकॉग्निशन ऑफ नेसेसिटी (आवश्यकता का अभिज्ञान ही मुक्ति है)' और क्या वह अपने व्यक्तित्व की सबसे बड़ी 'नेसेसिटी' को 'रिकॉग्नाइज' करने से इनकार नहीं करती रही है? ...पर नहीं, यह सब-का-सब वह दुबारा क्यों सोच रही है? क्या आज सवेरे वह यह निश्चय नहीं कर चुकी है कि उसे यह स्वतन्त्रता का भुलावा नहीं चाहिए, उसे घर चाहिए, उसे सहारा चाहिए, जिसके मध्य में वह मुक्त हो सके-सच्चे अर्थ में मुक्त-खुलेपन से अपना व्यक्तित्व बाँट सके, बिना इस डर के कि कोई लूट न ले!
पता नहीं हेम का हाथ हिला या वह स्वयं ही काँपी! उसने अपनी बड़ी-बड़ी गीली आँखों से पार्श्व में चलते मुक्त, प्रभावशाली हेम के व्यक्तित्व को देखा, वह श्रद्धा से, विश्वास से भर आयी। उसने हेम का हाथ अपने हाथ में ले लिया, और मुग्ध भाव से बोली, “हेम!”
हेम ने मानो उसे अपनी बाँह में लपेट कर कहा, “श्यामा!”
“इतने चुप क्यों हो, बोलो!”
“बोल ही तो रहा था। लेकिन मुझे लगा कि भाषा भी एक यन्त्र है, और कभी-कभी वह भी वश के बाहर हो जाता है। यही देखो न, हम आये तो थे 'प्लेजेण्ट टाइम' के लिए, और मैं हूँ कि 'लेक्चर' देने लगा!”
“नहीं हेम, वह 'लेक्चर' नहीं था, उसमें अनुभूति थी, उसमें मेरी जिन्दगी की तस्वीर थी। मुझे अच्छा लगा कि तुमने कहा। बल्कि जो तुमने कहा वह बात मेरी थी, पर मैं कभी कह नहीं पायी। मैं तुमको कैसे बताऊँ कि इधर कुछ दिनों से मैं यही सब सोचती रही हूँ। सोचती थी और तुम्हारी बाट देखती थी। पर तुम तो न जाने कहाँ रम गये!”
हेम बोला नहीं। दोनों एक-दूसरे से बँधे मुग्ध-शान्त चल रहे थे। उनकी सम्मिलित पग-ध्वनियाँ उस सुनसान में संगीतमय हो गयी थीं।
हेम कहने के लिए किसी बहुत ही मीठी बात ही खोज में था कि सहसा उसे याद आया कि उस दिन जब श्यामा रमानाथ के यहाँ गयी थी तो उसने झूठ बोला था कि वह घर जा कर सो रही थी - श्यामा को भेंट किया रमानाथ का चित्र, और श्यामा की डायरी के पृष्ठ - और स्टेशन पर श्यामा से मुलाकात उसे क्यों याद आयी? हाँ, ठीक है, श्यामा ने कहा था : वह किसी को 'सी-ऑफ' करने गयी थी! कौन था वह? अल्ताफ या कि कोई और जिसे वह नहीं जानता?
श्यामा ही दुबारा बोली, “सच हेम, तुम नहीं जान सकते मैं...”
हेम चौंक पड़ा। आज श्यामा को यह हो क्या गया है! ऐसी बातें करना तो उसका स्वभाव नहीं है। यह स्वर भी क्या उसी श्यामा का है जो उस दिन उसके घर पर केतकी को ले कर उसे क्या कुछ कहीं कह गयी थी! उसने तनिक झटके से ही उसे टोका, “श्यामा, यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि तुम अपने आपको कमिट करो। झोंक में किया हुआ काम बाद में कष्ट देता है।”
“झोंक नहीं है हेम, मैं जितना भी सोच सकती थी, सोच चुकी हूँ। मैं अपनी ओर से निश्चय कर चुकी हूँ।”
“लेकिन श्यामा, हो सकता है तुम स्वयं नहीं जानती तुम क्या चाहती हो!”
“जानती हूँ हेम, अच्छी तरह जानती हूँ...”
“नहीं श्यामा, तुम नहीं जानती!” हेम के स्वर में अनचाही दृढ़ता थी, “अगर जानती होती तो यह भी जानती कि वह मैं नहीं हूँ जिसकी तुम्हें जरूरत है।” और मन-ही-मन उसने जोड़ा : क्योंकि हेम उच्छिष्ट नहीं लेगा; और फिर उच्छिष्ट मन! जिसमें रस टिक ही नहीं सकता क्योंकि वह टूट चुका होता है।
“जल्दी न करो हेम, पहले पूरी बात सुन लो! मैं जो कहना चाह रही हूँ वह 'स्वीट कन्वरसेशन' नहीं है, न 'एडवेंचर' की झलक है। तुम्हारे पीछे मेरे मन में मन्थन होता रहा है। मैंने गहरे-से-गहरे पैठ कर अपने को पहचानने की कोशिश की है। मैंने पहली बार अपने को जाना है, अपने को पाया है। मैं इस तथाकथित उच्च संस्कृति की दलदल से निकल कर स्थिर, रसपूर्ण मिट्टी का जीवन चाहती हूँ। वह मुझे केवल तुम्हीं दे सकते हो।”
हेम झंकृत हो उठा। सचमुच, यह तो कोई नवीना अपरिचिता श्यामा है। यह वह मन नहीं है जो साबुन की चिकनाहट और चमक के नीचे कठोर वस्तु को ढक लेता है, यह तो सद्यः नवनीत-सा ही मीठा और कोमल मन है जो मानो उसकी कल्पना का ही एक अंग है। उसने एक स्थिर विस्मय-विमुग्ध चितवन से श्यामा को देखा। चन्द्रकिरणें उसके चेहरे को दीप्त कर रही थीं, और वह उनके प्रकाश में आत्म-विजयिनी, स्वयं-प्रकाशिता प्रेरणा के समान लग रही थी।
हेमचन्द्र झुक आया। इस अभिनव मुहूर्त को क्या वह ठुकरा देगी? क्या यह वही पल नहीं है जो जीवन में एक बार आता है, लेकिन केवल एक ही बार! क्या श्यामा का विगत इतना ही बड़ा है कि नव वर्तमान भी उसकी ओट हो कर ही रहे! अपने अविश्वास को जीवित रखने के लिए क्या वह मृत, मिथ्या की शरण लेगा! पर नहीं, यह अविश्वास नहीं, यह संयम है। और तभी उसके मन में कोई बोल पड़ा, “तुम ठीक जानते हो यह संयम है? आत्म-संचय की कृपणता नहीं है?”
हेम तड़प उठा। किसका वाक्य है यह? कहीं पढ़ा था उसने... नहीं, शायद किसी ने उससे कहा था, पर कब किसने? याद नहीं। लेकिन श्यामा को भी तो उत्तर देना है। उसके इतने घनिष्ठ आत्मोद्घाटन का प्रतिदान क्या यही पहेली-सा मौन है। नहीं, अब चुप नहीं रह सकते, हेम! नारी का अन्तरतम तुम्हें पुकार रहा है। उसे ग्रहण करो, उसका प्रत्याख्यान करो, पर उसकी अवहेलना नहीं करोगे, नहीं कर सकोगे! बोलो, बोलो...
“सहज ही इतना विश्वास तुमने मुझे दिया है श्यामा! इसका मुझे गर्व है। लेकिन शायद मैं इसके योग्य नहीं हूँ। कम-से-कम समर्थ तो नहीं ही हूँ।”
“तुम गलत समझे हेम! मैंने तुमसे सामर्थ्य नहीं माँगी। अभी इतनी 'बैंक्रप्ट' नहीं हूँ। मैं सहयोग चाहती हूँ... नहीं, सहयोग देना चाहती हूँ।”
हेम की आँखों के सामने से परदा हट गया। उसी का वाक्य है, उसी ने तो कहा था मथुरा-यात्रा में इसी श्यामा से, कि उसकी मैलोडी है आत्मसंचय। और फिर याचना-भरी मुस्कराहट से कहा था : 'मुझे सहयोग चाहिए, आत्म-मुक्ति के लिए, अपने संचय को खोल कर खेतों में बिखेर देने के लिए।' और भी तो कुछ कहा था, जिसके उत्तर में यही श्यामा खिलखिला कर हँस पड़ी थी : “जी गुरुजी!” तब श्यामा की उस खिलखिलाहट पर उसे करुणा आयी थी, यद्यपि उसने उसकी हँसी में ही योग दिया था, क्योंकि करुणा की अभिव्यक्ति तो वल्गर होती है!
पर आज वही श्यामा अपनी सारी परतों को उतार कर अपने शुद्ध मन को उसे सौंपना चाहती है तो वह उसे अस्वीकार करेगा? संचय को उन्मुक्त करने के लिए जो कुंजी चाहिए वह उसे आज मिल रही है फिर भी क्या वह चूकेगा, चूकना चाहेगा!
तो कह दे 'हाँ!' पर नहीं, सोचना जरूरी है ताकि किसी के साथ अन्याय न हो जाय। किसके साथ! उसका हाथ अपने आप कोट की चोर-जेब तक गया। हाँ, अब भी रक्खे हैं उसकी जेब में वे पत्र जो केतकी ने उसे इन अट्ठाईस दिनों में लिखे थे। पर उनसे क्या? उनमें तो उसने केवल अपने मन की व्यथा ही कही थी सरल, निश्चल भाव से, और उसका परामर्श-भर ही तो चाहा था! ...तो क्या उसने जान-बूझकर उनमें कुछ ऐसा भी पढ़ लिया है जो लिखा नहीं है। हो सकता है वह मात्र आरोप हो, विशुद्ध भाव-विलास! पर यदि उसका एक अणु भी सत्य हुआ तो वह किस उपाय से अपनी ग्लानि दूर करेगा?
हेम वीर है, वीरता ही उसका कवच है। और उसके पास कवच है इसको सिद्ध करने के लिए वह आघातों की सृष्टि करता रहता है।
“श्यामा, मैं कृतज्ञ हूँ। पर तुम पहले मुझे जान लो, यह जरूरी है। हो सकता है, फिर मुझे कुछ कहना न पड़े। और यदि कहना भी पड़ा तो वह तुम्हें अप्रत्याशित नहीं लगेगा। ...सबसे पहली बात तो यह है कि मैंने दिल्ली छोड़ देने का निश्चय कर लिया है।”
“क्या!”
“हाँ, श्यामा, कल दफ्तर में जा कर त्याग-पत्र दे आऊँगा। जिन्दगी में जितने भी काम हो सकते हैं, सब किये हैं। आतंकवादियों के साथ रह कर बम भी बनाये हैं और पिकेटिंग करके जेल भी गया हूँ।” फोटोग्राफर, पेंटर, टीचर, जर्नलिस्ट, वकील, क्लर्क - सभी रह चुका हूँ। यहाँ तक कि 'बिजनेस' भी की है। और ये सब करके सिर्फ इतना समझा है कि इनमें से कोई काम नहीं करना है। इन माध्यमों से मेरी आत्याभिव्यक्ति नहीं है।”
“तो फिर करोगे क्या?”
हेम कुछ कह रहा था, फिर एकाएक चुप हो गया। दो क्षण मौन चलने के बाद बोला, “यदि आपत्ति न हो तो आज लौटें - फिर किसी दिन बताऊँगा। या चाहोगी तो अभी लौट कर भी बातें हो सकेंगी।”
“चलो,” श्यामा ने मन्त्र-मुग्ध-भाव से उत्तर दिया।
बँगले के पास पहुँच कर हेम और श्यामा दोनों स्तब्ध हो गये। वे तो बत्तियाँ बुझा कर गये थे, फिर यह कौन आया?
हेम ने कहा, “मालूम होता है श्रीमान जंगबहादुर जी तशरीफ ले आये हैं।”
बिना किसी पूर्व-निश्चय के हेम और श्यामा ने एक-दूसरे का हाथ छोड़ दिया। धीरे-धीरे वे बरामदे में पहुँचे। हेम ने बढ़ कर दरवाजे के शीशे को उँगली की नोंक से थपथपाया, और द्वार खुलने की बाट देखता रहा।
पहले चटखनी की आवाज, फिर धीरे-धीरे दरवाजा खुला। अरे! केतकी! इस समय, यहाँ! - और यह क्या? उसकी आँखें डबडबा रही थीं और गाल भीगे थे।
“हेम, आई हैव बीन डाइंग टु मीट यू! जंगबहादुर को मालूम ही न था तुम कहाँ गये हो!”
हेम ने पलक मारते ही मुड़ कर कहा, “आओ श्यामा!”