बारहमासाः डॉ.कुँवर दिनेश सिंह / सुधा गुप्ता

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डॉ. कुँवर दिनेश सिंह की नव्यतम प्रकाशित हाइकु कृति 'बारहमासा' को पढ़ना एक अनूठा अनुभव है। कुँवर दिनेश की प्रस्तुति सदैव मनोहारी होती है जो उनके उच्च सौंदर्य-बोध और परिष्कृत, सुसंस्कृत अभिरुचि की परिचायक है। 'बारहमासा' की प्रस्तुति भी अत्यंत मनोरम बनी है।

प्रसिद्ध संत कवि बाशो ने कहा था कि जो हाइकुकार पाँच हाइकु लिख ले, वह कवि और दस लिखने वाला महाकवि होता है। इस उक्ति पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है! एक शुद्ध हाइकु लिखने के लिए कितनी साधना एवं एकाग्रता वांछनीय है! हृदय की गहनतम क्षण की अनुभूति को सार्थक सतरह वर्णों में प्रभावी ढंग से व्यक्त कर पाना निश्चय ही श्रमसाध्य है। हाइकुकार को संख्या पर नहीं, गुणवत्ता पर स्वयं को केंद्रित करना अभीष्ट है। उपर्युक्त सभी सत्य, पूर्ण गहराई से कुँवर दिनेश ने हृदयंगम कर लिये हैं, तब हाइकु की रचना कि है। निःसंदेह इस परिप्रेक्ष्य में कुँवर दिनेश अपने हाइकु सर्जन द्वारा प्रथम पंक्ति के हाइकुकार स्थापित हो गए हैं।

'बारहमासा' भारतीय काव्य परम्परा में विशेषतः प्रेम काव्य आख्यान में लोकप्रिय रचना शैली रही। कालान्तर में, आधुनिक काव्य-धारा में भले ही यह उपेक्षा कि शिकार हो गई; किन्तु लोक-संस्कृति तथा लोक-साहित्य में यह धारा अक्षुण्ण रूप से प्रवाहमान रही।

यह दुःखद है कि आधुनिक तथा उत्तर-आधुनिक युग का युवा-वर्ग अपने भारतीय मास (माह) के नाम भी नहीं जानता, तो फि़र प्रत्येक मास के ऋतु-परिवर्तन और प्राकृतिक परिवेश की परिवर्तित होती चित्र-पटी को क्या समझ / सराह पाएगा?

प्राचीन भारतीय काव्य-शास्त्र में ध्वनिकार आनन्द-वर्धनाचार्य ने काव्य की आत्मा 'ध्वनि' को घोषित किया था, वक्रोक्तिकार कुंतक या कुंतल ने काव्य की आत्मा वक्रोक्ति मानी थी, संपूर्ण काव्य-शास्त्र का केन्द्र बिंदु एक ही है-अभिधा से दूर, लक्षणा-व्यंजना प्रधान काव्य को श्रेष्ठ माना गया है। (अभिधा अधम, लक्षणा मध्यम, व्यंजना उत्तम')

डॉ.कुँवर दिनेश सिंह हिंदी-अंग्रेज़ी के विद्वान लेखक, उच्च शिक्षा से जुड़े, संवेदनशील कवि हैं। आपने हाइकु शैली में बारहमासा कि रचना कि है। इस कृति में प्रत्येक माह के नौ हाइकु दिए हैं। कुल संख्या 108 है , जो जप-माला के मनकों की याद दिलाती है। कुँवर दिनेश के हाइकु की विशेष उपलब्धि है-सांकेतिकता, ध्वन्यात्मकता, वचान-वक्रता, कुछ कही, कुछ अनकही-पाठक की निजी कल्पना पर भरोसा करते हुए छोड़ देना। यही एक श्रेष्ठ हाइकु के गुण हैं। आइए, इस पृष्ठभूमि में बारहमासा के कुछ हाइकु का अध्ययन-मनन करें। चैत्र माह का प्रथम हाइकु है-

देखो क्यारी में / गुलाबों की वाहिनी / है तैयारी में।

चैती गुलाब की सुषमा अनूठी है यह सर्वविदित है किन्तु यहाँ हाइकुकार का 'गुलाब की वाहिनी' प्रयोग गूढ़ार्थ लिये हुए है: गुलाबों की सेना सज गई! किसकी है यह सेना? ऋतुराज वसन्त की। किस पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से यह 'तैयारी' है? सम्पूर्ण चराचर जगत् पर फूल की पाँखुरी की भाँति धीरे-धीरे अर्थ खुलते चले जाते हैं और काव्यानन्द का चमत्कारी चरम-आनन्द उपलब्ध होता है। साधारणतः हाइकुकार गुलाब के आधिक्य, वर्ण आदि का सपाट वर्णन कर छुट्टी पा लेगा!

भौगोलिक परिवेश साहित्यकार की रचना में अनिवार्यतः गुँथा होता है। वैशाख मास में जब मैदानी इलाकों में धूल भरी गर्म हवाओं और सूर्य के ताप से मौसमी फूल झुलसकर झर जाते हैं, हिमाचल में तब वैशाख की शोख़ धूप प्रकृति में अजीब निखार ले आती है-

बादाम परी / वैशाख की धूप में / निखरी खरी।

यही धूप ज्येष्ठ मास तक आते-आते दाहकता से भर उठती है, पथ निर्जन हो उठते हैं, परिणामतः

दुपैरी सूनी / नभ-घोरी ने बाली / जेठ की धूनी।

घोरी और धूनी का प्रयोग द्रष्टव्य है। जेठ में दिन लम्बे और रातें छोटी हो जाती हैं, इस सत्य को हाइकुकार हाइकु में इस प्रकार प्रस्तुत करता है-

जेठ की घात / धीमे-धीमे से दिन / दौड़ती रात।

जेठ बीता, आषाढ़ आ गया। धूप बहुत तेज़ है, असह्य है; किन्तु सुखद भविष्य का संकेत भी आ रहा है, क्योंकि सावन के हरकारे आ पहुँचे-

हाड़ धूपिया / सावन हरकारे / फैलाते धुआँ।

इस हाइकु में मेघावली के घिर आने के लिए लक्ष्यार्थ निहित होने के कारण 'सावन के हरकारे' प्रयोग बड़ा चमत्कारपूर्ण है!

श्रावण माह की बात क्या कही जाए? सावन की झरी सम्पूर्ण प्रकृति को नवजीवन दान देती हैः

सावन झरी / लहरों की ताल पर / बने घुमरी।

अब भाद्रपद की बारी है-काली घन-घोर घटाओं ने अग-जग को घेर लिया-

सघन-स्याह / कृष्ण की कला लिये / भादों का माह।

हाइकुकार की 'काव्य-कला' प्रशंसनीय है-जल भरे काले बादलों को सीधे-सीधे 'काला' न कह कर 'कृष्ण की कला लिए' कहना वचन-वक्रता का सौंदर्य उद्घाटित करता है।

चित्र-पटी बदली। आश्श्विन के आने से शरद ऋतु का प्रारम्भ। वनांचल में पतझर की दस्तक। यही दस्तक आने वाले नवल प्त्रों की सूचक है।

शरद सीढ़ी / गिरे पत्तों पर चढ़े / नवल पीढ़ी।

उम्र अधेड़ / सोच में डूबे से हैं / ये गंजे पेड़।

'गिरे पत्ते' स्पष्टतः पुरानी पीढ़ी का निहितार्थ स्वयं में समोए है। पेड़ों के लिए 'अधेड़' और 'गंजे' का सम्मिलित प्रयोग सटीक, मौलिक होने के साथ-साथ एक कौतुक की सृष्टि करता है-अधेड़ आयु में मानव प्रायः गंजे होने लगते हैं!

कार्तिक माह की चाँदनी की शुभ्र शीतलता अनुपमेय हैः

पुण्या चाँदनी / आकाश कर रहा / अमृत वर्षा।

आग्रहायण आते-आते शीत का साम्राज्य स्थापित होने लगा-मानों शीत-वधिक के जाल में फँसकर धरती रूपी हरिणी निढाल होने लगी-

धरा निढाल / पाँव जमाता पाला / बिछाए जाल।

और भी, आग्रहायण की चांदनी रातों में उदार चन्द्रमा कि मेहमान-नवाज़ी सराहने योग्य हैः

रात में व्योम / सितारों की पंगत / सुधा दे सोम।

यह पृथ्वी बड़ी उदारमना, विशाल-हृदया है! प्रत्येक ऋतु का, परिवर्तन का खुले हृदय से स्वागत करने को तत्पर रहती है। पौष मास आ गया-विशिष्ट अतिथि के सत्कार के लिए कुछ विशिष्ट उपक्रम भी करने होते हैं (सो हिमांचल ने पूर्णिमा कि रात्रि का स्वागत करने हेतु इस प्रकार तैयारी की हैः

हिम की दरी / पूस में पृथ्वी पर / पूनम-परी।

यहाँ 'हिम की दरी' का साभिप्राय प्रयोग देखते ही बनता है-चादर का प्रयोग होने से बात नहीं बनती-सम्मानित लोगों के लिए उपयुक्त 'बिछावन' होना आवश्यक है! अतः हिम की श्वेत धवल दरी बिछा दी गई है-यहाँ 'दरी' शब्द से बर्फ़ के ठोसत्व का संकेत भी होता है!

माघ मास के चित्रण में कवि का मन बहुत रमा है। माघ अपने दल-बल सहित आ उपस्थित हुआः

शाखों पर झूल / चीड़ पर चमकते / बर्फ़ के फूल।

यही नहीं, माघ पृथ्वी के लिए वस्त्रें की सौगात भी ले कर आया हैः

माघ दर्शन / धरा ने धरा देखो / हिम वसन।

यमक के लुभावने प्रयोग ने हाइकु की खूबसूरती बढ़ा दी है!

अब माघ का एक सर्वथा नवीन रूप भी देखें। जब शत्रु का आक्रमण हो, तो उसकी तैयारी 'सामना करने की' भी डटकर की जानी चाहिए। माघ ने भी अपने महारथी को युद्ध हेतु पूरी तैयारी से प्रस्तुत किया है-

मेघ सारथी / अर्जुन वस्त्र धरे / माघ का रथी।

आशय 'अर्जुन' वृक्ष में नव पल्लव फूटने से है। वस्त्र धरे अब रथी है, तो सारथी भी अनिवार्य है, सो नीलवर्ण मेघ सारथी बन कर आया है ' माघ में हल्की वर्षा का कृषि-क्षेत्रें में विशेष महत्त्व है। प्रस्तुत हाइकु में योद्धा और सारथी का सम्पूर्ण चित्र (अखण्डित बिम्ब) उपस्थित हुआ है (साथ ही निहितार्थ (अंतर्भूत) अर्थ उद्भासित होते ही अपूर्व सौन्दर्य की सृष्टि होती है! अर्जुन, रथी, सारथी शब्दों के सतर्क चयन ने पौराणिक सन्दर्भ संकेतित किया है। अपराजेय पाण्डव अर्जुन रथी है, तो स्वयं घनश्याम (कृष्ण) मेघ सारथी बने हैं। इस हाइकु की व्याख्या / प्रशंसा में कई-कई पृष्ठ लिखे जा सकते हैं, किन्तु आलेख की अपनी सीमाएँ हैं।

प्रकृति अपना संतुलन स्वयं बनाए रखना जानती है। शीत ऋतु के आक्रामक प्रहार झेलने के पश्चात फि़र से सुहावनी अनुरागमयी हो उठी! वसंत की अगवानी हेतु मधु-माधव (पफ़ाल्गुन-चैत्र) प्रस्तुत हैं! प्राणों में मदिर संगीत की लहरियाँ उठने लगीं-

पौन फाल्गुनी / साँसों की सितार पर / छेड़े रागिनी।

सारांश यह कि कुँवर दिनेश ने धरती से गहरा नाता जोड़ा हैः प्रकृति के दृश्यों का वैविध्य-चित्रण प्रभावकारी है। संवेदनशील कवि, प्राकृतिक तत्त्वों / उपादानों में मानवीय चैतन्य का अनुभव कर, सीधे-सीधे (प्रत्यक्ष संवाद) स्थापित कर लेता है यही कारण है कि कुँवर दिनेश का बारहमासा जीवन्त हो उठा है।

एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि पौन, दुपैरी, घोरी-अघोरी, बलना-बालना, (जलना-ज्योतित करना) पाला, पंगत, धुंधेरी, घुमरी जैसे शब्द और दीपावली, मकर संक्रान्ति, माघ पंचमी जैसे सांस्कृतिक पर्वों का उल्लेख घरेलू आत्मीयता स्थापित करने के साथ-साथ घोषित करता है कि कवि किसी कल्पना-लोक का वासी नहीं वरन् इसी धरती का वासी है जिसकी जड़ें अपनी मातृभूमि में गहरी जमी हैं!


बारहमासा (हाइकु-संग्रह) : डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, पृष्ठ: 164, मूल्य: 225 / - (सिज़ल्द) , प्रथम संस्करणः2014, प्रकाशक-अभिनव प्रकाशन, 4424, नई सड़क, दिल्ली-110006