बारिश, धुआँ और दोस्त / प्रियदर्शन
वह काँप रही है। बारिश की बूँदें उसके छोटे से ललाट पर चमक रही हैं।
‘सोचा नहीं था कि बारिश इतनी तेज होगी और हवाएँ इतनी ठंडी।’
उसकी आवाज में बारिश का गीलापन और हवाओं की सिहरन दोनों बोल रहे हैं।
मैं खामोश उसे देख रहा हूँ।
वह अपनी काँपती उँगलियाँ जींस की जेब में डाल रही है। उसने टटोलकर सिगरेट की एक मुड़ी-सी पैकेट निकाली है।
सिगरेट भी उसकी उँगलियों में कुछ गीली सिहरती लग रही है।
उसके पतले होंठों के बीच फँसी सिगरेट कसमसाती, इसके पहले लाइटर जल उठा।
फिर धुआँ है जो उसके कोमल गीले चेहरे के आसपास फैल गया है।
‘आपको मेरा सिगरेट पीना अच्छा नहीं लगता है न।’
उसकी कोमल आवाज ने मुझे सहलाया।
यह जाना-पहचाना सवाल है।
जब भी वह सिगरेट निकालती है, यह सवाल जरूर पूछती है।
जानते हुए कि मैं इसका जवाब नहीं दूँगा।
लेकिन क्यों पूछती है?
‘मत दो जवाब,’ इस बार कुछ अकड़ के साथ उसने धुआँ उड़ाया।
मैं फिर मुस्कुराया।
‘आपकी प्रॉब्लम यही है। बोलोगे तो बोलते रहोगे, चुप रहोगे तो बस चुप हो जाओगे।’
मैंने अपनी प्रॉब्लम बनाए रखी। चुप रहा तो चुप रहा।
वह झटके से उठी, लगभग मेरे मुँह पर धुआँ फेंकती, कुछ इठलाती सी चली गई।
सिगरेट की तीखी गंध और उसके परफ्यूम के भीनेपन ने कुछ वही असर पैदा किया जो उसके पतले होठों पर दबी पतली-सी सिगरेट किया करती है।
यह मेरे भीतर एक उलझती हुई गाँठ है जो एक कोमल चेहरे और एक तल्ख सिगरेट के बीच तालमेल बनाने की कोशिश में कुछ और उलझ जा रही है।
हमारे बीच 18 साल का फासला है। मैं 42 का हूँ, वह 24 की।
बाकी फासले और बड़े हैं।
फिर भी हम करीब है। क्योंकि इन फासलों का अहसास है।
कौन-सी चीज हमें जोड़ती है?
क्या वे किताबें और फिल्में जो हम दोनों को पसंद हैं?
या वे लोग और सहकर्मी जो हम दोनों को नापसंद हैं?
या इस बात से एक तरह की बेपरवाही कि हमें क्या पसंद है और क्या नापसंद है?
आखिर मेरी नापसंद के बावजूद वह सिगरेट पीती है।
फिर पूछती भी है, मुझे अच्छा लगता है या नहीं।
मैं कौन होता हूँ टोकने वाला।
टोक कर देखूँ?
अगली बार देखता हूँ।
इतना पसीना कभी उसके चेहरे पर नहीं दिखा।
वह थकी हुई है, लेकिन खुश है।
शूट से लौटी है।
‘पता है, राहुल गांधी से बात की मैंने?’
‘अच्छा? आज तो जम जाएगी रिपोर्ट।’
‘रिपोर्ट नहीं, कमबख्त कैमरामैन पीछे रह गया था।’
‘मैं घेरा तोड़कर पहुँच गई थी उसके पास।’
‘क्या कहा राहुल ने?’
‘कहा कि तुम तो जर्नलिस्ट लगती ही नहीं हो।’
‘वाह, क्या कंप्लीमेंट है! और क्या खुशी है।’
मैं हँस रहा हूँ।
उसे फर्क नहीं पड़ता।
फिर उसके हाथ जींस की जेब टटोल रहे हैं।
फिर एक सिगरेट उसके हाथ में है।
और जलने से पहले धुआँ मेरा चेहरा हो गया है।
उसे एहसास है।
वह फिर पूछेगी - उसने पूछ लिया।
‘आपको अच्छा नहीं लगता ना?’
‘क्या?’ मैं जानबूझ कर समझने से बचने की कोशिश में हूँ।
‘मेरा सिगरेट पीना।’ वह बचने की कोशिश में नहीं है।
‘मैं बोलूँ, फेंक दो तो फेंक दोगी?’ मेरे सवाल में चुनौती है।
‘हाँ’, उसके जवाब में संजीदगी है।
‘फेंक दो।’ मेरी आवाज में धृष्टता है।
उसने सिगरेट फेंक दी हैं।
मैं अपनी ही निगाह में कुछ छोटा हो गया हूँ।
अक्सर ऐसे मौकों पर वह हँसती है।
लेकिन वह हँस नहीं रही।
उसके चेहरे पर वह कोमलता है जो अक्सर मैं खोजने की कोशिश करता हूँ।
उसे बताते-बताते रह जाता हूँ कि जब उसके हाथ में सिगरेट होती है, यही कोमलता सबसे पहले जल जाती है।
लेकिन यह कोमलता अभी मुझे खुश नहीं कर रही।
अपना छोटापन मुझे खल रहा है।
‘दूसरी सुलगा लो।’
‘वाह, मेरे ढाई रुपये बरबाद कराकर बोल रहे हैं, दूसरी सुलगा लो। फिर मना क्यों किया था?’
‘तुम मान क्यों गई?’
वह हँसने लगी। जवाब स्थगित है।
मैं चाहता हूँ, वह कोई उलाहना दे।
कहे कि मैं पुराने ढंग से सोचता हूँ।
लेकिन वह चुप है।
हम दोनों चुप्पी का खेल खूब समझते हैं।
चुप्पी जैसे हम दोनों की तीसरी दोस्त है।
उसकी उम्र क्या है, नहीं मालूम।
कभी वह 42 की हो जाती है, कभी 24 की।
लेकिन वह फासला बनाती नहीं मिटाती है।
हमारे बीच चुप्पी नहीं होती तो क्या होता?
शब्द होते।
वे दूरी बढ़ाते या घटाते?
वह जा चुकी है। उसके पास ऐसे सवालों से जूझने की फुरसत नहीं।
वह एक अच्छे वाक्य की तलाश में है।
इतनी संजीदा जैसे बरसों से तप में डूबी हो।
उसे एक कहानी हाथ लगी है।
‘कहानी क्या होती है?’
एक बार उसने पूछा था।
‘वह चीज, जिसके आईने में हम जिंदगी को नए सिरे से पहचानते हैं।’
सवाल खत्म नहीं हुआ था।
‘कहानी कहाँ से मिलती है?’
‘जिंदगी को करीब से देखने से, रुक कर, ठहर कर।‘
लगता है, वह जिंदगी को बेहद करीब से देख कर आई है।
उसके चेहरे पर जर्द-जर्द सच्चाई है।
उसकी काँपती उँगलियाँ स्क्रीन पर एक शब्द लिखती और मिटाती हैं।
मैं पीछे खड़ा हूँ।
‘कहाँ से शुरू करूँ?’ सवाल में कुछ बेचारगी है, कुछ मायूसी।
‘क्या हुआ?’
‘माँ-बेटे का मामला है। बेटा दो साल से पिता के पास रहा। अब ग्यारह बरस का है। माँ अदालतों के चक्कर काटती रही। अब सुप्रीम कोर्ट ने बेटे को माँ के पास जाने का आदेश दिया है।’
‘सही फैसला है।’
‘पता नहीं।’ उसकी आवाज में मायूसी है।
‘क्यों? महिलाओं के हक की तो बात सबसे ज्यादा उठाती हो तुम?’
यह ताना सुनने की फुरसत उसे नहीं है।
वह कहानी खोज रही थी।
जो कहानी मिली है, उसने बताया है, जीवन सरलीकृत रिश्तों से नहीं बनता।
‘यह इतना आसान नहीं है। माँ जब बेटे को अदालत से ले जा रही थी, लग रहा था, जबरदस्ती ले जा रही है। बच्चे को जैसे एक अनजानी औरत खींच कर ले जा रही हो।‘
‘माँ को विलेन बनाओगी?’
‘नहीं, माँ भी अपनी जगह ठीक है, उसे अपना बच्चा चाहिए। वह उस बच्चे से प्यार करती है।’
‘फिर गलत कौन है?’
‘आपने कहा था ना एक दिन, ‘गलत यह समय है, जिसमें हम और तुम जी रहे हैं?’
‘तुम यहीं से शुरू करो। कैसे वक्त ने माँ और बेटे को अजनबी बना डाला है।’
‘ठीक है’, वह अनमनी है।
जब कहानी मिली तो ऐसी मिली, जिससे आँख मिलाने से वह बच रही है।
उसकी आँखों में अटके हुए हैं दो बड़े-बड़े आँसू।
उसे कोई न देखे।
मैं दूर चला जाता हूँ।
बाहर धारासार बारिश हो रही है।
आसमान में जैसे काले हाथी दौड़ रहे हैं।
एक छोर से दूसरे छोर तक कड़कती बिजलियों के पीछे।
धरती से आकाश तक मोटी-मोटी बूँदों की एक तूफानी झालर टँगी हुई है।
यह झालर कभी-कभी हमारे चेहरों तक चली आती है
हमारी उँगलियाँ कभी-कभी उस झालर को छू लेती है।
हमारी निगाह आसमान पर है।
खिड़की से दिखते छोटे-से आसमान पर।
‘जानती हो, जब अचानक इस तरह मौसम खराब होता है तो मुझे लगता है, किसी के घर कोई बडा़ दुख घटा है।’
‘अरे आप तो बड़े ‘रैशनलिस्ट’ हैं? ऐसी बातों पर कब से भरोसा करने लगे।’
‘भरोसा नहीं करता। बस सोचता हूँ। शायद मेरी कई तकलीफों की याद जुड़ी है ऐसी घनघोर बारिश से।’
‘पता है, जब शाम को धूल का अंधड़ होता है तो मुझे क्या लगता है?’
‘अरे, तुम भी इस तरह प्रतीकों में सोचती हो?’
मेरे सवाल का जवाब देना उसकी आदत नहीं है। बस वह अपनी बात कह देती है।
‘ऐसे मौसम में लगता है, जैसे किसी ने किसी को धोखा दिया हो।’
‘अच्छा? क्यों लगता है ऐसा?’
‘इतना ही नहीं, पता है अचानक मुझे लगता है, मैं बहुत कमीनी हूँ। किसी को धोखा दे सकती हूँ।’
मैं उसका चेहरा देख रहा हूँ।
एक मासूम गोल चेहरा।
हँसती हुई आँखें भी मासूम।
न जाने एक हूक-सी मेरे भीतर उठती है।
क्या ये काले काले हाथी, ये बूँदों की झालर, ये सिहरती हवा
फिर मेरे लिए अपनी पोटली में कोई दुख छुपा कर लाए हैं?
लेकिन कैसा दुख? किस बात का?
ये लड़की मुझसे छल करेगी? कैसा छल?
मेरा तो इससे कोई वास्ता भी नहीं।
वह जोर से हँस रही है - लगभग बेकाबू।
अपने-आप से बेपरवाह ऐसी हँसी अच्छी भी लगती है, हैरान भी करती है।
‘एक जोक सुनाऊँ?’
‘जोक? सुनाओ?’
‘एक मंदिर था, वहाँ जानेवाले की नीयत अगर खराब हो तो वह गायब हो जाता था। शाहरुख खान गया, गायब हो गया, सलमान खान गया, गायब हो गया। इसके बाद बिपाशा बसु गई। इस बार पता है, क्या हुआ? भगवान गायब हो गए।’
इस बार साझा हँसी है।
‘ऐसे वाहियात चुटकुले कहाँ से लेकर आती हो?’
‘रोहित सुनाता है, उसने और भी वाहियात चुटकुले सुनाए हैं। आपको नहीं सुना सकती।’
मेरी हँसी में एक ग्रहण सा लग गया है। एक काली छाया। रोहित से इतनी घनिष्ठता का मतलब क्या है?
लेकिन मैं कौन होता हूँ टोकने वाला।
मैं अपनी मेज का सामान सहेजने लगता हूँ।
उसकी भी हँसी रुक गई है।
वह चुप है।
मुझे देख रही है।
यह वह चुप्पी नहीं है जो हमारी तीसरी सहेली है।
यह दुविधा से भरी चुप्पी है।
उसे अहसास है, चुटकुले की हँसी भाप बनकर उड़ गई है।
हमारे और उसके बीच रोहित के जिक्र की राख बैठी हुई है।
वह इस राख में और राख मिलाने जा रही है।
फिर से उसके हाथ में सिगरेट है। दूसरा हाथ लाइटर टटोल रहा है।
इस बार उसने नहीं पूछा है, मुझे उसका सिगरेट पीना अच्छा लगता है या नहीं।
क्यों पूछूँ मैं।
मन खराब हो गया।
इतने सीनियर हैं, इतनी किताबें पढ़ी हैं।
इतना कुछ जानते हैं,
इतनी छोटी सी बात नहीं समझते?
लेकिन ऐसा क्यों है?
किस बात से नाराज हुए वो?
क्या चुटकुला शरीफ लोगों का नहीं था?
या उन्हें ये पसंद नहीं आया कि रोहित ने मुझे ये चुटकुला सुनाया।
क्यों नहीं सुना सकता?
मैं 24 साल की हूँ।
जानती हूँ कि मुझे क्या सुनना और नहीं सुनना चाहिए?
ये भी तय कर सकती हूँ कि कौन मुझसे किस तरह की बात करे।
और रोहित पहले भी तो इस तरह की बात करता रहा है।
रोहित का खयाल बरबस मुस्कुराहट ला देता है।
है मजेदार। एक से एक किस्से सुना सकता है।
ऐसे किस्से तो मैं सर को भी नहीं सुना सकती।
जब वो सुनेंगे तो मुझसे तो बात ही छोड़ देंगे।
छोड़ो जाने दो।
रोहित का खयाल दिल खुश कर देता है
मेरे भीतर गुस्सा भाप बनकर उड़ने लगता है
वैसे सर ने भी ऐसा कुछ कहा तो नहीं ही
बस कुछ उदास हो गए होंगे
कि रोहित भी मेरा घनिष्ठ है
इतनी जलन तो सबमें होती है।
जाने दो।
वैसे सर भी अच्छे हैं
सीनियर हैं, लेकिन दोस्त की तरह पेश आते हैं।
कल वादा किया है कॉफी पिलाएँगे
कॉफी का नहीं, उनके लगातार बोलते रहने का सुख है।
उनको सुनना अच्छा लगता है
कल फिर उनके सामने सिगरेट सुलगाऊँगी।
लेकिन पूछ लूँगी
इतने भर से खुश हो जाएँगे।
कितनी चालाक हूँ मैं?
रात है, बाहर चमकती हुई रोशनियाँ हैं, कार के भीतर जगजीत सिंह की गजल है।
‘शीशे चढ़ा दो कार एक कमरे जैसी हो जाती है। मस्ती में गप करो, गाना सुनो।’
‘ये गाना नहीं गजल है।’
‘जो गाया जाए, वो गाना है। गजल क्या होती है?’
‘तुम्हारी समझ में नहीं आएगा।’
ऐसे तानों की उसे आदत पड़ चुकी है।
वह खिड़की के बाहर देख रही है।
हम दफ्तर से घर लौट रहे हैं।
‘पता है, आज वो स्टोरी हेडलाइन बनी।’
‘कौन-सी?’
‘वही माँ बेटे वाली। ग्यारह साल के बच्चे से नौ साल बाद मिली माँ। आपने बहुत अच्छी शुरुआत करा दी थी।’
‘स्टोरी भी धाँसू थी।’
‘लेकिन..’, वह फिर अनमनी है।
‘क्या हुआ?’
‘हम इतनी खबरें क्यों दिखाते हैं? क्या फायदा होता है इससे?’
‘मतलब?’
’किसी दूसरे की जिंदगी में झाँकना, पूछना, रिश्ता तोड़ते या जोड़ते हुए कैसा लग रहा है? कभी कभी मुझे रोने का मन करता है?’
‘तुम्हें? तुम तो बस रुलाने की एक्सपर्ट हो?’
लेकिन मेरी बात उसने सुनी नहीं है।
‘याद है, एक बार आपने मुंबई ब्लास्ट पर एक स्टोरी एडिट करने दी थी। वक्त पर नहीं हुई तो बहुत डाँटा था?’
मुझे याद है। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में घायल एक बच्चे की कहानी थी। हमने प्रोमो चलाया था, कि छह बजे दिखाएँगे। वह समय पर दे नहीं पाई थी।
‘पता है, मैं क्यों नहीं दे पाई थी?
उस पाँव कटे बच्चे की आँखें देखकर मैं रोने लगी थी। एडिट वे से भागकर चाय पीने के बहाने नीचे चली गई थी।‘
‘बताया क्यों नहीं था?’
‘क्यों बताती?’
‘लेकिन पत्रकार को क्रूर होना पड़ता है। डॉक्टर की तरह। रोएगा तो काम कैसे करेगा?’
‘मुझे न पत्रकार होना है न डॉक्टर।’
‘तो फिर आई क्यों इस फील्ड में?’
‘बस रोने के लिए। पता है, इस माँ-बेटे ने भी मुझे बहुत रुलाया। जब भी अपनी अनजान-सी माँ का हाथ थामे बच्चे को उसके साथ घिसटते देखती तो रोने लगती। बड़ी मुश्किल से एडिट किया।’
मैं उसे देख रहा हूँ।
यह लड़की हर बार जैसे कुछ नई हो जाती है।
इसे तो मैंने पहले नहीं देखा है।
एक बिंदास सी लड़की जो अपने ऐंडवेंचरस मूड की वजह से टीवी में चली आई।
बड़े घर की है, नई उम्र की है, दोस्तों के बीच खिलखिलाती है।
कुछ अंग्रेजी उपन्यास पढ़ लेती है और मेरे पास अपनी स्टोरी चेक कराने चली आती है।
खुद को मेरा दोस्त बताती है
और हँसती है, सबसे बूढ़े दोस्त हो आप मेरे।
यह रोती भी है? तस्वीरों में दिखता दुख इसे इतना छूता है?
गाड़ी रेडलाइट पर है। दोपहर होती तो तिल धरने की जगह न होती। रात है, इसलिए कम गाड़ियाँ हैं।
वह बाहर देख रही है।
‘शीशा गिराइए, शीशा गिराइए,’ जल्दी से उसने बटन दबाया है।
बाहर की उमस भरी हवा का झोंका भीतर आता है।
‘क्या हुआ?’
मेरे सवाल का जवाब देने की जगह वह दूर एक बच्चे को पुकार रही है।
एक नौ-दस साल के बच्चे को। वह ट्रैफिक सिगनल पर गजरे बेच रहा है।
‘तुम गजरा खरीदोगी?’ मैं हैरान हूँ।
‘वह मेरा दोस्त है।’
‘तुम्हारा दोस्त?’ मुझे पता है, यह लड़का रोज यहाँ गजरा बेचता है।
यह दोस्त अब शीशे के पास खड़ा है।
‘सुनो, तुम कल मेरे लिए गुलाब के फूल क्यों नहीं लाए थे?’
‘मैं आपके घर गया था। आप थी कहाँ?’ लड़के का जवाब है।
‘अरे हाँ, मैं सुबह निकल गई थी। तुम्हारे घर पानी आया?’ वह फिर पूछ रही है।
‘हाँ, अब आ रहा है।’
सिगनल रेड हो गया है। मैं असमंजस में हूँ।
‘कल सुबह जरूर ले आना फूल। फिर बात करेंगे।’ उसने शीशा चढ़ा दिया, मैंने गाड़ी बढ़ा दी।
उसका दुख छू-मंतर हो चुका है। चेहरे पर बिल्कुल बच्चों वाली हँसी है।
‘जानते हैं, आप मेरे सबसे बड़े दोस्त। ये मेरा सबसे छोटा दोस्त। रोज हमारी बात होती है?
मैं अवाक हूँ। पहले रोहित, और अब ये बच्चा। न जाने कैसी है ये लड़की।
और न जाने कैसा हूँ मैं।
मैं 42 का। वह 24 की।
कभी-कभी लगता है, वह 42 की है, मैं 24 का हूँ।
क्या हुआ जो मैंने इतनी ज्यादा किताबें पढ़ी हैं।
क्या हुआ जो उसने कम दुनिया देखी है।
गाड़ी उसके घर के सामने खड़ी है। वह चाबियाँ झुलाती हुई उतर रही है।
उसने हाथ हिलाया है। अब सीढ़ियाँ चढ़ रही है, 'कल मिलती हूँ।'
मैंने गाड़ी बढ़ा दी है।
देखें, कल कौन-सी लड़की मिलती है।