बालशिक्षा और लोकतंत्रीय संस्कार / ओमप्रकाश कश्यप

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लोकतंत्र की सफलता का मूलाधार है कि लोग उसको जानें. उसे अपने आचरण का हिस्सा बनाएं. इसके लिए जरूरी है कि उन्हें उसके बारे में संपूर्ण जानकारी हो. नहीं है तो बताया जाए. बताने का काम सरकार का है. उन लोगों का है जो खुद को किसी न किसी रूप में देश और समाज के प्रति जिम्मेदार मानते हैं. शिक्षा का अनिवार्य कर्म होना चाहिए कि वह बच्चों के लोकतांत्रिक प्रबोधीकरण पर ध्यान दे. उन्हें स्कूल के दिनों में ही सिखाया जाना चाहिए कि लोकतंत्र ऊपर से थोपी गई व्यवस्था नहीं है. बल्कि यह तो व्यवस्था के नाम पर शासक थोपे जाने, सत्ता-शिखर पर बैठकर मनमानी करने का विरोध है. यह व्यक्तिमात्र के विवेक का सार्वजनिकरण कर, उसे सामूहिक विवेक में ढालने की प्रणाली है. यही वह विधान है जिसको प्रबुद्ध नागरिक अपने कल्याण के लिए स्वेच्छाभाव से अपनाते हैं. जब उन्हें लगे कि सत्ता-शिखर पर विराजमान लोग अपने रास्ते से भटके हुए हैं, सही काम नहीं कर पा रहे हैं—तब बड़े बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से उन्हें अंगूठा भी दिखा देते हैं. लोगों की मर्जी से, उनके अनुशासन में जो सरकार बनती है, उसके लिए लोकेच्छा की अवहेलना करना संभव नहीं होता. इस तरह लोकतंत्र सरकार का सरकारीपन निचोड़कर उसे लोकानुशासन से बांध देने की व्यवस्था है. बच्चों को जान लॉक के उन शब्दों के बारे में भी बताया जाना चाहिए जिनमें उसने कहा है—

‘मनुष्य की नैसर्गिक स्वाधीनता के मायने हैं कि वह इस सृष्टि की किसी भी बलशाली शक्ति के नियंत्रण से बाहर है. वह किसी व्यक्ति के वैधानिक अथवा स्वयंघोषित अधिकार से भी सर्वथा मुक्त है. इनके बजाय मानवमात्र को केवल प्राकृतिक नियमों से अनुशासित होना चाहिए. समाज में मानवीय स्वाधीनता केवल और केवल ऐसी शक्ति से मर्यादित होनी चाहिए, जिसका गठन उसके सदस्यों ने परस्पर मिल-बैठकर, आमसहमति और स्वेच्छा के आधार पर किया है.’

सामान्यवुद्धि धर्म को समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना का मूलाधार मानती है. यह जानते हुए कि उसका विकास के आधुनिक मापदंडों से कोई लेना-देना नहीं है, बच्चों को धर्म, जाति, पूजा-पाठ, देवी-देवता तथा कर्मकांडों के बारे में लगातार बताया जाता है. इसके परिणामस्वरूप घर में माता-पिता को आरती करते देख अबोध बालक भी ‘जै’ करना सीख जाता है. पत्थर और कागज की मूर्तियों को देखकर वह हाथ जोड़ लेता है. मां-बाप उसे देखकर प्रसन्न होते हैं. सोचते हैं कि बालक ठीक रास्ते पर है. पड़ोसी के सामने वे उसकी संस्कारशीलता की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते. वे समझ नहीं पाते कि बालक का अपने परिवार और समाज से कटने का सिलसिला आरंभ हो चुका है. उसकी एकाकी यात्रा अनजाने ही आरंभ हो चुकी है. कारण साफ है—प्रत्येक धर्म व्यवहार में नैतिकता की बात करता है, संगठन की बात करता है, कल्याण की बात करता है. सबको साथ लेकर चलने की बात करता है. लेकिन जब वास्तविक फल की बात आती है. लक्ष्य की बात आती है, परिणाम से गुजरने की बात आती है तो वह प्राणी को अकेला छोड़ देता है. स्वर्ग के बहाने, जन्नत के बहाने, मोक्ष और कैवल्य के बहाने—उसकी रीति-नीति व्यक्ति को अंततः अकेला कर देने की होती है. मृत्यु-भय से जन्मा धर्म मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मुक्ति को मानता है. ईश्वर-प्राप्ति को मानता है. कहता है कि मुक्ति के रास्ते पर, ईश्वर-प्राप्ति के रास्ते पर अकेला ही बढ़ा जा सकता है....कि धर्म के उच्चतम सफर में प्रत्येक व्यक्ति अकेला होता है. चौबीसों घंटे वह समझाता है कि अपने सिवाय हम जो कुछ देख रहे हैं, सब माया है, नश्वर है, भव-प्रपंच है. यहां तक कि हमारे माता-पिता, घर-परिवार में जीवन की कथित पवित्रतम यात्रा के दौरान कोई हमारा साथ देने वाला नहीं है. संबंधों का मोहजाल व्यक्ति को संसार-चक्र में उलझाता है. लेकिन जिस मोक्ष के नाम पर इस खूबसूरत और सजीली दुनिया को माया, मिथ्या, प्रपंचादि कहकर तिरस्कार किया जाता है, उसकी वास्तविकता को लेकर बड़े से बड़ा भक्त भी तार्किक दावा नहीं कर पाता. इसके बावजूद उसका प्रलोभन इतना प्रबल कि व्यक्ति आजीवन उससे बाहर कुछ सोच ही नहीं पाता है. परिणामस्वरूप बालक जन्म से ही निराधार फंतासी की दुनिया में जीने लगता है.

धर्म की नींव आस्था पर टिकी होती है, जो विवेक-बुद्धि के ठहराव की अवस्था है. धर्म के व्यापार में लगी शक्तियां आस्था के नाम पर कुछ प्रतीक व्यक्ति के मानस पर आरोपित कर देती हैं. वे प्रतीक हालांकि पूरी तरह बाह्यारोपित होते हैं, लेकिन चतुराईपूर्वक व्यक्ति को यह विश्वास दिला दिया जाता है कि वे उसका अपना वरण हैं. आरोपित प्रतीक व्यक्ति की मनोरचना पर इस प्रकार सवार हो जाते हैं कि वह उनसे स्वतंत्र रहकर कुछ भी सोच नहीं पाता. हिंदू धर्म जाति प्रथा को मान्यता देता है. वह इसे समाजीकरण की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग मानता है. कहा जाता है कि स्वयं सृष्टिपुरुष ब्रह्मा ने लोगों के लिए अलग-अलग वर्णों की रचना की है. इसके आधार पर कुछ व्यक्तियों को जन्म के साथ ही कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते हैं. विशेषाधिकारों का जातीय आधार पर आरक्षण प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध है. परंपरागत धर्म इस व्यवस्था का पोषण करता है. अतः उसके द्वारा अनुशासित व्यवस्था लोकतांत्रिक हो ही नहीं सकती. जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त समाज में बालक जब खेलने के लिए बाहर निकलता है तो मां प्रायः उसे समझाती है कि अमुक के साथ मत खेलना. अमुक गंदा बच्चा है. अमुक अछूत है, उसके संपर्क में भी मत आना. अबोध बालक ऊंच-नीच नहीं जानता. पर जब बार-बार उसको समझाया जाता है, पिटाई का डर दिखाया जाता है, तो उसको मानना ही पड़ता है. इस तरह होश संभालते ही बालक प्रतिगामी सोच के प्रभाव में आ जाता है. जिसका उसके चारित्रिक विकास से दूर-दूर तक संबंध नहीं होता. आरंभ में ही बच्चों की मनोरचना ऐसी बना दी जाती है कि वे धर्म, जाति, परिवार, कुल-परंपरा आदि के दायरे से बाहर सोच ही नहीं पाते. इसलिए जब असल चुनौती सामने आती है तो वे घबरा जाते हैं. संकट से त्राण के लिए उन्हीं शक्तियों की ओर देखने लगते हैं, जिनके बारे में बचपन से रटाया जाता है. वे हैं या नहीं, इस बारे में विश्वास के साथ कुछ भी कह पाना उनके लिए संभव नहीं होता. ऐसे में पंडा, पुजारी, ज्योतिषी, तांत्रिक, पादरी और मुल्ला-मौलवियों की बन आती है. इन सबका तो कारोबार ही लोगों के अज्ञान और चमत्कारप्रियता का दोहन करना है.

बालक अनुभव से सीखता है. वह अपने माता-पिता, गुरु, अग्रज आदि से प्रेरणा लेता है. परिवार में जिन्हें वह पसंद करता है, उन्हीं का सर्वाधिक अनुसरण भी करता है. परिवार में लोकतांत्रिक परिवेश होगा तो उसका असर बालक पर अवश्य पढ़ेगा. पाठशाला में लोकतांत्रिक वातावरण हुआ तो बालक उससे भी प्रेरणा लेगा. इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वे परिवार की निर्णय प्रक्रिया में बच्चों को भागीदार बनाएं. उनके निर्णय-सामथ्र्य को बढ़ाएं. यह कहा जा सकता है कि परिवार के हजार मसले होते हैं. उन्हें तय करना बड़ों की जिम्मेदारी होती है. बच्चे जब उन कामों के बारे में जानते ही नहीं तो राय कैसे दे पाएंगे? ऐसे में उनकी राय लेने की आवश्यकता ही क्या है? यह संभव है कि बच्चों को किसी काम के बारे में जानकारी ही न हो. फिर भी बालकों को लोकतांत्रिक संस्कार देने के लिए उचित होगा कि निर्णय प्रक्रिया के दौरान अथवा उसके बाद में माता-पिता बच्चों को पास बिठाकर बताएं कि उस निर्णय के पीछे उनका तर्कसम्मत दृष्टि क्या है. वे उनसे पूछ सकते हैं उन परिस्थितियों में वे होते तो क्या निर्णय लेते? संभव है बच्चे इसपर चुप्पी साध लें. लेकिन इससे उनकी निर्णय क्षमता अवश्य विकसित होगी. संभव है अगली बार जब ऐसी ही स्थिति आ बने तो वे विकल्पों के साथ तैयार रहें. उनका यह जानना जरूरी है कि संसार से भागकर उसे नहीं बदला जा सकता. बीहड़ में रास्ता बिना जूझे नहीं मिलता. मानवीय सौहार्द, करुणा, समानता, समरसता, विश्वबंधुत्व, नैतिकता जैसे जीवनमूल्यों की स्थापना के लिए लोकतांत्रिक समझ जरूरी है. और ये सब हों इसके लिए आवश्यक है कि नागरिकों को उसकी शिक्षा बचपन से ही जाए. ठीक ऐसे ही जैसे दूसरी चीजों के बारे में बताया जाता है.

बालक अपने साथ ढेर सारी जिज्ञासाएं लेकर आता है. शिक्षा का प्रथम ध्येय उन जिज्ञासाओं का समाधान करना है. उसका वास्तविक कर्म है बालक की प्रश्नाकुलता को बढ़ावा देना. उसके व्यक्तित्व का परिष्कार करना, आत्मविश्वास को बढ़ाना. यह तभी संभव है बालकों को बताया जाए कि मानवीय सभ्यता ने शताब्दियों में जो प्रगति की है. वह सिर्फ और सिर्फ मानवीय श्रम-कौशल की देन है. उसके पीछे न तो कोई चमत्कार है न ऊपरी कृपा. दुनिया में जिन्होंने भी विलक्षण कार्य किया, जो-जो लोग महान कहलाए, जिन्होंने इतिहास की धारा को मोड़ने का युगांतरकारी कार्य किया, बाकी लोगों तथा उनमें बस इतना अंतर था कि वे अपने सपने को संकल्प में ढालना चाहते थे. इसलिए उन्होंने पलायन के बजाय प्रयाण का वरण किया. भागने के बजाय दुनिया को बदलना बेहतर समझा. मनुष्यता में विश्वास, इसलिए मानवमात्र के कल्याण की राह बनाते समय उन्होंने अपने सुख की परवाह तक नहीं की. उनके लिए लौकिक लक्ष्य निजी सुख-दुख से कही बड़े थे. बालक को समझाया जाना चाहिए कि मनुष्य होने के नाते उसमें भी वही गुण-सामथ्र्य संभव हैं जो उन लोगों में थे. यही नहीं बाकी लोगों में भी वे सब गुण संभव हैं. इसलिए आवश्यकता सभी को साथ लेकर चलने की, उसकी क्षमताओं का लाभ उठाने और सम्मिलित बुद्धि-विवेक से संसार संवारने की है.

स्कूल में अध्यापकगण को चाहिए कि वे बालकों के बीच किसी प्रकार का स्तरीकरण न पनपने दें. कक्षा में और उससे बाहर भी वे बच्चों को विभिन्न मसलों पर राय रखने के लिए आमंत्रित करें. विद्यालय की पाठन-नीति के बारे में बच्चों की राय लें. विभिन्न अवसरों पर उसपर परिचर्चा आयोजित कराएं, जिसमें बच्चों की मुक्त भागीदारी हो. महत्त्वपूर्ण अवसरों पर उन्हें विश्वास दिलाया जाना चाहिए कि उनमें से प्रत्येक अपनी विचारधारा में स्वतंत्र है....कि उनमें से किसी की भी विचारधारा केवल उसकी नहीं है. बल्कि वह उसके परिवेश की देन है. इसलिए उस विचारधारा को समझना प्रकारांतर में उसके परिवेश को समझने के लिए जरूरी है. तभी उसमें अपेक्षित सुधार संभव है. परिवेश सुधरेगा तो समाज अपने आप सुधरता जाएगा. उनमें से प्रत्येक की राय का महत्त्व है, अतः हर एक को अपनी बात रखनी ही चाहिए. सप्ताह के अंत में होने वाली सभाओं में निष्कर्ष निकालते समय भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी एक व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों के मंतव्य के भरोसे न छोड़ दी जाएं. उन सभाओं में अधिक से अधिक बच्चों को अपनी राय रखने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.

गणतंत्र आदर्श शासन प्रणाली भले न हो. मगर सभ्यता के इतिहास में आज तक आजमायी जा चुकी प्रायः सभी राजनीतिक प्रणालियों में यह श्रेष्ठतम है. इस कारण फिलहाल विकल्पहीन भी है. जिन कमजोरियों की चर्चा होती है, वे भी ऐसा नहीं कि आज ही जन्मी हैं. वर्षों पहले लोकतंत्र की आलोचना करते हुए प्लेटो ने कहा था—‘प्रजा में परिवर्तन की चाहत और उत्साह देख समाज का कुलीनतंत्र यानी वह तंत्र जो किसी न किसी भांति राजसत्ता पर आसीन रहा है—लोकतंत्र का राग अलापने लगता है. एक दिन वह पूरे समाज को तानाशाही की जद में ले आता है.’ लोकतंत्र की यह बीमारी पुरानी सही, लाइलाज नहीं है. इसका सर्वोत्तम निदान तो यही है कि समाज में कुलीनतंत्र को पनपने ही न दिया जाए. कुलीनतंत्र की जान असमान आर्थिक विभाजन में होती है. समाज के संसाधन जब कुछ हाथों में सिमट जाते हैं तो वे उनका मनमाना उपयोग करने लगते हैं. आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक सत्ता पर काबिज होकर वे स्वयं को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग घोषित कर लेते हैं. विशेषाधिकारों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी मनमाना अंतरण ही कुलीनतावाद है. यह तभी फलता-फूलता है जब समाज का बड़ा वर्ग निर्णय प्रक्रिया से खुद को अलग-थलग कर लेता है. निर्णय लेने का अधिकार दूसरों के हाथों में सौंपकर स्वयं भाग्यवादी बन जाता है.

व्यक्तिमात्र का कर्तव्य है कि वह अपने मौलिक अधिकारों के प्रति सचेत रहे. उन अधिकारों के प्रति सचेत रहे जिनका सीधा सरोकार होने से है. जिनसे उसका अस्तित्व, उसकी पहचान सुरक्षित है. उसे जानना चाहिए कि ये अधिकार किसी बाहरी सत्ता की बख्शीश न होकर, मनुष्य होने के नाते उसको नैसर्गिक रूप से प्राप्त हैं. इस प्रकार के अधिकारों में बौद्धिक संपदा संबंधी अधिकार, अभिव्यक्ति का अधिकार तथा अन्य वे सभी कार्यकारी अधिकार सम्मिलित हैं, जिनके अनुसार वह दूसरों के नैसर्गिक अधिकारों को प्रभावित किए बिना, अपनी सुख-सुविधा एवं प्रसन्नता अर्जित करता है. इसके लिए जरूरी है कि मनुष्य के सामने जहां कहीं भी राय देने का अवसर आए, आत्मविश्वास के साथ अपनी राय रखे. यदि कहीं अधिकारों पर आंच आती दिखाई पड़े तो जमकर उनका विरोध करे. राज्य के संसाधनों का असमान विभाजन किसी एक व्यक्ति या वर्ग के लिए नुकसानदेह न होकर संपूर्ण राज्य के लिए नुकसानदेह होता है. इस बारे में थामस पेन ने बहुत काम की बात कही है. उसने कहा था कि जिस राज्य में आर्थिक विभाजन जितना अधिक समान होगा, उस राज्य के कानून आम जनता के लिए उतने ही हितकारी होंगे. दूसरे शब्दों में आर्थिक बंटवारा जितना अधिक समान होगा, नागरिकों की क्रियाशील मांगों में उतनी ही समानता होगी. उतना ही लोग एक-दूसरे पर विश्वास रखेंगे. उनमें सहयोग की भावना उतनी ही प्रबल होगी. उनके अंतर्विरोध क्षीण होंगे. राज्य में अधिक अटूट एकता और समरसता होगी.

बालक को लोकतंत्रीय संस्कार देने में साहित्य की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है. हिंदी बालसाहित्य का जन्म औपनिवेशिक वातावरण में हुआ. उन दिनों समाज में सामंतीमूल्य प्रचलित थे. इसलिए आरंभिक हिंदी बालसाहित्य पर उसका असर साफ नजर आता है. आज हालात तेजी से बदल रहे हैं. बालसाहित्यकार को चाहिए कि वह पाठकों के लोकतांत्रिक प्रबोधीकरण पर ध्यान दे. नए जीवनमूल्यों से भरपूर बालसाहित्य की रचना करे. जिसमें बच्चों की इच्छा-आकांक्षाओं, सपनों, संकल्पों और अधिकारों की अभिव्यक्ति होती हो. जिसमें आर्थिक-सामाजिक-समानता के बारे में बताया गया हो. समाज की रचना ही इसलिए हुई है कि उसमें मनुष्य के मूलभूत अधिकारों की रक्षा हो. न इसलिए कि उसके अधिकारों पर कुछ साधन-संपन्न लोग कब्जा जमा लें—यह ध्वनि बालसाहित्य की हर रचना से आनी चाहिए. बालक का परिवेश लोकतांत्रिक होगा तभी वह अपने जीवन को उसके अनुसार ढाल पाएगा. लोकतंत्र में विश्वास रहेगा तो उसकी वे कमियां भी दूर होंगी, जिनके लिए आज उसकी आलोचना की जाती है.