बाली / राजनारायण बोहरे
अंगद के पिता!
यानी वनवासियों के राज्य किष्किन्धा के राजा-बाली।
बाली का राज्य था किष्किन्धा!
जामवंत जी इन दिनों अंगद के गुरु हैं, वे बताते हैं कि यह राज्य किष्किन्धा सैकड़ों साल पुराना है। वनवासियों के इस छोटे से राज्य की बहुत सुन्दर-सी राजधानी पंपापुर है। लोग बताते हैं कि दुनिया के सबसे सुन्दर मकान बनाने वाले होशियार कारीगर मय ने इस नगर की रचना की थी।
पंपापुर ऊंचे पहाड़ों के बीच बसा एक खूबसूरत नगर था, जहाँ अधिकांश मकान लकड़ी के बने थे या फिर जिन पत्थर से बनाये गये थे उनमें बहुत कलाकारी की गई थी, हर पत्थर पर कोई न कोई मूर्ति, हर पत्थर पर ऐसी आकृति कि उसे घण्टों निहारते रहो। पत्थर भी किसम-किसम और देश-देश के। हरेक का रंग अलग, आकार अलग और चमक अलग। इन सबसे मिल कर बने थे यहाँ के मकान, बागीचे और रास्ते। जो भी एक बार इस जगह आता, उसका मन प्रसन्न हो जाता। बल्कि यूं कहें कि उसका मन यही रम जाता। मन ही मन यही चाहता कि हमेशा यहाँ रहे। जो राजा इसे देख लेता, उसकी नियत खराब हो जाती। इच्छा होती कि इस पर किसी तरह कब्जा मिल जाये, जिससे वह जब चाहे छुट्टियाँ मनाने इस खुबसूरत नगर में आता रहे।
जैसा नगर था वैसे ही यहाँ के नागरिक। बिलकुल भोले और सीधे। न ऊधो का लेना न माधो का देना। अपने काम से काम रखते सब लोग। यहाँ के लोग अत्यंत गरीब थे और प्राकृतिक वातावरण में रहने की उन्हे आदत थी। ग्रीश्म ऋतु में यहाँ गर्मी ज़्यादा पड़ती, सो लोग बदन पर बहुत कम कपडे पहनते। ज़्यादा अन्न नहीं मिल पाता था, सो केवल फल-फूल और मूल खाते। पहाड़ों और पेड़ों पर ऐसे खेलते थे कि लोग मज़ाक में उन्हे बंदर कहते थे। धीरे-धीरे यहाँ के निवासियों की बिरादरी वानर कहलाने लगी। यहीं के राजा थे महाराज बाली। कोई उन्हे वनवासियों के इस कबीले का सरदार और बानर योद्धा भी कहते थे।
अपने बेटे और पत्नी को ख़ूब प्यार करने वाले एक अच्छे व्यक्ति थे अंगद के पिता बाली।
अंगद की जब सात साल की उम्र थी, तबसे पिता की कई बातें अच्छी तरह से याद हैं। जैसे उनका अपनी राजधानी से बेहद प्यार करना। जैसे उनका एक निश्चिंत आदमी होना। जैसे कि उनका दिन से खानाबदोशों की तरह से सैलानी होना। हर बरस ही साल में दो बार यानी कि एक बार तब जब गरमी का मौसम आता और दूसरी बार तब जब बरसात का मौसम जाता, वे अपने परिवार के साथ अपनी राजधानी पंपापुर छोड़कर दूर के हरे-भरे पहाड़ों, नदियों-तालाबों की तरफ़ घूमने चले जाते। कुछ दिन वहीं रहते। अपने पीछे सुरक्षा के लिए पंपापुर राजधानी में अपने भाई सुग्रीव के साथ उनका परिवार और राजदरबार के कुछ खास-खास आदमी छोड़ जाते। साल भर तक रोज-रोज महल में घिरी रहने वाली महारानी तारा ऐसे सैर करने में बहुत खुश होती। बच्चे भी ख़ुशी से फूले न समाते। ख़ास तौर पर अंगद की ख़ुशी का पारावार न रहता। ऐसी बाहरी यात्राओं में बाली से जुड़े दूसरे कुछ ख़ास लोग भी उनके साथ निकलते। बाहर पहुँच कर वे भी बहुत खुश होते।
इस तरह पखवारे भर वे लोग नई जगहों पर टहलते। वहाँ रूकते। नयी तरह का भोजन चखते। नये तरह के कपड़े देखते। अच्छे लगते तो देश-विदेश में पहने जाने वाले कपड़े पहनते। ज़्यादा अच्छे लगते तो घर आते वक़्त ऐसे कपड़े खरीद कर ले आते। इस तरह अंगद ने बचपन में कई नई जगह घूम ली थीं और उनकी माँ ने जाने क्या-क्या बोलना, पहनना, पकाना, खाना और खिलाना सीख भी लिया था। अपने आस-पास की महिलाओं में वे बहुत जानकार महिला की तरह मानी जाती थीं। बाली अपने परिवार का ख़ास ध्यान रखते थे।
जामवंत कहते हैं कि बाहर घूमने का शौक बाली को तबसे था जब उनका विवाह नहीं हुआ था। बाद में विवाह हुआ तो वे महारानी तारा के साथ घूमने जाने लगे। लम्बा समय बीता और तारा ने किसी बच्चे को जन्म नहीं दिया तो महाराज बाली को कोई चिन्ता नहीं हुई। ऐसी ही एक यात्रा से वे लौटे तो पंपापुर के लोगों ने देखा कि महारानी तारा की गोदी में एक नन्हा-सा शिशु है जिसे वे लोग अंगद कह रहे हैं। जामवंत जी बताते हैं कि हू ब हू बाली तरह गोरा, स्वस्थ्य और सुंदर बालक को देख कर पंपापुर का कोई नागरिक कहता कि देवताओं के वरदान से तारा को यह बेटा प्राप्त हुआ है, तो कोई कहता कि अंगद धरती का बेटा है, कोई कहता कि अंगद दुनिया के सबसे बड़े कारीगर मय दानव की दूसरी बेटी मंदोदरी का बेटा है।
बचपन से तारा अंगद को बताया करती हैं कि महारानी मंदोदरी जो लंका के राजा रावण की पत्नी है, वह अंगद की मौसी है। मौसी यानी माँ की बहन। मंदोदरी रिश्तें में हैं माँ की बहन, लेकिन वे अंगद से इतना प्रेम करती हैं कि ख़ुद तारा भी नहीं करतीं। इसलिए अंगद को माँ हमेशा हिदायत देतीं कि अंगद अकेले कभी भी लंका न जायें, अगर जायें तो मंदोदरी के सामने न जायें, अन्यथा उनका अपनी माँ के पास लौटना मुश्किल होगा। वैसे भी पंपापुर के लोग मौसी को मासी भी कहते-यानी माँ सी, माँ जैसी। अंगद थोड़ा बड़े हुए तो बाली ने उन्हे एक ऐसी अनूठी कला सिखाई जो दुनिया में किसी के पास न थी। कला यह थी कि अंगद एक बार जिस चीज पर अपना पाँव जमा देते वह चीज उनके पाँव से चिपक कर रह जाती, कोई्र कितनी भी बड़ी ताकत लगा लेता अंगद के पाँव से वह चीज न छूट पाती। छूटती तब जब अंगद चाहते। अंगद जानते थे कि उनके पाँव के तलवे में नन्ही-सी कटोरियों की तरह छोटे-छोटे कई छेद थे, जिनको वे ज़मीन पर पाँव रखते वक़्त हवा से खाली कर लेते, फिर उनका पाँव का छुड़ाना किसी भी ताकतवर के लिए संभव न था। बाद में जब पाँव छुड़ाना होता, अंगद ख़ुद धीमे-धीमे एक-एक छेद को ख़ास तरकीब से छुटाते।
पिता के साथ अंगद ने पंपापुर से लंका के पास तक का समुद्र घूम डाला था। हिमालय के पर्वत देख डाले थे। खांडव वन यानी घने जंगल का वह हिस्सा घूम लिया था जहाँ खर, दूशन और त्रिसिरा नाम के तीन भार्इ्र खुदको रावण के राज्य का प्रतिनिधि मान कर आसपास के इलाके में आतंक फैलाया करते थे।
बाली पक्के घुमक्कड़ थे। एक घुमक्कड़ और सैलानी राजा। जिन्हे हर वक़्त बिना सेना के अकेले या गिनेचुने लोगों के साथ दुनिया की सैर करना अच्छा लगता।
आज जब अंगद बड़े हो गये हैं, तब उन्होंने बुज़ुर्ग मंत्री जामवंत की बातों से जाना कि बाली की कई आदतें राजा की नज़र से ठीक न थीं।
एक गृहस्थ आदमी के लिए महीना-पन्द्रह दिन के लिए राज्य से बाहर चले जाना अलग था, लेकिन राजा के लिहाज से अलग।
किसी राजा का इस तरह पन्द्रह दिन और महीने भर के लिए राजधानी छोड़ जाना राजनीति की नज़र से ग़लत था। असुरक्षित राज्य पर सबकी नज़र रहती हैं। सचमुच इस तरह की यात्राओं से लौटने पर हर साल कोई न कोई संकट झेलना पड़ता उन्हंे।
जामवंत जी के अनुसार बाली केवल पिता न थे। सिर्फ़ पति न थे। एक राजा भी थे। वे राजा बाली थे।
राजा बाली। पंपापुर के राजा बाली। पंपापुर के नागरिकांे यानी वनवासियों की बिरादरी के सबसे बहादुर आदमी। सबसे बलबान योद्धा। ऐसे बलबान योद्धा जो मनुश्य तो मनुश्य, अपनी ताकत के जोश में जानवरों तक से भिड़ने को तैयार घूमते रहते।
जामवंत जी बेहिचक कहते हैं कि बाली ऐसे राजा थे जो जनता की परवाह कम करते थे, अपनी ताकत का दिखावा ज़्यादा करते। जबकि राजा का फ़र्ज़ होता है कि वह जनता की सुख-दुख की परवाह करे। अपनी सेना को ऐसी ताकतवर बनाये कि आसपास के राजा डरते रहें।
जामवंत जी एक निडर और हुनरमंद आदमी थे। राजा बाली को वे कैसी भी सलाह निर्भय हो कर सुना देते, लेकिन दूसरों की तरह उनकी बातें भी बाली एक कान से सुनते दूसरे से उड़ा देते।
जामवंत कई किस्से सुनाते हैं बाली महाराज के। उन्होंने अपनी राजधानी पंपापुर की सुरक्षा के लिए नगर के चारों ओर एक बड़ी चहार दिवारी बनबाई थी। जिसमें चार दरवाजे थे। चारों दरवाजे रात को दियाबाती के समय बंद कर दिया जाता और सुबह सूरज उदय होनेक के एक पहर बाद ही खोला जाता। भीतर आने वाले की पक्की जांच की जाती। हर दरवाजे पर सौ-सौ सैनिकों की टुकड़ी रखी जाती थी। इन सैनिकों को सेना में से बहुत चुन कर रखा जाता था, क्यांकि यहाँ हरेक को अच्छा तीरंदाज, कुशल तलवारबाज और देश-विदेश के बारे में अच्छी जानकारी रखने वाला होना ज़रूरी थी।
इस के बाद भी बाली ने हर बार कोई न कोई धोखा खाया या कहें कि अपने सारे सुरक्षा बंदोबस्त ध्वस्त पाये। जैसे एक बार की बात है कि जब बाली गर्मियों की लम्बी यात्रा से लौट कर पंपापुर आये, तो उन्होंने राजधानी की चहारदिवारी के मुख्य प्रवेशद्वार पर अपने राज का निशान सूरज के गोले वाला पीला झण्डा लगा नहीं पाया बल्कि वहाँ कोई और झण्डा फहराता हुआ देखा। बाली ने मुख्यद्वार पर खडे अंजान सैनिकों से झण्डा बदल जाने का कारण पूछा तो पता लगा कि इस बीच बाणपुर के राजा बाणासुर ने पंपापुर पर हमला करके राजधानी पर अपना कब्जा कर लिया है।
बाली ने यह सुना तो न उन्हे दुख हुआ, न कोई चिन्ता। उन्होंनेजामवंत जी को दूत बना कर पंपापुर के राजमहल पर कब्जा जमाये बैठे बाणासुर के पास अपना संदेश भेजा। वे नहीं चाहते थे कि सेनाओं में रण भूमि में युद्ध हो और निरपराध सैनिक मारे जायें। इसलिए उचित होगा कि न्याय की रक्षा करते हुए किष्किन्धा राज्य उन्हे बिना खून बहाये वापस लौटा दिया जाय। यदि बाणासुर को अपनी ताकत का कुछ ज़्यादा ही घमण्ड है तो वे ख़ुद अकेले बाहर चले आयें और बाली से कुश्ती लड़ कर हरा कर दिखायें। बाली ने वचन दिया था कि अगर वे हार गये तो पंपापुर छोड़ कर वापस लौट जायेंगे। पंपापुर का राज्य बाणासुर संभालते रहें, बाली सबकुछ भुला देंगे।
जामवंत से बाली का समाचार सुना तो बाणासुर गुस्से और अभिमान में भरा हुआ पंपापुर के बाहर चला आया। दोनों अपनी जांघ ठोंक कर एक दूसरे को कुश्ती के लिए ललकारने लगे थे। बाणासुर एक महाबली थे तो बाली भी बहुत ताकतवर थे। बाली के पास एक ख़ास कला थी कि वे कुश्ती लड़ते हुए जब सामने वाले को पकड़ लेते, तो मानों सामने वाला व्यक्ति उनसे चिपक-सा जाता था। लाख जतन करने पर दूसरा पहलवान उनसे छूट नहीं पाता था। इसी कला का लाभ उठा कर बाली हर बार अपने जोड़ीदार को हरा डालते। लोग कहते कि बाली को यह एक वरदान है कि जो उनसे कुश्ती लड़ने आयेगा उसका आधा बल खिंच कर बाली के बदन में चला आयगा और इस तरह बाली अपने सामने वाले जोड़ी दार से डेढ़ गुने बल के साथा लड़ेंगे। जामवंत बताते हैं कि ऐसा कुछ न था बाली के पास कुश्ती की यही एक ख़ास कला थी और इसी कला से उन्हेाने बाणासुर को हरा दिया था और ज़मीन पर पटक दिया।
बाली की एक बड़ी कमी थी िक वे जिससे चिढ़ जाते उसससे बहुत कटु वचन बोलते थे। उन्होंने बाणासुर को ख़ूब खरी-खोटी सुनाईं। फिर उसे एक रस्सी से बाँध कर अपने साथ लेकर पंपापुर में प्रवेश किया। अपने राजा को बंधा हुआ देख कर बाणासुर की सेना सिर पर पाँव रखकर भाग निकली। पंपापुर के महल में ख़ास तौर पर बनायी गई जेल में बाणासुर लम्बेसमय तक क़ैद रहा। लोग बताते हैं कि बाणासुर के बदन में दूसरों की तरह दो नहीं, नन्ही-नन्ही हज़ार भुजायें थीं, जो देखने में अजीब लगती थीं। ऐसे अजीब से जीव को देखने के लिए पंपापुर के निवासी रोज़ ही राजमहल में चले आते थे।
दो से ज़्यादा भुजायें तो लंका के राजा रावण की भी बताई जाती हैं, उसने भी ऐसी ही शरारत की थी। एक बार बाली पन्द्रह दिन के लिए पंपापुर से बाहर निकले तो लौटकर उस बार उन्होंने लंकाधिपति रावण को पंपापुर में कब्जा जमाये देखा। फिर क्या था कुपित बाली ने रावण को अपने साथ कुश्ती के लिए ललकार दिया। अपनी ताकत का घमण्ड रावण को भी कुछ ज़्यादा ही था सो वह बेहिचक ताल ठोंकता पंपापुर के बाहर चला आया। बाली ने अपने ख़ास दांव से लंकेश रावण को पकड़ा और दांये हाथ के नीचे कांख में दबा लिया। रावण ने बहुत ताकत लगाई लेकिन अपने आपको छुटा नहीं पाया बल्कि उसका दम घुटने लगा तो उसने अपनी हार मान ली। लेकिन बाली नहीं माने उन्होंनेकांख में रावण को दबाये हुये ही वहाँ से घसीटता हुए अपने महल की ओर ले चले थे। सड़क पर घिसटते रावण का ऐसा अपमान भरा नजारा देख कर पंपापुर में मौजूद रावण के सारे सैनिक व सुभट डर गये थे और पंपापुर छोड़कर भाग निकले थे। रावण भी लम्बे समय तक बाली की क़ैद में रहा और पंपापुर निवासियों के लिए हंसी का विषय बना रहा था।
बाद में रावण के पिता के पिता पुलस्त्य मुनि जो संसार के बड़े विद्वान और सम्माननीय व्यक्ति थे उन्होंनेा पम्पापुर आकर बाली से निवेदन कर रावण को उस क़ैद से छुटकारा दिलाया था। रावण को छोड़ तो दिया लेकिन बाली अपनी आदत से बाज नहीं आये। उन्होंने पुलस्त्य मुनि को बड़ी कड़बी बातें सुनाना शुरू कर दीं उम्र से बहुत बूढ़े हो चुके रावण के दादाजी ने इस बात का बुरा नहीं माना। उन्होंने हंसते हुए बाली से कहा था, "बेटा बाली, तुमने कसरत करके अपना बदन ख़ूब ताकतवर बनाया है, यह अच्छी बात है। ईश्वर तुम पर कृपा बनाये रखे। लेकिन तुम इस तरह कड़बे वचन मत बोला करो।"
बाली पर ऐसे उपदेशों का कोई असर नहीं पड़ता था। उनके लिए संसार में अपने यश या अपयश का महत्त्व न था। वे अपने बदन का बड़ा ध्यान रखते थे। ख़ूब डट कर खाते। ख़ूब कसरत करते। यही सब करने के लिए वे सुग्रीव से कहते थे।
हाँ, चाहे बाणासुर की घटना हो या रावण की बाली ने ज़्यादा परवाह नहीं की।
ऐसी घटनाओं के बाद बाली अपने छोटे भाई सुग्रीव को ज़रूर ख़ूब डांटते थे, जिन्हे वे अपने पीछे पंपापुर का किलादार बना कर जाते थे। लेकिन जो बाली के न रहने पर इतने भयभीत रहते थे कि अंजान दुश्मन को सामने देखते ही उससे डर के हर बार क़िला सोंप देते थे। बाली जीत कर लौटते तो सुग्रीव हर बार अपने बड़े भाई से गिड़गिड़ा कर क्षमा मांगते थे और बाली उन्हे माफ़ भी कर देते थे।
एक बार बड़ी अजीब घटना हुई।
दुंदभि नाम के एक योद्धा ने पंपापुर में आकर चौराहे पर खड़े होकर जब बाली को कुश्ती लड़ने की चुनौती दी तो बाली एक लम्बी हुंकार के साथ उसके साथ भिढ़ बैठे थे। अपनी उसी ख़ास कला या दांव के सहारे उन्होंने दुंदभि को थोड़ी ही देर में हरा दिया। लेकिन दुंदभि ने पंपापुर में बाली को चुनौती दी थी इस कारण नाराज बाली ने अपने हारे हुए प्रतिद्वंद्वी को यूं ही न छोड़कर अपने कंधे पर लादा और राजमहल के ऊपर चढ़ गये थे फिर वहाँ उन्होंने दुंदभि को लादे-लादे ही तेजी से चकरी की तरह कई चक्कर काटे और एक हुंकार के साथ उसे दूर पहाड़ों की ओर उछाल दिया था।
उस पहाड़ पर सात ताड़ वृक्ष थे जिनसे टकरा के दुंदभि का शरीर नीचे गिरा तो चट्टानों से टकरा के उसके चिथड़े-चिथड़े उड़ गये थे और इन चिथड़ों से उछला खून आस पास के इलाके में फैल गया था।
लोग कहते हैं कि वहाँ कुछ मुनि लोग तपस्या कर रहे थे, जिनके ऊपर इस खून के छींटे पड़े तो वे गुस्सा हो बैठे थे और उन्होंने शाप दी थी कि बाली कभी भी इस जगह पाँव नहीं रख सकेंगे, जिस दिन वे यहाँ पाँव रखेंगे उनक सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। कोई कहता है कि ताड़ वृक्षों के नीचे बाली के इश्ट देवता सूर्य का एक मंदिर था जिस पर दुंदभि का खून बुरी तरह फैल गया था और बाली इस बात से इतने दुखी हुए थे कि उन्होंने ज़िन्दगी भर ताड़ वृक्षों वाले उस ऋष्यमूकपर्वत पर ना चढ़ने की क़सम खाई थी। हालांकि कुछ लोग दबे स्वर में यह भी कहते हैं कि ऋष्यमूकपर्वत पर इस तरह खून से भरी लाश फेंकने के कारण वहाँ रहने वाली वनवासियों की एक दूसरी जाति के योद्धा बाली से नाराज हो गये थे और उन्होंने बाली को चुनैाती दी थी कि जिस दिन वे पर्वत पर आ गये उसी दिन मार दिये जायेंगे। वनवासी लोग मिलजुल कर रहा करते थे, सो बाली उस पर्वत से हमेशा दूर रहा करते थे।
बीच में टोक कर जामवंत से अंगद ने पूछा कि "बाबा, मेरे पिता और काका सुग्रीव के बीच आपस में झगड़े का क्या कारण था?"
जामवंत ने वह किस्सा विस्तार से सुनाया था। ...संसार के सबसे बड़े कारीगर यानी मकान बनाने वालों के महागुरू मय का बहुत मोटा और ताकतवर बेटा मायावी एक बार जाने क्यों पम्पापुर आकर बाली को उल्टा सीधा बोलने लगा था। कोई कहता है कि वह अपनी बहन मंदोदरी के बेटे अंगद को मांग रहा था, जिसे उसकी दूसरी बहन तारा मांग लाई थी। तो कोई कहता है कि वह अपने पिता के बनाये नगर पंपापुर पर अपने पिता का हक़ माँग रहा था यानी कि नगर पर कब्जा जमाना चाहता था। किसी का यह मत था कि मायावी ने लंका में रहकर प्रसिद्ध पहलवान कुंभकर्ण से अभी-अभी कुश्ती लड़ना सीखा था और वह अपने दांव आजमाने के लिए समान ताकत वाले किसी पहलवान की तलाश में पपापुर में ंचला आया था।
इस बात को तो कोई राजा पसंद न करता कि कोई आकर इस तरह खुले आम उसे चुनौती देने लगे। उस पर बाली जैसे महाबली को भला कहाँ से सहन होता कि कोई चौराहे पर राजा के परिवार के बारे में कुछ गलत-सलत बोलता फिरे। वे अपने महल निकले और सीधे मायावी के सामने पहुँचे ओर उससे बहुत ऊंची आवाज़ में बोले "सुनों मायावी, तुम्हे अगर ज़्यादा घमण्ड हो गया है तो चलो हम और तुम नगर के बाहर जाकर कुश्ती लड़ते हैं, लेकिन तुम इस तरह मेरे नगर के चौराहे पर इस तरह बकबास मत करो।"
मायावी ने बाली की हंसी उड़ाते हुआ कहा, "तुममें हिम्मत है तो यहीं मुझसे कुश्ती क्यों नहीं लड़ते। बाहर क्यों जाना चाहते हो। अगर बाहर जाकर मेरे पैर छूकर मुझे लौटाना चाहते हो तो यह भूल जाओ। मैं यहाँ से बाहर नहीं जाने वाला। आज मेरा और तुम्हारा मुकाबला यहीं होगा। इसी जगह और खुले आम।"
बाली ने एकाएक हुंकार भरी और वे छलांग लगा कर मायावी से जा भिढ़े। मायावी को ऐसी आशा न थी कि उसे तैयार होने का मौका ही न मिलेगा और दुनिया का यह प्रसिद्ध पहलवान उसको अपना अनूठा ऐसा दांव लगा कर पकड़ लेगा कि लाख जतन करने पर भी मायावी छूट न सके। वह कुंभकरन के सिखाये सारे दांव भूल गया और बाली की पकड़ में छटपटाने लगा। बाली अपनी आदत के मुताबिक मुंह से गंदी गालियाँ बकते जा रहे थे, सो बिपत्ति में फंसे मायावी को अंतिम उपाय यही लगा कि इसी आदत के कारण वह बाली से छूट सकेगा। उसने भी बाली को गालियाँ बकना शुरू कर दी। अब क्या था, बाली का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। आज तक किसी ने उसे पलट कर गालियाँ न दी थी। एक झटके में उन्होंनेमायावी को छोड़ा और उसका मुंह निहारने लगे। वे आज दुंदभि से भी ज़्यादा निर्मम तरीके से मायावी का मार देना चाहते थे।
बस यहीं आकर मायावी का मौका मिल गया। उसने झुककर एक छलांग लगाई और पंपापुर से बाहर जाने वाले मार्ग पर दौड़ लगा दी।
बाली चौंके। अरे यह क्या हुआ? यह कहाँ भाग निकला?
वे उसके पीछे दौड़ने लगे।
मायावी हाथी जैसे बड़े बदन का तो था ही, वह बहुत अच्छा धावक भी था। लगता था कि वह लम्बी दौड़ का ख़ूब अभ्यास करता था सो बाली तेज चाल से दौड़ने के बाद भी उसे पकड़ने में नाकाम साबित हो रहे थे।
उधर मायावी की हालत खराब थी। उसे साफ-साफ महसूस हो रहा था कि उसने ग़लत आदमी को ललकार दिया। उसे अपने पीछे साक्षात मौत आती हुई दिखाई दे रही थी। वह ऐसी जगह ढूढ़ रहा था जहाँ वह छिप सके। एकाएक उसे सामने के पहाड़ में बनी एक बहुत बड़ी गुफा दिखी तो उसने आव देखा न ताव, सीधा उसमें घुस गया और नाक की सीध में दौड़ता चला गया।
बाली ने देख लिया था कि मायावी उस गुफा के भीतर चला गया है, सेा वे निश्चिंत थे। उन्होंनेरूक कर पीछे देखा। उनका अनुमान सही था, छोटा भाई सुग्रीव उनके पीछे भागता हुआ चला आ रहा था। बाली ने सुग्रीव का इंतज़ार किया और जब सुग्रीव आ गये तो बाली बोले, "तुम यहीं गुफा के बाहर रहो, पता नहीं भीतर के कैसे हालात हैं। लेकिन चिन्ता मत करो, मैं सबसे निपट लूंगा। तुम गुफा के बाहर रूक कर मेरा इंतराज करो मैं उसे घसीटता हुआ बाहर आता हूँ।"
सुग्रीव ने सहमते हुए भैया से पूछा, "मैं यहाँ कब तक आपका इंतज़ार करूं?"
बाली हंसे, "अरे पगले, कब तक क्या, मैं आज साझ तक उसे मार कर लौटता हूँ।" फिर वे रूके और बोले, "हो सकता है यह गुफा पहाड़ के उस पार जाकर दूसरे राज्य में निकलती हो तो मुझे उस राज्य के राजा ने अनुमति लेकर अपना अपराधी ढूढ़ना होगा, इसलिए तुम ऐसा करो पन्द्रह दिन तक मेरा इंतज़ार करना।"
"आप अगर पन्द्रह दिन में नहीं लौटे तो?" पिछली घटनायें याद करके सुग्रीव का खून सूख रहा था, सो वे बाली से एक-एक बात पूछ लेना चाहते थे।
बाली फिर हंसे, "यदि पन्द्रह दिन में नहीं लौटता तो तुम यह मान लेना कि मैं मर गया हूँ। फिर तुम राजमहल लौट जाना।"
बाली इतना कहकर गुफा में घुस गये और सुग्रीव अपने कुछ विश्वासपात्र दोस्तों के साथ गुफा के बाहर बैठ गये।
धीरे-धीरे सांझ हुई। वे चिंतित हुये। उन्होंने आग जला ली ताकि जंगली जानवर दूर बने रहें। कुछ जागते कुछ सोते वे बैठे रहे। वह रात बहुत धीमे-धीमे बीत रही थी।
किसी तरह सुबह हुई। दोस्तों ने समझाया कि बाली पता नहीं कब तक लौटेंगे, ऐसा करें कि सुरक्षा के लिए राजधानी से कुछ सैनिकों को बुला लेते हैं और यहाँ ठहरने के लिए कुछ खाने-पीने ठीक-सा इंतज़ाम कर लेते हैं। सुग्रीव ने हामी भरी तो सारे प्रबंध हो गये।
अब सुग्रीव पूरे साजोसामान के साथ बाली का इंतज़ार कर रहे थे।
धीरे-धीरे पखवारा यानी पन्द्रह दिन बीत गये।
सोलहवें दिन पंपापुर से राजदरबार के अनेक मंत्री गण गुफा तक चले आये। सब चिंतित थे लेकिन किसी का साहस न था कि अंदर जाकर पता लगाये।
म्ंात्रियों ने सुग्रीव से पंपापुर लौटने की प्रार्थना की तो सुग्रीव टाल गये, उन्होंने मंत्रियो से कहा "आप लोग सिर्फ़ नगर की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखो। कहीं ऐसा न हो कि फिर कोइ्र दुश्मन हमला करके पंपापुर पर कब्जा जमा ले। इसलिए आप लोग जाकर सुरक्षा का इंतज़ाम देखो। मैं भैया का बहुत समय तक इंतज़ार करूंगा।"
स्नापति और मंत्रीगण पंपापुर लौट गये तथा नगर की रखवाली का पुख्ता इंतज़ाम करने में जुट गये। सुग्रीव गुफा के बाहर अपने चुने हुए साथियों के साथ बैठे रहे।
गुफा के अंदर से न कोई आवाज़ आती थी, न भीतर के घुप्प अंधेरे में कुछ दीखता था, सो अंदाजा लगाना मुश्किल था कि भीतर क्या कुछ घट रहा है।
लगभग तीस दिन बीत गये थे। बाली का न तो कुछ समाचार आया था, न ही कहीं से कोई उम्मीद दिखती थी। सुग्रीव अब निराश हो चले थे। बाली जैसे अजेय भाई के गायब हो जाने और अपने असहाय हो जाने की कल्पना मात्र से उन्हे रोना आ गया। वे अपने पास बैठे बुज़ुर्ग मंत्री जामवंतजी से कुछ कहने ही वाले थे कि अचानक चौंक गये। गुफा के भीतर से खून की एक लकीर आती हुई दिखी जिसे देख कर सुग्रीव के हाथ-पैर ठण्डे हो गये। सबने देखा, बह कर आने वाला खून किसी मनुश्य का ताज़ा खून था।
तुरन्त ही पम्पापुर से बाक़ी बचे मंत्रियों को बुलाया गया। सबका एक ही मत था कि मायावी छल से बाली को ऐसी गुफा में ले गया था जहाँ पहले से ही उसके साथी छिपे बैठे थे। वहाँ बाली पर कई लोगों ने एक साथ हमला कर दिया था, बाली बहुत ताकतवर थे वे एक महीने तक उन दुश्मनों से लड़ते रहे और आखिरकार उन्हे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
सुग्रीव को लगा कि अगर सचमुच महाराज बाली का देहावसान हो गया है तो उनका शत्रु उन्हे मार कर बाहर आयेगा। ऐसे खूंख्वार आदमी से सीधे और युद्ध में अंजान सुग्रीव कैसे लड़ पायेंगे। मायावी निश्चित ही सुग्रीव को चींटी की तरह मसल डालेगा।
सब लोगों ने विचार करके निर्णय लिया कि इस गुफा का मुंह पत्थर की एक बड़ी चट्टान से बंद कर देना चाहिए और यहाँ से हट कर राजधानी पंपापुर चल देना चाहिऐ।
ऐसा ही हुआ। गुफा का मुंह बंद करके सब लोग राजधानी लौट आये।
अगले दो-चार दिन और इंतज़ार किया गया।
मंत्रियों ने सलाह दी कि एक महीने से किष्किन्धा राज्य बिना राजा का है, ऐसे में राज्य बहुत असुरक्षित होता है। इसलिए उचित होगा कि सुग्रीव राजा बन जायें और अपने भाई द्वारा छोड़ा गया राज्य संभालें। सबके हित में यही काम उचित होगा।
सुग्रीव कई दिन इन्कार करते रहे। फिर एक दिन महारानी तारा ने भी यही संदेश दिया गया तो सुग्रीव मना नहीं कर पाये।
बिना किसी उत्सव और ढोल-ताशे बजाये सुग्रीव चुपचाप किष्किन्धा के राजसिंहासन पर बैठ गये। राज्य का झण्डा बदल कर केशरिया बनाया गया, जिसके बीचोंबीच इन्द्र के तीन सूंड़ वाले हाथी ऐरावत का चित्र बना था। राज्य में चलने वाले सिक्कों पर भी ऐरावत का चित्र बनाया गया। सुग्रीव के इश्टदेव इन्द्र थे, इसलिए राज्य के सारे निशानों पर सूरज की जगह इंद्र के चिह्न आ गये। बस इतना-सा परिवर्तन हुआ। बाक़ी सब ज्यों का त्यों रहा। वही मंत्री परिशद। वही सेनापति और वही युद्ध प्रणाली।
फिर एक दिन चमत्कार हुआ।
थके और कमजोर से एक बानर योद्धा ने पंपापुर में बड़े सुबह प्रवेश किया। वह धूलधूसरित और कई जगह से फटा हुआ लंगोट पहने था। उसके शरीर पर बने कई जख्मों से खून बह रहा था और वह, जमीन को ताकते हुए चल रहा था। बाज़ार के मुख्य चौराहे पर आ कर वह बानर खड़ा हुआ तो उसके चेहरे पर अचरज झलक उठा। चौराहे पर बने ध्वज दण्ड में केशरिया रंग का ऐसा ध्वज लहरारहा था जिसके बीचोंबीच सफेद रंग के एक हाथी की आकृति बनी थी जिसकी तीन सूंड़ थी।
झण्डा देख कर उस बानर ने एक तेज हुंकार भरी तो लोगों ने आवाज़ से पहचाना, 'अरे ये तो हमारे पुराने महाराज बाली है, जिनको मरा हुआ मान कर सारे आखिरी क्रिया करम कर दिये गये हैं।'
बाली की हुंकार जब राजमहल में पहुँची तो वहाँ भूकंप-सा आ गया। महल के नये सैनिक, नौकर और दूसरे लोग भयभीत से इधर-उधर भागने लगे। ...और राजा सुग्रीव तो सबसे ज़्यादा डरे हुए थे। उन्होंनेअपने मंत्रियों को तत्काल बुलाया। मंत्रियों ने ही तो जल्दी मचाई थी कि बाली को मरा हुआ मान कर सुग्रीव राजा बन जायें। सुग्रीव इंतज़ार कर रहे थे, लेकिन सिवाय हनुमान और जामवंत के कोई भी मंत्री उनके पास नहीं आया था, लग रहा था कि वे भी डर के मार या तो कहीं भाग गये थे या फिर छिप कर बैठ गये थे।
जामवंत की सलाह पर सुग्रीव ने अपना राजमुकुट एक थाली में सजाया और वे अपने दोनों प्रिय मत्री जामवंत व हनुमान के अलावा, अपनी पत्नी रूमा, बेटा गद और भाभी तारा व भतीजे अंगद को साथ लेकर चौराहे पर खड़े बाली के पास चल पड़े।
सुग्रीव को देख कर बाली ने फिर से हुंकार भरी। जिसे सुन कर सुग्रीव के आगे बढ़ते क़दम जहाँ के तहाँ ठिठक गये। लेकिन अब लौटना संभव न था सो वे तुरंत ही आगे बढ़ने लगे।
बाली के सामने पहुँच कर वे उन्होने झुककर प्रणाम किया। राजमुकुट उनके सामने रखा और नीची नजरें करके जहाँ के तहाँ खड़े रह गये।
बाली का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वे चीखे, "क्यों वे डरपोक चूहे, तुझे राजा बनने का बड़ा शौक था। तूने मेरा इंतज़ार भी नहीं किया और मेरी गुफा को बंद कर के भाग आया।"
"भैया, आपने पन्द्रह दिन इंतज़ार करने को कहा था फिर भी मैं एक महीने..." सुग्रीव ने अपनी बात कहने की कोशिश की लेकिन बाली ने उनकी बात काट दी "अरे चुप्प रहे झूठे, अंदर गुफा में कितना अँधेरा था और वह तो उसका अपना घर था, उसके पास जाने कितने हथियार थे। मैं निहत्था लड़ रहा था उससे और वह चूहा इधर-उधर छिप जाता था। तू क्या जानता है कि मैं उसके सामने गिडगिड़ाता कि बस भाई रहने दे, पन्द्रह दिन पूरे हो गये, मेरा भैया मुझे मरा मान लेगा। ...धत्तेरे की नालायक!"
बिना गलती के बाली सुग्रीव को डांटे जा रहे थे सो उन्हे भी चिढ़ हो आई, बोले "आप को क्या पता कि बिना राजा के यह राज्य कितना असुरक्षित था। आपको तो आदत है कि जहाँ तहाँ फटे में टांग अड़ाते हों।"
बाली को बड़ा अचरज हुआ कि सुग्रीव ऐसी कड़वी बात कह रहा है, उसमें इतनी हिम्मत कहाँ से आई? उन्होंनेसुग्रीव के पास खड़े जामवंत और हनुमान को देखा, फिर कुछ सोच कर बोला, "तो तू इन दो सलाहकारों की दम पर मुझसे ऐंठ रहा है। अरे इन दोनों को तो मैं यों मच्छर कीतरह मसल डालूंगा।"
जामवंत ने बीच बचाव करते हुए कहा, "महाराज बाली, हम तो आज भी आपको ही राजा मानते हैं। हम आप भाई-भाई के बीच काहे को लड़ाई करायेंगे? और सुग्रीव जी भला हमारी हिम्मत से अपने बड़े भाई को ग़लत काहे बोलेंगे। घर की बात घर में रहने दो। आप महल में पधारो और अपना राजपाट संभालो।"
बाली ने जामवंत की उम्र का भी ख़्याल नहीं किया। अपनी आदत के अनुरूप उन्हे भी बूढ़ा और रंगा सियार आदि अपशब्द बोलने लगे तो हनुमान का भी खून खौल उठा, लेकिन वे चुप खड़े रहे। बाली ने उनसे कुछ नहीं कहा था इसलिए बीच में बोलना उन्हे उचित नहीं लगा।
अचानक बाली का गुस्सा फिर भढ़क उठा, उन्होंनेअपनी गदा संभाली और बिना चेतावनी दिये एक छलांग लगाकर सुग्रीव पर हमला कर दिया। सुग्रीव तो पहले से ही डरे हुये थे और फिर बिना हथियार के वहाँ आये थे सो वे जब तक संभलते तब तक तो बाली ने उन्हे मारते-मारते अधमरा कर डाला था।
तब हनुमान को लगा कि अब बीच में आना ठीक होगा सो उन्होंनेबाली और सुग्रीव के बीच जाकर बाली का हाथ पकड़ लिया और बोले "इनको मार ही दोगे क्या?"
बाली हैरान थे। उन्हे पता था कि यदि कुश्ती हुई तो हनुमान भी ज़्यादा कमजोर साबित नहीं होंगे। मन मार के उन्होंनेअपना हाथ रोका और नफ़रत भरे स्वर में बोले, "तुम कहते हो तो आज इसे छोड़ देता हूँ। जाओ मैं आज से तुम तीनों को देशनिकाला देता हूँ। आप लोग तुरंत ही मेरा राज्य छोड़ दो।"
सुग्रीव बहुत बेइज्जत हो चुके थे। वे मुड़े और अपनी पत्नी से बोले, "चलो रूमा, अपन लोग चलते हैं।"
"इसको कहाँ ले जाता है? इसी जगह रहेगी।" बाली ने सुग्रीव को डांटा तो सुग्रीव को सांप ही सूंघ गया।
हनुमान और जामवंत भी हक्के-बक्के होकर सुग्रीव को देख रहे थे।
फिर बाली ने घुड़क कर सुग्रीव से कहा, "तुम बड़े बेशर्म हो, अब तक यहीं खड़े हो। चलो भागो यहाँ से। नहीं तो..."
"भाई साहब मैं अपने पति के साथ..." रूमा ने बाली को टोकने का प्रयास किया, लेकिन बाली ने उसकी बात को बीच में ही काट दिया, "तुम चुप रहो रूमा। ये तो आज से खानाबदोश हो गया, तुम कहाँ मारी-मारी फिरोगी? चलो तुम तारा के साथ महलों में रहो।"
बाली ने बिलखती रूमा का हाथ पकड़ा और नन्हे से गद को भी अपने साथ लेकर महल की ओर चल दिये थे। उधर संग्रीव बेइज्जती और गुस्से में भरे हुए उन्हे देख रहे थे। जब बाली नजरों से ओझल हो गये तो सुग्रीव को होश आया और वे चुपचाप उस मार्ग पर बढ़ गये जो पम्पापुर से बाहर ऋष्यमूकपर्वत को जाता था।