बाल-साहित्यः बच्चों में पढ़ने की दक्षता बढ़ाए / कौशलेन्द्र प्रपन्न

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बाल साहित्य में इस बरस क्या कुछ लिखा-पढ़ा गया इस बाबत कोई उत्सुकता बड़ों और बच्चों में देखने को नहीं मिलता। बाल साहित्य की समीक्षा व मूल्यांकन न होना एक बड़ी चिंता का विशय है। वयस्कों के लिए कथा-कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना आदि विधाओं में कौन-सी किताब चर्चित रही इसकी जानकारी तो मिलती हैं, लेकिन यदि कोई यह जानना चाहे कि बच्चों की कहानी, कविता एवं उपन्यास इस बरस कौन-सी छप कर आई, किस प्रकाशन से आई आदि तो हम बड़ों की दुनिया खामोश नजर आएगी। अमूमन हर साल जब साहित्य की विविध विधाओं के प्रमुख किताबों की समीक्षा होती है। तब बाल साहित्य के भूगोल की कोई पदचाप नहीं सुनाई देती। ऐसे में कहानी के नाम पर नैतिकता, मूल्य व आदर्श आदि ठूंसने को बेताब कहानी व बाल साहित्य अटी हुई हैं। हर कहानी के बाद सवाल इस कहानी से क्या सीख मिलती है? क्या हर कहानी के पीछे कोई न कोई सीख मिलना ज़रूरी है? क्या कहानियां महज कोई न कोई शिक्षा, नैतिकता व संदेश देने के लिए ही लिखी जाती हैं या फिर कुछ कहानियां महज मनोरंजन के लिए भी होती हैं? कथासत्सई, पंचतंत्र, बेताल पचीसी, तेनाली राम, अकबर बीरबल, चंदामामा, नल-दमयंती, सवित्री आदि की कथा परंपरा भारत में बेहद पुरानी हैं। लेकिन समय के साथ कहानियों के कथावस्तुओं में बदलाव देखे जा सकते हैं।

बाल साहित्य व बच्चों को विमर्श की परिधि में रख कर जो भी साहित्य लिखे गए हैं वह दरअसल बच्चों के लिए नहीं, बल्कि बड़ों के द्वारा बड़ों को संबोधित लेखन ज़्यादा मिलता है। इन साहित्यों में बच्चे महज चिंता के तौर पर उभर कर आते हैं। यदि हम हिन्दी साहित्य के इतिहास के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, काल खण्ड यानी 1900 से 1920 तक पर एक विहंगमदृश्टि डालें तो पाते हैं कि 'सरस्वती' पत्रिका में द्विवेदी के संपादकत्व काल 1903-1920 तक में उस समय के समकालीन लेखकों, साहित्यकारों, कवियों आदि की रचनाओं को व्यापक स्तर पर सुधार कर प्रकाशित किया जा रहा था। इस काल खण्ड में बाल- लेखन में कौन-कौन सक्रिय थे इसकी जानकारी साहित्येतिहास में नगण्य है। यदि समग्रता से इस काल खंड़ व इससे पूर्व भारतेंदु काल में तो कुछ रचनाएं मिल भी जाती हैं पर उसे पर्याप्त नहीं कह सकते। हालांकि भारतेंदु ने 'बाल बोधिनी' पत्रिका निकाल रहे थे, लेकिन बाकी के रचनाकारोंने तकरीबन बाल- साहित्य पर सम्यक लेखन न के बराबर किया है। द्विवेदी काल खंड़ से निकल कर जब हम प्रेमचंद की रचनाओं को टटोलते हैं तो इनके साहित्य में बाल मनोविज्ञान और बाल जगत् पर केंद्रीत रचनाएं मिलने लगती हैं। इनकी कहानी गिल्ली डंड़ा, ईदगाह का हामिद आज भी कई कोणों से विवेचित होता रहा है। साथ ही 'मंत्र' कहानी को भी भुल नहीं सकते। वहीं दूसरी ओर विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक की कहानी 'काकी', सुदर्शन की कहानी 'हार की जीत' ख़ासे महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। इससे आगे विष्णु प्रभाकर, देवेंद्र सत्यार्थी, नागार्जुन आदि ने भी बाल साहित्य को नजरअंदाज नहीं किया। इन्होंने भी बच्चों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के लिए कहानियां, कविताएं लिखीं। साथ ही निरंकार देव, कृष्ण कुमार के संपादकद्वे द्वारा तैयार बच्चों के लिए कविता की किताबें मिलती हैं। इसके साथ ही बच्चों की सौ कहानियां, बाल कथा, बच्चों की रोचक कहानियों का दौर भी मिलता है। 1970 के दशक में बालकृश्ण देवसरे, विभा देवसरे, प्रकाश मनु, कृश्ण कुमार आदि ने बच्चों की ज़रूरतों, रूचियों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के लिए रचनाएं कीं।

बाल- साहित्य की व्यापक विवेचना करने से हमें हिन्दी के अलावा भारत की अन्य भाशाओं में भी रचनाएं मिलती हैं उससे एक संतोश ज़रूर मिलता है कि कम से कम भारत में बाल साहित्य उपेक्षित नहीं है। चंदामामा, नंदन, बाल- हंस, पराग आदि पत्रिकाएं साक्षी हैं कि सत्तर के दशक के बाद के बच्चों को इन पत्रिकाओं का साथ मिला। वहीं अंग्रेजी में आर के नारायण की लेखनी धुआंधार चल रही थी। 'मालगुडीडेज' इसका जीता जागता उदाहरण है। इस उपन्यास की लोकप्रियता ने ही दूरदर्शन पर धारावाहिक प्रसारण को विविश किया। इनके पात्रों को जीवंतता तो मिली ही साथ ही खासे प्रसिद्ध भी हुए. वहीं दूसरी ओर गुलज़ार के योगदान को भी कमतर नहीं कह सकते। 'पोटली वाले बाबा', 'सिंदबाद', 'मोगली' आदि के गीत एवं कहानियां न केवल कर्णप्रिय हुईं। बल्कि बच्चों में बेहद पसंद की गईं। 'चड्डी पहन के फूल खिला है फूल खिला है' अभी तक बच्चों एवं बड़ों को गुदगुदाते हैं। वहीं सिदबाद जहाजी का टाइटिल सॉंग 'डोले रे डोले डोले डोले रे / अगर मगर डोले नैया भंवर भंवर जाय रे पानी'। गुलज़ार ने बच्चों के लिए जिस प्रतिबद्धता से बाल गीत, कविताएं लिखीं वह आज तलक लोगों की स्मृतियों में कैद हैं।

पं विश्णु शर्मा रचित पंचतंत्र की विभिन्न कहानियों को आधार बनाकर अलग-अलग लेखकों ने अपनी परिकल्पना के छौंक लगा कर पुनर्सृजित किया। खरगोश और कछुए की दौड़, प्यासा कौआं, लोभी पंड़ित, लालची लोमड़ी, ईमानदारी का फल, आदि कुछ ऐसी प्रसिद्ध कहानियां हैं जिसे 1960 के दशक से लेकर आज भी बच्चे पढ़कर आनंदित होते हैं। इन कहानियों की खूबी यही है कि इनमें जीव जंतु, सामान्य प्राणि शामिल हैं। इसके पीछे नैतिक शिक्षा देने का उदेश्य तो है ही साथ ही बच्चों का मनोरंजन करना भी एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक है। तेनालीराम, अकबर बीरबल, शाबू, चाचा चौधरी, मामा-भांजा आदि बाद की चित्र कथाएं भी बच्चों में खासे लोकप्रिय हुईं। लेकिन जो आनंद एवं पढ़ने की लालसा पंचतंत्र की कहानियों को लेकर मिलती हैं वह इन चित्रकथाओं में कम है। इन चित्रकथाओं को पढ़ने वाले बच्चे मां-बाप, अभिभावकों से छुप कर किताब में दबा कर अकेले में पढ़ते थे। जबकि पंत्रतंत्र की कहानियों की किताबें अभिभावक स्वयं खरीद कर देते थे। इसके पीछे क्या कारण है। वजह यही था कि इनमें साकाल, शाबू, एवं अन्य पात्र हिंसक, बच्चों में आक्रामक्ता, गुस्सा आदि के भाव को जागृत करने में मदद करते थे। हिंसा, घृणा, आक्रामक्ता जैसे भाव को पहले इन चित्रकथाओं में स्थान मिला। जब इस तरह की कथा शृंखलाएं पसंद की जाने लगीं तब इन्हीं का दृश्य श्रव्य माध्यमों में ढ़ाल कर परोसा जाने लगा।

अब हम अपने मुख्य चिंता पर पुनः लौटते हैं बाल साहित्य को भी श्रव्य दृश्य माध्यमों ने कहीं न कहीं प्रभावित किया। अव्वल तो स्कूल जाने और लौट कर आने के बाद होमवर्क और थोड़ी-सी पढ़ाई के बाद जो समय हाथ में बचा वह टीवी देखने में गुजर जाती हैं। बहुत सीमित बच्चे हैं जो इस तरह की दिनचर्या में बाल-कहानी, बाल-उपन्यास, बाल कविताएं व बच्चों की पत्रिकाओं को पढ़ते हों। यह अलग बात है कि अंग्रेजी भाशा ने अपनी चमत्कारिक छटा में बच्चों को खिंचने में कुछ हद तक सफल रही है। मसलन हैरी पोटर की शृंखला बद्ध उपन्यास जो सात से आठ सौ पेज से कम नहीं हैं बच्चों ने अभिभावकों को खरीदने पर विवश किया। कई ऐसे बच्चे मिले जिन्होंने दो से तीन दिन के अंदर मोटी किताब खत्म कर दी। यहाँ लेखक की कौशल एवं प्रस्तुतिकरण की दाद देनी पड़ेगी कि उसने न केवल यूरोप बल्कि एशियन देशों के बच्चों को भी पढ़ने पर विवश किया। और देखते ही देखते इस उपन्यास पर झटपट फिल्म भी आ गई. जो मज़ा पढ़ने में आता है वह अलग बात है। लेकिन पढ़ी हुई घटनाओं को पर्दे पर आवाज़, सचल रूप में देखने का एक अलग आनंद है जो बच्चों ने उठाया। यहाँ पाठक और पुस्तक के बीच भाशा बाधा नहीं बन पाई. देखते ही देखते इस उपन्यास को कुछ प्रकाशन संस्थानों ने हिन्दी में अनुवाद करा कर पाठकों को मुहैया करा रहे हैं।

व्यस्कों के मनोविनोद के लिए कथाकारों ने न केवल कहानियां लिखीं बल्कि उन्हें प्रकाशित करने और प्रसारित करने के लिए पत्रिकाओं का प्रकाशन भी शुरू किया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी से लेकर विश्णु प्रभाकर, बालकृश्ण देवसरे, प्रकाश मनु, विभा देवसरे, क्षमा शर्मा, रमेश तैलंग, दिविक रमेश आदि ने बाल कहानियों के सिलसिले को आगे बढ़ाया। गौरतलब तथ्य यह भी है कि बाल कहानियों को परोसने वाली पत्रिकाओं की खासा कमी महसूस की जाती रही है। यदि बाल कथा व बाल पत्रिका की तलाश में निकलें तो निराशा ही हाथ लगेंगी। क्योंकि यदि हिन्दी में देखें तो नंदन, बाल हंस, चंपक, चंदामामा को छोड़ को शायद ही कोई और नाम याद आए। दरअसल बाल कहानियों और बाल पत्रिकाओं को बाज़ार के हिसाब से न तो देखा गया और न ही गंभीरता से इस ओर ध्यान ही दिया गया।

बाल साहित्य को बढ़ावा देने के लिए राज्य स्तर पर काफी प्रशंसनीय काम हो रहे हैं, लेकिन उनकी पहचान और पहुंच अभी भी सीमित है। शैक्षिक दख़ल, दीवार पत्रिका, संदर्भ आदि। यहाँ गिनाए गए नामों पर न जाएं क्योंकि इनमें शामिल कुछ वे भी पत्रिकाएं हैं जो राश्टीय स्तर पर पहचान बना चुकी हैं। लेकिन यह सौभाग्य उन हजारों पत्रिकाओं को नसीब नहीं है जो पचास, सौ कॉपी छपती हैं, जिन्हें खरीदने वाले भी बड़ी मुश्किल से मिला करते हैं। आर्थिक पक्ष कमजोर होने की वजह से अच्छी और प्रतिष्ठित पत्रिकाएं हमारे बीच नदारत हो गईं। लघु पत्रिकाओं को जीवन दान देने वाले लेखक वर्ग ही प्रमुखता से होते हैं। इन्हें सरकारी प्राण वायु कम ही मिल करती हैं जिसकी वजह है इन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ती है।

क्या किसी बचपन की कल्पना बिना कथा-कहानी की की जा सकती है? क्या कहानियों, पत्रिकाओं के बगैर पढ़ने की आदत विकसित की जा सकती है? बच्चों में पढ़ाने की रूचि विकसित करनी है तो हमें उन्हें बाल साहित्य उपलब्ध कराने होंगे। वहीं हमारे शिक्षकों और अभिभावकों को भी साहित्यिक रूचि को बचाए रखना होगा। यदि वे स्वयं पत्रिकाएं, कहानियां, बाल गीत आदि नहीं पढ़ेंगे तब वे किस प्रकार बच्चों को बाल गीत, बाल कहानी उपलब्ध करा पाएंगे।

इन पंक्तियों के लेखक को अक्सर शिक्षकों से बातचीत करने का मौका मिलता रहा है। उन के साथ बातचीत में जो तथ्य निकल कर आती हैं वे बड़ी चिंताजनक हैं। स्वयं शिक्षक न तो साहित्य पढ़ा करते हैं और न पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने की जोखिम ही उठाते हैं। पढ़ने के नाम पर जब वे छात्र रहे थे तब की पाठ्य पुस्तकें पढ़ी थीं। लेकिन जॉब में आने के बाद इनका वास्ता पढ़ने से कटता चला गया। इसमंे पीछे वजह यह बताते हैं कि समय नहीं मिलता। स्कूल से घर जाने के बाद इतना समय नहीं मिलता कि वे कोई किताब पढ़ें। लेकिन यह कहानी पूरी नहीं है। क्योंकि कई शिक्षक / शिक्षिकाओं को यह भी मानना है कि पढ़ना तो चाहती हैं लेकिन कौनी-सी किताब पढ़ें इसकी न तो जानकारी है और न समझ ही। यानी आंख, नाक, कान बंद कर जीने वाले शिक्षकों की प्रजाति में पढ़ने नाम की चिड़िया पर भी नहीं मारती। यदि पढ़ने का सुझाव दें तो तपाक से कहते हैं आपकी जैसी नौकरी नहीं है कि पढ़ते-लिखते रहें। हमें कॉपियां भी जांचनी पड़ती हैं, जनगणना, सर्वे जैसे गैर शैक्षिक काम भी निपटाने होते हैं। इनके तर्कों को ध्यान में रखें तो एकबारगी इनके तर्क संगत लगेंगे लेकिन साथ ही यह भी हकीकत खुलेगा कि यह बचने के तौर तरीके हैं। क्यूँकी इन्होंने छात्र जीवन में भी पाठ्यपुस्तकों को ही पढ़ना मान कर डिग्रियां हासिल कर लीं। रफ्ता रफ्ता नौकरी भी लग गई.

कवियों और गद्यकारों के साहित्य को विस्तार और ठहर कर देखें तो पाएंगे कि बच्चे काम पर जा रहे हैं लिखने वाले कवियों की संख्या बेहद कम है। नागार्जुन, विश्णु नागर, उदय प्रकाश, ज्ञानरंजन, अरूण कमल आदि की कविताओं में बच्चे मिलते हैं। वे बच्चे जो कामकाजी हैं, वैसे बच्चे भी हैं जो खाए अघाए वर्ग से आते हैं। वहीं केदार नाथ सिंह की कविता एक माँ की बेबसी कविता पढ़ना-पढ़ाना बेहद कठिन और गझिल भावों से ओतप्रोत है। कई बार शिक्षकों से बातचीत में यह बात सामने आई कि एक माँ की बेबसी को कैसे पढ़ाएं। क्योंकि यह कविता अतुकांत और गद्य के ज़्यादा करीब है। इस कविता में जब तक शिक्षक मदद नहीं करता बल्कि कहना चाहिए शिक्षकों को भी मदद की आवश्यकता पड़ती है कि इस कविता को कैसे समझें और समझाएं। यह एक अलग विमर्श का मसला है कि बच्चों को कविताएं यानी पद्य व गद्य शिक्षण कैसे रेाचक तरीके से किया जाए. यदि हम पाठ्यपुस्तकों में शामिल कविता, कहानी की शैक्षिक विमर्श एवं शिक्षण की दृश्टि से विमर्श करें तो यह एकदम अलग चर्चा होगी क्योंकि कविता, कहानी, यात्रा वृत्तांत, व्यंग्य आदि लिखना और उसकी शिक्षण पद्धति क्या हो दोनों ही दो धरातलों पर खड़ी हैं। इसलिए इन्हें फेटना ठीक नहीं। लेकिन जब हम बाल साहित्य एवं बाल कविता, कहानी की बात करेंगे तो उसमें प्रकारांतर से शिक्षण भी शामिल करना होगा। क्योंकि तमाम कविताएं, कहानियां अंतोत्गत्वा आगामी पाठकों के लिए ही तो होती हैं। यदि वर्तमान के पाठकों को साहित्य बांधने में समर्थ नहीं है तो साहित्य किसके कंधे पर सवार होकर आगे की यात्रा तय करेगा।

बाल साहित्य और आम साहित्य में एक बारीक का फर्क होता है-पहला, पाठक वर्ग और दूसरा, साहित्य का कथ्य और साहित्य का मकसद क्या है। बाल साहित्य का पाठक वर्ग देखा जाए तो बहुत व्यापक है और विस्तृत भी। यही कारण है कि बच्चों को बाज़ार ने अपना शिकार बनाया। बच्चों को जाल में फांसने के लिए तरह तरह के उत्पाद बाज़ार में उतारे गए। खानपान से लेकर पहनने-ओढ़ने, लिखने-पढ़ने आदि की वस्तुओं पर नजर डालें तो बाल बाज़ार की बढ़ती मांग और खपत के सिद्धांत को समझा जा सकता है। बच्चों को यदि साहित्य का ग्राहक बनाना है तो हमें उनकी रूचि, ललक, पसंदगी आदि को ध्यान में रखकर बाल साहित्य में और लेखकों का उतरना होगा। दूसरा बाल साहित्य का कथ्य क्या हो, किसके लिए हो यानी उस साहित्य का पात्र / पाठक वर्ग कौन है उसको संज्ञान में लेते हुए बाल साहित्य लेखन कार्य को आगे बढ़ाना होगा।

प्रेमचंद, विश्णु प्रभाकर, हरिकृश्ण देवसरे, क्षमा शर्मा, प्रकाश मनु, शेरजंग गर्ग, रमेश तैलंग, दिविक रमेश, बालस्वरूप राही, अशोक लव, सुरेद्र विक्रम, हरीश नवल, प्रेम जनमेजय आदि ने जिस शिद्दत से बाल साहित्य को अपना पूरा समय और सर्जन क्षण दिए उसके लिए निश्चित ही बाल साहित्य जगत कभी नहीं भूल सकता। इन लेखकों ने अपनी रचनांे में ने केवल बाल मनोरंजनपरक साहित्य लिखे बल्किइन्होंने बालोपयेागी समाज बनाने की वकालत भी करते रहे। दूसरे शब्दों में इनका बाल साहित्य सरोकार व्यापक था। एक ओर वे लिख रहे थे तो वहीं वे मंच पर विमर्श और आगाज करने में भी पीछे नहीं रहते थे। प्रेमचंद की कहानी ख़्याति प्राप्त ईदगाह, गिल्ली डंडा, मंत्र, कफ़न आदि कहानियों के कथ्य से गुजरें तो कथा साहित्य की कालातीतता का निदर्शन होता है। ईदागाह, मंत्र या फिर सुदर्शन की कहानी हार की जीत का बाबा खड़क सिंह कोई भूल नहीं सका है। इन कहानियांे के कथ्य और कथ्य के साथ लेखकीय प्रतिबद्धता कहानी को जीवंतता और समाज, काल सापेक्षता से परे ले जाता है। लेकिन अफ्सोस की बात है कि आज हमारे पास बाल कथाकार व कहें बाल साहित्यकारों की ख़ासा कमी है। मुख्यधारा के कथाकार / साहित्यकार कभी कभार मांग पर या फिर यूं ही बाल साहित्य की रचना करते हैं। यदि उनकी सच्चाई पूछी जाए तो हकीकत कुछ और ही सुनने को मिलेगा। यह उनकी पहली प्राथमिकता नहीं होगी। तर्द्थ लेखन से बाल साहित्य की समृद्धता की उम्मीद नहीं कि जा सकती।

पत्र-पत्रिकाओं से हमारा साबका बहुत पुराना है। बचपन में नंदन, चंपक, बाल हंस, चाचा चौधरी, साबे आदि पत्रिकाओं को पढ़ना रोचक लगता था। उसमें भी नंदन में छपने वाली पहेली और गलतियां ढूंढ़ो कॉलम तो खासा प्रसिद्ध था। जो जितनी गलतियां निकाल पाता था उसके आधार पर बुद्धिमान कौन है इसका अनुमान और प्रमाण पा कर हमलोग खुश हो जाया करते थे। नंदन आदि में छपने वाली कहानियां और कविताएं विशेशकर लुभाती थीं। यदि इसकी तुलना पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाई जाने वाली कहानी से करें तो नंदन आदि में छपी कहानियां ज़्यादा लुभाती थीं। क्योंकि उसमें छपे चित्र, रंग, संवाद बेहद रेाचक और रंगीन होते थे। उससे भी बड़ी बात यह कि कौन कितना ज़्यादा मैग्जीन पढ़ता है इसकी भी होड लगा करती थी। कई कई दफा तो एक दिन में चार से पांच मैग्जीन पढ़कर निपटा दिया करते थे। इन पत्रिकाओं को साझा पढ़ने का सुख बयां नहीं किया जा सकता। जो देास्त पढ़ने मंे दिक्कतें महसूस करते थे वे एक अच्छे श्रोता की भूमिका मंे होते थे। उन्हें पढ़ने वाले के नाज नखरे उठाने पड़ते थे। उन दिनों पढ़ सकने वाले बच्चों के अपने तेवर भी होते थे। उन्हें मालूम था कि आखिरकार पढ़ाने में उनके पास ही आएंगे। यानी एक बात तो स्पश्ट है कि पाठेत्तर साहित्य खूब मजे में पढ़े और बांटे भी जाते थे। वहीं पाठ की कहानी, कविता याद करने में वक्त लगा करता था। इसके पीछे का रहस्य व गुत्थी अब खुलती है कि वे कहानियां, कविताएं बच्चों की रूचि, परिवेश, भाषा, पसंदगी आदि को ध्यान में रखकर लिखी और संपादित की जाती थीं।

अखबारों, पत्रिकाओं में धीरे-धीरे बच्चों के लिए स्थान तय किए जाने लगे। गौरतलब है कि कभी वानर जैसी पत्रिकाएं भी निकाली गईं। जो पूरी तरह से बच्चों की दुनिया पर आधारित था। वहीं विश्णु प्रभाकर, शेरजंग गर्ग, पंकज चतुर्वेदी, दिविक रमेश आदि ने भी बच्चों की कहानियों और पत्रिकाएं के लिए सराहनीय कार्य किया। पंकज चतुर्वेदी ने तो देश के विभिन्न राज्यों में स्थानीय लेखकों, शिक्षकों के बीच कहानी लेखन, पत्रिका निर्माण की कार्यशालाएं भी आयोजित की हैं जिसे बाद में एनबीटी ने प्रकाशित भी किया। इस किस्म के बाल पत्रिकाओं के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जहां तक समाचार पत्रों मंे छपने वाली बाल कहानियों, साहित्य की बात करें तो एक आशा तो बंधती है लेकिन साथ ही निराशा भी होती है कि अखबारों में छपने वाले साहित्य के नाम पर चुटकुले, पहलियां और एक छोटी-सी कहानी छाप दी जाती हैं। धीरे धीरे वे जगहें भी झिजती जा रही हैं। एक अखबार के अंतिम पन्ने पर सिमट चुकी है बच्चों की दुनिया। यदि अखबारों और पत्रिकाओं के बाल पन्नों को देखें तो पाएंगे कि उन्हें कितना स्थान मिलता है। हिन्दुस्तान तो चार पन्नों की एक मैग्जीन जिसका नाम नंदन है। वहीं जनसत्ता में रविवार को मैग्जीन का अंतिम पन्ने का आधा हिस्सा बच्चों के लिए तय कर रखा है। दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण आदि में भी समुचित स्थान मिलता है। यदि पत्रिकाओं पर नजर डालें तो हंस, कथादेश, नया ज्ञानोदय, समयांतर, कथा, समीक्षा आदि में साहित्यिक पत्रिकाओं में बच्चों के लिए कोई भी कोना मयस्सर नहीं है। हालांकि यहाँ इस तर्क का सहारा लिया जा सकता है कि यह तो बड़ों की पत्रिका है इसमें बाल साहित्य का क्या दरकार। लेकिन क्या यह इतना सहज और आसान रास्ता है जहां से बच कर निकला जा सकता है।