बाल आश्रम / अंजू खरबंदा
इस बार माँ की बरसी पर सभी भाई बहनों ने फ़ैसला किया कि बाल आश्रम जाएँगे। वहाँ जाने पर पता चला हाइजिन की दृष्टि से वे पका हुआ खाना नहीं लेते।
"आप दाल, चावल, आटा तथा नवजात बच्चों के लिये सेरेलक दे सकते है।" उन्होंने बताया।
जब हम सामान लेकर पहुँचे, तो हमारे निवेदन पर उन्होंने हमें बच्चों से मिलवाया। पूरी तरह से अनुशासित, तकरीबन दस साल तक की उम्र के कई बच्चे उस बाल आश्रम में रह रहे थे।
"आपने बताया कि नवजात शिशु भी हैं यहाँ! क्या हम उनसे मिल सकते है!" मेरी छोटी बहन लीना ने उत्सुकता से पूछा।
"नहीं! इंफेक्शन के डर से उन्हें अलग रखा जाता है।"
"अगर हो सके तो मिलवा दें ... बड़ी मेहरबानी होगी।" मैंने विनम्रता से कहा।
थोड़ी मिन्नत चिरौरी के बाद वे तैयार हो गए, साथ ही ताकीद की-"जूते चप्पल कमरे से बाहर उतार कर अंदर जाइएगा और किसी भी बच्चे को छुइएगा मत।"
"जी!" आज्ञाकारी बच्चों की तरह हमने हाँ में सिर हिला दिया।
कमरे के अंदर जाते ही हम हैरान रह गए। साफ-सुथरा—सा हॉल, बड़े-बड़े पालनों में सफेद झक चादरें बिछी थीं और उनमें लेटे थे नन्हे-नन्हे शिशु! उन्हें देखते ही दिल धक्-से रह गया एकदम। नर्सें देखभाल में व्यस्त थीं। एक पालने की ओर बरबस ध्यान गया। , तो देखा नीम गहरी निद्रा में सोया नन्हा-सा बालक। अनायस क़दम उसकी तरफ़ बढ़ गए।
नर्स ने बताया "आज सुबह ही इसे रेल की पटरी से उठाकर लाया गया है। बुखार से पूरा बदन तप रहा था। अभी दवाई देकर सुलाया है।"
अभी हम बातें ही कर रहे थे कि वह बालक रोने लगा।
"क्या मैं इसे उठा सकती हूँ...!"-कहते हुए मेरी आवाज़ भर्रा गई।
जाने क्या सोचकर नर्स ने हामी भर दी। जैसे ही मैंने उस नन्ही—सी जान को उठाकर गले से लगाया, तो दिल भर आया। कुछ क्षण पश्चात् नर्स उस बच्चे को वापिस लेने लगी, तो उसने मेरी कमीज की बाजू कसकर थाम ली।
"अरे अरे!" कहते हुए नर्स ने उसकी नन्ही-सी मुट्ठी खोलने की कोशिश की। शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता कि उस समय मेरी हालत क्या थी! बस अविरल अश्रुधारा हम सभी की आँखों से बह निकली।
-0-