बाल कथा: कैसी कहानी किसकी कहानी / मनोहर चमोली 'मनु'
बच्चों के लिए कहानी लिखते समय कहानी के आदर्श तत्वों को एक तरफ रख देना चाहिए। लेकिन इतना भी नज़रअंदाज़ करना ठीक न होगा कि पाठक को कहानी हजम ही न हो। वैसे यह कहना भी शायद ठीक न होगा कि किसी कहानी को आप खास आयु-वर्ग के खांचे में रखकर देंखे।
मेरे जैसे हजारों होंगे जो आज भी बाल पत्रिकाएं लपककर पढ़ते हैं। मेरी तरह हजारों पाठक होंगे, जो आज भी बाल कहानियाँ पढ़कर मुस्कराते होंगे। फिर? फिर तो यही कहा जा सकता है कि बाल कहानियाँ केवल बच्चों के लिए नहीं हो सकती। हम बड़ों, कथित बड़ों के लिए भी और बूढ़ों के लिए भी हो सकती है। यदि कहानी में कहन है, मनोरंजन है, और कुछ है, तो कहानी पढ़कर आनंद लिया जा सकता है। ये ‘कुछ’ ही बहुत कुछ है। अक्सर बाल साहित्यकार कहानी की चीरफाड़ ज्यादा करने लगते हैं। यह गलत है। हर कहानी में मुंशी प्रेमचन्द की शैली देखना मूर्खता ही है। एक अच्छी कहानी किसे कहते हैं? इस पर बहस हमेशा से चली आ रही है। किसी भी कहानी को आप हर पाठक को पसंद आने वाली कहानी नहीं कह सकते। मेरा निजी मत है कि कहानी में कोई संदेश जबरन ठूंसा हुआ-सा नहीं दिखना चाहिए। कोई सीख जबरन पिलाई हुई नहीं होनी चाहिए। लेकिन मैं यह भी नहीं कह सकता कि कहानी पढ़कर पाठक कहानी से पहले जहाँ था, यदि कहानी पढ़ लेने के बाद भी वहीं है तो वह कहानी एक अच्छी कहानी नहीं है। यह मैं भी मानता हूँ।
कहानी पाठक में विचार पैदा कर सके। कहानी पाठक को गुदगुदाने पर विवश करे। कहानी पाठक के मन-मस्तिष्क में हलचल पैदा कर सके। कहानी पढ़कर पाठक को आस्वाद की अनुभूति हो। दूसरे शब्दों में यह कहना अधिक मुफीद होगा कि जिस प्रकार हमें भूख लगने के बाद भोजन करने पर सन्तुष्टि मिलती है। इसी प्रकार किसी कहानी से हमारी मानसिक भूख तृप्त होनी चाहिए। कहानी से हमें इस प्रकार की खुशी भी मिलनी चाहिए, जिस प्रकार हम अपने परिचितों से मिलते हैं। कहानी पढ़कर अपनत्व का भाव भी आना चाहिए। यह सब हमें कहानी सुनकर भी मिलता है। कहानी कही जाती रही है। लिखी तो तब से जा रही है, जब से लेखन कला विकसित हुई। मानव संसार में कहानी सुनना और सुनाना आदिकाल से रहा है। मनोविनोद के साथ कहानी हमारे मानवीय संवेगों को भी प्रतिबिंबित करती है। यह कहना शायद जरूरी नहीं कि कहानी सरल हो, सहज हो। भाषा आम बोलचाल की हो तो ज्यादा अच्छी। कहानी में पात्र हों, उनका चित्रण झलकता हो। सवांद हों। एक वातावरण हो, एक कथा हो। यह भी कि कहानी कहीं न कहीं किसी निष्कर्ष की ओर ले जाने में सफल हो। यह जरूरी नहीं कि वह कोई आखिरी निष्कर्ष दे। यह भी जरूरी नहीं कि कहानी का अंत सुखद हो। कहानी का अंत पाठक के लिए भी छोड़ा जा सकता है। यही कि पाठक यह सोचने पर विवश हो सके कि उसके बाद क्या हुआ होगा। यह इसलिए भी जरूरी है कि कहानी के पाठक देश काल परिस्थिति के अनुसार अपनी समझ और अपने परिवेश के आधार पर किसी कहानी का अंत अपने ढंग से जोड़ ले। यह भी हर कहानी में हो, जरूरी नहीं।
कई बार साहित्यकार जिस पत्र और जिस पत्रिका के साथ लम्बे समय से जुड़े रहते हैं, वह उस पत्र या पत्रिका की रीति-नीति के हिसाब से समूचे बाल साहित्य की कहानियों को देखने लगते हैं। ऐसा ठीक नहीं है। यह अपने आप में विशाल अनुभव हो सकता है। लेकिन समूचा पाठक और समूचे साहित्यकार किसी एक पत्र या पत्रिका से ही जुड़े नहीं होते। कोई भी पाठक हर कहानी से भी परिचित नहीं हो सकता। सो यह कहना कि कहानी यह है। कहानी यह नहीं होनी चाहिए। नहीं कहा जा सकता। हर कहानीकार का अपना एक शिल्प होता है। हर कहानी दूसरी कहानी के शिल्प से मिलती-जुलती भला कैसे हो सकती है? उसे होना भी नहीं चाहिए।
मैं बहुत पुरानी पत्रिकाओं और पत्रों के आलोक में अपनी बात तो नहीं कह सकता लेकिन मेरी आंखों से प्रायः गुजरने वाली पत्रिकाएं जिनमें बच्चों का इन्द्रधनुष, नंदन, चकमक, चम्पक, बालहंस, बाल भारती, पाठक मंच बुलेटिन, बाल वाटिका, नन्हें सम्राट, चन्दामामा, बाल बिगुल, बाल प्रहरी, देव पुत्र, हँसती दुनिया आदि हैं। यह वे पत्रिकाएं हैं जो मुझे लिखते समय याद आ रही हैं। पत्र जो बाल साहित्य छाप रहे हैं उन्हें भी शामिल करते हुए यह कहना ठीक लग रहा है कि यदि कहानी के तत्वों पर पूर्णतः कसी हुई भी कहानी कहीं भेजी जाएगी तो जरूरी नहीं कि हर पत्रिका उसे प्रकाशनार्थ स्वीकार कर ले। दरअसल हर पत्रिका के संपादकीय साथी किसी भी कहानी को अपनी पत्रिका की रीति-नीति के हिसाब से पढ़ते हैं। यह अंततः होता ही है। कई साथी यह भी आरोप लगाते हैं कि पत्रिकाएं तो नामीचीनों को ही छापती हैं। यह कहना कि नामी छप रहे हैं, नवोदित नहीं छप रहे हैं। एकतरफा बात होगी। दरअसल। कोई भी पत्र-पत्रिका यह नहीं चाहेगी कि बाजार में उसकी गुणवत्ता प्रभावित हो। यदि कहानी दमदार है। उसे प्रकाशित करना हर कोई चाहेगा। अब यह दमदार को पहचानना बड़ा मुश्किल काम है। रचनाकार के लिए भी और प्रकाशन समूह को भी।
हमारे परिचित यह भी कहते हैं कि आजकल तो पत्रिकाओं की बाढ़ आ गई हे। हर पत्थर के नीचे देखो रचनाकार मिलेगा। फेसबुक ने तो हर आदमी को साहित्यकार बना दिया है। मैं यही कहता हूं कि इसमें बुरा क्या है? यह तो अच्छी बात है कि हर कोई आज स्वान्तः सुखाय से हटकर लोकहित में लिख रहा है। हाँं यह भी जरूरी है कि हमारी कहानी लोकोपयोगी हो। जनसरोकारों को छूती हो। समाज के समग्र हित वाली रचना को मैं तो दमदार मानता हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई कहानी विशुद्ध किसी एक पात्र के संघर्ष की, किसी दबे-कुचले-असहाय-कमजोर पात्र की आवाज नहीं बन सकती। बन सकती है। ऐसा भी नहीं कि ऐसी कहानियां पसंद नहीं की जाती। यह संवेदना का भी प्रश्न है। कहानी हमें हमारे भीतर की मानवता,संवेदनशीलता का अहसास भी तो कराती है। आखिर हम मनुष्य पशुओं से भिन्न क्यों हैं? यह हमें सोचना ही होगा। कहानी लिखना खुद मंे सुधार करने की प्रक्रिया भी है। रचनाकार से बहुत अधिक रचनाओं की अपेक्षा करना बेमानी है। लेकिन आज वह दिन नहीं है कि फणीश्वर नाथ रेणू जी की तरह कि ‘उसने कहा था’ कि तरह दो-चार कहानी लिख कर आप अपने कर्तव्यों की इति श्री कर लें। यह इसलिए भी है कि हर कहानी को लिखने से पहले रचनाकार उनके पात्रों के साथ जीता है। उन्हें महसूस करता है। उनमें जान फूंकता है। यह आसान काम नहीं है। फिर रचनाकार किसी रचना को यूं ही नहीं लिख देता है। उसका कोई ठोस कारण होता है। ध्येय भी। वह फलना-फूलना भी चाहिए।
लेकिन यह भी सही है कि आप चार-पांच संग्रह कहानियों के निकाल चुके हैं। लेकिन आपकी एक भी कहानी पाठक के मन में स्थान नहीं बना पाई तो ऐसा लेखन, ऐसी कहानी किस काम की? इसका अर्थ तो यही है कि कहानी हो तो कहानी हो। हर रोज की घटनाएं हमारी कहानी की कथा हो सकती है। हमारे आस-पास के कई पात्र हमारी कहानी के पात्र हो सकते है। हम दशा ही नहीं दिशा भी कहानी में प्रस्तुत कर सकते हैं। संभव है कि कहानी पर बात करते-करते यह आलेख कहानी से जुड़ी कई बातों को एक साथ लेकर या उलझाता हुआ लगे। ये मैं जानता हूं। कहानी क्या होती है? यह तो कोई कहानी विशेषज्ञ बता सकता है। मैं तो कहानियों को पढ़-पढ़कर इस समझ के साथ अपनी राय व्यक्त कर रहा हूं। आप कितने भी ख्यातिलब्ध हैं। आपको लगातार कहानी लिखनी चाहिए। उन्हें निसंकोच प्रकाशनार्थ भेजना भी चाहिए। यह सोचकर नहीं कि क्या पता हमारी कहानी पसंद न आए। क्या पता हमारी कहानी अस्वीकृत हो जाए। यह डर हमारी कमजोरी को प्रदर्शित करता है। रही बात संग्रह की तो वह भी अच्छी बात है। लेकिन जरूरी नहीं कि संग्रह आपका हर पाठक तक पहुंचे। पत्र-पत्रिकाआंे की पहुंच ज्यादा है। अब तो अंतरजाल बड़ा ही सशक्त माध्यम है। आपकों प्रतिक्रियाएं भी तुरंत दिख जाती है। आप अपनी कहानी के पाठकों से सीधी बात कर सकते हैं।
यह निर्विवाद ही है कि कहानी में रोचकता पहली शर्त है। कहानी की कथावस्तु कुछ भी हो। पात्र कोई भी हों। लेकिन वह आरंभ से अंत तक रोचक हो। अन्यथा आधी-अधूरी ही पढ़ी जाएगी। यह भी संभव है कि पढ़ी ही न जाए। बच्चे बेसिर-पैर की कहानियां कब तक पढ़ेंगे? लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि काल्पनिकता की गुंजाइश न रखें। लेकिन यह तय करना होगा कि आखिर किसी काल्पनिकता का सहारा ले रहें हैं तो क्यों? काल्पनिकता के ज़रिए आप क्या स्थापित करना चाहते हैं? यदि काल्पनिकता का सहारा लेकर आप पाठक को अवैज्ञानिक बनाना चाहते हैं। ढांेगी बनाना चाहते हैं। भाग्य पर भरोसा करने वाला बनाना चाहते हैं तो यह नहीं चलने वाला। आखिरकार कहानी खत्म होने के बाद पाठक किसी बात के निष्कर्ष पर खुद को अवश्य ले जाए। न कि आप उसे गड़ा हुआ खजाना सौंप दें।
अब परी कथा पर भी बात कर लें। परियों की कहानी यदि यह स्थापित कर रही है कि परियां होती हैं तो फिर वह कथा नहीं। परियों के माध्यम से यदि बच्चे में मानवीय मूल्य की ओर चाहत बढ़ती है। बच्चे में अच्छी आदत विकसित होती है तो क्या बुरा है। लेकिन यदि परी कथा के चलते बच्चा यह भ्रम में हो कि परी आकर उसका होमवर्क कर लेगी तो यह बच्चों के साथ धोखा है। मेरे एक साथी हैं। वह बच्चों की कहानी बच्चों की उम्र के हिसाब से लिखते हैं। ऐसा संभव है? पता नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि आप किसी कहानी को किसी खास उम्र के बच्चांे के लिए कैसे रख सकते हैं? यह लेखक सोचे तो सोचे। लेकिन क्या वह कहानी उस उम्र के नीचे या उस उम्र के ऊपर के पाठक नहीं पढ़ेंगे। पढ़ेंगे तो उतना आनंद नहीं लेंगे जितना आनंद उनके सोचे गए वय वर्ग के बच्चे ने लिया। इसका कोई पैमाना कैसे बना सकता है? इसका मतलब तो यह हुआ कि हम बच्चों के लिए कुछ भी लिख दें। यह सोचकर कि वे छोटे बच्चे हैं? जो बच्चा खुद पढ़कर कहानी को समझना चाहता है, तो वह कहानी का आशय भी समझ लेगा। लेकिन यह क्या बात हुई कि हम पहले ही मान ले कि फलां उम्र के बच्चों का यह स्तर है। फलां बच्चे इस कहानी को नहीं समझ पाएंगें। हां। कहानी बहुत उलझी हुई न हो। कहानी बहुत लंबी न हो। ऐसा भी नहीं है कि लंबी कहानी लिखी ही नहीं जाती। लंबी कहानी पढ़ी ही नहीं जाती। मैं अपना अनुभव बताता हूं। मैं मेरी प्राथमिकता में पहले चित्रात्मक कहानियां रखता हूं। फिर छोटी-छोटी कहानियां। फिर लंबी कहानियां। फिर उसके बाद ही आवरण कथा वाले लेख पढ़ता हूं। अब यह जरूरी नहीं कि हर पाठक ऐसा करता हो। कहानी में सरलता ही सभी को अच्छी लगती है चाहे वे बड़े हो या बच्चे। कुछ परिस्थितियों को छोड़ दें तो कहानी चाहे वे बाल कहानी ही क्यों न हो। वो कहानी हो, इसका मतलब यह नहीं कि हम कहानी को बच्चों की उम्र के सांचे के हिसाब से बांटे।
मुझे लगता है कि यह कहना बड़ा कठिन है कि किसी बच्चे को कौन सी बात हजम होती है या नहीं। कोई भी पत्रिका बच्चों की उम्र के हिसाब से रचनाएं नहीं छाप रही हैं। किसी भी पत्रिका में एक ही अंक में या दूसरे अंक में देखें तो बच्चों की उम्र के हिसाब से बेहद झोल है। किशोर के नाम पर क्या छप रहा है किसी से नहीं छिपा है। बहुत छोटे बच्चों के लिए निकलने वाली पत्रिकाओं में भारी भरकम आलेखों की भरमार मिलती हैं। ठंूसने वाली सूचनात्मक जानकारी दी जाती है। सृजनात्मकता के नाम पर एक ही तरह के फारमेट पर कई पन्ने अटे पड़े हैं।
अब बात करते हैं कि कल्पना की क्या भूमिका हो सकती है। हम सब यह जानते हैं कि आज मानव बन्दर से मंगल तक कल्पना की उड़ान से ही पहुंचा है। काल्पनिकता ही तो है जो हमें सपने देखने को बाध्य करती है। सपने हैं जो साकार करने के लिए संकल्प लिवाते हैं। संकल्प ही है जो असंभव को संभव बनाने में सहायक होते है। यह भी बड़ा मुश्किल है कि एक तरफ तो हम कहानी कल्पना का अंश बुरा नहीं मानते, वहीं हमें कई बार कहानी में सब वास्तविकता -सा चाहते हैं।
कई बार हम बच्चों की कहानियां पढ़ते हैं। लेकिन बड़ी उम्र का चश्मा पहनकर। बच्चा यदि किसी कहानी पर सवाल करता है तो यह अच्छी बात है। आखिर बच्चा कहानी के उस कथ्य की कल्पना को जहन में उतार पाया। मैं इस हिसाब से ‘अलादीन का चिराग’ और ‘गुलिवर की कहानियां’ और ‘दो बैलों की कथा’ को भी कई काल्पनिक बिम्बों के साथ आगे बढ़ता हुआ देखता हूं। अलबत्ता काल्पनिकता और फंतासी या जानवरों को पात्र बनाकर कहानी में शामिल किया गया भी है तो कोई बुरा नहीं। आखिर हम कहानी से कहना क्या चाहते हैं? यह तय होना चाहिए। रचनाकार के मन-मस्तिष्क में कहानी लिखते समय यह कौंधना चाहिए कि किसी कहानी को लिखते समय उसका छिपा हुआ ऐजेण्डा क्या है? छिपा हुआ इस रूप में कह रहा हूं कि वह कहानी के संवादों और पात्रों के जरिए ही उद्देश्य प्रतिबिंबित करे न कि संदेश दे। हां बेसिर-पैर की काल्पनिकता से हमें बचना चाहिए।
मैंने तो ऐसी कई कहानियां पढ़ी हैं, जिनमें जहां एक पात्र मूर्त है और दूसरा अमूर्त। एक पात्र सजीव है और दूसरा निर्जीव। उनमें संवाद होते हैं। लेकिन इतनी रोचकता के साथ कि वह मन-मस्तिष्क में अटपटे नहीं लगते। वह किसी एक खास संवेग , किसी एक खास मानवीय गुण या किसी खास मूल्य को गढ़ रहे होते हैं। वह भी बगैर किसी उपदेश के। एक कहानी पंखे और गमले में लगे एक पौधे के प्रेम पर है। मुझे बहुत अच्छी लगी। पर जरूरी नहीं कि वह हर बच्चे को पसंद आए। मैं तो यह कहता हूं कि हम इस पर व्यापक चर्चा करें। यह हर संपादक को भी करना होगा। रचनाकार और पत्र-पत्रिका के बीच संवाद होना जरूरी है। यह बात भी अच्छी नहीं है कि कोई पत्र या पत्रिका आई रचनाओं में अपने मतलब की छांट ले, बाकि को कूड़ा मान लें।
मेरा अपना निजी अनुभव है कि मेरी कोई रचना किसी पत्र-पत्रिका में उम्मीद से अधिक मान-सम्मान के साथ भी छपी है। वहीं दूसरी ओर जिस रचना को मैंने प्रथम दृष्टया किसी खास पत्र-पत्रिका को बड़े उत्साह के साथ भेजा, वह वहां नकार दी गई। बड़े अन्तराल के बाद जब वह किसी अन्य जगह प्रकाशित हुई तो उसे अच्छा स्पेस भी मिला और मेरी कल्पना से बाहर तक जाकर उसके चित्र भी रोचक बने। चार-पांच बार हमने नामी साहित्यकारों के साथ कार्यशाला में खास मकसद के साथ रचनाएं लिखीं। पच्चीस-तीस रचनाएं अंतिम दिन तक तैयार हुई। कुछ रचनाओं ने खूब वाहवाही बटोरी। लेकिन एप्रुवल कमेटी ने उन्हें एक सिरे से खारिज कर दिया। जो रचनाएं कार्यशाला में लचर समझी गई। वे किताब में जगह पा गईं। आखिर ये सब क्या है?
सार यही है कि कई बार किसी खास मकसद को लेकर बुनी गई रचना कसौटी पर खरी नहीं उतर पाती। इसका मतलब यह नहीं कि वह रचना नहीं है। कई प्रकाशक रचनाएं मांगते हैं। लेकिन आई रचनाओं पर निर्णय सिर्फ पांच फीसदी पर ही हो पाता है। यानि उनके मतलब की यही पांच प्रतिशत हैं। अब बाकी का क्या है? क्या वे सभी रचनाएं बेकार हैं? जी नहीं। एक बार फिर वही बात कि यह कहना कि प्रकाशक पक्षपात-भाई-भतीजावाद और जानबूझकर न छापने वाली बात हमारी कुण्ठा है। हर पत्रिका-पत्र चाहेगा कि उसे यह सम्मान मिले कि उसने अप्रकाशित रचना छापी। बशर्ते वो कहानी हो-उसमें कथ्य हो। कहानी के मकसद के साथ हो। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि रचनाकार की कहानी का मकसद एक नज़र में पहले पाठक की पकड़ में न आए, छूट जाए। लेकिन यदि वह कहानी है तो यहां नहीं तो वहां छपेगी।
कहानी यदि सरोकारों से जुड़ी होगी या मनोरंजक होगी या जो भी जिसे पाठक पसंद करना चाहेंगे, तो उसे प्रकाशित होने में देर तो लग सकती है लेकिन यह कहना कि वह मर गई। गलतत है। पाठक तक वह देर-सबेर जरूर पहुंचेगी। एक बात जो बच्चों को भ्रमित करने वाली है। यह बहुत विचारणीय है। मैं अपने ही बारे में आपको बताता हूं। मैंने बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। गिलहरी और भालू की। गिलहरी उस हिंसक भालू को बुद्धि से हरा देती है। गढ़वाल में गिलहरी नहीं होती। पहाड़ी क्षेत्रों में भी कमोबेश नहीं होती। तराई और मैदानी क्षेत्रों में ही प्रायः गिलहरी देखी जाती है। जब मैंने बारहवीं दर्जा की कक्षा उत्तीर्ण कर ली और मैं आई0टी0आई0 करने देहरादून आया। तब मैंने पहली बार गिलहरी देखी। मैं घण्टों गिलहरी को देखता रहा। मुझे भालू और गिलहरी वाली कहानी याद हो आई। मैं मन ही मन मुस्करा रहा था। मुझे समझते हुए देर नहीं लगी कि वो तो कहानी थी। असल में तो यह गिलहरी ज़रा सी आहट पर फुदक कर शाख पर छिपी जा रही है। अब मैं यह कह दूं कि रचनाकार ने मेरे साथ ठगी की तो यह गलत है। उस समय मुझे उस कहानी में बेहद आनंद आया। आज भी यदि सालों बाद वही कहानी मुझे पढ़ने को मिलेगी तो मैं क्या कहूंगा कि मेरे साथ धोखा हुआ है?
अंत मैं बहुत सारी बातें छूट गई होंगी। यह भी कि यह आलेख जहां से शुरू हुआ था, शायद वहीं पर रह गया हो। मेरी बात आगे बढ़ी ही नहीं होगी। लेकिन मैं यही कह सकता हूं कि बाल कहानियों को लेकर बहुत सारे भ्रम फैलाए जाते हैं। अच्छा तो यही होगा कि हम जो बच्चों के लिए लेखन कर रहे हैं। उस लेखन के कच्चे ढांचे को बच्चों को जरूर सुनाएं। जब आप कच्चा खाका ही बच्चों को सुनाते हैं तो आपको आपकी बनने वाली कहानी की लचरता और सशक्ता का अहसास हो जाता है। बच्चे कई बार कहानी पर कोई सुझाव तो नहीं देते। लेकिन उनका चेहरा, उनकी भाव-भंगिमा इतना तो संकेत दे देती है कि कहानी आनंद देने वाली है भी या नहीं। इसे करके देखें। अच्छा लगेगा। जिन बच्चों के लिए हम लिख रहे हैं उनसे नजदीकीयां नहीं बना सकते तो ऐसा लेखन भी किस काम का? ऐसी कहानी किस काम की। ऐसे रचनाकार किस काम के? आशा है अन्यथा नहीं लेंगे। कहानियों का एक पाठक।