बाल कलाकारों का जीवन / जयप्रकाश चौकसे

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बाल कलाकारों का जीवन
प्रकाशन तिथि : 15 नवम्बर 2014


ईसी वर्ष कैलाश सत्यार्थी को शांति नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्होंने अनेक बच्चों को गुलामी से स्वतंत्र कराया और बालपन के मजदूरी में नष्ट होने के खिलाफ साहसी कदम उठाया और बचपन की सुरक्षा भविष्य के प्रति समर्पण है। इस महान पुरस्कार में उनकी भागीदार पाकिस्तान की युवा मलाला हैं। लड़कियों के शिक्षा अधिकार के क्षेत्र में उनका काम सराहनीय है। दुनिया भर की फिल्मों में बाल भूमिकाएं करने वाले बच्चे अपनी कला के लिए पुरस्कृत हुए हैं परंतु युवा होने पर उन्होंने उस संभावना को पूरा नहीं किया और 'पूत के पांव पालने में' वाली कहावत अधिकांश पर खरी नहीं उतरी। इसमें मीना कुमारी अपवाद हैं जिन्होंने अपने बचपन में अनेक फिल्मों में अभिनय किया और वे अपने परिवार की एकमात्र कमाने वाली ताउम्र रहीं। मीना कुमारी ने युवा अवस्था में शिखर नायिका का स्थान दशकों तक कायम रखा। राजकपूर की 'बूट पॉलिश' के लिए बेबी नाज को अंतरराष्ट्रीय समारोह में श्रेष्ठ अभिनय का पुरस्कार प्राप्त हुआ परंतु वे बाद में कुछ विशेष नहीं कर पाई। स्वयं राजकपूर ने दस वर्ष की वय में बाल कलाकार की भूमिकाएं मात्र दो फिल्मों में की थीं और किशोर वय में नारद की भूमिका भी कर चुके थे। उन्होंने युवा वय से मृत्यु तक उच्च गुणवत्ता वाला काम किया।

हनी ईरानी और डेजी ईरानी ने सबसे अधिक बाल-भूमिकाएं अभिनीत की। दोनों ने युवा होने पर पाया कि उनके द्वारा कमाया धन उनकी माताओं ने खर्च कर दिया है और परिवार के सामने फिर आर्थिक संकट खड़ा है। बहरहाल डेजी का विवाह मनमोहन देसाई के लिए पटकथा लिखने वाले शुक्ला से हुआ और हनी का विवाह जावेद अख्तर से हुआ। ऋषिकपूर की पत्नी नीतू सिंह भी बाल कलाकार थी और 'दो कलियों' में उनकी दोहरी भूमिकाएं थी। बाद में वे सफल नायिका रही हैं। सबसे बड़ा आश्चर्य यह कि सबसे पहले बाल भूमिका करने वाला नन्हा जिसे चार्ली चैपलिन की अमर फिल्म 'द किड' के लिए सारे विश्व ने सराहा था, युवा होने पर कुछ नहीं कर पाया। 'मदर इंडिया' में साजिद नामक बालक ने बाल भूमिका इतनी प्रभावोत्पादक ढंग से की कि मेहबूब खान उसे अपने की तरह अपने घर रखने लगे और इस्लाम में गोद लेना जायज नहीं है, इसलिए उसे वे अपना उत्तराधिकारी नहीं बना पाए। बाद में साजिद को कोई सफलता नहीं मिली परंतु संभवत: वह जयपुर और न्यूयॉर्क में एंटीक का व्यापार करता है।

बाल कलाकार की शिक्षा में बाधा आती है, वह केंद्र बन जाता है और शिक्षकों का भी लाड़ला या लाड़ली हो जाते हैं। यह विशिष्ट होने के भाव के कारण उनका बचपन अपनी स्वाभाविकता और मासूमियत खो देता है। ज्ञातव्य है कि बचपन की पटकथा पर ही जीवन रूपी फिल्म बनती है। बाल कलाकारों का यही बचपन बाधित और अस्वाभाविक हो जाता है। हम सारा जीवन ख्याति के पीछे भागने में नष्ट कर देते हैं और ख्याति नामक दोधारी तलवार के विनाश को समझ नहीं पाते। ख्याति जैसे बेलगाम घोड़े की सवारी से गिर जाना स्वाभाविक है। साधारण और सामान्य का महत्व इस विषैले काल खंड में कैसे किसी को समझाया जा सकता है।

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने बच्चों के विकास के महत्व को रेखांकित करने के लिए ही अपने जन्मदिन 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाए जाने की पहल की थी। आज तक यह प्रयास नहीं हुआ कि नेहरू की महान 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' और ग्लिमसेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री का संक्षिप्त और बालोपयोगी संस्करण बनाया जाए और उसे पाठ्यक्रम में भी शामिल किया जाए। नेहरू ने राजकपूर से कहा था कि वे एक बाल फिल्म बनाएं। उनके परम भक्त और प्रतिनिधि फिल्मकार ने उन्हें 'अब दिल्ली दूर नहीं' का सारांश सुनाया और नेहरू ने उसे पसंद किया तथा क्लाइमैक्स में स्वयं शूटिंग में शामिल होने का आश्वासन दिया परंतु पारम्परिक और संकुचित विचारधारा के मोरारजी देसाई ने नेहरू के मात्र एक दिन शूटिंग पर आपत्ति उठाई और सदा ही सहिष्णुता निभाने वाले नेहरू ने उनकी बात स्वीकार की। इंदिरा जी ने यह बात राजकपूर को बताई और स्टॉफ शॉट की सहायता से फिल्म पूरी की गई। उस दौर में फिल्म की टेक्नोलॉजी बहुत विकसित नहीं थी। आज तो किसी भी ऐतिहासिक पात्र से किसी भी पात्र की मुलाकात कम्प्यूटर पर गढ़ी जा सकती है। आज तो स्वर्ग में गांधी और नेहरु की मुलाकात भी गढ़ी जा सकती।

इस तरह की कठिनाई नरेंद्र मोदी को नहीं आएगी। उनका चुनाव प्रचार अभियान एवं प्रधानमंत्री बनने के बाद का जीवन भी सुगठित पटकथाके अनुरूप लार्जर दैन लाइफ प्रस्तुत किया जा रहा है और यह छवियां यथार्थ से कोसों दूर है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो ऐसा व्यवहार कर रहा है मानो पहली बार कोई प्रधानमंत्री विदेश यात्राएं कर रहा है। भीड़ कहीं भी प्रायोजित की जा सकती है। यह कालखंड ही शोमैनशिप का है।