बाल केन्द्रित है शिक्षा का अधिकार कानून / मनोहर चमोली 'मनु'

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शैक्षिक सरोकारों के इतिहास में 1 अप्रैल 2010 सदैव रेखांकित होता रहेगा। यही वह दिन है जिस दिन संसद द्वारा पारित निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 देश में लागू कर दिया गया। शिक्षा के अधिकार की पहली मांग का लिखित इतिहास 18 मार्च 1910 है। इस दिन ब्रिटिश विधान परिषद के सामने गोपाल कृष्ण गोखले भारत में निःशुल्क शिक्षा के प्रावधान का प्रस्ताव लाये थे।

एक सदी बीत जाने के बाद आज हम यह कहने की स्थिति में हैं कि यह अधिनियम भारत के बच्चों के सुखद भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होगा।

इस आलेख में लागू अधिनियम की दो धाराओं को केन्द्र में रखकर बाल केन्द्रित संभावनाओं पर विमर्श करने की कोशिश भर की गई है।

धारा 17. (1) किसी बच्चे को शारीरिक रूप से दंडित या मानसिक उत्पीड़न नहीं किया जाएगा।

(2) जो कोई उपखण्ड (1) के प्रावधानों का उल्लघंन करता है वह उस व्यक्ति पर लागू होने वाले सेवा नियमों के तहत अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए उत्तरदायी होगा।

धारा 30 (जी) बच्चे को भय,सदमा और चिन्ता मुक्त बनाना और उसे अपने विचारो को खुल कर कहने में सक्षम बनाना।

अधिनियम में इन दो धाराओं से बच्चों के कौन से अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं? बच्चे क्या कुछ प्रगति कर पाएंगे? इससे पहले यह जरूरी होगा कि हम यह विमर्श करें कि आखिर इन धाराओं को शामिल करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?

यह कहना गलत न होगा कि मौजूदा शिक्षा व्यवस्था बच्चे में अत्यधिक दबाव डालती है। स्कूल जाने का पहला ही दिन मासूम बच्चे को दूसरी दुनिया में ले जाता है। अमूमन हर बच्चे के ख्यालों में स्कूल की वह अवधारणा होती ही नहीं। जिसे मन में संजोकर वह खुशी-खुशी स्कूल जाता है। इससे इतर तो कई बच्चे ऐसे हैं जो पहले दिन स्कूल जाने से इंकार कर देते हैं। इसका अर्थ सीधा सा है। अधिकतर स्कूलों का कार्य-व्यवहार ऐसा है, जो बच्चों में अपनत्व पैदा नहीं करता। यह तो संकेत भर है। हर साल परीक्षा से पहले और परीक्षा परिणाम के बाद बच्चों पर क्या गुजरती है। यह किसी से छिपा नहीं है। यही नहीं हर रोज न जाने कितने बच्चों की पवित्र भावनाओं का , विचारों का और आदतों का कक्षा-कक्ष में गला घोंटा जाता है। यह वृहद शोध का विषय हो सकता है।

उपरोक्त धाराओं के आलोक में यह महसूस किया जा सकता है कि बहुत से कारणों में से नीचे दिये गए कुछ हैं, जिनकी वजह से अधिनियम में बच्चे को भयमुक्त शिक्षा दिये जाने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है।

  • स्कूल में दाखिला देने से पहले प्रबंधन-शिक्षक बच्चे से परीक्षा-साक्षात्कार-असहज बातचीत की जाती रही है। एक तरह से छंटनी-जैसा काम किया जाता रहा है। कुल मिलाकर निष्पक्ष और पारदर्शिता का भाव न्यून रहता रहा है।
  • व्ंचित बच्चे और कमज़ोर वर्ग के बच्चे परिवेशगत और रूढ़िगत कुपरंपराओं के चलते स्वयं ही असहज पाते रहे हैं। हलके से दबाव और कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही के संकेत मात्र से स्वयं ही असहज होते रहे हैं।
  • लैंगिक रूप से और सामाजिक स्तर पर भी विविध वर्ग-जाति के बच्चों को स्कूल की चाहरदीवारी के भीतर असहजता-तनाव का सामना करना पड़ता रहा है।
  • कई बार स्कूल में पिटाई के मामलों से तंग आकर कई बच्चे स्वयं ही स्कूल छोड़ते रहे हैं। वहीं कई अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते रहे हैं अथवा स्कूल भेजना बंद करते रहे हैं।
  • विकलांग और मानसिक तौर पर आसामान्य बच्चों के साथ कक्षा-कक्ष में जाने-अनजाने में ऐसा व्यवहार किया जाता रहा है, जिसके कारण थक-हार कर ऐसे बच्चे शाला त्यागते रहे हैं।
  • परिस्थितियों के चलते कई बच्चे एक सत्र में कई बार अनुपस्थित रहते आए हैं। कठोर नियम के चलते उनका नाम काट दिया जाता रहा है। अनवरत् उपस्थिति की विवशता की मानसिक स्थिति का सामना करते-करते कई बच्चों को स्कूल से हटा दिया जाता रहा है। इस तरह के स्थाई विच्छेदन के लिए प्रचलित संज्ञाएं भी बेहद निराशाजनक रही हैं। ‘तेरा नाम काट दिया गया है’, ‘तूझे स्कूल से निकाल दिया है’,‘टी.सी.काट कर हाथ में दे दी जाएगी’, ‘अब स्कूल मत आना’, जैसे जुमले आए दिन बच्चे सुनते रहते रहे हैं।
  • स्कूल में मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के चलते कई बच्चे आजीवन के लिए अपना आत्मविश्वास खो देते हैं। इस प्रताड़ना से कक्षा-कक्षों में ही ऐसी प्रतिस्पर्धा जन्म ले लेती है, जिसमें बच्चे असहयोग और व्यक्तिवादी प्रगति की ओर उन्मुख हो जाते हैं।
  • अभी तक बच्चों की शिकायतों को कमोबेश सुना ही नहीं जाता था। यदि हाँ भी तो स्कूल प्रबंधन स्तर पर ही उसका अस्थाई निवारण कर दिया जाता था। शिकायतों के मूल में जाने की प्रायः कोशिश ही नहीं की जाती थी। भेदभाव, प्रवेश न देने के मामले और पिटाई के हजारों प्रकरण स्कूल से बाहर जाते ही नहीं थे।
  • राज्यों में बाल अधिकारों की सुरक्षा के राज्य आयोग कछुआ चाल से चलते आए हैं। बहुत कम मामले ही इन आयोग तक पहुंचते हैं। स्कूल प्रबंधन ऐसा माहौल बनाने में अब तक सफल रहा है कि अब तक पीड़ीत बच्चे या उनके अभिभावक आयोग तक शिकायतें प्रायः ले जाते ही नहीं है।
  • विद्यालयी बच्चों के मामलों में अब तक गैर-सरकारी संगठन एवं जागरुक नागरिक प्रायः कम ही रुचि लेते रहे हैं। स्कूल में बच्चों के हितों को लेकर अंगुलियों में गिनने योग्य ही संगठन हैं जो छिटपुट अवसरों पर शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों के अधिकारों के प्रचार-प्रसार की बात करते रहे हैं। ऐसे बहुत कम मामले हैं, जिनमें इन गैर सरकारी संगठनों ने बच्चों के अधिकारों के हनन के मामलों में पैरवी की हो।
  • अब तक स्कूल केवल पढ़ने-पढ़ाने का केन्द्र रहे हैं। अब यह अधिनियम स्कूल को बाध्य करता है कि वह बाल केन्द्रित भावना के अनुरूप कार्य करे। कुल मिलाकर स्कूल अब तक बच्चों की बेहतर देखभाल करने के केन्द्र तो नहीं बन सके हैं।

उपरोक्त बिन्दुओं से स्पष्ट होता है कि मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में कई झोल हैं। परिणामस्वरूप शिक्षा के अधिकार में इन खामियों-कमियों-असफलताओ-कमजोर पक्षों को दूर करने के लिए कुछ बाध्यताएं रखी गईं हैं। आशा की जाती है कि यह अधिनियम बहुत हद तक बाल मनःस्थिति को समझते हुए ही तैयार किया गया है। यदि समाज,शिक्षक और अभिभावक अधिनियम की मूल भावना का सम्मान करते हुए बच्चे के साथ सुगमकर्ता के रूप में,दोस्त के रूप में और एक सहयोगी के रूप पेश आएंगे तो निश्चित रूप से बाल जीवन सुखद होगा और यही बच्चे राष्ट्र की प्रगति में आगे चलकर बहुत बड़ा योगदान कर सकेंगे।

इस अधिनियम की उपरोक्त दो धाराओं के शामिल कर लिये जाने के बाद यदि शिक्षक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए अपने कार्य व्यवहार में बदलाव लाएंगे तो बहुत सारे पक्षों में आशातीत सफलता हासिल होगी। यही नहीं बच्चे,बाल जीवन और स्कूल से जुड़ी कई समस्याएं धीरे-धीरे हाशिए पर चली जाएंगी। मौटे तौर पर निम्नांकित बिंदु हैं, जो इस अधिनियम का पालन करने पर हमें समाज में-स्कूल में और घर-परिवार में धीरे-धीरे दिखाई देंगे।

  • समाज में पसरा जातिगत और सामुदायिक भेदभाव आखिरकार दूर होगा।
  • सभी के लिए स्कूल के द्वार खुलेंगे और स्कूल विविधताओं से भरे बच्चों की एक पौधशाला के रूप में दिखाई देंगे।
  • स्कूल न पढ़ने-पढ़ाने के औपचारिक केन्द्र रहेंगे बल्कि उचित देखभाल और सुरक्षित संस्थान के रूप में स्थापित होंगे। यही नहीं डर के अभाव में स्वतः ही बच्चों की नियमित उपस्थिति रहेगी।
  • स्कूल शिक्षा प्राप्त करने का ऐसा आनन्दालय होगा जहां निष्पक्षता,पारदर्शिता और भेदभाव रहित नियम के साथ बच्चे सहभागिता करते हैं।
  • किसी एक भी बच्चे के मन में कभी यह बात घर नहीं करेगी कि स्कूल में समान अवसर नहीं दिये जाते। पर्याप्त अवसर नहीं मिलते। दूसरे शब्दों में अब हर किसी बच्चे को भरपूर अवसर मिलेंगे कि वह अपनी क्षमताओं का उपयोग करे।
  • बच्चे स्कूल में मिल रही शिक्षा पर खुद भी टिप्पणी कर सकेंगे। स्कूल से जुड़े कई मसलों पर बच्चे अब खुल कर बेबाक राय दे सकेंगे। यह सब इसलिए हो सकेगा कि अब बच्चों के मन से मारपीट-पिटाई और दण्ड का भय नहीं रहेगा।
  • परिवार के बाद स्कूल ही दूसरा ऐसा बड़ा क्षेत्र है जो बच्चों पर सर्वाधिक प्रभाव डालता है। यदि स्कूल भयरहित,दण्डरहित होगा तो निश्चित ही विद्यालय आनंदालय बन सकेंगे।
  • यह ऐतिहासिक पहल है कि बच्चे स्कूल में अब ऐसी शिक्षा के हकदार हैं, जो शिक्षक के माध्यम से उनके व्यक्तित्व में पूर्ण निखार लाने में संपूर्ण रूप से ज़िम्मेदारी निभाएगा।
  • शारीरिक रूप से दंडित करने और मानसिक पीड़ा पहुंचाने के स्कूली मामले खत्म हो जाएंगे। इससे स्कूल में बच्चे में सीखने की गति बढ़ेगी। बच्चों में स्वतः सीखने की पृवत्ति बढ़ेगी। अब उन में शिक्षक की सहायता से समग्रता से सोचने,कारण जानने, सीखने की क्षमता बढ़ाने,दूसरों का सम्मान करने, और समानता का भाव मन में संजोने में आशातीत वृद्धि होगी।
  • इसमें कोई दो राय नहीं कि निकट भविष्य में शिक्षण संस्थान बच्चों के लिए सबसे सुरक्षित और संरक्षित केन्द्र माने जाएंगे। जहां बच्चे सुकून से अपनी समझ विकसित करेंगे। बाल मैत्रीपूर्ण शिक्षा और खुद करके सीखने के साथ-साथ उनकी अभिव्यक्त करने की क्षमता का भी समग्र विकास होगा।
  • वर्तमान समय में कई शिक्षण संस्थाएं छात्र उत्पीड़न-दण्ड-भय के कारण विवादों में आती रही है। अब जब अधिनियम उपरोक्त धाराओं के क्रम में बच्चों के साथ नम्रता से पेश आने की सिफारिश ही नहीं करता बल्कि शिक्षकों पर बाध्यकारी है। इसके भी दूरगामी परिणाम सामने आएंगे। शिक्षण संस्थाएं और शिक्षक अब प्रायः जांच-पड़ताल,समन, न्यायालय आदि के प्रकरणों से मुक्त होकर स्वाध्याय और अध्यापन में अधिक समय दे सकेंगे।
  • बच्चों को सजा न देने, उन्हें भयभीत न करने को लेकर शिक्षकों और शिक्षण संस्थानों में वर्तमान में जो संशय है, वह भी कमोबेश धीरे-धीरे दूर होता चला जाएगा। दुनिया तेजी से बदल रही है। शिक्षक को भी आ रहे इस बदलाव के चलते अपनी शिक्षण पद्वति भी बदलनी होगी। यकीनन इस बदलाव से शिक्षकों की लोकप्रियता ही बढ़ेगी।
  • बच्चों को भयमुक्त रखने, उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ रखने की कवायद में शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण है। शिक्षक के आचरण में सख्ती की जगह मैत्रीपूर्ण व्यवहार, कड़े अनुशासन की जगह लचीली व्यवस्था, पिटाई की जगह अपनत्व, बच्चों को चिन्ता से उनमुक्त रखने से परिणाम यह होगा कि समाज में शिक्षक की आज की भूमिका भी बदल जाएगी। भविष्य में समुदाय और समाज शिक्षक को बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा और निगरानी का महत्वपूर्ण हिस्सा मानने लगेगा। यह हर शिक्षक के लिए गौरव की बात होगी।
  • यह कहना गलत होगा कि भय के बिना बच्चे सीखते नहीं है। शोध बताते हैं कि भयमुक्त वातावरण में बच्चा सहजता से और तीव्रता से सीखता है। यही नहीं भय और दबाव के मुक्त कक्षा-कक्ष में शिक्षक की शिक्षण शैली ज्यादा प्रभावशाली और गुणवत्तापरक होती है।
  • भय और दण्ड के अभाव में बच्चों में सीखने की एक समान सामर्थ्य को बल मिलेगा। शिक्षाविद् मानते भी है कि बच्चों में सीखने के लिए एक समान सामर्थ्य होती है। लेकिन बेहतर परिणाम से इतर बच्चे पिछड़ रहे हैं तो यह समस्य बच्चों के साथ नहीं है, बल्कि भिन्न परिवेश, अनियमित व्यवहार और शिक्षण का बहुआयामी तरीका न होने से उत्पन्न हुई है। इसके पीछे कहीं न कहीं मनोवैज्ञानिक, मानसिक दबाव और भय भी कारक होते हैं। भयमुक्त वातावरण में बच्चों की सीखने की सामर्थ्य बढ़ेगी।

यह कारण जो उपरोक्त इस अधिनियम के पक्ष में दिये गए हैं। उदाहरण मात्र हैं। सटीक और वृहद कारण तो धीरे-धीरे अब कक्षा-कक्ष से सामने आएंगे। सकारात्मक शिक्षकों की भी यह जिम्मेदारी है कि वह भयमुक्त वातावरण से बच्चों में जो भी बदलाव देख रहे हैं, उसका प्रचार-प्रसार करें। आशा की जानी चाहिए कि किसी भी शिक्षक के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही इस आशय से नहीं होगी कि उस शिक्षक ने अधिनियम का उल्लंघन करते हुए बच्चों को दण्ड दिया अथवा मानसिक पीड़ा या क्षति पहुंचाई। यही इस अधिनियम की सफलता भी होगी।