बाल भगवान / स्वदेश दीपक
लड़का पेड़ के नीचे बैठा है कि धूप से बच जाए। लेकिन पेड़ की टहनियाँ बिलुकुल नंगी, न पत्ते, और न ही कोंपलें। हालाँकि मौसम बरसात का था और बरसात इस साल भी नहीं हुई, जैसे पिछले साल भी नहीं हुई थी। लंबी टहनियों के साए भी थोड़ी दूर तक पड़ रहे थे, मोटी-मोटी लकीरों की शक्ल में। लेकिन लड़का तो पेड़ के तने के साथ पीठ लगा कर बैठा है। गर्म पेड़ उसकी नंगी पीठ को सेंक रहा है, जला देने की हद तक। जमीन गर्म, पेड़ गर्म। लड़का खिसक कर तने के दूसरी ओर हो जाता है। धूप की जंगली बिल्ली पैंतरा बदलती है और छलाँग लगा कर उसके चेहरे पर जा चढ़ती है। तेज, तीखे और चमकीले पंजे उसके कंधों पर गड़ जाते है। लड़का समझ गया कि फिर से दूसरी तरफ खिसकना बेकार है, धूप से न बचा जा सकता है, न जीता जा सकता है, लड़का आँखें उठाता है। यह पेड़ के तने से काली स्याही की दवातें देखी हैं क्या हुआ अगर वह स्कूल नहीं जाता। उसके जिद करने पर दूसरे बच्चे कई बार स्याही की दवातें खोल कर उसे दिखाते हैं। वह सवालिया निगाहों से देखता है तो बच्चे उसे बताते हैं - स्याही! लिखते हैं। बच्चों को भी पता है कि लड़का दो-तीन वाक्य समझ लेता है। लंबे फिकरे उसके दिमाग को उलझा देते हैं।
लढ़के का सिर जितना बड़ा है दिमाग उतना ही छोटा है। वह जन्म से ही ऐसा है। आयु बढ़ी, शरीर बढ़ा, लेकिन दिमाग एक छोटे-से ताले की तरह हमेशा से बंद है। वह पागल नहीं, सीधा भी नहीं, इधर की भाषा में सिद्धड़ है। सयाने दिमाग और पागल दिमाग के बीच के दिमागवाला। लोग उसे बुलाते भी सिद्धड़ नाम से ही हैं। वह आँखों को हाथों से मलता है, क्योंकि धूप की बिल्ली के अंदर की तरफ मुड़े तीखे नाखून अब उसकी आँखों में चुभ रहे हैं। पेड़ के तने से काली लकीर अब भी बाहर बह रही हैं, जमीन तक पहुँच गई है। स्याही नहीं। लड़का बुदबुदाता है। जमीन पर देखता है। काली लकीर छोटे-छोटे काले टुकड़ों में बँट गई है। लंबी पतली काली टाँगें और मोटा सिर। लड़के का बंद दिमाग जोर-जोर से शब्द-संकेत दे रहा है। वह सिर हिला-हिला कर शब्द को होंठों में पकड़ने की कोशिश कर रहा है। वह बुदबुदाता है - मकौड़े... और हँस पड़ता है। दिमाग अपना पूरा करम करने के बाद हिलना बंद हो जाता है। उसका सिर भी थम जाता है।
वह जमीन पर गिरी सूखी टहनी का टुकड़ा उठाता है और एक मकौड़े की पतली कमर को इसके सिरे से दबा देता है। उसके टहनी परे करते ही मकौड़ा उल्टा हो जाता है और उसके महीन धागे-जैसे हाथ-पैर हवा में छटपटाने लगते हैं। लड़का खून निकलने देखने का इंतजार कर रहा है। उसने कई बार आस-पड़ोस में मुर्गे कटते देखे हैं। सिर छटकने के बाद खून के छींटे उछला करते हैं। वह बुदबुदाता है, 'मुर्गा नहीं, मकौड़ा, खून नहीं। पीछे आ रहे मकौड़े अपने घायल साथी के पास थमते हैं। धागे जैसे नाक के बाल से उसे सूँघते है और आगे बढ़ जाते हैं। उल्टे गिरे मकौड़े की महीन टाँगें या हाथ अब भी हवा में हिल रहे है, लेकिन इनके हिलने की गति पहले से कम हैं लड़का फिर से टहनी का टुकडुा उठाता है। पतली कमर पर दबाता है और मकौड़ा दो टुकडों में कट-बँट जाता हे, दोनों कटे-बँटे हिस्से काँपते है, फिर हिलना बंद हो जाते हें। जमीन पर एक तिलभर छोटा काला धब्बा दिखता है। लड़के के बंद दिमाग का दरवाजा थोड़ा-सा खुलता है और दो शब्द बाहर धकेलता है - काला खून!
अब लड़के की सीमित कल्पना से एक छिपकली बाहर निकली है; चाकू की तरह पतली नुकीली तेज और ललचाई जीभ! जीभ के चाकू का लपकना, दीवार पर चलते कीड़े पर इस चाकू को घोंपना और फिर इस जीभ-चाकू से कीड़ा निगल जाना। लड़के की कल्पना एक और दृश्य उसे दिखाती है। पहले छिपकती का गला मोटा होता है, फिर वह कीड़े को पेट की तरफ धकेलती है। चाकू लपकते रहते हैं और धीरे-धीरे पेट मोटा होता जाता है, जैसे हर साल उसकी माँ का पेट मोटा हो जाता है। वह फिर से सिर हिलाना शुरू कर देता है। छिपकली के मोटे पेट और माँ के मोटे पेट के दृश्यों की बात उसको समझ नहीं आ रही। इतनी बात तो उसका ताला बंद दिमाग समझता है कि छिपकली और माँ दोनों अलग-अलग चीजें हैं।
वह अपने पेट पर हाथ फेर रहा है। रोटी! नहीं खाई। कब से? दिमाग बताता नहीं। उसके हिस्से की एक रोटी माँ दूसरे बच्चे को दे दिया करती है। वह माँ की ओर देखता रहता है। माँ हमेशा एक ही वाक्य कहा करती है - 'बाहर मर! रोटी नहीं है। हे भगवान। इस सिद्धड़ को सँभाल ले।' कभी-कभी वह उसे एक रोटी देती जरूर है। माँ की आँखें पल-भर कहीं मुड़ी नहीं, कि छिपकली की तरह तेज अचानक हमला और उसकी रोटी गायब!
अब लड़के के दिलो-दिमाग पर छिपकली का कब्जा हो गया है। चाकू-जीभ लगातार उसके दिमाग में कौंध रही है। वह पेट पर हाथ फेरता है। रोटी! कब से नहीं! अंदर बैठी छिपकली उसे बताती है कि उल्टे लेट जाओ! वह जमीन पर पेट के बल लेटा है। बिना हिल-डुले, शरीर समेटे, छिपकली की तरह दाँव लगाए। उसकी जीभ बाहर लपकती है। नोक से दो हिस्सों में कटे-बँटे कीड़े को उठाती है और मुँह के अंदर कर लेती है। वह मुँह बंद कर लेता है। कीड़े के टुकड़े जीभ पर हैं। अचानक भूखा पेट हाथ फैलाता है और जीभ पर रखे मकौड़े के टुकड़े अंदर खींच लेता है। बंद दिमाग हल्ला किए जा रहा है - और, और! भूखा पेट लगातार जीभ की तरफ हाथ फैला रहा है - और, और! लड़के का हाथ एक मशीनी हरकत से टहनी का टुकड़ा पकड़ लेता है। वह मकौड़ों की सरकती कतार के पास खिसक आया है। वह फटाफट सूखी टहनी का वार कर रहा है। मकौड़े चोट लगते ही उल्टे हो कर हाथ-पैर पटक रहे हैं। उसकी जीभ लपलपा रही है और भूखे पेट से निकले हाथ झटपट जीभ पर रखे मकौड़ो को अंदर खींचे जा रहे हैं।
गड़गड़ की आवाज उसके कान तो सुनते हैं, लेकिन छिपकली में बदल गया उसका मन-मस्तिष्क इसे ग्रहण नहीं करता। आवाज उसके बिलकुल करीब पहुँचती है और हल्की-सी ठक-ठक के साथ बंद हो जाती है। वह आँखें ऊपर उठाता है। बंद दिमाग शब्द बाहर फेंकता है - ट्रैक्टर! वह फिर अपनी जीभ जमीन के पास ले जाता है और छिपकली में बदल जाता है। ट्रैक्टर पर बैठा आदमी नीचे कूदता है। उसकी गर्दन को पंजे से जकड़ कर उसे एक ही झटके में खड़ा कर देता है - 'फिट्टे मुँह! ब्राह्मण का बेटा और मकौड़े खा रहा है। दुर फिट्टे मुँह!' उस आदमी का थप्पड़ मारने के लिए उठा हाथ हवा में ही थम गया है। ब्राह्मण पर हाथ उठाना इधर के इलाके में अब भी पाप समझा जाता है। फिर अभी-अभी यह आदमी अपनी घरवारी को पाँचवीं बार हस्पताल पहुँचा कर आया है। पिछली चार बारियों में चार बेटियाँ हुई हैं। उसकी माँ का पक्का ख्याल है कि इस बार भी लड़की ही होगी। बहू के लक्षण यही बताते हैं।
सारा दिन लेटी रहती है। सुस्त और मरी हुई। लड़का होना हो तो औरतें भागती फिरती हैं।
वह आदमी छोटी-सी पोटली खोलता है, एक परांठा उठाता है और लड़के की ओर बढ़ा देता है। रोटी साथ हस्पताल ले गया था। शायद रात रहना पड़े। लेकिन डाक्टर कहती है, बच्चा कल होगा। लड़का उस आदमी का हवा में उठा हाथ देख चुका है, गर्दन पर पड़ी उसकी उँगलियों का तीखा सेंक अब भी महसूस कर रहा है। सिर दाएँ-बाएँ हिलाता है। नहीं खाऊँगा की मुद्रा में।
'ओए कंजर दे फल! रोटी नहीं खाँणी तो और क्या लड्डू खाएगा?'
लड़का गाँव के हलवाई की दुकान के आगे से दिन में कई बार गुजरता है। गोल-गोल मिठाई के भरे हुए थाल रोज देखता है। लोगों को कहते हुए सुन चुका है - लाला लड्डू दे एक किलो! बच्चों को चार आने आगे बढ़ा कर कहते सुन चुका है - लाला एक लड्डू! उसके दिमाग में लड्डू एक छोटा-सा घर बना चुके हैं क्योंकि उसने आज तक लड्डू नहीं खाए। सिर ऊपर-नीचे हिलाता है। हाँ की मुद्रा में। उस आदमी को फिर गुस्सा चढ़ जाता है।
'ओए हराम के बीज, मेरे लड़का हुआ है जो लड्डू माँग रहा है? दूँ एक लप्पड़?'
लड़के के दिमाग से लड्डू खिसक कर अब तक उसकी जीभ पर आ चुका है। मुँह खोलता है।
'लड़का! लड्डू!'
'फिर से बोल।'
'लड़का! लड्डू! लड़का! लड्डू! लड़का! लड्डू!',। वह यह दो शब्द लगातार ऐसे बोल रहा है जैसे लड़के स्कूल में पहाड़े रट कर बोलते हैं, बिना सोचे, बिना समझे।
शायद माँ ने एक बार कहा था कि साधुओं और पागलों की जीभ पर भगवान का वास होता है। गुस्से में जो भी बोल दें, सच होता है। लड़का पूरा पागल तो नहीं, सिद्धड़ तो है। फिर ब्राह्मण का बच्चा है। शायद इसकी जीभ पर सच चढ़ आया हो। हारे हुए आदमी को अंधविश्वास सच दिखने लगता हैं सुनने लगता है।
'लड़का! लड्डू! लड़का! लड्डू! लड़का! लड्डू...' रट जारी है। वह उसे उठा कर ट्रैक्टर पर बिठाता है। चार लड्डू खिलाने में कौन-सा खजाना लग जाएगा। शायद इसकी बात सच निकल आए। बीस किल्ले अपनी जमीन और चार लड़कियाँ! सारी साले जवाईं ले जाएँगे। चिता में आग देने के लिए एक लड़का भी नहीं। पक्का मकान है, साले जवाईं रहेंगे, मौज मारेंगे, खानदान का नाम आगे बढ़ाने के लिए एक लड़का भी नही़। शायद इस सिद्धड़ की बात सच निकल आए! वह टैक्ट्रर हलवाई की दुकान के आगे पीपल के पेड़ के नीचे रोकता है। तीन-चार चारपाइयों पर अधलेटे लोग उठ बैठते हैं। बारिश अभी पड़ी नहीं। खेतों में कोई काम नहीं, इसलिए लोगों की दोपहर अकसर यहाँ कटती है। फिर दुनिया भर की बातों का पता हलवाई से लगता रहता है। चाय भी लेते हैं, उनकी बातें हलवाई सुनता रहता है। फिर जितनी अकल कारवालों को होती है, क्या पैदल लोगों को हो सकती है? हलवाई दुकान पर बैठे-बैठे पूछता है -
'लौट आए? क्या हुआ?' उसे पता है चौधरी बीवी को ले कर सुबह हस्पताल गया था।
'चार लड्डू दे!'
'ओए लड़का हो गया क्या! जाट और कंजूस? बोतल मँगवा बोतल!'
'बक-बक करे ही जाओगे के दूँ हाथ! तेरी माँ को अभी कुछ नहीं। डाक्टर कहती है कल होगा। सिद्धड़ को चार लड्डू दे। लड़का भुक्खा है।'
लड़का ट्रैक्टर पर बैठे-बैठे रट लगाना शुरू कर देता है, 'लड़का! लड्डू! लड़का! लड्डू!...' लाला कागज पर चार लड्डू रख कर दुकान से नीचे उतर कर पीपल के पास आ जाता है। चौधरी के साथ गाँव के स्कूल में आठ जमातें पढ़ा है, दोस्त है, इसलिए तू-तड़ाक में बोलता है, कागज पर रखे लड्डू लड़के की ओर बढ़ा कर कहता है -
'रत्ने तू घास तो नहीं खा गया। सिद्धड़ ने कहा और तू मान गया कि लड़का होगा। यह साला हिमालय से आया है जो सच बोलेगा।'
लाले का वाक्य पूरा होते-होते लड़का चारों लड्डू खा गया है। रत्ने बाकी लोगों को बता रहा है कि लड़का कैसे मकौड़े खा रहा था। लड़के के पड़ोस में रह रहा आदमी बताता है कि घरवाले सिद्धड़ को खाने के लिए नहीं देते! घरों के बाहर फेंकी जूठन खाता है - गली के कुत्तों की तरह, दूसरा आदमी एतराज उठाता है कि इतना बुरा हाल तो इसके घर का नहीं। गाँव में जन्म-मरण, शादी-ब्याह होते रहते हैं। पंडित के पास जमीन नहीं, न सही। कमाई तो होती ही रहती है। तीसरी आवाज बताती है कि पंडित की कमाई तो सीधी ठेके की दुकान पर पहुँचती है, घर नहीं। कोई मरे तो बोतल, कोई जन्म तो बोतल। साला शराबी ब्राह्मण है, शराबी! स्कूल के मास्टरजी हमेशा ऊँची आवाज में बोलते हैं, जैसे क्लास में बैठे हों।
'अरे क्या बड़-बड़ किए जा रहे हो। इधर का ब्राह्मण नहीं, पाकिस्तानवाले पंजाब से आ कर यहाँ बसा है। एक दिन मैंने समझाया था कि रोज बोतल न चढ़ाया करे तो जानते हो क्या बोला था? ब्राह्मण का पूत, कोई जिन्न कोई भूत; कोई बिरला सपूत!' लाला मजे ले रहा है, मास्टरजी को छेड़ता है।
'साला बामण कविता करता है। मास्टरजी इसे फिल्मों में भेज दो। मनोज कुमार की फिल्म में फिट बैठेगा,' फिर लाले ने दोनों हाथ ऊपर उठा कर तान कसी, 'मेरे देश की धरती…!'
लड़का वहाँ से खिसक कर दुकान के पास, ठीक लड्डू के थाल के पास जा ठहरा है, रट लगाता है।
'लड़का! लड्डू! लड़का! लड्डू!...!' रत्न चौधरी लाले को उसे और लड्डू देने को कहता है, मास्टरजी रत्न से पूछते हैं कि क्या हस्पताल में देखभाल के लिए किसी को छोड़ आया है? रत्न बताता है कि माँ भी वहीं है।
'तेरा दिमाग तो नहीं फिर गया रत्ने। अरे कोई मर्द भी है या नहीं। कोई जरूरत पड़ गई तो!' रत्न उन्हें बताता है कि उसके खेतों में काम करने वाला 'भैया' भी वहीं है। उत्तर प्रदेश और बिहार से जो गरीब मजदूर इधर काम करने आते हैं उन सबको 'भैया' कह कर बुलाया जाता है।
लाला कागज पर चार लड्डू रख कर हाथ आगे बढ़ाता है। लड़के का हाथ कागज पकड़ने के लिए आगे बढ़ता है तो शरारती लाला अपना हाथ पीछे खींच लेता है। लड़का जोर-से चीखता है, 'लड़का! लड्डू...।'
रत्न डाँटता है, 'ओए हराम के तुख्म। क्यों तंग करता है बाप को।'
'मैं तो दे रहा हूँ, यह सिद्धड़ पकड़ता ही नहीं', लाला लड्डू आगे करता है, लड़के के दोनों हाथ लपकते हैं, लाला लड्डूवाला कागज अपनी पीठ कर लेता है। लड़के के पेट में बैठा भूख का दानव छलाँग लगा कर बाहर निकलता है, झपट कर मिठाई काटनेवाला लंबा चाकू उठा लेता है और छलाँग मार कर दुकान पर चढ़ जाता है। 'बचाओ' की लंबी चीख के साथ लाला नीचे कूदता है और पीपल के पेड़ के नीचे भाग आता है। लोग खड़े हो गए। लड़का दोनों हाथों में लंबा चाकू उठाए उधर आ रहा है। धूप में लिश्कारे मारता चाकू। रत्न लड़के की दोनों बाँहें कस कर पकड़ लेता है, फिर उसके हाथों से चाकू छु्ड़ा कर परे फेंकता है। उसे दुकान के पास ले जाता है, कागज पर लड्डू रख कर उसके सामने धर देता है। लड़का खाना शुरू कर देता है। लाला अब भी डर से थरथरा रहा है। कल्पना सच से हमेशा एक कदम आगे चलती है। वह यह सोच कर काँपे जा रहा है कि अगर इतना लंबा चाकू उसके शरीर में...! मास्टरजी उसे समझा रहे है।
'देख लाले! तुझे कितनी बार समझाया है कि हर वक्त शरारतें न किया कर! कभी कोई तेरी ऐसी-तैसी कर देगा। रत्न न पकड़ता तो आज सिद्धड़ ने तेरा हिसाब कर देना था। कम से कम ब्राह्मणों को न छेड़ा कर। सुना नहीं। ब्राह्मण के हाथ में छुरा, वह कसाई से भी बुरा।'
लड़का अब अपने आप थाल में से लड्डू उठा कर खाए जा रहा है। लाले की रोनी सूरत देख कर रत्न उसे हौसला देता है कि वह सारे पैसे चुका देगा।
'मास्टर जी बारिश नहीं हो रही। जीरी बीजने का मौसम तो बीता जा रहा है।'
'हाँ भाई! चावल तो पानी-ही-पानी माँगता है। बीजो तो पानी। पकाओ तो पानी। खाओ तो पानी।'
लड़का पीपल के पास लौट आया है। चिपका पेट उभर गया है। उसकी आँख मुँदी जा रही हैं। चारपाई पर बैठे लोग उसके लेटने के लिए जगह छोड़ते हैं। थोड़ी देर पहले का विकराल लड़का, उन्हें अभी तक भय है। लड़का लेट गया है। पेट पर हाथ फेर रहा है। लाला अपनी हरकत से बाज नहीं आता -
'साले का पेट तो देखो। कीड़े खाए छिपकली के पेट की तरह फूल गया है।' लड़का उसकी बातों से बेखबर अब तक सो चुका है। तभी मास्टर जी की निगाह सड़क पर जाती है। कोई आदमी बड़ी तेज-तेज साइकिल चलाता हुआ इधर ही आ रहा है। उसकी पगड़ी की पूँछ हवा में फड़फड़ा रही है। अब साइकिल सड़क से नीचे उतर आई है, पीपल की ओर अंधड़ गति से दौड़ती हुई। सब लोग खड़े हो गए है। भैया है। हस्पताल से आ रहा है। जरूर कोई बुरी खबर है। तभी अंधाधुंध साइकिल दौड़ा रहा है। भैया साइकिल को ब्रेक मार कर रोकता है। एकदम गति टूटने पर साइकिल उल्टी की उल्टी। लेकिन रत्न झपाटे से साइकिल का हैंडल अपने पंजे में कस लेता है। भैया नीचे जमीन पर लेट गया है। मुँह फाड़ कर साँसें ले रहा है।
'क्या हुआ', रत्न पूछता है। भैया मुँह खोलना है लेकिन चमड़े की तरह सूख गई जीभ हिलती तक नहीं। लाला भाग कर पानी का गिलास लाता है, भैया के सिर के नीचे हाथ रख कर ऊपर करता है, उसे पानी पिलाता है। सूखे चमड़े की-सी जबान तर होती है, शब्द फूटता है, 'लड़का।'
रत्न चीख कर कहता है, 'ओए माँ दे यार। पूरा बक। क्या हुआ?'
'चौधरी साहब, लड़का हुआ है, लड़का। बीबीजी बिलकुल ठीक है। माताजी ने आपको हस्पताल बुलाया है।'
'जी ओए मेरे शेर! तेरे मुँह में घी-शक्कर।' और रत्न अपनी मजबूत बाँहों में भैया को हवा में उठाता है, अपने कंधों पर बिठा लेता है। लाला नारा मारता है, 'जै माता शेरावली दी' और नाचना शुरू कर देता है। वह मुँह से ढोलकी की आवाजें निकाल रहा है; ठड़क-ठड़क। एक आवाज, 'सबको मिठाई खिलाओ रत्ने।' लाला मुँह-ढोलक बजाना बंद करके गर्जता है, 'मिठाई की माँ की! बोतल पिएँगे, बोतल।' रत्न उसे प्यार से डपटता है।
'ओए लाले दे पुत्तर। एक बोतल क्या सारे ठेका खरीद ले। आज सारे गाँव वालों को पिलाऊँगा। लड़का हुआ, हाँ लड़का!' रत्न का कद एकदम कुछ इंच बढ़ गया है।
'यार रत्ने! सिद्धड़ की बात सच निकली।' लाला की बात को बीच में काट कर मास्टरजी डपटते हैं।
'ओए आकाशवाणी। तेरे मुँह में कीड़े पड़ेंगे, कीड़े। खबरदार अगर कभी सिद्धड़ कहा, बाल भगवान है, बाल भगवान।'
मास्टरजी ने लाले का नाम आकाशवाणी रखा हुआ है, सारी सच्ची झूठी खबरों का केंद्र हमेशा वह और उसकी दुकान होती है।
उस शाम रत्न ने सिद्धड़ के बाप की ऐसी-तैसी कर दी। लोग जब लड़के को कंधे पर उठा कर वहाँ लाए थे तो अंदर बैठे बाप और माँ के दिल में यह सुखदायक आशा जागी थी कि लड़का जरूर जी.टी. रोड पर किसी मोटर के नीचे आ गया होगा, मर गया। सुख की साँस ली थी, लेकिन बाहर निकले तो माजरा और ही था। लड़का रत्न चौधरी के कंधों पर था और लाला ढोलक की थाप पर भँगड़ा डाल रहा था। बाप डर गया। भगवान खैर करे। लाले ने तहमद में खोंसी बोतल जो अब तक आधी हो चुकी थी उसको देते हुए कहा था - ओए पंडता। तेरे घर भगवान पैदा हुआ है, भगवान। मास्टरजी ने उसे सारी बात बताई - लड़के की जबान पर सरस्वती का वास है। जो कहता है ठीक निकलता है। रत्न ने लड़के को कंधे से नीचे उतार कर चारपाई पर बिठाया, पंडित को भभकी मारी - ओए पंडत - इस बाप को दोनों टैम रोटी दिया कर! आज से इसके लिए रोटी मेरे घर से आएगी। और कान खोल कर सुन्न! मुझे जानता है न! बीस किल्ले जमीन है। साले तेरी दोनों टाँगें तोड़ दूँ तो थाने में रपट भी दर्ज न होगी - ! फिर उसने लड़के के दोनों पैरों पर माथा टेका था - जय हो बाल भगवान की! मास्टर जी ने रत्न के कान में कुछ कहा। उसने सौ का नोट निकाल कर लड़के की माँ की ओर बढ़ाया, 'इसके लिए कपड़े बनवा लो। जिस दिन मुझे नंगा दिख गया तुम्हारे घर को फूँक दूँगा। हाँ, मेरी बीस किल्ले जमीन है। 'सौ का नोट हाथ में पकड़ते ही माँ के दिल में बारह बरस से जम गई ममता जैसे सारे बाँध तोड़ कर बाढ़ की-सी बाहर बह आई। चारपाई पर लड़के के पास बैठ कर उसका सिर गोद में खींच लिया था। लगातार चूमे जा रही है। पंडित लाले की दी हुई आधी बोतल गटक चुका है। शराबी है तो क्या? जमानाखास है। दुनिया देखी है। सबके सामने बीवी पर गरजा, 'ओए जानवर की औलाद! भगवान के बराबर बैठती है। उसे चूमती है। तुझे तो नरक में भी जगह न मिलेगी!' फिर सबके सामने उसका हाथ पकड़ कर चारपाई से नीचे घसीटा था, लड़के के पाँव के पास पटक दिया था, 'यह है तेरी जगह! बाल भगवान के पैरों में।' लोग सन्नाए हुए यह नाटक देख रहे है। पंडित वैसे भी गुस्सेवाला आदमी है, फिर आज पहली बार इतने आदमियों पर अपना जादू देख वह आपे से बाहर हो गया।
उछल कर उसने दरवाजे के पास पड़ी लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी उठा ली, बीवी की ओर लपका, 'तू कुत्ती दी। भगवान के पास बैठेगी? उसे चूमेगी? मैं तेरे टोटे-टोटे न कर दूँ तो असली बाप का नहीं!' रत्न और लाले ने उसके हाथ से कुल्हाड़ी छीनी। मास्टरजी ने समझाया - पंडितजी आपको गुस्सा शोभा नहीं देता। औरतें बेवकूफ होती हैं। फिर माँ है। प्यार तो उमड़ ही आता है न। लड़का सिद्धड़ से बाल भगवान हो गया तो बाप - 'ओए पंडता' से पंडितजी! घरवाली को आज न उसकी गालियाँ बुरी लग रही हैं न शराब; सौ रुपए के नोट की ओट में उसे यह सब कुछ सहन करने में तिल भर तकलीफ नहीं हो रही। मास्टरजी ने लाले से पूछा, 'ओए आकाशवाणी! कुछ खाने का हीला भी किया है कि खाली पेट पिला कर मारने का इरादा है!' लाले ने आँखें मटका कर जवाब दिया, 'थोड़ी और छक लो मास्टरजी। जी.टी. रोड पर ढाबे में खाना बन रहा है। दस कुक्कड़ कटवाए हैं, दस्स! पैसे भी मै दूँगा। यार के घर लड़का हुआ लड़का,' फिर उसने पंडितजी को छेड़ा, 'पंडितजी घर की दाल खाओगे कि ढाबे का मुर्गा। देख लो। धर्म भ्रस्ट न हो जाए।' पंडितजी ने छाती फुला कर जवाब दिया, 'आकाशवाणी सबको बता दे। सारे जहान को खबर कर दे। हम रावण कुल के ब्राह्मण है, खाते हैं, पीते हैं और राज करते हैं। हाँ मुर्गा खाऊँगा, पूरा मुर्गा!'
सब लोग एक छोटे मेले की शक्ल में घर से निकलते है। बोलियाँ डालते, बुल्लारे लगाते हुए जी.टी. रोड पर बने ढाबे पर पहुँचते है। ढाबेवाला सबको जानता है, अक्सर उसके वहाँ ही रात को दवा-दारू का अड्डा जमता है। लंबी-सी सलाख में मुर्गा अड़ाए तंदूर में भून रहा है। छलाँग लगा कर थड़े से नीचे उतरता है। रत्न को जफ्फी डाल कर मिलता है। तहमद में खोसी देसी की बोतल निकालता है और रत्न के मुँह के पास ले जाता है।
'बस जी ले। होर नहीं, टिकेगी नहीं!'
'होर नहीं दा पुत्तर। साले पी। लड़का हुआ है लड़का। अब तो तू कत्ल कर सकता है कत्ल!'
रत्न बोतल मुँह से लगाता है। लाला पूछता है -
'सरदारजी, यह लड़का ओर कत्लबाजी, बात क्या बनी।'
जीता रत्न से बोतल वापस लेता है, अभी बोतल का गर्दनवाला हिस्सा खाली हुआ है। आधे हिस्से पर उँगली रखता है, गर्दन पीछे करता है, गटक-गटक की छोटी-छोटी आवाजें निकलती हैं, और आधी खत्म। साथ पलंग पर बैठे ट्रक ड्राइवरों की ओर बढ़ा कर कहता है -
'लो मरावो तुस्सी भी छको। रोटी देर नाल खावाँगे।'
एक तीखी हँसीवाली आवाज, 'जीते मुंडा जम्मे और आधी लाल परी।' रत्न सौ का नोट ढाबे के छोकरे की ओर बढ़ाता है। जीता उसके हाथ से नोट छीन कर उसकी जेब में खोंसता है और छोकरे को हाँक देता है, अंदर से निकाल ले। पहले ही पाँच मँगवा रखी थी। आज मेरी तरफों।
'हाँ लाले। पूछ, क्या पूछना है।'
'लड़का पैदा होना और कत्ल करना। बात क्या बनी।'
'तू न समझेगा। लूण तेल बेच! जट्ट तब तक कमजोर है जब तक उसके लड़का नहीं। लड़का हो गया, नाम आगे चलाएगा। बस्स! जो बोले उसकी गर्दन फुर्र। फाँसी होगी तो लड़का बड़ा हो कर कचहरी जानेवालों से, फाँसी चढ़वानेवालों से हिसाब बराबर कर लेगा। प्यारे, तू क्या समझे। लड़का तो कत्ल करने का लाइसेंस होता है, लाइसेंस। वाहे गुरु भेजता है।'
पलंग पर खड़ा हो कर एक ड्राइवर जोर से खाँसता है। इस खाँसने को इस तरफ खँगूरा मारना कहते हैं, मतलब होता है चुप हो जाओ। कान पर हाथ रखता है, दूसरे हाथ से मूँछों के गीले बाल होंठों से परे करता है और बोली मारता है -
'कुड़ी तो ओह लैंणी जो हँस के थैंक्यू बोले।'
बाकी यार-दोस्त भी तहमद कस लेते है। एक ड्राइवर ट्रक स्ट्रार्ट करता है और लाइटें जला देता है। मास्टरजी को 'बोली' समझ नहीं आई, पंजाबी जो नहीं। रत्न समझाता है - हमने तो वही लड़की लेनी है जो हँस कर थैंक्यू बोले।
भँगड़ा शुरू हो गया है। इतनी आवाजें सुन कर पेड़ों पर बैठे परिंदों को गलती लगती है कि शायद सवेरा हो गया है - पंख फड़फड़ाते हैं, आवाजें होती है, फिर टहनियों पर दुबक जाते हैं, नहीं, सवेरा नहीं हुआ।
'कुड़ी ते ओह लैंणी जो हस्स के थैंक्यू बोले...'
जितने मुँह उतनी बातें। आसपास के इलाके में यह बात आग की तरह फैल गई कि बाल भगवान में साक्षात भगवान का वास है, बोलते बिलकुल नहीं, जब बोलेंगे तो बस एक या दो शब्द, लेकिन बिलकुल सच, रत्न चौधरी के घर लड़का पैदा होना था हो गया, लेकिन जब बाल भगवान की भविष्यवाणी की बात एक मुँह से दूसरे मुँह तक पहुँची तो हर आदमी ने अपनी कल्पना से उसमें कुछ-न-कुछ जोड़ दिया। रत्न तो गाड़ी के नीचे सिर देने जा रहा था, बाल भगवान ने रोका। न जी, वह बेचारा तो सूखे कीकर से रस्सी बाँध कर फंदा बना चुका था। अगर, इस बार भी लड़की हुई तो फाँसी लगा लेगा। बाल भगवान ने बचा लिया। सिर्फ एक शब्द बोले - लड़का! और देख लो, लड़का हो गया। अरे विश्वास नहीं आता तो गाँव के लाले पूछ लो। और दस आदमी वहाँ बैठे थे। उनसे पूछ लो, सबके सामने कहा था।
अब पीपल के पेड़ के नीचे पानी मटके रख दिए गए हैं। रत्न ने एक छोकरा वहाँ बिठा दिया है। जी.टी. रोड पर आती-जाती बसें, कारें, इस बला की गर्मी में अब वहाँ रुकती है। मुफ्त ठंडा पानी। दिलली की तरह दस पैसे ग्लास नहीं। कोई सवारी पूछे तो ड्राइवर या कंडक्टर बाल भगवानवाली बात बताता है। रत्ने के कलेजे में बाल भगवान ने ठंडक डाली है और वह लोगों को ठंडा पानी भी न पिलाए।
बाल भगवान के जिस्म पर अब भगवा कुर्ता और सफेद धोती है। कंधे पर लश-लश सफेद तौलिया। बड़े भाई हमेशा लंबे-लंबे पट्टे, बाल रख्ते थे। लेकिन इसकी हजामत हमेशा बारीक मशीन से बनवाई जाती थी, कौन रोज-रोज नाई को पैसे दे। बबूल के सूखे काँटे जैसे उसके बाल अब लंबे हैं। माँ अब रोज रात को बालों में तेल मलती है, नरम और चमकीले हो गए। ऐन बीचोंबीच चीर निकालती है, और माथे पर सिंदूर का बड़ा-सा टीका। अब बाल भगवान जमीन पर नहीं सोते, उन्हें बड़ा-सा तख्तपोश मिल गया है। दूध जैसी चादर। वह सारा दिन सोए रहते हैं। जब जागते हैं, तो सिर्फ खाते रहते हैं, फिर सो जाते है। बारह साल गली के कुत्ते की तरह भूखे रहे हैं, अब पेट तो भर गया है, लेकिन भूख का भय अभी वैसे का वैसा है, बल्कि और बढ़ गया है। जाने खाने को मिलना कब बंद हो जाए? आदमी को भूख इतना कमजोर और निहत्था नहीं बनाती जितना कि भूख का डर।
पंडितजी का घर मंदिर के रास्ते पर पड़ता है। गाँव की औरतें रास्ते में उनके घर चावल, आटा, गँवई फल - जैसे खरबूजे, पपीता, अमरूद वगैरह चढ़ा कर मंदिर जाती हैं। घर के सब लोग अब उजले कपड़ों में धुले-धुले दिखते है। शाम की रोटी न मिलने की दहशत उनके चेहरों से गायब हो गई है। अब चमक है, जो भरे-पेटवाले लोगों के चेहरे पर होती है। सुबह-सुबह नहाए-धोए पंडितजी आँगन में बैठते हैं - लाल सुर्ख आँखें, लोगों का खयाल है कि सारी रात बाल भगवान के पास बैठते हैं, जागते रहते हैं, सोए भगवान को पंखा करते हुए। दोस्त-यार आँखों के लाल-सुर्ख होने की असली वजह जानते हैं। बाल भगवान के कमरे में सवेरे के वक्त किसी को नहीं जाने दिया जाता। बस उनके कमरे के खुले दरवाजे से, बाहर आँगन में खड़े हो कर उनके दर्शन हो जाते हैं। आँखें बंद किए लेटे बाल भगवान और सिरहाने बैठी हाथ-पंखा करती माँ के प्यार की बाढ़ है कि थमती ही नहीं, वह प्यार जो सिर्फ कमाऊ लड़के कि लिए ही उमड़ता है। भाई-बहन अब बाल भगवान के कमरे में आने से डरते हैं, न हिलता है, न बोलता है बस कभी-कभी आँखें खोल कर देख लेता है। उसका ताला बंद दिमाग शब्द और वाक्य अब भी ग्रहण नहीं करता लेकिन भरे पेट ने बाकी इंद्रियों में जीवन संचार कर दिया है। कोई-कोई बात वह बिना कहे समझ जाता है। भाई जब उसके कमरे में चारपाई के पास सिर झुका कर खड़े हो जाते है तो उसे पता चल जाता है कोई माँग ले कर खड़े हैं। माँ की ओर देख कर सिर हिलाता है। वह उसके सिरहाने के नीचे से नोट निकालती है, और लड़के की उम्र के हिसाब से उन्हें जेब खर्च देती है। लड़के पर जो चढ़ावा चढ़ता है उसमें से बहुत-सा आटा, चावल, दाल बच जाता है। रात के अँधेरे में पिता बनिए की दुकान पर बेच आता है। आँगन को रत्न चौधरी ने ईंट भेज कर पक्का करवा दिया है। अब उसकी कल्पना में एक पक्के मकान ने जन्म ले लिया है।
बीवी ने डरते-डरते एक रात पूछा जरूर था कि क्या सचमुच लड़के में भगवान का वास हो गया है। उसने पत्नी के फिर से भर आए जिस्म को दबोचते हुए डाँटा था -
'तुझे इससे क्या लेना है? लोग मानते हैं तो मानने दे। साल भर में इतने रुपए हो जाएँगे कि जमीन भी अपनी होगी और मकान भी अपना। रत्ने के मकान की तरह पक्की ईंटों का।'
आजकल पत्नी को उसके मुँह से बदबू नहीं आती। उसका दबोचना अच्छा लगता है। एकदम उसके अंदर सरक जाना कितना अच्छा लगता है।
'लेकिन बोलता तो बिलकुल नहीं!'
'पहले कौन-सा बोलता था। शुक्र कर चुप रहता है, जिस दिन सिद्धड़ बोल पड़ा, उस दिन भाँडा फूटा - दस दिन से गायत्री मंत्र रटा रहा हूँ, लेकिन मजाल है कि 'ओम' से आगे कुछ रट सके। इतने लोग आते हैं। उनके सामने एकाध मंतर पढ़ दे तो वारे-न्यारे हो जाएँ, लेकिन हरामजादा सचमुच सिद्धड़ है।'
'गाली मत दो उसे। सारे घर की रोटी चला रहे हैं मेर बाल भगवान।' माँ के जवाब में प्यार और चालाकी घुल-मिल गए हैं।
'तो फिर तुझे गाली दूँ। बिना गाली दिए मुँह का स्वाद ही नहीं बदलता,' पति ने छेड़ा।
'हाँ, दे ले गाली। तेरा क्या? उस दिन तो कुल्हाड़ी उठा कर टोटे-टोटे करने लगा था।'
'चुप हराम की। लोगों को डरामा करके दिखा रहा था। तेरे टोटे तो मैं वैसे ही कर दूँ। बिला कुल्हाड़ी के', पति ने उसकी भरी-भरी छाती में दाँत गड़ा कर कहा। उसकी लंबी सिसकारी निकल गई, दर्द से नहीं सुख-संतोष से।
अब लाले की दुकान के आगे लोहे की कुर्सियाँ बिछ गई हैं। शहर से बर्फ-बक्सा भी वह खरीद लाया है, कार वालों को अब ठंडी बोतलें बेची जाती हैं, शहर के कालेज में लड़के पढ़ने जाते है। अब वह भी बैठना शुरू हो गए हैं। लाले के कान हमेशा उनकी बातों की तरफ लगे रहते हैं, थोड़े-से अंग्रेजी के फिकरे भी उसे याद हो गए हैं। आज रविवार है। दुकान के आगे जमघट है, चारपाइयों पर बड़े लोग और कुर्सियों पर छोकरे विराजमान है। एक लंबी कार सड़क से नीचे उतरती है, पेड़ के नीचे रुकती है। मोटे पेट वाला आदमी बाहर निकलता है, ठंडी बोतलें माँगता है, लाला कार में बैठी बाकी सवारियों को देख कर कहता है -
'उन्हें भी बाहर बुला लें। दो मिनट पेड़ के नीचे बैठेंगे तो साँस आ जाएगी। बिलकुल घुप्प गर्मी है।' मोटे पेटवाला इशारे से उन्हें बाहर बुलाता है, लाला आँखों से इशारा करता है। छोकरे कुर्सियाँ खाली कर देते हैं। उसकी बीवी और जवान लड़का बाहर निकलते हैं। लड़के ने सफेद निक्कर और टी-शर्ट पहनी हुई है, कसरती जिस्म पर कपड़े खुल से गए हैं। तीनों चुप बैठे हैं, बिलकुल बातचीत नहीं कर रहे हैं, जरूर किसी बड़ी मुसीबत में हैं। लाला उनके पास प्लेट में लड्डू रख जाता है। मोटा आदमी 'न' में सिर हिलाता है।
'खा लें। पैसे नहीं लूँगा, भगवान का परसाद है।'
'लेकिन परसाद तो मंगल को बाँटते है। आज तो ऐतवार है,' औरत कहती है।
'यह उस भगवान का परसाद नहीं। हमारे गाँव के बाल-भगवान का है। हर एतवार को मैं बाँटता हूँ।' लाले की कमाई बाल भगवान की वजह से सौ गुना बढ़ गई। आसपास के लोग दर्शन के लिए आते हैं तो उसकी दुकान पर चाय-पानी पीते हैं।
'यह बाल भगवान कौन हैं। क्या बताते हैं', अमीर औरत के दिल के किसी कोने में सोया हुआ धर्म जाग उठता है। मास्टरजी पास सरक आए हैं। उन्हें बाल भगवान की कहानी सुनाते हैं। औरत-मर्द कुछ खुसपुस करते हैं। दर्शन कर लिए जाय। क्या हर्ज है, शायद कल काम बन जाए। स्टील मिल छोटे ने कब्जा कर लिया। नीचे की कोर्ट में वह जीत गया है। कल सेशन कोर्ट में वकीलों की आखरी बहस है, शायद फैसला भी हो जाएगा। छोटे भाई के नाम बाप ने जायदाद कर दी थी, जरूर जीत जाएगा। सब कुछ खत्म हो जाएगा, मास्टरजी उसे बाल भगवान के दर्शन की सलाह देते हैं, पंडित के घर से आजकल उन्हें भी खाने-पीने का सामान मिलता रहता है। लेकिन मोटे आदमी का जवान लड़का गुस्से में कहता है -
'वाट नानसेंस! आई डोंट विलीव इन सच फ्राड्ज!'
लाले को फ्राड्ज का मतलब तो समझ नहीं आया, लेकिन उसे पता है कि नानसेंस गाली है। ऊँची आवाज में सबको सुना कर गर्जता है-
'हमारे बाल भगवान को नानसेंस कहता है। गाली देता है। छेद दूँगा। उठो, जाओ यहाँ से!' उसकी ऊँची आवाज सुन कर लोग खड़े हो गए हैं। उन तीन सवारियों को घूर रहे हैं। मास्टरजी समझाते हैं -
'लाल, पढ़े-लिखों की बात का बुरा मत माना कर, अधर्मी होते हैं। देखा नहीं, सारा देश डुबो रहे हैं।' मोटे आदमी ने जिंदगी में पहली बार किसी दुकानदार को ग्राहक से लड़ाई पर उतारू दे्खा है। उसे पक्का विश्वास हो जाता है कि बाल भगवान में कुछ-न-कुछ जरूर है जिसकी वजह से यह चायवाला मरने-मारने पर उतारू हो गया है।
वह तीनों बाल भगवान के आँगन में पहुँच गए हैं। पीछे लोगों का छोटा-सा जुजूस है, पंडित कमरे से बाहर आँगन में आता है। भरपेट रोटी और भरपेट शराब ने उसके चेहरे पर तीखी चमक ला दी है। उसने बाल कटवाने बंद कर दिए हैं। सिर के दोनों तरफ लटक रहे बालों ने उसके कानों को ढक लिया है। वह मास्टरजी की तरफ सवालिया निगाह से देखता है, मास्टरजी मोटे आदमी के बारे में उसे बताते है, उसकी मुसीबत भी समझाते हैं, पंडित गड़गड़ाती आवाज में कहता है -
'नहीं, मुलाकात नहीं हो सकती। भगवान सो रहे हैं।' मोटे आदमी का जवान लड़का निक्कर की पिछली जेब से पर्स निकालता है, और बड़ी हिकारत से सौ का नोट पंडित की तरफ बढ़ाता है। पंडित के अंदर बैठा पारसी थियेटर का नाटक-कलाकार झटके से हाथ बढ़ता है। नोट पकड़ लेता है, लड़के के चेहरे पर मुसकान है, तुम लोगों की यह कीमत है, वाली! पंडित डरामे पर उतारू है। नोट के दोनों सिरों को उँगलियों में पकड़ता है, दो टुकड़े करता है और उसको लौटा देता है। आवाज की गड़गड़ होती है -
'क्यों? तू भगवान को खरीदेगा! हराम के तुख्म! इतना पैसा है तो जज को क्यों नहीं खरीद लेते?' गाली सुन कर लड़के के कसरती कंधे और चौड़े हो गए हैं। गाली सुन कर उसकी माँ का विश्वास और पक्का हो गया है कि बाल भगवानवाली बात सच है। जो पंडित गाली-गलौज करते हैं, वे भगवान के नजदीक होते हैं, भिखमंगे पंडित नहीं! गाली सुन कर गाँव के लोगों के सीने तन गए हैं, अपने पंडित को गर्व से देख रहे हैं। सालों की कैसे बोलती बंद कर दी। सौ के नोट का रौब झाड़ रहे थे।
अब लड़के की माँ पंडित के आगे हाथ बाँधे खड़ी है।
'जगा दो महाराज, तुम डूबतों का सहारा अब बाल भगवान ही हैं। लड़के की बात का बुरा न मानें। जवानी और बेवकूफी कोई अलग थोड़े होती हैं।'
मास्टरजी पंडित को एक कोने में ले जा कर समझाते हैं। पहली बार मोटी आसामी फँसी है, बाल भगवान के कुछ कहने से अगर इन लोगों का काम बन गया तो एक ही झटके में वारे-न्यारे हो जाएँगे। लोग जो चढ़ावे में दाल, चावल, आटा चढ़ाते हैं उसको बेचने से तो पक्का मकान बनवाने में वर्षो लग जाएँगे। पंडित-कल्पना से एक-एक करके ईंटें बाहर निकलती हैं और मकान पक्का हो जाता है। रंग-रोगन के डिब्बे धड़ाधड़ बाहर आ रहे हैं। मकान को सतरंगा बना रहे हैं। वह बाल भगवान को अंदर जा कर जगाता है, माँ सिरहाने बैठ कर हाथ-पंखा झलना शुरू कर देती है। लगातार रोटी मिलने की वजह से लड़के की गालें फूल गई हैं, जैसा अकसर तसवीरों में फूली गालोंवाले भगवान होते हैं। रंग बाप पर गया है। एकदम अंगारों की तरह! वह हमेशा उनींदा रहता है, भरे पेट जानवर की तरह माँ उसकी पीठ पीछे बड़ा तकिया रख उसे अधबैठा करती है। औरत अपनी लोहे की फैक्टरी छिन जाने का रोना रोती है। आखिर में विनती करती है, 'कल सैशन कोर्ट में आखरी तारीख है, आप हमारी डूबती नैया बचा सकते हैं।'
लड़के के तालाबंद दिमाग पर ठक-ठक होती है। शब्द बिलकुल नए हैं। अंदर घुसने से इनकार कर रहे हैं। औरत के चेहरे से उसे अंदाज लग रहा है कि कुछ माँग रही है। भूखी है? उसे अब भी यही लगता है कि कोई जब कुछ माँगता है तो सिर्फ रोटी। लेकिन मोटी है। भूखे आदमी कभी मोटे नहीं होते। यह सैशन क्या माँग रही है? कोर्ट क्या है। जब बहुत देर ठक-ठक होने के बावजूद कुछ समझ नहीं आता तो वह आँखें मूँद लेता है। नीचे जमीन पर बैठे लोग प्रतीक्षारत उसकी तरफ देख रहे है। उसकी आँखें बंद हैं, लेकिन इतने लोगों का लगातार देखना वह महसूस कर रहा है। आँखें खोलता हैं, उस औरत की तरफ देखता है। पंडितजी उसे सवाल पूछने का इशारा करते हैं।
'भगवान! हम केस जीतेंगे क्या?'
लड़के को न केस ओर न जीतना शब्द का अर्थ आता है। उसने 'न' में सिर हिला दिया।
'भगवान! क्या हम केस हार जाएँगे। लड़के ने फिर 'न' में सिर हिला दिया।
अब उस औरत, उसके पति और बाकी लोगों के चेहरे पर भरपूर हैरानी आ बैठी है, यह कैसा जवाब है? मोटे मर्द ने पूछा।'
'न हम जीतेंगे, न हारेंगे!' लड़के ने फिर 'न' में हिलाया।
वहाँ बैठे लोग अब फुस-फुस करना शुरू हो गए हैं। उस मोटे मर्द के जवान लड़के का चेहरा गुससे से तमतमा रहा है। माँ-बाप को अंग्रेजी में कहता है -
'आय टोल्ड यू हीज फकिन फ्राड!' वह उठ ठहरा। माँ-बाप भी बाल भगवान को बिना नमस्कार किए उसके पीछे कमरे से बाहर निकल गए। पंडितजी का चेहरा अब बिलकुल लाल हो गया है, इतने लोगों के सामने इतना अपमान? उन्हें पक्का हो गया है कि बात सारे गाँव में फैल जाएगी और कल से आटे-दाल का चढ़ावा भी बंद हो जाएगा। कुछ पहले कल्पना में जो पक्का मकान बन गया है, गिरना शुरू हो जाता है। यह मास्टर का बच्चा उठता क्यों नहीं? जाए तो इस पागल की खैर नहीं। ठुकाई होगी तो देखूँगा इसका भगवान है कि नहीं।
शायद बाहर निकले लोगों में से किसी ने रत्न चौधरी को इस घटना के बारे में बता दिया है। वह तेजी से कमरे में घुसता है। मास्टरजी उसे सारी बात समझाते हैं। वह चुपचाप बैठा है, इतने सारे लोगों को खामोश बैठे देख कर लड़का डर गया है। डर से वह बचपन से वाकिफ है! रोटी न मिलने का डर, भाइयों के रोटी चुरा लेने का डर, बाप का आते-जाते लात, जूता, थप्पड़ मारने का डर। माँ की आँखों में उसके लिए मरने की स्थायी भावना को देखने का डर और भूख का डर। पेट तो अब भरा रहता है, लेकिन भूख के दो लंबे हाथ लगातार बाहर फैले रहते हैं। उसकी छोटी बहन अंदर आती है, भाई का चेहरा देखती है, और उसे पता चल जाता है कि वह अंदर-ही-अंदर काँप रहा है। माँ के हाथ से पंखा लेती है। माँ वहाँ से उठ कर अंदर जाती है। वह एक हाथ से पंखा झल रही है, दूसरा हाथ भाई के माथे पर फेर रही है, भाई के अंदर फैल रहा डर उसके हाथ पर शिकंजा गड़ा देता है। सब लोग चुप बैठे लड़के के चेहरे की ओर देख रहे है। बहन उससे पूछती है, 'रोटी दूँ।'
लड़के का पेट भरा हुआ है। लेकिन उसके अंदर बैठा भूख का डर छलाँग लगा कर उसके मुँह में आ जाता है, वह एक ही साँस में कहता है, 'हाँ! हाँ! हाँ!'
मास्टरजी के दिल में अँधेरे में एक चिंगारी चमकती है। रत्न से पूछते हैं, 'रत्ने, जब बाल भगवान ने तुम्हें लड़का होने की बात बताई थी तो कब से भूखे थे?'
'साला हमेशा भूखा रहता था। तीन-चार दिन से तो भूखा होगा ही। तभी मकौड़े खा रहा था।'
'तो बस! ठीक है। बाल भगवान तभी सच बात बोलते है जब भूखे हों।
'यह क्या बात हुई?' रत्न हैरान हो कर पूछता है।
'भूख हमेशा सच बुलवाती है। तुझे क्या पता। भूखे आदमी सरकारें पलट देते हैं। भूखा पहले सच बोलता है फिर चाकू मारता है।'
लेकिन रत्न और पंडित के चेहरे पर बैठे शक को मास्टरजी देख लेते हैं। लड़के से कहता है -
'रोटी नहीं, अब तू भूखे रहेगा।' रोटी और भूख शब्द खट से लड़के के दिमाग में घुस जाते हैं, क्योंकि जन्म से ही वह इन शब्दों के अर्थ समझता है। उसके मुँह से तो कोई शब्द नहीं फूटता लेकिन अंदर बैठा डर आँखों की राह बाहर निकलला शुरू हो जाता है। गालें आँसुओं से गीली हो रही हैं।
'अब सच बताएगा।'
वह मास्टरजी की कड़कती आवाज सुन कर झट से जवाब देता है,' 'हाँ! हाँ! हाँ!'
'देखा! भूख की धमकी ने कैसे बोलती बंद कर दी। अब इसे खाने को मत दो!'
रत्न और पंडित मास्टरजी को बताते हैं कि खाने को नहीं देंगे तो मर नहीं जाएगा? पंडित के घर आए चढ़ावे का हिस्सा इस वक्त मास्टरजी के दिलो-दिमाग पर धरना दे कर बैठा है। नहीं! लड़के का जिंदा रहना जरूरी है, तभी उनका काम भी चलता रहेगा। लेकिन लड़के का बोल भगवान बने रहना भी जरूरी है, तभी लोग चढ़ावा चढ़ाएँगे। उनके दिल के अंदर में दूसरी चिंगारी चमकती है -
'ठीक है। अब लोगों को सिर्फ एतवार को बाल भगवान से मिलने दिया जाए। दो दिन पहले इसकी रोटी बंद। जिंदा भी रहेगा और सच भी बोलेगा।'
पंडित की कल्पना में फिर से पक्का मकान बना शुरू हो गया है। मास्टर के कंधे पर हाथ मार कर कहता है, 'वाह मास्टर! तू तो भगवान का भी बाप है। इस खुशी में हो जाए आज लाल परी का नाच।'
'सूरज उतरे तो जी.टी. वाले ढाबे पर आ जाना। आज मेरी तरफ से।' रत्न यह कहता हुआ मास्टरजी के साथ बाहर निकल जाता है। पंडित के दाँत अभी से भुने हुए कुक्कड़ के नर्म मांस में गड़ना शुरू हो गए हैं।
अगली सुबह माँ, बाप और बहन बाल भगवान के कमरे में बैठे हैं। बहन पंखा झल रही है। बाल भगवान उनका हाथ पकड़ते हैं, पंखा उसके हाथों से लेते हैं। तीनों उसे हैरानी से देख रहे हैं। क्या चाहता है? कुछ माँग रहा है क्या? 'मैं! पंखा!' लड़के के चेहरे पर खुशी है या शरारत। वह बहन को पंखा झलना शुरू कर देता है। बाप झट से दरवाजा बंद कर देता है। किसी ने बाल भगवान को पंखा झलते देख लिया तो बेड़ा गरक हो जाएगा। माँ लड़के के हाथ से पंखा छीनने की कोशिश कर रही है, लड़के ने कस कर डंडी पकड़ रखी है। ऊँची आवाज में कहता है, 'मैं! पंखा!' पंडित बीवी को इशारा करता है कि जिद पूरी कर लेने दो! दरवाजा तो बंद है। कौन देखेगा।
'क्यों जी! मकान पक्का करवाने में कितनी ईंटे लगेंगी।'
'कम से कम दस हजार। सिर्फ ईंटें लगेगी।'
'कम से कम दस हजार। सिर्फ ईंटे नहीं, सीमेंट भी चाहिए।' पति ने समझाया।
लड़का उनकी बातें सुन रहा है, ईंट शब्द उसके दिमाग के आसपास घूम रहा है। पूछता है, 'ईंट! ईंट!'
पंडित बाहर जाता है, एक ईंट उठा कर लाता है, लड़के को दिखाता है। लड़के की आँखों में अब भी प्रश्नवाचक भाव है। बाप कच्ची दीवार पर ईंट रखता है और उसे समझाता है, 'ईंट, पक्का मकान।' लड़के की आँखों से प्रश्न गायब हो जाता है। स्कूल की दीवार और उसकी ईंटे उसके दिमाग में प्रवेश कर जाती हैं! उसके चेहरे पर बात समझ आ जानेवाली मुसकान है। नया शब्द उसने सीख लिया है। तोते की तरह रट रहा है, 'ईंट! ईंट! ईंट!' यह नया शब्द रटते-रटते बाल भगवान सो गए हैं। पंडित बीवी को कहता है कि देख लो कल बात सारे गाँव में फैल गई है। कोई भी चढ़ावा नहीं आया। बीवी अब फिर से भूखे पेट और जिस्म में गड़ते पति के तीखे दाँतों के बारे में सोचती है तो काँप-काँप जाती है।
कोई दोपहर के बाद का वक्त होगा। घर के बाहर 'बाल भगवान की जय' के नारों की आवाजें सुन कर पंडित हड़बडा कर उठता है, बाहर का दरवाजा खोलता है। वही कलवाले तीन लोग हैं, जिनकी आज सुबह सेशनकोर्ट में तारीख थी। पीछे गाँववालों की भीड़ है, लाला, रत्न और मास्टरजी की बाँछें खिली हुई हैं। मोटा मर्द फिर नारा लगाता है 'बाल भगवान की जय', लोग गला फाड़ कर जवाबी नारा लगाते हैं। पंडित हैरान है कि हुआ क्या? मोटा, उसकी पत्नी और जवान लड़का पंडित के पाँव छूते हैं, मोटा बताता है -
'पंडितजी बाल भगवान ने हमें बचा लिया। कल क्या ठीक वचन बोले थे। न जीत होगी और न हार।'
आगे की बात उसकी बीवी बोलती है -
'वही हुआ जो भगवान ने कहा था। छोटे भाई ने हमारे खिलाफ केस वापिस ले लिया और सुलहनामा होगा।'
आगे की बात लड़के ने बताई -
'बाल भगवान ने चाचा को उसके पाप की पनिशमेंट दी। कल ही उनके लड़के को हार्ट-अटैक हुआ। बास्टर्ड डर गया। आज सुलह कर ली', उसने दोबारा से पंडितजी के पाँव छुए।
'बाल भगवान के दर्शन करा दें। हमें तो उन्होंने मिट्टी में मिलने से बचा लिया।'
पंडितजी फिर नाटक पर उतर आया है -
'नहीं। भगवान सो रहे हैं। उन्हें जगाना मना है।'
औरत ने पंडितायन की ओर देखा; गला बिलकुल खाली है। अपने गले से सोने का हार उतारा और उसके गले में डालते हुए कहा -
'भगवानजी की माँ और गला बिलकुल खाली। न जी।'
पंडित को साफ दिखा कि सोने की चमक की वजह से बीवी की छाती और सफेद और उजली हो गई है। सूरज डूबने के बादवाले दृश्य उसके दिमाग में कूद रहे हैं, मांस में खुभने के लिए दाँत किट-किट कर रहे हैं।
'पंडितजी भगवान के दर्शन करे बिना हम नहीं जाएँगे।' मोटे आदमी ने आँगन के फर्श पर बैठते हुए कहा। पंडित ने बीवी के गले में पड़े सोने के हार को देखा, संकेत करती मास्टरजी की आँखों को देखा और हाँ कर दी।
दरवाजे का कुंडा खोला। भगवान सो रहे हैं, चेहरे पर भरे पेटवाली शांति है, सुख है। छोटी बहन पंखा झल रही है। उसने होठों पर उँगली रख सबको न बोलने का इशारा किया। लोग चुपचाप उनकी चारपाई के पास बैठ गए हैं। उन तीनों ने भगवान के पैरों के पास माथा रखा। इतने लोगों के वहाँ होने को लड़के की इंद्रियों ने सुप्तावस्था में भी ग्रहण कर लिया है। वह आँखें खोलता है। हैरान है कि उसके कमरे में भीड़ क्यों है? तभी वह मोटा आदमी नारा लगाता है, 'बाल भगवान की जय।' सारे लोग नारे का जवाब देते हैं। वह आदमी लड़के के पैर पकड़ कर उन पर सिर रखता है। लड़का झटके से पैर पीछे खींच लेता है, उठ बैठने के लिए हिलता है। वह डर गया है। यह मोटा उसे जरूर मारेगा। पंडित गरजता है -
'भगवान को छूने की हिम्मत कैसे पड़ी? दिमाग घास चरने तो नहीं चला गया? पीछे हट कर बैठो!' वह बेटी के हाथ से पंखा लेता है, उसकी जगह बैठ कर झलना शुरू कर देता है। लड़का आश्वस्त हो जाता है। पिता के होते हुए मोटा उसे मार नहीं सकता। उसकी औरत पूछती है -
'पंडितजी, हम भगवान की क्या सेवा करें? मौका तो आपको देना ही पड़ेगा।'
पंडित पारसी थियेटर का फिकरा मारता है -
'भगवान पैसे से नहीं मिला करते, और मिल जाएँ तो पैसे लिया नहीं करते। उन्हें देना है तो बस सच्चे दिल से श्रद्धा दो, इज्जत दो, मान दो!'
उन तीनों के चेहरों पर निराशा बैठ गई है। लोग धीरे-धीरे आपस में बातें कर रहे हैं कि बेचारे ठीक ही तो निराश है। लाखों का महीने का कारोबार बच गया, बाल भगवान ने बचा दिया। अब कुछ करेंगे नहीं तो हमेशा डर लगा रहेगा कि कहीं फिर सब कुछ स्वाहा न हो जाए। मोटे की औरत मास्टरजी से कहती है, 'आप ही कुछ कहें। पंडितजी को राजी करें। कुछ किए बिना हमारी आत्मा में ठंड कैसे पड़ेगी।' इसके पहले कि मास्टरजी कुछ कहें पंडित गड़गड़ करती आवाज में कहता है -
'नहीं! कुछ नहीं। सब जाओ!' इतने लोगों के मुट्ठी में होने का नशा उस पर सवार हो गया है।
सब चुप। लड़के के बंद दिमाग पर लगा ताला हिलना शुरू हो गया है। दोपहर को सोने से पहले जो नया शब्द उसने सीखा था वह बाहर आने के लिए छलाँगें लगा रहा है। वह बोलने के लिए मुँह खोलता है लेकिन शब्द होठों पर से पहले फिसल जाता है। वह कस कर आँखें बंद करता है। सिर हिलाता है, ताला जोर-जोर से हिलता है, शब्द नीचे खिसकता है, उछल कर होंठों पर आ बैठता है; वह मुस्कराता है, आँखें खोलता है, धीमी आवाज में कहता है, 'ईंट, ईंट, ईंट।' लोगों के चेहरों पर हैरानी। पंडित हैरान, वह तीनों हैरान। मोटा आदमी पंडित से पूछता है।' भगवान क्या कह रहे हैं?' उसकी आवाज डरी हुई है, भगवान कहीं वह तो नहीं कह रहे हैं कि उसकी काम पर ईंट-पत्थर! पंडित की समझ में भी कुछ नहीं आ रहा। वह मदद माँगती आँखों से मास्टरजी की तरफ देखता है। लड़का फिर कहता है -
'ईंट, ईंट, ईंट!' वहाँ बैठे लोग अब बिलकुल डर गए हैं। बाल भगवान किसी खतरे या बुरी खबर की चेतावनी दे रहे है? मास्टरजी के दिमाग में खट से ईंट और मकान कर रिश्ता जुड़ जाता है। उस मोटे को बताता है -
'बारिशों में बाल भगवान का कमरा टपकता है। शायद इसे पक्का करवाने को कह रहे हैं। भगवान भगतों से हमेशा संकेत-भाषा में बात किया करते हैं।'
लोग हाँ, हो करते है। मोटा आदमी पूछता है, 'क्यों भगवान! आपकी यही आज्ञा है न?'
लड़के के दिमाग के बाहर एक वाक्य मँडराता है और बाहर से ही वापस लौट आता है। वह फिर कहता है, 'ईंट, ईंट, ईंट!'
'सुनो जी। सारा मकान पक्का करवा दो। हमारे भगवान कच्चे मकान में रहें? थू है हम पर!'
भगवान ने आँखें बंद कर ली है। सब बाहर निकलते हैं मोटा इस तीन कमरोंवाले कच्चे मकान का आँखों से अंदाजा लगाता है। हाथ जोड़ कर बोलता है -
'पंडितजी, मै कल ही दस हजार ईंटे भेज दूँगा। कम पड़े तो खबर करवा देना। और आ जाएँगी।' उसका जवान लड़का कहता है -
'पापा सीमेंट भी भेजना है, ब्रिक्स बिल नाट डू', कचहरी में सुलहनामा होने के बाद उसे हौसला हो गया है कि अब लंबी कार उसके पास रहेगी। उसकी माँ कहती है, 'भगवान कभी खबर भेजा करते हैं क्या? हम हर इतवार यहाँ आया करेंगे। जो कमी-बेशी रह जाएगी खुद देखेंगे। भगवान तो कुछ बोलते ही नहीं।'
पंडित ने भगवान के कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया है। वे तीनों दहलीज पर माथा टेकते हैं। औरत धीरे-से बेटे से कुछ कहती है। वह पर्स से सौ के पाँच नोट निकालता है, पंडितायन के हाथ में पकड़ा कर उसकी मुट्ठी बंद कर देता है, 'माताजी। अब न मत करें। यह भगवान के लिए नहीं। सारे गाँव में आप ही हमारी तरफ से मिठाई बाँट दें।'
अब उनका घर पक्का है, दीवारों-दरवाजों पर रंग-रोगन है और उनसे गरीबी की बू नहीं उगती। अब उन सबके चेहरे गोल-मटौल, भरे-भरे है और भूख की चुगली नहीं करते। अब पंडित की कल्पना में मकान की जगह जमीन ने ले ली है। और उसे जमीन लेने की जल्दी है लोगों को सच का पता भी चल सकता है। जब भी चल गया, खेल खत्म पैसा हजम। अब सिर्फ रविवार को लोगों को बाल भगवान से मिलने की इजाजत है। उनकी प्रसिद्धि अब गाँवों से बाहर निकल कर शहरों में भी फैल गई है और शहर के लोग भी जादू-टोने, साधू-साध के मुआमले में गाँव के लोगों से कम बेवकूफ नहीं होते, बल्कि एक कदम आगे ही होते हैं। लाला की दुकान के साथ अब पक्का कमरा बन गया है। मेज, कुर्सियाँ, छत-पंखा और रेडियो लग गया है। जो भगत-भाई शहर से आते हैं अब इस कमरे में बैठ कर ठंडा गर्म पीते हैं। जन-संपर्क का विभाग तो शुरू से मास्टरजी ने सँभाल रखा है। लाला ने एक बार उनसे पूछा जरूर कि क्या सचमुच बाल भगवान को सब कुछ पता है, आगा-पीछा। मास्टरजी का जवाब सुनने के लिए और बैठकबाज भी पास सरक आए। उन्होंने डपटा -
'देख आकाशवाणी! तुझे सच-झूठ से क्या मतलब। दुकान जो चल निकली है, एक पक्का कमरा जो बन गया है, क्या तेरे बाप ने मरते हुए छोड़ा था? बाल भगवान की कृपा से ही तेरे ग्राहक बढ़े है न? क्यों?'
लाला के मुँह पर डर ने ताला लगा दिया है। मास्टरजी समझाते हैं, देखो, धर्म के नाम पर हर हिंदुस्तानी डरपोक है, बेवकूफ होता है। अरे, जब प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक साधुओं, बाबाओं और तांत्रिकों में विश्वास करते हैं तो आम लोगों की बात तो छोड़ ही दो न। याद नहीं बिहार का एक मुख्यमंत्री दस अँगूठियाँ डालता था। किसी बाबा ने चक्कर चलाया था। हो सकता है पैरों की दस उँगलियों में भी दस अँगूठियाँ डालता हो।'
'लेकिन ऐसा क्यों है? लोगों को अपने हाथों की ताकत पर विश्वास क्यों नहीं?' कालेज में पढ़ रहे एक लड़के ने पूछा, जिसे साम्यवाद की नई-नई हवा लगी है। मास्टरजी जानते है जिस दिन नौकरी पाने के लिए हजारों की रिश्वत देगा यह लाल रंग अपने आप धुल जाएगा। फिर भी उसे समझाते हैं -
'कौन-से हाथों की ताकत की गलती तुम्हें लग गई है? देखा नहीं। इस देश के लोग हाथों में लाठी पकड़ते है, लेकिन मारने के लिए नहीं, सहारे के लिए। और भाई फिर दिनकरजी भी कह गए हैं, लिख गए हैं - हारे को हरि नाम।' बैठकबाजों के कानों के दरवाजे चौकस हो गए हैं, मास्टरजी जरूर कोई चस्केवाली बात सुनाएँगे।
'मास्टरजी यह दिनकरजी कौन थे?'
'अरे भाई दो अक्खर कभी पढ़ भी लिया करो। हमारे राष्ट्रकवि कहलाते थे। जब तक एम.पी. थे, कई कमेटियों के कुर्सीपति थे। इंद्र की काल-गर्ल्ज पर लिखते रहे। उनका एक काव्य पढ़ो कभी 'उर्वशी'। मजा आ जाए।'
'यह काल-गर्ल्ज क्या बला होती है जी', लाले ने चटकारा ले कर पूछा।
'होती है तेरी माँ! अरे रंडियाँ। आजकल जैसे काल-गर्ल्ज को इस्तेमाल करके काम निकलवाया जाता है, स्वर्ग का राजा इंद्र अपनी अप्सराओं से वैसे ही काम निकलवाया करता था।!'
'अच्छा फिर क्या हुआ?'
'बेचारे जब रिटायर हो गए, कोठी गई, जहाजों में सफर बंद। बस, हर बूढ़े हो रहे हिंदुस्तानी की तरह सरकार की शरण से निकले और सीधे पहुँच गए भगवान की शरण में। आखरी किताब लिखी - हारे की हरि को हरि नाम! तो भाई तुम ठहरे अनपढ़। अब पढ़े-लिखे लोग मंत्री, नेता, लेखक, कवि तक जब भगवान की महिमा को मानते हैं, तो तुम्हारे पेट में मरोड़ लग गए हैं क्या जो ऐसे सवालों के चक्कर में पड़ गए हो। कान खोल कर सुन लो। मेरी बात गाँठ बाँध लो। बाल भगवान नहीं तो तुम भी नहीं। गाँव की सड़कें पक्की बन गई हैं न? हाई स्कूल और हस्पताल खुल गया है न? इतने साल तो नेताओं ने इस गाँव पर किरपा नहीं की। अब की है न? सिर्फ बाल भगवान के कारण। सुसरो सवाल मत पूछो। कानों को हाथ लगाओ। जय-जयकार करो समझे।' मास्टरजी पहली बार इतना लंबा बोले हैं। लोग सकता गए है। कैसे सीधे हृदय के मास्टरजी बोल रहे हैं, आकाशवाणी उन्हें इशारे से दुकान के अंदर आने को कहता है। गिलास में थोड़ी-सी डालता है, कैंपा मिलाता है ताकि रंग छुप जाए, लोगों को पता न चले। उन्हें पकड़ाता है, 'लो जी! ठंडा पी लो। हम बेवकूफों की वजह से गला मत सुखाया करो।'
बाल भगवान की ज्यों-ज्यों प्रसिद्धि फैल रही है त्यों-त्यों पेट भी फैलना-फूलना शुरू हो गया है। एक ही शब्द में बात करते हैं। कई बार ठीक, कई बार गलत। जिन लोगों को बताया जवाब गलत निकलता है वह अपने कर्मो को दोष दे कर चुप हो जाते हैं। जिनका जवाब सही निकलता है वह पुण्य कमाने के लिए और लोगों को भगवान की शरण में भेजते हैं। फिर इधर की उर्दू की अखबारें चटखारे ले कर ऐसी खबरें छापती हैं। और बुजुर्ग लोग, दुकानदार तबका अब भी उर्दू की अखबारें पढ़ता है। चटपटी खबर और चटखारे लेनेवाली जुबान। और फिर प्रत्येक छोटी-मोटी दुकान रेडियो स्टेशन होती है जहाँ समय विशेष पर नहीं, सारा समय समाचार दर्शन चलता रहता है। हर इतवार लाले की दुकान के आगे कारों, साइकलों और स्कूटरों की भीड़ लग जाती है। उसके पास अब तीन छोकरे हैं। चाय-पानी पिलाते-पिलाते हाँफ जाते हैं।
अब बाल भगवान को हफ्ते में सिर्फ तीन दिन खाने को दिया जाता है। वीरवार खाना बंद और सोमवार शुरू। दिमाग का ताला बंद है तो क्या हुआ? बाकी इंद्रियाँ तो काम करती हैं। उन्हें अब बुधवार को सारा दिन ठूँस-ठूँस कर खिलाया जाता है तो पता लग जाता है कि अब कुछ दिन रोटी नहीं मिलेगी। पेट बढ़ने के साथ-साथ भूख के दानव का कद भी बढ़ गया है। झपटते हाथों से रोटियाँ अंदर डालता जाता है, निगलता जाता है। तीन दिन भूखा रहने की वजह से रविवार को उनके चेहरे पर एक सूखी शांति और पीली चमक होती है; अगले दिन रोटी मिलने की चमक। आँखें फूल गई हैं, जैसे पुतलियाँ चटक कर बाहर आ जाएँगी। लोग उनकी आँखों की ताव नहीं ला सकते। तरह-तरह के सवाल पूछे जाते हैं। दिमाग का ताला हिलता है तो जवाब निकलता है, नहीं तो खाली आँखों से पूछनेवालों को देखते हैं। जिसे जवाब नहीं मिलता, बाकी लोग उसे बाहर जाने के लिए कहते हैं। भाई औरों ने भी दुख निवारण कराने हैं। अब तुम्हारा काम नहीं होगा तो भगवान कहाँ से जवाब दें? झूठ बोलने से तो रहे। सबके सामने अब भी बाल भगवान के लिए पैसे स्वीकार नहीं किए जाते। लेकिन माँ साथ के कमरे में बैठती है। जो कोई उठता है पंडितजी इशारे से साथवाले कमरे में जाने के लिए कहते हैं। पंडितायन अब मुटिया गई हैं, बिलकुल सेठानियों की तरह, मोटी और सुंदर। पेट की भूख और शरीर की भूख, अब रोज मिट जाती है। इसलिए होंठों पर हमेशा एक घातक मुसकान थिरकती रहती है। सफेद साड़ी के पल्लू से सिर हमेशा ढका रहता है। भगत या फरियादी जब उनके कमरे में आता है तो सर ऊपर उठा कर उसे देखती है, अपनी घातक मुसकान का छोटा-सा वार करती है और चढ़ावे की रकम अपने-आप बढ़ जाती है।
चुनाव कभी भी हो सकते हैं। आजकल टिकट लेने वालों की या टिकट न मिलने के भय से त्रस्त छुटके नेताओं की भीड़ अकसर लगी रहती है। रत्न चौधरी का नाम शुरू से बाल भगवान के चमत्कारों के साथ जुड़ गया है। अलग-अलग पार्टियों के उम्मीदवार पहले उनके घर पहुँचते हैं, उसकी बैठक भी बड़ी है और बाल भगवान के घरवालों पर उसका प्रभाव भी बड़ा है। लेकिन रविवार को तो सब लोगों के सामने टिकटों की बात नहीं की जा सकती। मास्टरजी, पंडित और रत्न चौधरी की गुप-चुप मीटिंग होती है। क्या किया जाए? मास्टरजी का खयाल है कि नेताओं को बुधवार को मिलने दिया जाए। भगवान को हफ्ते में एक दिन खाने को दिया जाए। कुछ नहीं होगा। भगवान कभी मरते हैं क्या। पंडित उन्हें बताता है कि भगवान बीमार रहते हैं। कई बार बिस्तरे पर ही हग-मूत देते हैं। देखा नहीं, पहाड़ जितना तो पेट है। सारा बिस्तरा भर जाता है। रत्न में अब तक नेताओंवाले सारे गुण आगए हैं। ऊँचा नहीं बोलता, गाली नहीं देता, गुस्सा नहीं करता; अब वह आदमी नहीं नेता है। फिर कल ही वह राजधानी से लौटा है। पंडित को समझाता है -
'देखो पंडितजी, सारी चिंता मुझ पर छोड़ दो। भगवान बीमार रहते है तो पहले क्यों नहीं बताया? कल ही शहर के हस्पताल से बड़े डाक्टर को ले आऊँगा', उसकी बात खत्म होते ही नौकर अंदर आता है। स्टील के भरे ग्लास सामने रखता है। काँच के ग्लासों में अब नहीं पी जाती। अचानक कोई अंदर आ जाए तो समझेगा कि चाय सुड़की जा रही है। पंडित एक घूँट में ग्लास खाली करता है। रत्न नौकर को इशारा करता है। वह फिर ग्लास भर लाता है। रत्न जानता है कि पंडित के मुँह जब खून लगा हो तो चाहे जो मर्जी मनवा लो।
'देखो पंडितजी। मुझे कल राजधानी से बुलावा आया था। एक बड़े मंत्री को जनतावाले, कांग्रेसवाले और लोकदलवाले टिकट देने को तैयार है। लेकिन सवाल तो यह है कि कौन-सी पार्टी जीतेगी। उसी का टिकट लेने का फायदा है।
'तो फिर,' पंडित ने दूसरा ग्लास खाली करके पूछा।
'पंडितजी, बाल भगवान चाहें तो वारे-न्यारे हो जाएँगे। कुछ बता दें राजधानी में आपको मकान के लिए प्लाट दिला दूँगा। लाखों की कीमत है। प्लाट होगा तो मकान भी बन जाएगा।'
मास्टरजी को रत्न की बात कुछ-कुछ समझ आनी शुरू हो गई है। सीधा सवाल पूछते हैं -
'तू क्या सोचता है रत्न!'
'अब आपसे क्या छुपाना लोकदल और कांग्रेसवाले मुझे टिकट देने को तैयार हैं। लेकिन बाल भगवान की आज्ञा के बिना मैं किसी पार्टी का टिकट कैसे ले सकता हूँ।'
'तू तो फिर मंत्री जरूर बन जाएगा,' पंडित ने तीसरा ग्लास खाली करते हुए कहा। 'पंडितजी, चुनाव जीत गया तो दो एकड़ जमीन बाल भगवान को भेंट करूँगा। कल ही कचहरी में चल कर पक्के कागज पर लिखवा लो।'
पंडित जब नशे में होता है तो सही सोचना शुरू कर देता है। किसी जंगली जानवर की तरह उसके दिमाग में घात-प्रतिघात की क्रिया शुरू हो जाती है। लड़के को पेट की बीमार लग गई है, कभी भी मर सकता है।
राजधानी की चमचमाती सड़कें और खूबसूरत कोठियों ने उसके दिमाग पर अभी से कब्जा जमा लिया है। चौथे गिलास को वह अनदेखा कर रहा है। मास्टरजी सलाह देते हैं -
'ऐसे करते हैं कि एक महीने के लिए बाल भगवान के दर्शन बंद। अखबार में रत्न चौधरी खबर निकलवा देगा कि भगवान ने समाधि लगा ली है। एक महीने किसी को दर्शन नहीं देंगे। टिकट तो एक महीने में बँट ही जाएँगे।'
पंडित चौथा ग्लास गटकता है और उठ खड़ा होता है रत्न ठीक कहता है। मास्टर ठीक कहता है। यह मौका फिर नहीं आना। अब बीवी को मनाने के लिए उसके दिमाग में घात-प्रतिघात चल पड़े है। पहले प्यार से बात करूँगा। नहीं मानेगी तो जूता, हाँ जूता पीर है बिगड़ों-तिगड़ों का! लेकिन यह जरूरी थोड़ा है कि लड़का जो बात मंत्री को बताएगा वह सच ही निकले। फिर कौन देगा राजधानी में प्लाट और क्यों देगा रत्न दो एकड़ जमीन। नहीं। वह जमीन के पक्के कागज रत्न से पहले ही माँगेगा। रही प्लाट की बात...। उसे पता है किस मंत्री से रत्न की साठ-गाँठ है। पिछली तीन बार वह चुनाव जीत चुका है, तीनों बार मंत्री बना है, लेकिन मुख्यमंत्री अभी तक नहीं बन सका। और इस बार वह यह सपना हर कीमत पर पूरा करके रहेगा। फिर चुनाव से पहले विरोधी दलवाले अक्सर, सत्ताधारी दलवालों को ऐसे सब्जबाग दिखाते हैं। कैसे मारा था बाबू जगजीवन राम को? बेचारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तो दूर मंत्री भी नहीं रहा। दूध से मक्खी की तरह बाहर छिटक गया।
रास्ते में पंडित ने लाले की दुकान से दो किलो लड्डू लिए। जेब में से पैसे निकालने के लिए हाथ डाला। लेकिन लाले ने दोनों कान पकड़ कर कहा, 'बख्शो पंडितजी। क्यों मुझ पर पाप चढ़ाते हो। बाल भगवान के कदमों में मेरी भेंट है।'
वह जब घर की तरफ बढ़ा तो दिल में संदेह के काँटे उगने शुरू हो गए। क्या सचमुच लड़के में कोई दैवी शक्ति आ गई है? इतने लोग उसे भगवान मान बैठे हैं। कहीं लड़के को उसकी चालों का पता चल गया तो? फिर उसने जमीन पर जोर से पैर पटक कर शक के इन काँटों को कुचल दिया। अपने-आपको गाली निकाली, 'कुत्ते के! थोड़ी पिएगा तो वाही-तवाही ही सोचेगा। सिद्धड़ कहाँ का भगवान! बिस्तर पर ही टट्टी-पेशाब निकल जाता है। थू! चला ले जितने दिन चलता है यह खोटा सिक्का।'
घर पहुँचने से पहले ही राजधानी की चमचम करती सड़कें उसके दिमाग में फिर घुस आई हैं। बड़े लड़के ने आठवीं पास कर ली है। कल ही रत्न से कहेगा कि मंत्री से कह कर पहले उसे नौकरी दिलाए, तभी भगवान से आगे की बात होगी। एक बार यह बेवकूफी भरी बात दिमाग में आती जरूर है कि बाल भगवान से पूछ कर वह खुद क्यों न चुना लड़े! थू! वह मुँह से इस बदबू को बाहर थूकता है।
लड़का खा रहा है। थाली में रोटियों का छोटा-सा पहाड़ बना हुआ है। वह रोटी उठाता है, दो टुकड़े करता है, दोनों हाथों में दो गोल गेंदें बनाता है। एक गेंद मुँह में डालता है, अधबचाया ही इसे अंदर धकेलता है और दूसरी गेंद बनी रोटी मुँह में डाल लेता है। यह डर अब भी उसके दिल में घर करके बैठा हुआ है कि कोई उसकी रोटी चुरा लेगा। पिता के हाथ में उसने बड़ा लिफाफा देख लिया है। कुत्ते की तरह नाक फुला कर गंध लेने की कोशिश कर रहा है कि क्या है। पिता अंदर से थाली लाता है, लिफाफे से आधे लड्डू निकाल कर इसमें डालता है और लड़के के आगे रख देता है। लड़का रोटियों की थाली को देख रहा है, लड्डू से भरे थाल को देख रहा है। कहीं कोई रोटियाँ तो नहीं उठा लेगा? पिता उसे कहता है, 'दोनों खा ले!' लड़के की आँखों में कुछ न समझने का भाव वह देखता है। दोनों थालियाँ उसके बिलकुल पास सरकाता है, 'लड्डू! रोटी! दोनों खा ले! लड़का झपाटे से लड्डू उठाता है, पूरा-का-पूरा मुँह में डाल लेता है। फिर रोटी उठाता है, लड्डू को उसमें लपेटता है। मुँह खोलता है। इतना बड़ा गोला अंदर नहीं जा रहा। और जोर लगाता है। अब मुँह किसी गुफा-द्वार जैसा लग रहा है। दूसरे हाथ की उँगलियों से गोले को दबा कर अंदर धकेल रहा है। पिता को उबकाई आती है। मुँह पर हाथ रखता है ओर अंदर चला जाता है।'
बेटी रसाई में ही बैठी खा रही है। 'लड़के कहाँ हैं, 'पूछने पर पत्नी बताती है कि शहर गए है, नई फिलम देखने। बारह बजे के बाद ही आएँगे। वह बेटी को कहता है -
'जल्दी-जल्दी खा! भाई के कमरे में जा कर सो। उसकी तबीयत खराब हो तो आवाज देना। बिस्तरा गंदा करे तो मत जगाना। सवेरे साफ हो जाएगा। समझी!' लड़की हाँ में सिर हिलाती है। उसे पता है पिता जब जल्दी सो जाने के लिए कहता है तो कुछ होता जरूर है। उनके कमरे से माँ की हाय-हाय और सी-सी की आवाजें कितनी देर आती रहती है। बाप पता नहीं माँ को इतना क्यों मारता है? पिता उसे घूर रहा है। वह और रोटी नहीं माँगती, हालाँकि एक फुलके की भूख अभी और है। उठ कर भाई के कमरे में चली जाती है। बीवी तिरछी मुसकान फेंकती है -
'रोटी दूँ कि पहले ठर्रा चढ़ाना है', शराब पीने को वह हमेशा ठर्रा चढ़ाना कहती है।'
'नहीं। खाना डाल। आज दिल नहीं कर रहा!' वह जवाब में पूरी मुसकान फेंकती है।
'रहने दो। रत्ने मोचे के घर ही काम कर आए हो। मुझे मत बनाया करो। मैं तेरी रग-रग पहचानती हूँ।'
वह बनावटी गुस्से में डाँटता हे, 'भाषण बंद कर। जल्दी कर। नहीं तो मैं यहीं।'
'अच्छा-अच्छा! चुप हो जाओ। लड़की जागी हुई है। आवाज उस कमरे तक पहुँच जाती हैं। तुम बोलते जो इतने हौले हो।'
वे दोनों बड़ी देर से साथ-साथ लेटे हैं। लेकिन आज पति किसी तरह की नोच-कचोट नहीं कर रहा। बड़े प्यार से उसके जिस्म के हर हिस्से पर हाथ फेर रहा है; इतने हौले जैसे वह काँच की बनी हो। उसे अच्छा तो लग रहा है लेकिन मजा नहीं आ रहा।
'क्यों? आज सोना नहीं क्या सारी रात ऐसे ही गुजारने का इरादा है।' उसने पति की बाँह पर धीरे से काटा। पति ने उसके बालों को मुट्ठी में लिया। झटका दिया और उसका सिर अपनी छाती पर रख लिया। दर्द हुआ, लेकिन मीठी सिसकी में बदलता हुआ। वह अब उसके बालों की जड़ों को खुजला रहा है।
'सुन। राजधानी रहना है? रत्न मुफ्त प्लाट दिला देगा।'
'रत्ने को क्या आन पड़ी जो हमें प्लाट दिलाएगा', यह जवाब देते हुए सबसे पहले राजधानी की लकदक करती सड़कों के किनारे लगे गुलमोहर के पेड़ों के सिंदूरी फूल उसकी आँखों में उतर आए। बाल भगवान के प्रताप से बड़े लड़के को नौकरी तो मिल ही जाएगी। उसे अभी, इसी क्षण अपना गाँव गंदा और बू-भरा लगना शुरू हो गया है। लेकिन जब वह यह बात सुनती हे कि अब लड़के को लगातार भूखा रखना पड़ेगा तो चुप हो जाती है। सिर उसकी छाती से उठाती है, तकिए पर रख लेती है।
'कुछ नहीं होगा। तू क्यों जी को लगाती है। पहले भी तो भूखा ही रहता था। फिर रत्न कल शहर के बड़े हस्पताल से बड़ा डाक्टर ले आएगा।'
राजधानी में मकान और बेटे के भूखा रहने में से मकान का चुनाव करने को उसका दिल कर रहा है। पति महसूस करता है कि उसका अकड़ा शरीर ढीला हो रहा है; वह पास सरक आई है। वह उसकी पीठ का मांस अपनी मुट्ठी में भरता है और जोर से मसल देता है। अब वह लगातार उसे चाट रही है, गरमा गई मादा की तरह। पति उसके उभारों में दाँत खुभोता है, अब नशीली आवाज में 'और जोर से काटो' कहती है, पति के दाँत मांस में खुभ जाते हैं।
'देखो, लड़कों को भी ताकीद कर दो कि उसे खाने को कुछ नहीं देना। बिलकुल भूखा रहना चाहिए। वह भूखे पेट ही सच बोलता है।'
'अच्छा, अच्छा। आओ न!' पत्नी अगली सीढ़ी पर चढ़ने के लिए करवट बदलती है। साथ के कमरे से बेटी की आवाज आती है।
'माँ। इसने बिस्तर गंदा कर दिया।'
तभी, उसी क्षण उसके दिल में जहर का काँटा उग आता है। भगवान ऐसों को सँभाल ही ले तो अच्छा। लड़की को कहती है -
'सो जाओ। सुबह साफ कर दूँगी।'
'नहीं। यहाँ बहुत बदबू है। अभी कर दो।'
पंडित गर्जता है -
'ओए कुत्ते दी। बक-बक बंद करती है कि मैं आऊँ फिर।' लड़की चुप लेकिन माँ की तेज नाक में तीखी बदबू सरसरा कर घुसती आ रही है। हालाँकि बीच का दरवाजा बंद है। पति दूसरी सीढ़ी चढ़ता है। वह उस क्षण बेटे और मकान दोनों में से मकान का चुनाव कर लेती है। बेहोश हो रही आवाज में कहती है, 'ठीक है, इसका खाना-पीना बंद। तुम फिक्र मत करो। लड़कों को मैं अब समझा दूँगी। पति हाँफ गई आवाज में डपटता है, 'चुप कुत्ती दी मुर्दो की तरह क्यों पड़ी है। हिल, जोर से हिल।'
रत्न अपनी मोटरसाइकल पर शहर से बड़े डाक्टर को लाया है। वह बाल भगवान की पूरी जाँच-पड़ताल करता है। पूछता है कि क्या टट्टी में खून आता है। माँ 'हाँ' में सिर हिलाती है। क्या कै करता है तो खून आता है? माँ 'हाँ' में सिर हिलाती है। फिर यह भी बताती है कि लड़का सारा दिन खाता रहता है। डाक्टर को बाल भगवान के चमत्कारी होने का पता है। यह भी पता है कि रत्न की ऊपर तक पहुँच है। उसे बताता है कि लड़के के पेट में फोड़ा है। अलसर। आप्रेशन जल्दी चाहिए। फिर उसे सारा दिन लिटाए मत रखो। खूब घूमने दो। जो रोटी अंदर जाती है, जहर बन जाती है। पंडित उसे जवाब देता है -
'भगवान घर से बाहर नहीं जा सकते। जो दवाई देनी है दो।' पिता को पता है कि लड़के को घूमने देगा, दूसरे लड़कों के साथ खेलने देगा तो लोगों का विश्वास उसके भगवान होने से उठ जाएगा। फिर सिद्धड़ है। उल्टा-शुल्टा बाहर बोल देगा तो मिल चुका राजधानी में मुफ्त मकान। डाक्टर इस सारे खेल को समझता है। उसका चेहरा तन जाता है, रत्न उसे बाहर आँगन में ले जाता है, बड़े मंत्री वाली बात बताता है। रत्न का बड़े मंत्री से रसूख है, यह सुनते ही डाक्टर को अगले साल सिविल हस्पताल में ट्रांसफर की बात याद आ जाती है। जो रौब-दाब, माल-मत्ता सिविल हस्पताल में है, सब धरा-का-धरा रह जाएगा अगर किसी कस्बे के बड़े हस्पताल में बदली हो गई। फोड़ा महीने में फट भी सकता है। नहीं भी फट सकता। और यह एक महीना अब उसके लिए भी बिलकुल महत्वपूर्ण हो गया है। अंदर आता है, कहता है -
'फिक्र की बात नहीं। अभी मैं इलाज शुरू करता हूँ। असर नहीं हुआ तो फिर आप्रेशन की सोचेंगे। और हाँ, मैं हस्पताल से दरवाइयाँ भेज दूँगा। कंपाउंडर सुबह-शाम टीका लगाने आ जाया करेगा। कोई डर की बात हो तो मुझे बुला भेजें।'
पंडित फीस के पैसे निकालने के लिए जेब में हाथ डालता है -
'न पंडित जी। मुझे भी पुन्न कमा लेने दें। बाल भगवान को पहले अच्छा कर लूँ। फिर आपसे लड्डू जरूर खाऊँगा।'
लड़के को पाँच दिन से खाने को कुछ नहीं मिला। उसके कमरे में भाइयों का, बहन का, भगतों का, सबका जाना बंद है। पंडित कमरे के बाहर, सर्दियों की धूप में बैठा पहरा देता रहता है। बाहर से गुजरने वालों को वह हमेशा आँखें बंद किए बैठा दिखाई देता है। बाल भगवान ने समाधि लगाई है। देखो। पिता भी सारा दिन मंतर पढ़ता रहता है। क्यों न हो। ब्राह्मण है, हमेशा तप करते हैं। अंदर से थोड़ी-थोड़ी देर के बाद, 'रोटी, रोटी, रोटी' शब्द दरवाजे पर दस्तक देता रहता है। लेकिन लड़के को सिर्फ नीबू-पानी दिया जाता है। मास्टरजी ने बतलाया है गांधीजी तो दो-दो महीने भूख हड़ताल पर रहे। बस नीबू-पानी पीते थे। देख लो। कुछ हुआ। लक्कड़ की तरह हो गया था जिस्म! रोटी कोई जरूरी थोड़े है? बाल भगवान को कुछ नहीं होगा।
रत्न बता गया कि आज रात अँधेरा पड़ने पर बड़ा मंत्री आएगा। शायद भगवान आज ही सच बता दें। बस। कल से खाना शुरू।
बंद दरवाजे के अंदर से ठक-ठक की आवाज आती है। पंडित झटके से उठता है। तो लड़का बिस्तरे से उठ कर दरवाजे तक आ गया है। 'रोटी, रोटी, रोटी।'
वह दरवाजा खोलता है, लड़के की गर्दन में पंजा डालता है, उसे घसीट कर तख्तपोश के पास ले जाता है। और गुर्राता है 'लेट जा!' लड़का डर और भूख से काँप रहा है, दोनों उसकी आँखों के रास्ते बाहर निकल रहे है। बाहर गली से मास्टरजी की आवाज आती है -
'पंडितजी, रत्न के यहाँ चलना है। मंत्रीजी पहुँच गए हैं। चलो, लिवा लाएँ।'
पंडित बाहर जाते हुए जल्दी में बाल भगवान के कमरे को ताला लगाना भूल जाता है। छोटी बहन अंदर आती है। भाई के सिर के पास बैठती है। उसके माथे पर हाथ रखती है। अंगारों की तरह तप रहा है। तेज बुखार है। सिर दबाना शुरू कर देती है। भाई उसकी कलाई पकड़ता है। भूख-भरी आँखों से उसे देखता है, मरियल आवाज में कहता है, 'भूख। रोटी!'
बहन को पता है कि घर में क्या हो रहा है। उसे पता है भाई को इतने दिनों से भूखा रखा जा रहा है। वह फूट-फूट कर रोना शुरू कर देती है। भाई अब भी उसकी ओर लगातार देखे जा रहा है। बहन को उसकी आँखों में रोटियाँ-हाँ-रोटियाँ दिखाई देती हैं। पिता मारेगा। राक्षस की तरह मारेगा। लेकिन अभी वह छोटी है। उसका दिल लालच के पास गिरवी नहीं। भाग कर रसोई में आती है। अपनी छोटी-सी चुन्नी में रोटियों का ढेर छुपा लाती है।
'खा ले। जल्दी खा ले। बापू आ गया तो जान निकाल लेगा।'
लड़का अब पंजों के बल अधबैठा है। बहन रोटियों के टुकड़े करती है और वह दबाता जाता है। बिना सब्जी के रोटियाँ गले में फँस रही हैं। उसका मुँह धीरे चल रहा है।
'जल्दी खाओ। बापू आया कि आया।' लड़का डरी-डरी आँखों से दरवाजे की तरफ देखता है, पूरी की पूरी रोटी की गेंद बनाता है, उसे मुँह के अंदर ठेलता है। बहन पानी का ग्लास उसके मुँह से लगाती है। वह छोटा घूँट मारता है, ग्लास परे ठेलता है। पानी नहीं। रोटी। अब वह दोनों हाथों से रोटियों के टुकड़े-टुकड़े कर रहा है, मुँह में ठूँस रहा है। घर के बार पैरों की आवाजें आती हैं। बहन उसके आगे से रोटियाँ उठाती है, चुन्नी से उसका मुँह पोंछती है, लिटा देती हे और रसोई की तरफ भागते हुए कहती है - 'बताना मत। नहीं तो शामत आ जाएगी।'
मंत्री, पंडित, मास्टरजी और रत्न अंदर आते है। रत्न मास्टर बाल भगवान के पैरों को माथे से छूते हैं। मंत्री कुछ अतिरिक्त देर तक भगवान के पैरों पर सिर रखे रहता है। उसके चेहरे पर मांस की पर्त-दर-पर्त चढ़ी हुई है और चिकनी चमड़ी किसी फिसलनवाली जगह की तरह रही है। वह टोपी उतार कर हाथों में पकड़ता है और खादी के छोटे तौलिए से चेहरा साफ करता है। उसे गरमी, सर्दी, हर मौसम में पसीना आता है, अखबारवाले उसके बारे में यह मुहावरा कभी भी इस्तेमाल नहीं करते कि मंत्री के पसीने छूट गए। भगवान की माँ अंदर आती है, बेटे के सिरहाने बैठ जाती है। उसके सुनहरे सेब चेहरे को देखते ही जाने क्यों मंत्री को अपनी पत्नी का पुराने पड़ गए जूते के चमड़े-सा सूखा सख्त चेहरा याद आ जाता है। उसके बारे में प्रसिद्ध है कि न सीधा पूछता है, न सीधा जवाब देता है। विरोधी पक्षवाले, अखबारवाले, सिर धुनते रह जाते हैं अपने सवालों का जवाब समझने के लिए। पिछले दोनों चुनावों में वह जीता है, दोनों बार मंत्री बनाया गया है; लेकिन मुख्यमंत्री हमेशा उसे मरियल और बाँझ विभाग देता है, शिक्षा या स्वास्थ। हालाँकि विरोधी दल के लोगों के किले को तोड़ने-फोड़ने में उसे महारत हासिल है। लेन-देन वही करता है उन्हें दल बदलवाने के लिए। विरोधी दलवालों ने उसका नाम चलता-फिरता बैंक रखा हुआ हैं। वह बाल भगवान की माँ से कहता है -
'माताजी आप तो भगवान को ले कर राजधानी आ जाएँ; जब-जब देश पर कोई संकट आएगा भगवान से सलाह ले लेंगे। सरकार की तरफ से मकान के लिए लिए जगह हम दिलाएँगे।'
'देखो। जैसे बाल भगवान की आज्ञा', उसने साड़ी का पल्लू ठीक किया, अपनी तिरछी मुसकान का वार करते हुए। उसके सुच्चे मोतियों से दाँत देख कर मंत्री को कीलों-से काले अपनी घरवाली के दाँत याद आ गए।
'जैसी आपकी मर्जी होगी, कोई भगवान की मर्जी अलग थोड़े होगी। हम लोग वहाँ पर मकान बनाने का भी कोई-न-कोई हीला कर लेंगे। बाल भगवान की कृपा हो जाए तो सब काम सिद्ध समझें।'
पंडित को लगता है लड़के का मुँह दो-तीन बार हिला है। कहीं इसे किसी ने कुछ खाने को तो नहीं दिया? लेकिन किसकी हिम्मत है, वह खड़े-खड़े खाल नहीं खींच लेगा। मंत्री दोनों हाथ जोड़ कर भगवान को बताता है -
'चुनाव आ रहे हैं। जनता जीतेगी, लोकदल जीतेगा या कांग्रेस जीतेगी, मैं किस पार्टी से जीत सकता हूँ' इतना लंबा वाक्य लड़के के दिमाग के बाहर ही चक्कर काटता रहा। हाँ 'जीतना' शब्द बंद दिमाग के ताले पर खट-खट करता रहा। दिमाग से संकेत आ रहे हैं, शब्द सुना हुआ है, पहले भी किसी ने कहा है। शब्द धीरे-धीरे खिसक कर होंठों पर आ बैठता है। लड़का उसे कस कर पकड़ता है, कहीं फिर फिसल न जाए। आवाज का धक्का देता है और शब्द बाहर उछल जाता है। वह बोलता है 'जीता!' पंडित, मास्टर और रत्न के चेहरों पर गुलाब फूट पड़ते है। मास्टर मंत्री से कहता है -
'भगवान ने बता दिया। आपकी जीत होगी।' मंत्री खेला खाया हुआ है, इतनी जल्दी तो उसने कभी अपने ऊपर भी विश्वास नहीं किया, 'मास्टरजी सवाल मेरे जीतने का नहीं। पार्टी कौन-सी जीतेगी जिसकी सरकार बनेगी।' मास्टरजी उसे समझाते है -
'भगवान तो बस एक शब्द में ही जवाब देते हैं। पार्टी चाहे जो जीते। सरकार तो कांग्रेस की ही बनेगी। यह कोई बंगाल तो है नहीं कि जो पार्टी जीते उसी की सरकार बने।' मंत्री अब कच्चा चबा जानेवाली आँखों से मास्टर को देख रहा है। यह साले पढ़े-लिखे लोग भी देश का नुकसान करते है। तभी अंग्रेजों के वक्त इतनी पढ़ाई नहीं थी। कैसे शांति से राज करेगा। अनपढ़ का क्या? सरकार ने जो कहा सतवचन। रत्न भाँप जाता है कि मंत्री को बुरा लगा है। विधायक बनने का उसका सपना हिल जाता है। वह मंत्री को सलाह देता है, 'आप छोटा-सा सवाल करें। भगवान लंबे सवालों का जवाब नहीं देते। इशारों में बात करते हैं'। मंत्री अपने चेहरे से गुस्सा उतारता है, उसकी जगह घी के डिब्बेवाली चिकनी मुसकान चेहरे पर लाता है। हाथ जोड़ कर सवाल पूछता है, 'भगवान! जनता। लोकदल। कांग्रेस' अब लड़का बिलकुल घबरा गया है। बाकी लोग तो एक बार उसके बोलने पर उठ जाते हैं, यह आदमी नहीं उठ रहा। जरूर इसी ने उसका खाना बंद किया है। वह आँखें बंद कर लेता है। उसका शरीर जोर से काँपता है। पिता तो जानता है लड़का एक बारी में नए शब्द न समझता है, न बोल सकता है। वह दुहराता है, 'जनता। लोकदल। कांग्रेय।' तीनों शब्द अब हिंसक पशु का रूप धारण कर लेते हैं, लड़के के दिमाग पर एक साथ आक्रमण कर देते हैं। लड़के के सिर में पंजे गड़ जाते हैं। इन्हें परे छिटकाने के लिए वह जोर-जोर से सिर हिलाना शुरू कर देता है लेकिन पंजे मांस में गड़ गए हैं। वह थक जाता है। सिर हिलाना बंद कर देता है। वह मंत्री की ओर देखता है और आँखें मूँद लेता है। थोड़ी देर सब लोग उसके बोलने का इंतजार करते है। लेकिन वह चुप है, उसकी साँस अब समतल चल रही है। माँ-बाप को पता चल जाता है कि सो गया है। पंडित कहता है, 'भगवान ने समाधि लगा ली है। अब जवाब नहीं देंगे। आप लोग फिर आएँ' सब उठ पड़ते हैं - मंत्री लड़के की माँ के आगे हड्डी फेंकता है -
'जिस दिन बाल भगवान मुझे सीधी आज्ञा देंगे बस समझ लें उसी दिन मैं भगवान को राजधानी ले जाऊँगा। जब आप आज्ञा देंगे फिर आ जाऊँगा।' पंडित उन्हें बाहर तक छोड़ने जाता है। माँ के दिमाग से राजधानी की सड़कें और सिंदूरी फूलों के पेड़ बाहर सरकने लग पड़ते हैं। बड़े भाई ओर छोटी बहन कमरे में आ जाते है। बड़े लड़के के पूछने पर माँ बताती है कि बाल भगवान ने कोई जवाब नहीं दिया। पंडित अंदर आता है। सारे परिवार को उस कमरे में खड़ा देख कर गरजता है, 'क्यों? तुम सारे यहाँ क्यों खड़े हो, तुम्हारी माँ का नाच हो रहा है क्या?'
उसकी गरजती आवाज सुन कर लड़का आँखें खोल लेता है। पिता उसे शब्द रटाने की कोशिश करता है, 'बोल जनता!' लड़के को पता है कि वह बोलेगा तो रोटी मिलेगी बड़ा भाई कहता है, 'बोल जनता!' लड़का जवाब देता है, 'जनता।'
'अब बोल लोकदल!' लड़के की नाक फूलती है, उसे रोटियों की बास आनी शुरू हो जाती है, वह बोलता है, 'लोकदल'। पंडित का, बड़े भाई का, माँ का चेहरा खिल जाता है, वह बोलता है, 'अब बोल कांगरस।' छोटी लड़की पिता को कहती है, 'बापू कांगरस नहीं कांग्रेस। ग के पैर में र पड़ता है।' वह भाई से कहती है, 'बोल कांग्रेस।' लड़का इस शब्द से कुश्ती करना शुरू कर देता है लेकिन होंठों पर आना ता दूर शब्द दिमाग के ताले पर खट-खट भी नहीं करता है। उसकी आँखों से आँसू बहने शुरू हो जाते हैं। बड़ा भाई कहता है 'बोल कांग्रेस।' लड़का जवाब देता है, 'रोटी। भूख।' पिता तेजी से रसोई में जाता है। रोटियों का ढेर थाली में रख कर लौटता है, थाली उसकी चारपाई से दूर रख देता है। लड़का उठने की कोशिश करता है। वह किसी डरे हुए कुत्ते की तरह रोटियों को देखता है। आसपास खड़े लोगों को देखता है। वह जीभ से होंठ चाट रहा है।
'बोल कांग्रेस। कांग्रेस। कांग्रेस। सारी रोटियाँ दूँगा। लड्डू दूँगा।'
माँ कहती हैं, 'क्यों पीछे पड़े हो उसके। उससे नहीं बोला जाएगा।'
'चुप कुत्ती दी। तीनों शब्द इसे रटाने हैं। पक्के याद कराने हैं। अगले हफ्ते तेरा खसम मंत्री फिर आएगा। जब तक इसे यह शब्द याद न हुए तो ले लेना मकान राजधानी में।'
बडा भाई गुस्से में उसे कहता है, 'बोल कांग्रेस, कांग्रेस, कांग्रेस।'
लड़के के पेट का फोड़ा हिल रहा है, दिमाग का ताला हिल रहा है, सारा शरीर हिल रहा है। अब उसकी जीभ लगातार होंठों को चाट रही है, लपलपा रही है। उसकी सारी इंद्रियाँ, सारा भूख का भय उसके होंठों के आसपास घूम रहा है। वह फिर जोर लगाता है। आवाज निकलती है - 'कांग'
'कांग नहीं कांग्रेस। बोल कांग्रेस, कांग्रेस, कुत्ते दे। बोल कांग्रेस।'
वह माँ की ओर देखता है, पेट का गोला गले की तरह बढ़ रहा है, माँ रोटी, भूख।' वह भाग कर लड़के से चिपक जाती है, छोटी बेटी रोटियों का थाल उसे देने के लिए उठाती है। बाप बेटी को लात मारता है, वह गिरती है, छन्नन की आवाज के साथ थाल नीचे गिरता है, रोटियाँ कमरे में बिखर जाती हैं। माँ और कस कर लड़के से चिपक जाती है -
'इसे रोटी खाने दे। तू राक्षस है, राक्षस। तुझे कीड़े पड़ेंगे।' पति उसे बालों से पकड़ता है घसीट कर चारपाई से नीचे फेंकता है। अब वह लड़के के सिर खड़ा है। उसकी लाल-लाल आँखें सुलगते अंगारों की तरह लड़के की चमड़ी जला रही हैं। वह गर्जता है, 'बोल कांग्रेस। आज मैं तेरा खून कर दूँगा। बोल कांग्रेस।'
लड़का उठ कर बैठ गया। उसका गला फूल गया है। सारी-की-सारी जीवन-शक्ति गले में अड़ गई है।
बाप गर्जता है, भाई गर्जता है, 'बोल कांग्रेस।'
लड़का मुँह खोलता है। पेट का गोला और कांग्रेस दोनों उसके होंठों तक आते हैं। वह जोर लगा रहा है। पेट का गोला मुँह में फटता है, वह नीचे गिर जाता है, मुँह किसी काली गुफा के द्वार की तरह खुलता है। फफफफ की आवाजों के साथ गोला फूटता है। खून की कै होती है। छींटे-छिटकते हैं। वह जमीन पर गिरा लगातार हाथ-पैर पटकता रहता है। रोटी की ओर सरक रहा है। फफ-फफ। दूसरा गोला फूटता है। खून का छोटा-सा दरिया कमरे में फैल रहा है। किसी गर्दन कटे जानवर की तरह धीरे-धीरे हिलना बंद कर देता है। उसके खुले मुँह से खून की मोटी-सी लकीर अब भी बाहर बह रही है, कमरे में फैल रही है।