बाल मनोवैज्ञानिक उत्कृष्टता की परम्परा फूलदेई / कविता भट्ट

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रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे भागता, फूलों के साथ मुस्कुराता, पहाड़ी झरनों-सा थिरकता, वादियों में गूँजती लय के साथ सुर में गाता-गुनगुनाता, पहाड़ी नदी के संगीत-सा खिलखिलाकर हँसता तथा दूर-दूर तक हिरनों-सा कुलाँचें भरता हुआ निश्छल एवं निर्द्वन्द्व बचपन किसे अच्छा नहीं लगता। ये पंक्तियाँ बीते समय के उस बचपन को दर्शाता है; जिसमें न तो तकनीक थी, न भौतिक सुख-सुविधा-मोबाइल, कम्प्यूटर एवं वीडियो गेम आदि; किन्तु वह सच में बचपन था। मानव का ईश्वरीय चेतना से युक्त बचपन। उस समय के खेल-खिलौने, पर्व-व्रत-त्योहार एवं मेले आदि सभी कुछ मनोभावों के अनुकूल एवं इनके लिए पोषक थे। राग-द्वेष-प्रतिस्पर्धा आदि से रहित अपनी ही मस्ती में मस्त बचपन वाले जमाने थे वे; परन्तु वही बचपन अब गुम है; सिसक रहा है और स्वच्छन्द होने की याचना कर रहा है। क्या बचपन फिर से उन्मुक्त और स्वच्छन्द हो सकेगा। यह यक्षप्रश्न ही है-आज के भौतिकवादी युग में।

मुझे यह लिखने में तनिक भी संदेह एवं संकोच नहीं कि आज हम बच्चों को एक अच्छा व्यक्ति बनाने के स्थान पर उन्हें भावी नोट छापने की मशीन बना रहे हैं। मानवीय सद्गुणों तथा इसके पोषक कारकों को बच्चों के जीवन से दूर कर दिया हमने। आधुनिक सुख-सुविधाएँ, कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल से युक्त बचपन तथा माता-पिता के झूठे स्टेटस सिंबल के अतिरिक्त छुटपन से ही 99 प्रतिशत प्राप्तांक के बोझ तले दबे हुए बचपन से एक अच्छा मानव बनने की आशा रखना मृगतृष्णा ही है। पहले उन्हें नोट कमाने की मशीन बनाया जाता है; उसके बाद इस बात का रोना रोया जाता है कि घर में अकेले रह रहे बुजुर्गों के कंकाल सोफे पर मिलते हैं। आखिर एक निश्छल बच्चे को तथाकथित विकसित एवं संवेदनहीन व्यक्ति बनाने के उत्तरदायी हम स्वयं ही तो हैं।

प्राचीन समय में हमारे पूर्वजों ने पर्वादि को भी बहुत ही सोच-समझकर स्वस्थ परम्पराएँ विकसित की थी। वे श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक एवं समाज निर्माता थे। स्वस्थ समाज हेतु इन परम्पराओं को अपनाये जाने की आवश्यकता आज पहले से भी अधिक है। एक उक्ति है-'भारतमाता ग्रामवासिनी' ; जिसका भाव यह है कि भारतवर्ष की आत्मा गाँवों में बसती है। इन गाँवों में बसने वाले जनमानस के मनोभावों के अनुकूल अनेक ऐसे त्यौहार हैं; जो क्षेत्रीय स्तर पर मनाए जाते हैं; किन्तु इनके अत्यंत व्यापक विशिष्ट शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक निहितार्थ हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति में लोकपर्वों का सदैव विशिष्ट स्थान रहा है। लोकपर्व अर्थात् जो जनसाधारण की भावनाओं के अनुकूल परम्परा को स्वयं में समाविष्ट किए हुए हों। ऐसा ही एक पर्व है-उत्तराखण्ड पहाड़ी अंचलों में मनाया जाने वाला फूलदेई. फूलदेई यों तो सदैव प्रासंगिक रहा; किन्तु आज के भौतिक प्रतिस्पर्धा से युक्त युग में बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए यह और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है। प्रस्तुत आलेख के माध्यम से फूलदेई के मनोवैज्ञानिक पक्ष को रेखांकित करेंगे; किन्तु उससे पूर्व फूलदेई लोकपर्व की परम्परा को संक्षेप में जानना आवश्यक है।

फूलदेई उत्तराखण्ड की लोकभाषा का शब्द है; जिसका अर्थ है-फूल देने वाली। बसंत ऋतु में चैत्र मास की संक्रान्ति को स्थानीय भाषा में 'फूल-संग्रान्द' कहा जाता है। इसी दिन से यह पर्व प्रारम्भ होता है; जो बच्चों एवं इनकी बालसुलभ क्रीड़ाओं से सम्बन्धित है। पहाड़ की लोकसंस्कृति के अनुसार बसंत की देवी स्थानीय भाषा में 'गोगा माता' के नाम से पुकारी जाती है। बच्चे प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व आस-पास के खेतों एवं जंगलों से ताजे फूल चुनकर छोटी-छोटी टोकरियों में भरते हैं तथा उन्हें घर की सभी देहरियों पर दोनों ओर डाला जाता है। फूलों से भरी इन टोकरियों को फूलकंडी कहा जाता है। ये 'रिंगाल' (टोकरी बनाने में प्रयोग किया जाने वाला पौधा) की बनी होती है। बच्चे प्रातःकाल ही टोलियों में पहाड़ी धुनों पर गीत गाते हुए फूल चुनकर लाते हैं; इन बच्चों को स्थानीय भाषा में फुलारी कहा जाता है। प्रत्येक दिन नये फूल टोकरी में लाने को अधिक उत्तम माना जाता है और विभिन्न फूल जैसे-बुराँस, फ्योंली, किनगोड़, लैय्या तथा डुंडबिराल़ी आदि चुने जाते हैं; किन्तु फ्योंली (एक पीले रंग का सुन्दर फूल) विशेष महत्त्व रखता है। बच्चों द्वारा विशेष पहाड़ी गीत भी गाये जाते हैं; जैसे-

फूल माई दाल-चौल...जै घोघा माता की जय ...

चला फुलारी फूलो को...भाँति-भाँति का फूल लयोला...

इस प्रकार गाते हुए सर्वप्रथम फूल अपने कुलदेवी / कुलदेवता / इष्टदेव को समर्पित किए जाते हैं; उसके पश्चात् सुगन्धित एवं सुन्दर फूलों को घर की सभी देहरियों में चढाया जाता है। बच्चे इसी समय बड़े-बुजुर्गों के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते हैं। घर के सभी बड़े सदस्य विशेषकर महिलाएँ ममतास्वरूप सभी बच्चों को चावल, गुड़, मिठाई तथा दक्षिणा आदि देते हैं। यह त्यौहार पूरे एक महीने चलता है। बच्चे अपने हों या किसी दूसरे के; बिना भेदभाव के सभी को सब कुछ दिया जाता है।

चैत्र मास से प्रारम्भ होने वाला हिन्दू नववर्ष भी इसी त्यौहार के प्रारम्भिक सप्ताह से प्रारम्भ होता है। यह त्यौहार बैशाखी को सम्पन्न होता है; उस दिन प्रत्येक पहाड़ी घर में स्वाल़ी (कचौड़ी) , पापड़ी (पापड़) तथा पूरी-पकवान आदि बनाए जाते हैं। ये पकवान एवं दक्षिणा इष्टदेव को समर्पित करके बच्चे फूल भी चढ़ाते हैं। देहरियाँ फूलों से भर जाती हैं; और हँसते-खिलखिलाते बचपन की मुस्कुराहट जैसी पवित्रता से भरपूर हो जाती हैं। इसी पर्व के अन्तर्गत सुखी-सम्पन्न होने की प्रार्थना भी की जाती है। इस त्यौहार के बैशाखी को सम्पन्न होने के उपरान्त ही पहाड़ में थौल़ या कौथिग (मेलों) का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है; जो पूरे बैशाख के महीने चलता रहता है।

बच्चों के लिए मनोरंजन के साथ ही इस पर्व के बड़े मनोवैज्ञानिक प्रभाव हैं। जैसे-उनको प्रकृति से निकटता का अनुभव करवाना, तनाव से मुक्ति, सामाजिक सौहार्द का पाठ पढ़ाना, बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करना, प्रातःकालीन बेला में जागना, पवित्र-शान्त वातावरण तथा पर्यावरण का आनन्द प्रदान करना तथा आध्यात्मिक बनाना आदि। इन सब रोचक मनोवैज्ञानिक तथ्यों को स्वयं में समेटे हुए फूलदेई अब पहाड़ के ग्रामीण अंचलों तक ही सिमट गया है और धीरे-धीरे यहाँ पर भी एक परम्परा मात्र को मनाने के समान औपचारिक हो गया है।

इस प्रकार के त्योहारों से बच्चों को जोड़ने का प्रयास इसलिए आवश्यक है; कि वे भारी बस्ते, किताब-कॉपी, रबर-पेंसिल, मोबाइल, कम्प्यूटर, टीवी तथा वीडियो गेम की आभासी दुनिया से कुछ समय के लिए बाहर निकलकर अपने बचपन को सही मायनों में जी सकें। साथ ही सामाजिक एवं पारिवारिक सौहार्द के मायने भी उन्हें समझ में आएँ; अन्यथा आजकल बच्चे एकाकी एवं जिद्दी होते जा रहे हैं। इसके साथ ही बच्चों को नैतिक सद्गुणों तथा आध्यात्मिकता का पाठ भी ऐसे त्योहारों के माध्यम से मिलता है।

उल्लेखनीय है कि बाल एवं किशोर अपराध निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं; इसके लिए वे बच्चे कम किन्तु उन्हें यह तनाव वाला माहौल परोसने वाला युगधर्म अधिक जिम्मेदार है। अतः प्रकृति, संस्कार, आध्यात्मिकता, सद्गुणों, स्वस्थ मनोरंजन एवं सौहार्द के प्रति बच्चों को संवेदनशील बनाने वाले फूलदेई जैसे लोकपर्व आज और भी अधिक प्रासंगिक हैं तथा इन्हें उत्तराखंड ही नहीं; अपितु क्षेत्र, धर्म, जाति, राष्ट्र आदि की परिधियों से ऊपर उठकर सार्वभौम रूप से मनाये जाने की आवश्यकता है। ताकि एक स्वस्थ बचपन को जीने के बाद बच्चा एक मशीन नहीं; अपितु एक स्वस्थ मानव बन सके. अपराध, छल-कपट एवं झूठ आदि अनैतिक गतिविधियों के स्थान पर वे नैतिक सद्गुणों से युक्त श्रेष्ठ मानव बनकर श्रेष्ठ एवं स्वस्थ मानव समाज का निर्माण कर सकें।