बावन घंटे के बाद / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
बीना से हम सागर की ओर बढ़े। क्योंकि हमें नर्मदा पार कर के नरसिंहपुर की देहात में कड़कबेल स्टेशन के पास माने गाँव जा कर वहाँ से खंडवा होते ओंकारेश्वर जाना था, जैसा कि पहले कह चुके हैं। रास्ता बिलकुल ही जंगली था। जंगली और तथाकथित छोटी कोमों के ही लोगों की बस्तियाँ कहीं-कहीं मिलती थीं। उनमें अगर कोई कहीं दीखने में अच्छे (सुखी) लोग मिलते तो वे प्राय: जैनी होते थे। फलत: भोजन मिलना मुहाल हो गया। हमें अपनी सारी जिंदगी और सारी यात्रा में वैसे कष्ट का सामना कभी नहीं करना पड़ा। बड़ी ही सख्त परीक्षा थी। गाँवों के लोग तुलसीकृत रामायण जैसी अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक तक को नहीं जानते और हमसे प्रश्न करते थे कि आप लोगों की जाति क्या हैं?फिर खिलाता कौन?इसीलिए भूख से परेशान हो जाना पड़ता था। जिस प्रकार ललितपुर से पहले भूख की गर्मी से नाक से खून तक गिरने लगा था। वही हालत ईधर भी होने लगी। एक दिन तो यह नौबत गुजरी कि पूरे बावन घंटे तक हमें खाना न मिला। जब रास्ते में छोटे-छोटे जंगली करौंदों को तोड़ कर हमने खाना चाहा तो उनमें बीज ही बीज पाया। उससे पूर्व एक दिन छत्तीस या चालीस घंटे के भीतर दोनों को मिला कर सिर्फ एक छटाँक चना मिल सका था। तब कहीं भोजन मिला। खैर, बावन घंटों में हमें पूरे अट्ठाईस मील चलने भी पड़े। उसके बाद नर्मदा के किनारे के एक शहर में, जिसका नाम भूलता हूँ, हम पहुँचे। वहाँ एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण के घर किसी भोज में हमें भरपेट अच्छा खाना मिला।
वहाँ पर ठीक उस भोजन के समय भी एक अजीब घटना हो गई। हम खा रहे थे। एक चतुर आदमी ने हमसे प्रश्न किया कि आपको रुपए भेजने हों तो हमसे कहिए, हम भिजवा देंगे। हम यह बात समझ न सके। उसने कई बार ऐसा ही कहा। तब हमने पूछा कि बात क्या है?आखिर में रहस्य खुला कि बहुत से गेरुवाधारी लोग रुपए जमा करते रहते हैं और बाल-बच्चों के पास भेजा करते हैं। उधर नर्मदा तट में ऐसा होता है और वह मनुष्य यह बात जानता था। इसी से उसने हमसे मन-ही-मन मजाक के रूप में ऐसा कहा। पर, उसे पता क्या हम पैसों से कितनी दूर थे। हमने उसे सब बातें स्पष्ट कह दीं। लेकिन हमारे जीवन में यह पहला ही मौका था जब हमने साधु-संन्यासियों के ऐसे घृणित कर्मों का पता पाया।
सागर के बाद रास्ते में एक और मजा भी आया। एक दिन हम पैदल चलते-चलते जंगल से गुजर रहे थे। वह बड़ा ही घना था। उसके बीच के सड़क से हम जा रहे थे। जाड़े के दिन थे। एकाएक शाम हो गई और किसी गाँव का पता न लगा। अंदाजा हुआ कि गाँव दूर है। बस, हमने पक्की सड़क पर जंगल में ही ठहर जाना ठीक समझा। मगर कपड़े कम थे और रात में जानवरों के खतरे भी थे। इतने में ही एकाएक हमें सड़क पर ही आग नजर आई। गाड़ीवान लोग वहीं ठहरे थे और जलती आग छोड़ कर चले गए थे। ऐसा हमें अंदाज लगा। बस, जैसे-तैसे लकड़ियाँ जला कर हमने रात काटी और अपनी जान बचाई। आग के पास जानवर नहीं आते यह हमें ज्ञात था। शाम से सुबह तक एक आदमी भी उस रास्ते आता-जाता न दीखा। इससे हमने समझा कि वह रास्ता रात के चलने का न था।