बासी कढ़ी में फिर उबाल / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 17 फरवरी 2014
संजय लीला भंसाली विगत दशक से 'बाजीराव मस्तानी' बनाने का प्रयास कर रहे हैं। सबसे पहले वे सलमान खान और ऐश्वर्या राय के साथ बनाना चाहते थे, फिर सलमान खान व करीना कपूर के साथ प्रयास हुआ। एक दौर में अजय देवगन व करीना कपूर के साथ विचार किया गया। अब इस प्रोजेक्ट की बासी कढ़ी में फिर उबाल आया है कि वे रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण या अजय देवगन व दीपिका के साथ बनाने पर विचार कर रहे हैं। रणवीर सिंह तो अभी तक '...रामलीला' के नशे से मुक्त नहीं हुए हैं, अत: उनकी यह फूहड़ता किस तरह महान योद्धा बाजीराव के साथ न्याय करेगी?
अजय देवगन कोई भी भूमिका कर सकते हैं और दीपिका भी मस्तानी से न्याय कर सकती है परन्तु क्या स्वयं संजय लीला भंसाली इस महान विषय के साथ न्याय कर पाएंगे? 'हम दिल दे चुके सनम' के बाद वाला भंसाली इस महान प्रेमकथा के साथ न्याय कर सकता था परन्तु 'राउडी राठौड़' का निर्माता और गोलियों की रासलीला का निर्देशक इस ट्रैजिक प्रेमकथा के साथ कैसे न्याय कर पाएगा? आज के दौर में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनाई जाने वाली फिल्म का बजट इतना बड़ा होता है कि उसके आर्थिक समीकरण को साधने के लिए अनेक सितारों का फिल्म में होना आवश्यक है। संजय लीला भंसाली ने महानता का अर्थ भव्यता से समझ लिया है और उनकी विवाह पूर्व की गरीब पारो भी देवदास की हवेली से नजदीक ही भव्य हवेली में रहती है। '...रामलीला' के किरदार भी हवेलियों में रहते हैं। जबकि उनका परिवार गलियों में हथियार बेचता है और नायक अश्लील डीवीडी के कारोबार में लगा रहता है। दरअसल आज सिनेमा का आर्थिक ढांचा ऐसा हो गया है कि उसमें इतिहास आधारित कथा विश्वसनीयता से प्रस्तुत करना संभव ही नहीं रह गया है।
फिल्मकारों ने लगातार नंगे नायक और अर्धनग्न नायिकाओं को प्रस्तुत करते-करते सार्थकता और गहराई को ही खो दिया है और दर्शकों की अभिरुचियां भी अश्लीलता केंद्रित हो गई हैं। एक अन्याय आधारित समाज जिसमें विराट आर्थिक खाई मौजूद है, किस तरह सच्चे सौंदर्यबोध को ग्रहण कर सकता है। कुछ सुविधा सम्पन्न मध्यम वर्ग ने देश को जलसा घर ही बना दिया है तो जीवन मूल्यों की बात क्या करें और कैसे करें। यह गौरतलब है कि आर्थिक असमानता और अन्याय आधारित व्यवस्था के ढांचे में अश्लीलता की दीमक लगती ही है। धार्मिक आख्यानों पर आधारित सीरियलों में भाषा का विकृत स्वरूप भी हमारे सांस्कृतिक पतन का एक हिस्सा ही है। जब बॉक्स ऑफिस का खून किसी फिल्मकार के मुंह को लग जाता है तब वह निर्मल आनंद की कथा कैसे बना सकता है।
भालजी पेंढ़ारकर ने 1925 के मूक फिल्मों के दौर में 'बाजीराव मस्तानी' बनाई थी और फिल्म सफल रही थी। वह महात्मा गांधी के आदर्श से प्रभावित युग था जब एक मराठा वीर का मुस्लिम युवती से प्रेम दर्शकों ने स्वीकार किया था। आज देश में भयावह असहिष्णुता का दौर है और हिन्दू-मुस्लिम प्रेम कथा बनाकर प्रदर्शित करना अत्यंत कठिन काम है। आज तो एक अस्पताल के बाहरी परिसर टेलीफोन बूथ चलाने वाली मुस्लिम कन्या और कैंटीन चलाने वाले हिन्दू युवा के प्रेम पर हुड़दंगियों ने अस्पताल ही तोड़ दिया था, तब 70 एमएम के विशाल परदे पर मराठा मुस्लिम प्रेमकथा कैसे दिखाना संभव होगा, यह सोचें फिल्मकार। भ्रष्टाचार केवल आर्थिक मसला नहीं है। उसके गहरे सामाजिक असर भी होते हैं।