बाहर का आदमी / सुशील कुमार फुल्ल

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तना बड़ा परिवर्तन। उसने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि क्षण-भर में। रेडियों में घोषणा मात्र से इतना बड़ा परिवर्तन हो सकता है। यह गत सत्रह वर्ष से इसी नगर मे रहता आया है तथा यहीं के जीवन में रच-बस गया परन्तु एकाएक उसे यह अनुभूति काटने लगी है कि वह यहां का है भी या नहीं? वह विवश-सा महसूस करता परन्तु उसका मन हठात कह उठता- मैं यहीं का तो हूं। मैंने अपने जीवन के सत्रह वर्ष यहीं तो व्यतीत किये हैं। मेरे बच्चों ने इसी नगर में आंखें खोली हैं। यहीे पालन-पोषण हुआ है। शिक्षा-दीक्षा सब कुछ तो इसी नगर से बंधा हुआ है। सब कुछ ही तो। परन्तु यहां के लोग इस बात को स्वीकारते, तभी न। द्विविधा की स्थिति में उसका अन्तर्मन और भी चीत्कार कर उठता।

रेडियो पर राज्य के पुर्नगठन की घोषणा मात्र से लोगों में अजीब-सी हलचल थी, अजीब उल्लास था। 20 लाख लोगों की प्रादेशिकता क्षण-भर में बदल गयी थी। उनकी संस्कृति, मातृ-भाषा, रहन-सहन ने एक-दम नया रूप धारण कर लिया था। जो कोई छोटे-मोटे कवि थे, उन्होंने मातृभाषा में तुकबंदिया करके जनता का मनोरंजन किया था तथा विशेषतः नेता वर्ग की चाटुकरिता। मनोज ने भी उल्लास-समारोह में भाग लिया था। उसे आश्चर्य हुआ कि ये इतने कवि एक दिन में कहीं से उग आये। कवियों में एक-दो ऐसे भी दिखाई दिये जो कल तक अन्य भाषा में कविता करते थे तथा आज नये प्रदेश की घोषणा होने पर नयी भाषा में। उनका यह दोगलापन है अथवा अवरवादिता का सफल अनुसरण। यह इस विषय में निर्णय लेने में असमर्थ हैं। क्षण-भर में प्रादेशिकता, संस्कृति, मातृभाषा आदि का परिवर्तन निश्चय ही बहुत बड़ा परिवर्तन है।

कवि वह सोचता है कि इतना बड़ा परिवर्तन एकाएक नहीं हो सकता। प्रत्येक परिवर्तन, लहर, धारा धीरे-धीरे विकासोन्मुख होती है। समय की गति में परिवर्तन का एहसास तभी होता है, जब कुछ टकराकर खनखना जाए या फिर समय के क्षण-क्षण को यदि कुरेद कर देखा जाए तो संभव है उसकी परतों में से क्रान्ति, तथा परिवर्तन के अंकुर मिल जायें।

तब उसने अपने ही संस्थान में किसी उच्च-पद के लिए प्रार्थना पत्र दिया है। इन्टरव्यू से तीन-चार दिन पहले उसने प्रिंसिपल से मिल लेना उचित समझा था। वह लगभग पन्द्रह वर्षों से इसी संस्थान में कार्य कर रहा है, अतः प्रिंसिपल से मिलने में किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ था। ‘‘तुम्हे इन्टरव्यू आ गया है?’’ प्रिंसिपल ने पूछा था, हालांकि इन्टरव्यू भेजने का निर्णय करने वाले वे स्वयं ही थे। ‘‘जी, हां।’’ मनोज बोला था।

थोड़ी देर ओढ़ा हुआ मौन- फिर प्रिंसिपल ने धीमे से कहना आरम्भ किया- ‘‘मनोज जी, आप तो अपने ही आदमी हैं। अतः आपसे क्या छिपाना। स्थानीय लोग अब जागरूक हो गये हैं। बाहर के आदमी को सहन करने के लिए वे अब तैयार नहीं हैं। वैसे तुम तो अपने ही आदमी हो। तुम्हें तो यहीं का समझा जा सकता है।’’

‘‘प्रिंसिपल साहब, मैं गत पन्द्रह वर्ष से इसी संस्था में काम कर रहा हूं। और उसमें फिर स्थानीय और अस्थानीय का प्रश्न कहां उठता है।’’ उसकी आवाज में थोड़ी तल्खी आ गई थी। ‘‘शर्मा जी, मैं तुम्हारी राष्ट्रीय भावना को भली-भांति जानता हूं परन्तु समय ही ऐसा आ गया है कि एक प्रदेश का व्यक्ति दूसरे प्रदेश में नौकरी सहज ही प्राप्त नहीं कर सकता।’’ प्रिंसिपल साहब थोड़े गम्भीर हो गये थे।

‘‘परन्तु प्रिंसिपल साहब हम तो एक ही प्रदेश के हैं। मैंने तो किसी दूसरे प्रदेश में एप्लाई नहीं किया।’’ ‘‘सो तो मैं जानता हूं। परन्तु तुम्हें शायद पता होगा कि आजकल नेता लोग किसी बात पर मुख्यमन्त्री से रूष्ट हो गये हैं तथा उन्होंने नये प्रदेश का अभियान चला रखा है। ऐसी अफवाहें सुनने में आ रही हैं कि प्रधान-मन्त्री ने उनकी बात सिद्धान्त रूप से स्वीकार कर ली है तथा इस चुनाव के बाद कभी नये प्रदेश का उद्घाटन हो सकता है।’’ प्रिंसिपल ने बड़ी ही गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा।

मनोज को यह अजीब-सा लग रहा था। वह अपने इन्टरव्यू के विषय में प्रार्थना करने आया था कि वह थोड़ा ध्यान रखे और यहां नये प्रदेश की बातें, जो अभी गर्भ में ही हैं स्थानीय-अस्थानीय लोगों की समस्या बाहर और अन्दर के आदमी। सोचकर वह निराश हो गया था। उसने पूछ ही लिया- ‘प्रिंसीपल साहब, यह तो सब ठीक है परन्तु योग्यता के अनुसार तो मेरे चांसेज हैं?’’ ‘‘हां, हां, पेपर क्वालिफिकेशन में तो तुम बहुत अच्छे हो।’’ मन-ही-मन मनोज ने प्रिंसिपल के शब्दों को दोहरा दिया। उसका मन प्रिंसिपल के मुंह पर एक झापड़ देने को हुआ।

‘‘शर्मा जी, यदि बुरा न मानें तो स्पष्ट कह दूं। एक व्यक्ति तो संस्था के निर्देशक-संचालक की सिफारशी-चिट्ठी लाया है। दूसरे दो व्यक्ति इसी नगर से अथवा इसी क्षेत्र से कह लो। अतः चौथे नम्बर पर मैं तुम्हारी सिफारिश कर सकता हूं।’’ प्रिंसिपल ने बड़ी आत्मीयता से कहा था। ‘‘जी, आपकी बड़ी कृपा होगी। हमारे अधिकारों की रक्षा आपके अतिरिक्त और कौन कर सकता है।’’ कहकर वह चला गया था। प्रिंसीपल से मनोज का जो वार्तालाप हुआ था, उससे मनोज अशांत हो उठा था। यद्यपि प्रिंसिपल में जो कुछ कहा विशेष नहीं कहा था परन्तु जो कहा था, वह ही कम था। प्रिंसिपल के विषय मे जो उसकी धारणा थी, वांछित होने लगी थी। इतनी बड़ी शिक्षा एवं शोध संस्था कर अध्यक्ष ऐसी बातें कर सकता है, उसने कभी सोचा भी नहीं था।

प्रदेश का विभाजन अभी हुआ नहीं परन्तु लोगों के मन पहले से ही विभाजित हो गए हैं। हो नहीं जाते, कर दिए जाते हैं। भला कोई पूछे राष्ट्र प्रमुख हाना चाहिए अथवा प्रदेश। उसकी आंखांे के आगे सरदार पटेल की आकृति उभर आती है। छोटी-छोटी रियासतों को मिलाकर बड़े राज्यों का संगठन दूरदर्शिता का परिचायक जान पड़ता है। परन्तु आज लगता है सरदार पटेल का यह भागीरथ प्रयत्न व्यर्थ ही हैं, तो कहीं अच्छा होता है कि स्वतन्त्रता के समय ही राज्यों के गठन का कार्य नहीं किया जाता। सभी राज्य अलग-अलग टुकड़ियों में बनी राष्ट्रीय-भावनात्मक-एकता की कहीं अधिक आवश्यकता होती है। मनोज सोचता है। वह इस बात को स्वीकार करने में अपने आपको असमर्थ पाता है कि वह बाहर का आदमी है। एक दिन मित्र-मण्डली में कुछ ऐसी ही बात चली थी, तो उसने कहा था- ‘‘मैं बाहर का आदमी भावना से बहुत घृणा करता हूं। पता नहीं यह स्थानीयता की प्रवृति कहां से उभर आई है।’’

‘‘आप इसलिए घृणा करते हैं, क्योंकि आप स्वयं बाहर के आदमी हैं।’’ उसके एक बहुत ही निकट के मित्र ने चुनौती दी थी। वह तिलमिला उठा था। बोला था- ‘‘हरामजादो, अभी प्रदेश का विभाजन हुआ नहीं...... और यदि हो भी जाये तो क्या हमारी राष्ट्रीयता बदल जायेगी, भाषा बदल जायेगी या क्या बदल जायेगा? हमस ब अपने ही घर में बाहर के आदमी हो गये हैं तथाकथित प्रबुद्ध-वर्ग की गर्जना उन कलुषित वास्तविकता की परिचायक लगती है।’’

‘‘शर्मा! गाली मत बको।’’ एक अन्य मित्र का स्वर। ‘‘मैं सच कहता हूं।’’ मनोज का कांपता हुआ स्वर। ‘‘वास्तविकता को नकारा नहीं जाता।’’

‘‘वास्तविकता याद आई आज तुम्हें। यह भी खूब रही मनूं, तुम तो मेरे स्कूल के सहपाठी रहे हो। याद है तुम्हें जब हमारे स्कूल में एक बंगाली अध्यापक आया था, तो हम सभी कितने प्रसन्न थे। उसकी थोड़ी भिन्न प्रकार की वाणी, भिन्न प्रकार का उच्चारण सुनकर हम कितने प्रसन्न होते थे।’’ मनोज ने अपने मित्र को मनाने के स्वर में कहा।

‘‘शर्मा! उन्नीस सौ पचास की बात में और आज की बात में बहुत अन्तर है। आज यदि हमें अपने क्षेत्र में, अपने ही प्रदेश में ही नौकरी न मिले तो दूसरे प्रदेश में कैसे मिल सकती है। अपने प्रदेश में नौकरी प्राप्त करना सभी अधिकार समझते हैं। दूसरे प्रदेश में यदि किसी को नौकरी मिल जाये तो वह उस प्रदेश की कृपा अथवा उदारता माननी होगी। वास्तविकता तो वास्तविकता ही है। कोई माने या न माने।’’ मित्र की आंखें बदलती हुई लग रही थीं। उस दिन शर्मा जी एक असमर्थता का अनुभव कर रहे थे। अभी प्रदेश के टुकड़े भी नहीं हुए थे और उन्हें बाहर का आदमी घोषित कर दिया गया। वह इसे मानने के लिए कदापि तैयार नहीं थे। आदमी जहां जीवन के सत्रह-बीस वर्ष व्यतीत करता है, उस स्थान का ही हो जाता है। यदि वह स्थान उसे अचानक अस्वीकार कर दे तो उसके अस्तित्व के टुकड़े-टुकड़े होना स्वाभाविक है। बहुत दिनों तक उन्होंने मौन बनाये रखा था। वह किसी प्रकार इस संकीर्ण भावना से अपने आपको बचाकर रखना चाहते थे। कई ऐसे अवसर भी आते कि स्वयं का विश्लेषण करते। शायद वह इसलिए सोचते हैं, क्योंकि उनका अपना हित-अहित इस भावना से बन-बिगड़ सकता है।

फिर उन्हें बदलते तेवरों का पता चलने लगा था। प्रिंसिपल की बातें समझ में आने लगी थीं। संस्था में केवल दो प्रकार के आदमी रह गये थे, बाहर के आदमी एवं स्थानीय आदमी। मनोज शर्मा अपने आपको किसी में भी फिट नहीं कर पाये थे। आदमी आदमी है, वह किसी भी स्थान का हो, किसी भी प्रदेश का हो- वह सोचते परन्तु उनका कोई समर्थक नहीं था।

उनका इन्टरव्यू निकट आ गया था। अनेक प्रकार की बातें वायुमण्डल में तैरने लगी थीं। बाहर के आदमी एवं स्थानीय आदमी बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे। ‘‘मनोज समझता है, उसकी नियुक्ति हो जाएगी।’’ स्थानीय समूह में से उभरता एक स्वर। ‘‘साले को प्रिंसिपल ने उल्लू बना रखा है।’’ दूसरा स्वर।

‘‘अकादमिक-क्वालिफिकेशन में तो उसे कोई बीट नहीं कर सकता।’’ तीसरा स्वर। ‘‘अकादमिक-बकादमिक क्वालिफिकेशन का क्या है? आदमी के पीछे कुछ दम होना चाहिए।’’ चौथा आदमी। ‘‘नियुक्ति तो सुन्दर सिंह की होगी। प्रिंसिपल ने ऐसा प्रचार कर रखा है कि मान जाए। कहता है कि सुन्दर सिंह विश्वविद्यालय के उपकुलपति का आदमी है तथा संस्था के संचालक-निर्देशक ने भी उसी की सिफारिश की है।’’ पांचवां आदमी।

‘‘एम. ए. छोड़ का सुन्दर सिंह थ्रू-आउट थर्ड डिवीजनर हैं।’’ प्रथम व्यक्ति का स्वर पुनः उभरा। ‘‘डिवीजन को कौन पूछता है।’’ दूसरा स्वर।

‘‘इतना क्या कम है कि उसने एम.ए. कर रखी है। वह प्रिंसिपल की साली का लड़का है।’’ सब खिलखिलाकर हंसते हैं। इतने में मनोज शर्मा वहां पहुंच जाता है। सभी ऐ बार पुनः खिलखिलाकर हंस पड़ते हैं। वह कुछ समझ नहीं पाता। उसे अजीब प्रकार की अनुभूति होती है। ‘‘इन्टरव्यू कब है?’’ एक स्वर। ‘‘परसों।’’ मनोज कहता है।

‘‘इनके बड़े चांसेज हैं।’’ दूसरा व्यक्ति कहता है। ‘‘यह तो कुछ नहीं कहा जा सकता।’’ मनोज गम्भीर हो गया है। ‘‘विश यू वैस्ट ऑफ लक्क।’’ समवेत स्वर। मनोज उन्हें अशंक नेत्रों से देखता है। जान नहीं पाता उनमें से कोन मित्र है, कौन नहीं। एक अजीब-सी उलझन में फंसा रहता है। कुछ दिन पहले लोगों की एक स्कीम थी- अब उसके दो भाग हो गये हैं। एक दरार पड़ गई परन्तु इसकी आवश्यकता क्या है। यहां के लोगों को नौकरी में प्राथमिकता देना। तो क्या यहां के लोगों को किसी दूसरी जगह नौकरी देना कानून देना कानूनन बन्द कर दिया जाये। नहीं ऐसा नहीं, सम्भव। कूंप-मंडूक क्षेत्रीय-वाद नहीं पनपना चाहिए- वह कराह उठता।

इन्टरव्यू से एक दिन पहले उसके हितैषी बाहर के आदमी उसके निवास पर पहुंचे थे शुभ कामनाएं देने। एक ने पूछ ही लिया था- ‘‘मनोज, तुम्हारा क्या हाल है?’’

‘‘मैं कुछ नहीं कह सकता।’’ ‘‘मैंने सुना है सुन्दर सिंह को ले रहे हैं।’’ एक स्वर। ‘‘मुझे नहीं पता।’’ मनोज का निराश स्वर। ‘‘हां, उसे तो लेंगे ही। वह प्रिंसिपल का बेटा जो है।’’ दूसरा स्वर।

‘‘हां, प्रिंसिपल का बेटा। इस बूढ़े ने जवानी में अपनी साली को भी नहीं छोड़ा। उससे यह सुन्दर सिंह, प्रिंसिपल का बेटा।’’ मनोज कुछ नहीं बोला था। उसे ऐसे रिमार्कस पसन्द नहीं आये थे। काफी देर तक इधर-उधर की बातें चलती रही थीं। इधर का आदमी, उधर का आदमी। धांधली बढ़ता हुआ क्षेत्रवाद। ढेर-सी बातों को लेकर मित्र-मण्डली ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी- सबके पीछे एक ही प्रमुख भावना जान पड़ती थी, यह थी असुरक्षा की भावना, अन्याय की संभावना। आपस में बातचीत कर लेने पर उन्हें थोड़ा बल मिलता था। मानसिक शक्ति भी।

फिर वही हुआ था, जो होना था। उसकी नियुक्ति नहीं हुई। सुन्दर सिंह को ले लिया गया था। मनोज शर्मा को लगा इस न्याय की मांग करे। अन्दर-ही-अन्दर कहीं खोखला महसूस करने लगा था- कभी-कभी तो वह अन्दर की कांति की ज्वाला से धधक उठता परन्तु कुछ न कर पाने की स्थिति के आभास से फिर परिस्थितियों से समझौता करने का प्रयत्न करता....... बहुत जोर लगाकर वह अपने कांतिपूर्ण विद्रोह को शांत करता। उसे हर बार लगता कि उसने भ्रूण की हत्या कर दी है...भ्रूण की हत्या।

राज्य के पुर्नगठन की घोषणा। घोषणा होते ही इतना बड़ज्ञ परिवर्तन। आदमियों का व्यक्तिगत अस्तित्व समाप्त हो गया। वे स्पष्टतः एवं निश्चय रूप से दो वर्गाें में बंट गया- स्थानीय आदमी एवं बाहर के आदमी। क्षण-भर में लोग ही घर में बाहर के आदमी हो गये थे। नया प्रदेश, नयी संभावनाएं। चारों ओर उल्लास। जुलूस में अनेक टोपियां उभर आयी हैं। धन्य हैं नेता लोग भी, जो क्षण-भर में नई-नई संभावनाओं को जन्म देते हैं। प्रदेश के उद्घाटन का दिवस ऐसे मनाया गया जैसे प्रदेश का मुक्ति दिवस हो। मनोज को नेताओं के भाषणों के कतिपय अंश अब तक भी याद हैं। एक नेता चिल्ला-चिल्लाकर भाषण दे रहा था- ‘‘भाइयो तथा बहनो! भारत को स्वतन्त्र हुए 25 वर्ष हा गये परन्तु आप जानते हैं, आप देख रहे हैं तथा बहुत से भाइयों ने महसूस किया होगा कि हमारा क्षेत्र उपेक्षित ही रहा है। इसके पिछड़ेपन मे सुधार की अपेक्षा गड़बड़ी अधिक हुई है। अब हमने इसकी बागडोर संभाल ली है। हम हर क्षेत्र में भारत के शेष प्रांतों से आगे निकल जायेंगे।’’ मनोज का अब हंसी आयी थी। मन-ही-तन इसने सोचा था- नया प्रदेश बन जाने से साधारण लोगों को कोई लाभ नहीं होने का, कतिपय लोगों की गद्दियां भले ही मिल जाएं।

‘‘भाइयो! मैं तुम सबको बधाई देता हूं। हमारा संघर्ष सफल हुआ इस बहुत बड़ी दुनिया में विकास तभी हो सकता है, जब प्रत्येक कार्य का विकेन्द्रियकरण कर दिया जाए। टुकड़े-टुकड़े करने से देश कमजोर नहीं होता। इससे तो प्रत्येक टुकड़ा अपने-अपने ढ़ंग से मजबूत हो जायेगा। अपने प्रदेश की सेवा करने का लोगों को अधिक अवसर मिलेगा... जिसे अश्रु-गैस को आपने सहन किया, जो गोलियां आपने खाईं वे व्यर्थ नहीं गई परन्तु अभी हमें बहुत कुछ करना है। हमें आपका विश्वास चाहिए....’’ दूसरा नेता लगभग एक घण्टे तक बोलता रहा था।

मनोज ने सोचा था- यह नेता निश्चय ही लोगों को उल्लू बनाने में सफल होगा।

‘‘मेरे नव-उद्घाटित प्रदेश के वासियो! मैं तुम सबको बधाई किन शब्दों में दूं। मैं तो मात्र इतना ही कहना चाहता हूं कि मैंने आपकी सेवा का प्रण लिया है। आप शायद कहें कि मैं तो यहां पर रहने वाला नहीं... लेकिन नहीं, आप मेरी कुल-परम्परा को नहीं जानते। मेरे शरीर की संरचना में इसी प्रदेश की मिट्टी की महक है। मेरे दादा के पड़दादा सन् 1810 में इसी प्रदेश में जन्मे थे। आप चाहें तो उस समय के किसी पंडित की पुरानी लाइब्रेरी की छानबीन करवा सकते हैं।’’

‘‘आप सच मानें या न मानें लेकिन मैं तो स्वप्नों में बड़ा विश्वास रखता हूं। कुछ मास पूर्व मुझे स्वप्न में दादाजी दिखायी दिये थे। उन्होंने मुझसे कहा था- ‘बेटा, तुम्हें तो आजकल तक महान नेता होना चाहिए था। शायद तुम्हें अवसर नहीं मिला होगा लेकिन अब तैयार हो जाओ। तुम्हारा मातृ प्रदेश तुम्हें बुला रहा है। लोगों की भलाई में ही तुम्हारी भलाई है। बस स्वप्न के बाद मैंने आपके प्रदेश में ही नहीं, अपने पूर्वजों के प्रदेश में नहीं, अपने ही प्रदेश में लोक-सेवा का प्रण ले लिया।’’ ऐसा कहकर नेता बैठ गये थे। लोग खिलखिलाकर हंस पड़े थे। मनोज जानता है कि उक्त नेता महोदय अपने प्रदेश में अनेक बार पिट चुके थे। यहां उन्हें राजनीति में अधिक स्कोप की सम्भावना लगी, अत: छलांग आए थे।

मनोज को सब अजीब-अजीब लगता था। राजनीति के बदलते हुए दांव-पेच गिरगिट के-से रंग। प्रदेश में एकाएक नेता उग आये थे। जैसे रात्रि-भर के समय अनेक छत्रक अचानक उग आये हों। उसे याद है कि स्वप्न बघारने वाले नेता ने अजीब नारा दिया था, लोगों को, वस्तुतः स्वयं अपने पैर जमाने का यह अचूक फार्मूला था। नारा था- बाहर के आदमी बाहर करो।

नारे से सभी लोग प्रसन्न थे। भय था तो केवल बाहर के लोगों को। बाहर के लोग... मनोज सोचकर कांप उठता। सत्रह वर्ष एक स्थान पर रहने पर भी कोई बाहर का आदमी ही कहलबाता रहेगा... अच्छा। मनोज शर्मा प्रसन्न हैं कि उनके पुत्र ने उस वर्ष प्री-मेडिकल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की है। किसी जमाने में उनकी स्वयं बड़ी इच्छा थी कि वह डॉक्टर बनकर रूग्ण जनता की सेवा करे परन्तु गणित में रूचि न होने के कारण ऐसा सम्भव न हो सका था। अतः अब राजीव के माध्यम से उनकी इच्छा पूर्ण होती दिखाई देती है।

प्रदेश में नया मेडिकल कॉलेज खुला है। बहुत से लोगों को पहले दूर-दूर स्थानों पर स्थित कॉलेजों में प्रवेश लेना पड़ता था। किन्हीं विद्यार्थियों को तो प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में ही प्रवेश मिल पाता था। ये विद्यार्थी प्रायः धनी होते थे, जो दस पन्द्रह हजार रुपये डोनेशन देकर एक सीट खरीद लेते थे। अब मनोज को कोई ऐसा भय नहीं। उसके पास इतना पैसा भी तो नहीं है कि वह डोनेशन दे सकता। राजीव को नये कॉलेज में सीट मिल ही जाएगी- सोचकर वह खिल उठता है।

उनका यह भ्रम भी अधिक देर नहीं बना रह सका। सबसे पहली कठिनाई मेडिकल कॉलेज के लिए राजीव के आवेदन-पत्र को अटैस्ट करवाने में आई। उसमें एक प्रमाण-पत्र देना था। स्थायी निवास-स्थान के बारे में तथा यदि कोई नये प्रदेश का स्थायी निवासी नहीं था, तो उसे डोमिसाइल सार्टिफिकेट देना था। शर्मा जी ने इस नगर में कोई सम्पत्ति नहीं बनाई थी- नौकरी में बन ही कैसे सकती थी। अतः सत्रह वर्ष से इस नगर में रहने पर भी वे स्थायी निवासी नहीं माने जा सकते। अब एक ही चारा था कि वह डोमिसाइल सार्टिफिकेट ले। उन्हें यह प्रमाणित करवाना था कि वे नये प्रदेश में लगातार तीन वर्ष अथवा इससे अधिक समय तक रहते हैं।

दीनानाथ नगरपालिका के सदस्य थे तथा वर्षों से उनका शर्मा जी से मेलजोल था। शादी-ब्याह, त्यौहार आदि पर अपना आना-जाना भी था। शर्मा जी तुरन्त उनके पास पहुंचे तथा उन्होंने उससे स्पष्ट ही कहा- ‘‘तुम्हारे हस्ताक्षरों की आवश्यकता है।’’ ‘‘जहां चाहो करवा लो।’’ प्रत्युत्तर मिला। ‘‘अच्छा, यहां.... यहां कर दो।’’ जहां-जहां प्रमाण-पत्र की आवश्यकता थी, उस-उस स्थान की ओर शर्मा जी ने संकेत कर दिया। ‘‘अरे, तुम्हारा काम नहीं करेंगे तो किसका काम करेंगे।’’ कहकर वह हस्ताक्षर करने लगे परन्तु कुछ शब्द पढ़ते ही एकदम रूक गये। शर्मा जी ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा।

‘‘अरे यह तो डोमिसाइल सार्टीफिकेट है। यह प्रमाण-पत्र में बिना प्रमाण के कैसे दे सकता हूं।’’ नगरपालिका सदस्य ने पेंतरा बदलते हुए कहा। ‘‘तो यह नहीं कर सकेंगे आप?’’ शर्मा जी ने पूछा। ‘‘मैं अपने दोस्त के लिए क्या नहीं कर सकता परन्तु मेरी बात मानो। अपनी संस्था से एक प्रमाण-पत्र ले आओ कि इतने बर्षों से आप यहां नौकरी में हैं... ‘‘क्या आप नहीं जानते मुझे?’’ ‘‘मैं तो जानता हूं। और तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकता हूं परन्तु अच्छा तो यही रहेगा कि आप संस्था से प्रमाण-पत्र ले लें। फिर मेरे साथ कचहरी चलें। वहां क्षण-भर में तुम्हारा काम करवा दूंगा।’’

शर्मा जी को आश्चर्य हुआ था, मन-ही-मन एक कुढ़न भी। वह इतने वर्षों से वहीं है। परन्तु देश का विभाजन हो गया है तथा स्थान वही होते हुए भी नाम बदल गया हे। देश एक ही है। प्रदेश उसी का अंग है परन्तु आदमी दो तरह के, बाहर के आदमी तथा अन्दर के आदमी, अजीब उलझन हैं। कोई नहीं समझ पाता... कोई समझना नहीं चाहता। आत आदमी की अनुभूति नहीं होती। नेताओं एवं सरकार के पास छोटे-छोटे मामलों के लिए कोई समय नहीं। अजीब उलझन है।

अनमने से शर्मा जी ने संस्था से प्रमाण-पत्र लिया तथा अपने मित्र के पास पहुंचे। फिर वही टालमटोल। ‘‘शर्मा जी, मैं टेलीफोन कर देता हूं। तुम्हारा काम हो जाएगा।’’ ‘‘अच्छा।’’ शर्मा जी पहले की भांति जोर देकर नहीं कह सके। कचहरी में उनका काम तो हो गया परन्तु बाबुओं ने जी भर कर दौड़ाया। दौड़ने से भी वह नहीं घबराये परन्तु कचहरी के सदस्यों की बातचीत, जो वस्तुतः शर्मा जी को ही सुनाने के लिए की गयी थी, वह उन्हें कहीं बहुत गहरे काट गयी थी। ‘‘साले चले आते हैं दूसरों का हक मारने।’’ एक स्वर। ‘‘कोई स्थानीय व्यक्ति मारा जाएगा।’’ ‘‘पता नहीं यह लोग कब वापस जाएंगे।’’ तीसरा स्वर। ‘‘साले हमारे प्रदेश का पैसा अपने प्रदेश में ले जाते हैं।’’ चौथा स्वर। शर्मा जी ने मन-ही-मन उन लागों पर थूक दिया।

इतना बड़ा परिवर्तन।

क्षण-भर मे लोगों की प्रादेशिकता, प्रतिबद्धता एवं निष्ठा बदल सकती है शर्मा जी इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं। परन्तु उन्हीं के साथ प्रति-दिन जो घटित होता है, वे कैसे नकार दें। हर बात में, हर प्रकार से घृणा से भरी आंखें उनकी ओर उभरती रहती हैं। कहीं से सहानुभूति के शब्द भी आते हैं, तो बाद में शर्मा जी को पता चलता है कि यह तो उनसे कुछ उगलवाने मात्र था। उन्होंने कई बार सोचा अब किसी से मन की बात नहीं कहेंगे। जो कुद कभी भी उन्होंने अपने मित्रों तक से भी कहा है- वह भी अधिकारियों तक अविलम्ब पहुंचता रहा है, पहुंचता रहता है। उस दिन जरा सी बात ने उन्हें परेशान कर दिया था। ‘‘तुम्हारी नियुक्ति हो जानी चाहिए थी।’’एक स्थानीय व्यक्ति ने सहानुभूति जताई थी, हालांकि उस बात की मृत्यु को तीन साल हो चुके थे। ‘‘मैं भी यही सोचता था।’’ ‘‘बहुत अन्याय हुआ।’’ उसने उन्हें कुरेदने का प्रयत्न किया।

‘‘न्याय है ही कहां।’’ थोड़ा रूक कर उन्होंने फिर कहा- ‘सब जगह भाई-भतीजावाद चलता है। यहां मेरे जैसे आदमी का अस्तित्व ही क्या है।’’ ‘‘कोई तुम्हारी ओर आंख उठा कर तो देखे।..... थोड़ी गड़बड़ बाहर के आदमियों की ही पैदा की हुई है। कोई बाहर से आकर यहां रहना चाहता है तो आदमी बन कर रहे। स्थानीय व्यक्तियों को दबाने का प्रयत्न सफल नहीं होने दिया जायेगा।

शर्मा जी चुप थे। यह आदमी उनको भड़काना चाहते हैं। न चाहते हुए भी उसने भी उनसे इतना कहे बिना न रह गया- ‘‘भाई! बाहर या अन्दर की बात निरर्थक है। कोई किसी अन्य प्रदेश अथवा स्थान का है, इसीलिए बुरा नहीं समझा जाना चाहिए हर स्थान पर बुरे एवं अच्छे लोग होते हैं।’’ ‘‘शर्मा जी, क्या घटिया बात को आपने भुला दिया। सभी बाहर के आदमियों को नौकरी से निकाल दिया जाए तो देखो हमारे प्रदेश के लगभग सभी बेरोजगारों को नौकरी मिल सकती है। इसका अर्थ होगा छोटी उमर में बड़े पद।’’

‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि जो इस प्रदेश के, जो भारत के अन्य प्रदेशों में नौकरी कर रहे हैं, उन सबको भी यहां से निकाल दिया जाये तो यह बड़ी अजीब एवं बेढ़ब समस्या उत्पन्न हो जाएगी।’’ शर्मा जी ने उसे बहुत प्यार से समझाने का प्रयत्न किया परन्तु वह तर्क से विमुख हो चुका था। उसका मन बहुत अशान्त हो गया था- क्योंकि बहुत-सी बातें अनकही रह गई थीं।

दूसरे ही दिन प्रिंसिपल ने उन्हें अपने दफ्तर बुला लिया था। उनके दो-तीन चेहते व्यक्ति वहां पहले ही बैठे थे। शर्मा जी को हैरानी हुई थी। ‘‘आपको ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं। इतने पुराने आदमी होने पर भी न तो आप मेरे प्रति तथा न संस्था के प्रति निष्ठावान हैं।’’ प्रिंसिपल ने कहा। ‘‘मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया।’’ शर्मा जी ने कहा था। ‘‘प्रतिदिन सभी स्थानीय आदमियों को गालियां निकालते हो तथा फिर बड़े घमण्ड से कहते हो- कुछ नहीं किया।’’ ‘‘यह झूठ है।’’

‘‘इनसे पूछिए। ठाकुर जी ने मुझे सब बता दिया है।... हर बात पर विष उगलते हो, तुम्हे लज्जा आनी चाहिए।’’ ‘‘लज्जा तो उन आदमियों को आनी चाहिए जो बाहर एवं अन्दर के आदमी कहकर दो वर्ग बनाना चाहते हैं।’’ ‘‘शर्मा जी, इसमें काई सन्देह नहीं! बाहर का आदमी बाहर का है, स्थानीय आदमी स्थानीय है।’’ प्रिंसिपल ने व्याख्या की। ‘‘लेकिन हैं तो दोनों आदमी। और वे एक ही राष्ट्र के।’’ शर्मा क्रोध में बोल रहा था। ‘‘बन्द करो बकवास। लगे सिखाने राष्ट्रवाद। यदि इतना ही मान है, तो वहां नौकरी कर लो, जहां ज्यादा राष्ट्रवाद है।’’ प्रिंसिपल ने कटुता-पूर्ण स्वर से कहा। ‘‘मैं तुम्हारे...’’ शर्मा जी ने अपनी वाणी पर काबू कर लिया तथा बिना कुछ कहे दफ्तर से बाहर आ गए। सोचने लगे- बाहर का आदमी, अन्दर का आदमी अजीब हैं यह आदमी।