बाहुबली के बहाने देशज कहानियों का संसार / नवल किशोर व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
बाहुबली के बहाने देशज कहानियों का संसार


बाहुबली के दोनों भाग सिनेमाहॉल के बाद अब टीवी पर भी लोगो का अच्छा-खासा मनोरंजन कर अच्छी टीआरपी बटोर रही है। सुना है कि अब इसके निर्देशक राजामौली महाभारत पर फिल्म बनाने की सोच रहे है जो अपने आप में अनूठा होगा। दरअसल दोनो बाहुबली का मूल विचार देशज है। पहली बार किसी भारतीय फिल्म ने हमारे पंचतंत्र, बेताल, हातिमताई सरीखी दंतकथाओं और सुनी सुनाई दादी नानी की कहानियो से मन में उपजी उन सभी कपोल कल्पनाओ को उसी भव्यतम और विराट स्वरूप का तीखापन लिए हूबहू परदे पर उतारा है जैसा हम अक्सर सोचा करते थे। ऐसी कहानियो को पढ़ते और सुनते समय जिस भव्यता, रोचकता, भयावहता, सौंदर्य और लार्जर देन लाइफ की इमेजिनेसन हम करते है, उसको साक्षात परदे पर देखना ही बाहुबली है। फिल्म में जो कुछ अविश्वसनीय सा और दक्षिण भारतीय सिनेमा की मेकिंग के चिर परिचित लार्जर देन लाइफनुमा जैसा घटित होता है वो इसके देशज स्वरूप और उसी सुनी सुनाई जेहन में बसी किस्सागोई के कारण स्वीकार्य सा लगता है। जब एक किरदार बलशाली भैंसे से लड़ रहा होता है, एक किरदार बड़े शिवलिंग को उठाकर पर्वतो के झरने के नीचे लेकर जाता है, एक किरदार उफनती नदी में बच्चे को बचाने के लिए प्रयासरत है तो कही ना कही दर्शको के जेहन में महाभारत के भीम, वासुदेव और रामायण के बाली जैसे पौराणिक चरित्रो की छवियो को गढ़ने में निर्देशक सफल रहता है। झरने को पार करते समय नायिका, चाँद और अलसुबह के वातावरण का प्रयोग, झरने के ऊपर एक अलग अलहदा खुलने वाला नया संसार, गुफा का शॉर्टकट, नायिका की सफेदी पर नीले रंग की तितलिया, नदी के पास जलपरीनुमा अंदाज़ में नायिका का पानी में हाथ डालना, समुन्द्र ने नौका का उड़ना और पानी के अंदर नायक द्वारा उसकी हथेली पर चित्रकारी करना जैसे सीन से निर्देशक ने यूरोपीय लोककथाओ की फंतासी का तड़का भी बड़ी होशियारी से लगाया है। लार्जर देन लाइफ की जो छवियां रजनीकांत और सलमान की चलताऊ फिल्मो और चलताऊ सिचुवशन में जहा बेहद बचकानी लगती है वही बच्चों के ही मूल मनोविज्ञान वाले लोक कथानुमा इस विचार में यही लार्जर देन लाइफ की छवि फ़िल्म की असली जान है। फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स वाकई उम्दा है। सही मायनो में ये पहली ऐसी भारतीय फ़िल्म है जो हॉलीवुड के स्तर के स्पेशल इफेक्ट्स देने में कामयाब रही। फ़िल्म के उस भव्य स्वप्न नगर को रचने और उसका वातावरण तैयार करने में काफी होमवर्क किया गया। हमारे मुख्य सिनेमा में इस तरह की खपत प्रायः नही की जाती है जबकि विदेशी सिनेमा की मेकिंग में कालखंड और उसके वातावरण पर किया गया होमवर्क उनकी रचनात्मकता का जरूरी हिस्सा होता है। बाहुबली के इफेक्ट्स और वातावरण उम्दा होने के बावजूद मौलिक तो बिलकुल भी नही है। जिन स्थितियो में और जिस तरह के इफेक्ट्स दिखाये गए वो हॉलीवुड में कई बार प्रयोग हो चुके है। स्पेशल इफेक्ट्स का मौलिक प्रयोग बाहुबली को और ज्यादा विशेष बनाते पर बावजूद इसके फ़िल्म रोचक किस्सागोई लिए है। फिल्म में बजी सीटीयो और तालियों से लगा कि बिना रजनी और खान तिकड़ी के भी दर्शको में उन्माद जगाया जा सकता है। हमारे देश में इतनी कहानिया कहने को और रचने को  है फिर भी कहानियो की कमी के नाम पर रीमेक बनाये जा रहे है। विदेशी सिनेमा ने जहा छान छान कर अपनी विरासत में मिली किस्से कहानियो को बार बार अपने सिनेमा में रचा और गूंथा है, अपने इतिहास और इतिहास निर्माताओ को अपने सिनेमा में जिया है वही हमने ऐसा केवल और केवल प्रायोगिक सिनेमा के सगुफे के तौर पर ही किया है। दुखद है कि हमारे ग़ांधी भी हमसे बेहतर हॉलीवुड रचता है। इतनी विशाल संस्कृति और किस्सागोई के देश की कहानिया और चरित्र अब भी परदे पर आने के इंतज़ार में है। भेड़चाल वाला अपना सिनेमा बाहुबली की विराट सफलता के बाद अब इस और भी ध्यान देगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। मुख्य धारा के निर्देशक जहां विदेशी सिनेमा से प्रेरित होकर पिज़्ज़ा बर्गर नुमा सिनेमा रचने में व्यस्त है तो वही दक्षिण भारतीय सिनेमा का अपना देसी चूल्हा है जिस पर बाहुबली जैसी देशी रसोई तैयार की जाती है और इस देश में देसी स्वाद के चटोकरो की कमी भी नही है। आप मनुहार से परोसेंगे तो लोग भी चटकारे ले ले कर अपने मनोरंजन की भूख को शांत करेंगे। दर्शको की ये आनंददायक तृप्ति ही दक्षिण भारतीय सिनेमा, उसके फिल्मकारों और उसके दर्शको को विशेष बनाती है।