बाह्याभ्यंतर शुद्धिः नैतिक आचरण का मूलमंत्र / कविता भट्ट
जब धर्म के नाम पर सर्वाधिक हिंसा और संघर्ष हो रहे हों; विद्वेष एवं घृणा के ऐसे वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए धर्म और उसमें शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शुद्धि को इसके मुख्य नियम के रूप में जानना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। ऐसी सार्वभौमिक अवधारणा जिसमें धर्म को नैतिकता से जोड़ा गया हो; वह जानना भी प्रासंगिक है। जानने के साथ ही मानवीय मूल्यों से युक्त इस अवधारणा को नित्याचरण के रूप में अपनाना भी मानव सभ्यता हेतु अत्यंत आवश्यक है।
प्रायः प्रत्येक धर्म में बाह्य (शारीरिक) एवं आन्तरिक (मानसिक एवं आत्मिक) शुद्धि को व्यक्ति के नैतिक व आध्यात्मिक कल्याण हेतु जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। यहाँ ‘धर्म’ का शाब्दिक व दार्शनिक अर्थ व लक्षण जानना भी प्रासंगिक है। संस्कृत भाषा के ‘धृ‘ धातु से व्युत्पन्न ‘धर्म‘ शब्द का सामान्य अर्थ है- धारण करना। आचरण के सन्दर्भ में यहाँ इस शब्द का प्रयोजन सद्गुणों एवं नैतिक नियमों को धारण करने से है। इस दृष्टि से धर्म के अन्तर्गत वे नियम व सिद्धान्त आते हैं जो व्यक्ति को परमशुभ की ओर अग्रसर करें। वैशेषिक दर्शन में कहा गया है, ’यतोऽभ्युदयनिः श्रेयसिद्धः सः धर्मः।’ अर्थात् जिससे अभ्युदय (सांसारिक समृद्धि व निःश्रेयस्) व कल्याण की सिद्धि हो वह धर्म है। मनुस्मृति में धर्म को विवेचित करते हुए इसके दस लक्षण बताये गये हैं।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशक धर्मलक्षणम्।।
अर्थात् धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, आन्तरिक व बाह्य शुद्धि, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, एवं क्रोध न करना धर्म के दस लक्षण हैं। यहाँ बाह्य (शारीरिक) एवं आन्तरिक (मानसिक एवं आत्मिक) शुद्धि को संक्षेप में जानेंगे। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत जलाचमन करते हुए ‘ऊँ अच्युताय नमः, ऊँ माधवाय नमः, ऊँ केशवाय नमः।‘ जैसे मन्त्रों का उच्चारण करते हुए आभ्यंतर शुद्धि का नियम है। सनातन (हिन्दू) धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग (सम्यक् दृष्टि, संकल्प, वाक्, कर्मान्त, व्यायाम, समाधि) के रूप में, जैन धर्म के त्रिरत्न (सम्यक्- दर्शन, वाक्, चरित्र) के अन्तर्गत, सिख धर्म में आत्म-शुद्धि के रूप में यहूदी, पारसी, ईसाई व मुस्लिम आदि धर्मों में अपवित्रता को त्यागने व ईशकृपा प्राप्त करने के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक पवित्रता को धारण करने की अनिवार्यता बतायी गई है। स्पष्ट है कि यदि आन्तरिक व बाह्य शुद्धि के पक्ष को दृढ़ बनाया जाए, तो धर्म के अन्य सभी सद्गुणों की प्राप्ति में व्यक्ति को व्यवधान नहीं आयेगा। सार्वभौमिक तथ्य है कि विश्व के प्रत्येक धर्म में बाह्याभ्यंतर अर्थात् शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि आवश्यक बतायी गई है। शारीरिक शुद्धि हेतु शुद्धिक्रियाएँ (षट्कर्म), स्नान तथा व्रत-उपवास आदि का विधान है। मानसिक एवं आत्मिक शुद्धि हेतु ध्यान-पूजन-प्रार्थना-वंदन आदि का विधान है। वर्तमान हिंसात्मक एवं धार्मिक संघर्ष के परिदृश्य में धर्म में विवेचित शुद्धि को अपनाना आवश्यक है। धार्मिक पद्धतियाँ अलग हो सकती हैं किन्तु लक्ष्य है- वैयक्तिक, सामाजिक एवं आत्मिक कल्याण ही है। धार्मिक विद्वेष का परित्याग करके सार्वभौमिक कल्याण हेतु आवश्यक अपने-अपने पंथों में विवेचित सद्गुणों को आचरण का अंग बनाना समय की आवश्यकता है। इस प्रकार शारीरिक-मानसिक-आत्मिक शुद्धि के सार्वभौमिक नियम जीवन में आचरण की शुद्धि हेतु अपनाये जाने चाहिए। .0.