बा, बुआ और बाबा / आलोक रंजन
बा, बुआ और बाबा
कुछ वर्षों पूर्व तब के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की एक चुनावी सूक्ति अत्यंत प्रचलित हुई थी –“काँग्रेस पकी
–पकाई खाने को तैयार है।”
संयोग से उनकी बात सच भी हो गयी और ‘इंडिया शाइनिंग’ की चमकीली हांड़ी में तैयार माल को गटक कर कांग्रेस ने जता दिया की पका –पकाया खाना कितना स्वास्थ्यप्रद है, अटल जी एंड कम्पनी को कच्चे –पके खिचड़ी पर संतोष करना पड़ा, बेचारे अभी तक पेट पकड़ कर घूम रहे हैं।
‘बिहारी के दोहे’ और चुनावी सूक्तियाँ गहरे घाव देने के लिए कुख्यात रहे हैं, मुझे तो यह समझ में अब तक नहीं आया की ‘बिहारी जी’ को अपने पाठकों से क्या दुश्मनी रही होगी की खुलेआम उन्हें चेतावनी देनी पड़ी अगर ‘सतसई के दोहे’ पढोगे तो होनी –अनहोनी का दायित्व तुम्हारा, मैंने बम तैयार कर दिया है, पलीदे में आग लगाई तो तुम जानो, मुझे फिर दोष मत देना, मैंने पहले ही मना किया था।
यह भी हो सकता है प्रकाशकों ने पब्लिसिटी स्टंट के लिए ऐसा जान-बूझकर प्रचारित किया हो।खतरनाक रचनाओं का मार्केट वैल्यू अधिक होता है।
खैर इस बाबत तो बिहारी जी या उनके प्रकाशक ही किसी प्रेस कांफ्रेंस में बता सकते हैं, हम तब तक यू .पी का एक चक्कर लगा लें।,
राहुल बाबा ने ‘साध्वी –कम –नेत्री’ और ‘नेत्री –कम –साध्वी’ को अजब एम.पी से गजब यू.पी आगमन की शुभकामना भेझ दी और राहुल जी को बैठे –बिठाये उनमे अपनी बुआ जी के दर्शन हो गए, राहुल जी की मुहबोली बुआ अर्थात उनकी माता जी की मुहबोली ननद।
ननद और भाभी की नोकझोंक की पौराणिक परंपरा का निर्वाह करते हुए साध्वी बुआ ने दो –चार आशीर्वचन भी आनन-फानन में दे डाले ।भाभी के मायके की उलाहना ननद का जन्म –सिद्ध अधिकार रहा है, इसमें खोट निकालना उनके पारिवारिक मामलों में हस्तक्षेप है।
अंबानी बंधुओं के भरत-मिलाप और डंडिया नृत्य का कोई लाभ उन्हें मिला हो या नहीं, सिवाय मीडिया के, लेकिन साध्वी जी को साधना का फल तुरत ही मिल गया और अपनी पार्टी में उनका रुतबा दो गज ऊपर हो गया।नए-नए बने रिश्तों ने उन्हें फौरी तौर पर उबार दिया, पार्टी जो कल तक पारी की हार बचाने की जुगाड में थी अब फोलो-आन देने का स्वप्न देख रही है।-
"मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥ “
सुना है कलराज मिश्र जैसे महान नेतागन इस नए रिश्ते से खफा हैं, यह तो अनर्गल प्रलाप है।उन्हें भी तो मायावती जी ने एक बार अपना मुह्बोला भाई बनाया था और राखी भी बांधी थी, अब रिश्ता निभाना उन्हें नहीं आया तो इसमें साध्वी का क्या कसूर ?रिश्ता बनाना और निभाना तो दो अलग बातें हैं।अपनी बहन जी से रिश्ता तोड़ कर उन्हें क्या मिला “न माया- न राम।”
बहन जी तो तीन –तीन बार गुनगुनाया –‘भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना’।पर उस दुखिया को उन्होंने अनसुना कर दिया।
एक और नेता जी जो अपने कई बड़े भाईयों के छोटे भाई बन कर अपना कर्तव्य निभाते रहे उनसे अलगाव के बाद कर्तव्यों की तलाश में भटक रहे हैं, सीजन निकला जा रहा है और बेचारे को एक अदद क्लाइंट की तलाश है।खबर तो यह भी है किसी बड़े नेता के मुखारविंद से गालियाँ सुनने की लिए भी वो तैयार हैं बशर्ते मीडिया वहाँ हो।अर्थात रिश्तों के खातिर उन्हें गालियाँ भी मंजूर है-, स्पोर्टिंग स्पिरिट।
कुछ लोगों को इन रिश्तों में परिवारवाद नज़र आता है इनकी नज़र का क्या कहना उन्हें तो हरेक अभिनेत्री में अपनी भावी पत्नी और अपनी वर्तमान पत्नी में विष –कन्या नज़र आती है, खासकर पगार के दिन।
वैसे परिवारवाद का समर्थन मैं भी नहीं करता, मैंने अपने १० पुत्रों में ८ को अलग –अलग पार्टियों में भर्ती करवा दिया है और बचे दो में एक का नामांकरण ‘मैं अन्ना हूँ, ’ तथा दूसरे का ‘मैं रामदेव हूँ कर दिया है।’
चूँकि मेरे पीठ के दर्द को पुलिस के डंडे से विकराल होने का भय है अतः चिकित्सक की सलाह पर खुद राजनीति से दूर रहता हूँ, सिर्फ चुनाव के दिन अपने मतदाता होने का फ़र्ज़ पूरा कर देता हूँ, दर्द से बचने के लिए तथा मात्र उपहार को स्वीकार करने हेतु लौटते समय एक पौवा का सेवन कर लेता हूँ ।
हाँ, जिन –जिन वीरांगनाओं को अपनी प्रियतमा बनाने और उनसे रिश्ते प्रगाढ़ करने की कोशिश की उन सब से राखी बंधवाकर तथा उनके बालकों के लिए जगत –मामा बन जो परिवार –वाद का शिकार मैं हुआ, मैं उसे राजनीति –प्रेरित समझता हूँ। ‘भूल –चूक लेनी देनी !’
मेरी बात और है, पर भारतीय राजनीति में ये नए –नवेले रिश्ते स्वागत योग्य हैं, राजनितिक हलुवाई पके –पकाए व्यंजन खिला कर इन रिश्तों को और प्रगाढ़ करें तथा हम लेखकों को चाशनी उपलब्ध कराते रहें।