बिकाऊ कवि / सुरेश सौरभ

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एक पार्टी चल रही थी। एक जगह इकट्ठा कुछ कवि आपस में बातें कर रहे थे।

एक बोला-मैं तो पूरे चालीस हजार लेता हूँ।

दूसरा बोला-मैं तो पचास हजार लेता हूँ।

तीसरा बोला-मैं तो पूरे एक लाख लेता हूँ और विदेश में पढ़ने के पूरे तीन लाख लेता हूँ।

चौथा कवि बोला-मैं तो छोटी-मोटी गोष्ठियों में पढ़ लेता हूँ भैया और कुछ छोटी-बड़ी पत्रिकाओ में लिख लेता हूँ। मेरे पास न तो अच्छा गला है और न तो ग्लैमर है। सच तो ये है कि मेरा कोई रेट फिक्स नहीं क्योंकि मैं अपने को गणिकाओ की तरह बेचता नहीं।

अपना रेट बताने वाले अब मंचीय कवि अपनी-अपनी बगलें झांकते हुए दाएं-बाएँ खिसक लिए,