बिखरते संयुक्त परिवार बुजुर्गों के लिए अभिशाप / सत्य शील अग्रवाल

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(संयुक्त परिवार के बिखरने का सर्वाधिक खामियाजा परिवार के बुजुर्गों को भुगतना पड़ता है। अतः प्रस्तुत खंड में संयुक्त परिवार के बिखरने के कारणों पर डाला गया है।जिसे बुजुर्गों के सन्दर्भ में समझना अति आवश्यक है)

गत अर्ध शताब्दी में जितनी तेजी से विकास ने राह पकड़ी है, उतनी शीघ्रता से संयुक्त परिवारों का बिखराव भी देखने को मिल रहा है। यद्यपि आज भी संयुक्त परिवार को ही सम्पूर्ण परिवार माना जाता है। वर्तमान समय में भी एकल परिवार को एक मजबूरी के रूप में ही देखा जाता है। हमारे देश में आज भी एकल परिवार को मान्यता प्राप्त नहीं है औद्योगिक विकास के चलते संयुक्त परिवारों का बिखरना जारी है। परन्तु आज भी संयुक्त परिवार का महत्त्व कम नहीं हुआ है। संयुक्त परिवार के महत्त्व पर चर्चा करने से पूर्व एक नजर संयुक्त परिवार के बिखरने के कारणों, एवं उसके अस्तित्व पर मंडराते खतरे पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं।

संयुक्त परिवारों के बिखरने का मुख्य कारण है रोजगार पाने की आकांक्षा। बढती जनसँख्या तथा घटते रोजगार के कारण परिवार के सदस्यों को अपनी जीविका चलाने के लिए गाँव से शहर की ओर या छोटे शहर से बड़े शहरों को जाना पड़ता है और इसी कड़ी में विदेश जाने की आवश्यकता पड़ती है। परंपरागत कारोबार या खेती बाड़ी की अपनी सीमायें होती हैं जो परिवार के बढ़ते सदस्यों के लिए सभी आवश्यकतायें जुटा पाने में समर्थ नहीं होता। बढते हुए परिवार के बटवारे के कारण निरंतर घटती खेती की जमीन परिवार का भरण पोषण करने में सक्षम नहीं होती। अतः परिवार को नए आर्थिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ती है। जब अपने गाँव या शहर में नयी सम्भावनाये कम होने लगती हैं, तो परिवार की नयी पीढ़ी को रोजगार की तलाश में अन्यत्र जाना पड़ता है। अब उन्हें जहाँ रोजगार उपलब्ध होता है वहीँ अपना परिवार बसाना होता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं होता की वह नित्य रूप से अपने परिवार के मूल स्थान पर जा पाए। कभी कभी तो सैंकड़ो किलोमीटर दूर जाकर रोजगार करना पड़ता है।

संयुक्त परिवार के टूटने का दूसरा महत्वपूर्ण कारण नित्य बढ़ता उपभोक्तावाद है। जिसने व्यक्ति को अधिक महत्वकांक्षी बना दिया है। अधिक सुविधाएँ पाने की लालसा के कारण पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है, और स्वार्थ परता बढती जा रही है। अब वह अपनी खुशिया परिवार या परिजनों में नहीं बल्कि अधिक सुख साधन जुटा कर अपनी खुशिया ढूंढता है, और संयुक्त परिवार के बिखरने का कारण बन रहा है। एकल परिवार में रहते हुए मानव भावनात्मक रूप से विकलांग होता जा रहा है। जिम्मेदारियों का बोझ, और बेपनाह तनाव सहन करना पड़ता है। परन्तु दूसरी तरफ उसके सुविधा संपन्न और आत्म विश्वास बढ़ जाने के कारण उसके भावी विकास का रास्ता खुलता है।

यद्यपि अनेक मजबूरियों के चलते हो रहे संयुक्त परिवारों के बिखराव के वर्तमान दौर में भी संयुक्त परिवारों का महत्त्व कम नहीं हुआ है। बल्कि उसका महत्व आज भी बना हुआ है। उसके महत्त्व को एकल परिवार में रह रहे लोग अधिक अच्छे से समझ पाते हैं। उन्हें संयुक्त परिवार के फायेदे नजर आते हैं। क्योंकि किसी भी वस्तु का महत्त्व उसके अभाव को झेलने वाले व्यक्ति अधिक अच्छे से समझ सकते हैं।

अब संयुक्त परिवारों के लाभों पर भी एक नजर डाल लेते हैं।

सुरक्षा और स्वास्थ्य

परिवार के प्रत्येक सदस्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी सभी परिजन मिलजुल कर निभाते हैं। अतः किसी भी सदस्य की स्वास्थ्य समस्या, सुरक्षा समस्या, आर्थिक समस्या पूरे परिवार की होती है। कोई भी अनापेक्षित रूप से आयी परेशानी सहजता से सुलझा ली जाती है। जैसे यदि कोई गंभीर बीमारी से जूझता है तो भी परिवार के सब सदस्य अपने सहयोग से उसको बीमारी से निजात दिलाने में मदद करते है उसे कोई आर्थिक समस्या या रोजगार की समस्या आड़े नहीं आती। बुजुर्गों की जीवन संध्या भी सहजता से बीतती है। ऐसे ही गाँव में या मोहल्ले में किसी को उनसे पंगा लेने की हिम्मत नहीं होती संगठित होने के कारण पूर्णतयः सुरक्षा मिलती है,व्यक्ति हर प्रकार के तनाव से मुक्त रहता है। विभिन्न कार्यों का विभाजन ;-

परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण कार्यों का विभाजन आसान हो जाता है। प्रत्येक सदस्य के हिस्से में आने वाले कार्य को वह अधिक क्षमता से कर पाता है। और अन्य जिम्मेदारियों से भी मुक्त रहता है। अतः तनाव मुक्त हो कर कार्य करने में अधिक ख़ुशी मिलती है। उसकी कार्य क्षमता अधिक होने से कारोबार अधिक उन्नत होता है। परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ती अपेक्षाकृत अधिक हो सकती है और जीवन उल्लास पूर्ण व्यतीत होता है।


भावी पीढ़ी का समुचित विकास

संयुक्त परिवार में बच्चों के लिए सर्वाधिक सुरक्षित और उचित शारीरिक एवं चारित्रिक विकास का अवसर प्राप्त होता है। बच्चे की इच्छाओं और आवश्यकताओं का अधिक ध्यान रखा जा सकता है। उसे अन्य बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता है। माता पिता के साथ साथ अन्य परिजनों विशेष तौर पर दादा, दादी का प्यार भी मिलता है। जबकि एकाकी परिवार में कभी कभी तो माता पिता का प्यार भी कम ही मिल पाता है यदि दोनों ही कामकाजी हैं। दादा, दादी से प्यार के साथ ज्ञान, अनुभव भरपूर मिलता है। उनके साथ खेलने, समय बिताने से मनोरंजन भी होता है उन्हें संस्कारवान बनाना, चरित्रवान बनाना, एवं हृष्ट-पुष्ट बनाने में अनेक परिजनों का सहयोग प्राप्त होता है। joएकाकी परिवार में संभव नहीं हो पाता।

संयुक्त परिवार में रहकर कुल व्यय कम

बाजार का नियम है की यदि कोई वस्तु अधिक परिमाण में खरीदी जाती है तो उसके लिए कम कीमत चुकानी पड़ती है। अर्थात संयुक्त रहने के कारण कोई भी वस्तु अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में खरीदनी होती है अतः बड़ी मात्रा में वस्तुओं को खरीदना सस्ता पड़ता है। दूसरी बात अलग अलग रहने से अनेक वस्तुएं अलग अलग खरीदनी पड़ती है जबकि संयुक्त रहने पर कम वस्तु लेकर काम चल जाता है। उदाहरण के तौर पर एक परिवार तीन एकल परिवारों के रूप में रहता है उन्हें तीन मकान, तीन कार या तीन स्कूटर, तीन टेलीविजन, और तीन फ्रिज, इत्यादि प्रत्येक वस्तु अलग अलग खरीदनी होगी। परन्तु वे यदि एक साथ रहते हैं उन्हें कम मात्रा में वस्तुएं खरीद कर धन की बचत की जा सकती है। जैसे तीन स्कूटर के स्थान पर एक कार, एक स्कूटर से कम चल सकता है, तीन फ्रिज के स्थान पर एक बड़ा फ्रिज और एक A.C. लिया जा सकता है इसी प्रकार तीन मकानों के साथ पर एक पूर्णतया सुसज्जित बड़ा सा बंगला लिया जा सकता है। टेलीफ़ोन, बिजली, केबिल के अलग अलग खर्च के स्थान पर बचे धन से कार व A.C. मेंटेनेंस का खर्च निकल सकता है। इस प्रकार से उतने ही बजट में अधिक उच्च जीवन शैली के साथ जीवन यापन किया जा सकता है।

भावनात्मक सहयोग

किसी विपत्ति के समय, परिवार के किसी सदस्य के गंभीर रूप से बीमार होने पर, पूरे परिवार के सहयोग से आसानी से पार पाया जा सकता है। जीवन के सभी कष्ट सब के सहयोग से बिना किसी को विचलित किये दूर हो जाते हैं। कभी भी आर्थिक समस्या या रोजगार चले जाने की समस्या उत्पन्न नहीं होती क्योंकि एक सदस्य की अनुपस्थिति में अन्य परिजन कारोबार को देख लेते हैं।

चरित्र निर्माण में सहयोग

संयुक्त परिवार में सभी सदस्य एक दूसरे के आचार व्यव्हार पर निरंतर निगरानी बनाय रखते हैं, किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगा रहता है। अर्थात प्रत्येक सदस्य चरित्रवान बना रहता है। किसी समस्या के समय सभी परिजन उसका साथ देते हैं और सामूहिक दबाव भी पड़ता है कोई भी सदस्य असामाजिक कार्य नहीं कर पाता, बुजुर्गों के भय के कारण शराब जुआ या अन्य कोई नशा जैसी बुराइयों से बचा रहता है। बुजुर्गो का संरक्षण परिवार के लोगों को चारित्रिक पतन से बचाए रखता है। और बुजुर्गो को अपने परिवार के युवा सदस्यों का सहयोग होने के कारण कोई अवन्छानिये व्यक्ति उनकी अशक्तता का लाभ उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता। उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है की संयुक्त परिवार की अपनी गरिमा, अपना ही महत्त्व होता है


युवा वर्ग का नजरिया अपने बुजुर्गों के प्रति

साधारणतयः परिवार में युवा पुरुष परिवार की आये का स्रोत होता है, जिसके द्वारा अर्जित धन से वह अपने बीबी बच्चों के साथ घर के बुजुर्गों के भरण पोषण की जिम्मेदारी भी उठाता है। इसलिए उसका नजरिया भी महत्वपूर्ण होता है। वह अपने बुजुर्गों के प्रति क्या विचार रखता है? उन्हें कितना सम्मान देना चाहता है,वह अपने बीबी बच्चों और बुजुर्गों को कितना समय दे पाने में समर्थ है,और क्यों?वह अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति क्या नजरिया रखता है ?वह नए ज़माने को किस नजरिये से देख रहा है?क्योंकि वर्तमान बुजुर्ग जब युवा थे उस समय और आज की जीवन शैली और सोच में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुका है।

आज का युवा अपने बचपन से ही दुनिया की चकाचौंध से प्रभावित है। उसे बचपन से ही कलर टी। वी। मोबाइल, कार, स्कूटर,कंप्यूटर, फ्रिज जैसी सुविधाओं को देखा है,जाना है। जिसकी कल्पना भी आज का बुजुर्ग अपने बचपन में नहीं कर सकता था। जो कुछ सुविधाएँ उस समय थी भी तो उन्हें मात्र एक प्रतिशत धनवान लोग ही जुटा पाते थे। आज इन सभी आधुनिक सुविधाओं को जुटाना प्रत्येक युवा के लिए गरिमा का प्रश्न बन चुका है। प्रत्येक युवा का स्वप्न होता है की, वह अपने जीवन में सभी सुख सुविधाओं से सुसज्जित शानदार भवन का मालिक हो। प्रत्येक युवा की इस महत्वाकांक्षा के कारण ही प्रत्येक क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न हुई है। अब वह चाहे शिक्षा पाने के लिए स्कूल या कालेज में प्रवेश का प्रश्न हो या नौकरी पाने के लिए मारा मारी हो। रोजगार पाने के लिए व्यापार, व्यवसाय की प्रतिस्पर्द्धा हो या अपने रोजगार को उच्चतम शिखर पर ले जाने की होड़ हो या फिर अपनी नौकरी में उन्नति पाने के अवसरों की चुनौती हो। प्रत्येक युवा की आकांक्षा उसकी शैक्षिक योग्यता एवं रोजगार में सफलता पर निर्भर करती है यह संभव नहीं है की प्रत्येक युवा सफलता के शीर्ष को प्राप्त कर सके परन्तु यदि युवा ने अपने विद्यार्थी जीवन में भले ही माध्यम स्तर तक सफलता पाई हो, परन्तु चरित्र को विचलित होने से बचा लिया है, तो अवश्य ही दुनिया की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है,चाहे वे उच्चतम गुणवत्ता वाली न हों। और वह एक सम्मान पूर्वक जीवन जी पाता है।

सफलता,असफलता प्राप्त करने में, या चरित्र का निर्माण करने में अभिभावक और माता पिता के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। यदि सफलता का श्रेय माता पिता को मिलता है तो उसके चारित्रिक पतन या उसके व्यक्तित्व विकास के अवरुद्ध होने के लिए भी माता पिता की लापरवाही, उचित मार्गदर्शन दे पाने की क्षमता का अभाव, जिम्मेदार होती है। जबकि युवा वर्ग कुछ भिन्न प्रकार से अपनी सोच रखता है। वह सफलता का श्रेय सिर्फ अपनी मेहनत और लगन को देता है और असफलता के लिए बुजुर्गो को दोषी ठहराता है।

आज के युवा के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में विद्यमान मूर्ती की भांति होता है, जिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी,कपडा और दवा दारू की आवश्यकता होती है। उसके नजरिये के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके हैं। उनकी इच्छाएं, भावनाएं, आवश्यकताएं सीमित हो गयी हैं। उन्हें सिर्फ मौत की प्रतीक्षा है। अब हमारी जीने की बारी है। जबकि वर्तमान का बुजुर्ग एक अर्धशतक वर्ष पहले के मुकाबले अधिक शिक्षित है। ,स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर है,और मानसिक स्तर भी अधिक अनुभव के कारण अपेक्षाकृत ऊंचा है। (अधिक पढ़े लिखे व्यक्ति का अनुभव भी अधिक समृद्ध होता है) अतः वह अपने जीवन के अंतिम प्रहार को प्रतिष्ठा से जीने की लालसा रखता है,वह वृद्धावस्था को अपने जीवन की दूसरी पारी के रूप में देखता है, जिसमे उस पर कोई जिम्मदारियों का बोझ नहीं होता। और अपने शौक पूरे करने के अवसर के रूप में देखना चाहता है। वह निष्क्रिय न बैठ कर अपनी मन पसंद के कार्य को करने की इच्छा रखता है,चाहे उससे आमदनी हो या न हो। यद्यपि हमारे देश में रोजगार की समस्या होने के कारण युवाओं के लिए रोजगार का अभाव बना रहता है,एक बुजुर्ग के लिए रोजगार के अवसर तो न के बराबर ही रहते हैं। और अधिकतर बुजुर्ग समाज के लिए बोझ बन जाते हैं। उनके ज्ञान,और अनुभव का लाभ देश को नहीं मिल पाता। कभी कभी उनकी इच्छाएं,आकांक्षाएं, अवसाद का रूप भी ले लेती हैं। क्योंकि पराधीन हो कर रहना या निष्क्रिय बन कर जीना उनके लिए परेशानी का कारण बनता है।

आज का युवा अपने बुजुर्ग के तानाशाही व्यक्तित्व के आगे झुक नहीं सकता। सिर्फ बुजुर्ग होने के कारण उसकी अतार्किक बातों को स्वीकार कर लेना उसके लिए असहनीय होता है। परन्तु यह बात बुजुर्गों के लिए कष्ट साध्य होती है। क्योंकि उन्होंने अपने बुजुर्गों को शर्तों के आधार पर सम्मान नहीं दिया था,और न ही उनकी बातों को तर्क की कसौटी पर तौलने का प्रयास किया था। उनके द्वारा बताई गयी परम्पराओं को निभाने में कभी आनाकानी नहीं की थी। उन्हें आज की पीढ़ी का व्यव्हार उद्दंडता प्रतीत होता है। समाज में आ रहे बदलाव उन्हें विचलित करते हैं।

क्या सोचता है आपका पुत्र, क्या चाहता है आपका पुत्र, वह और उसका परिवार आपसे क्या अपेक्षाएं रखता है? इन सभी बातों पर प्रत्येक बुजुर्ग को ध्यान देना आवश्यक है। आज के भौतिकवादी युग में यह संभव नहीं है की अपने पुत्र को आप उसके कर्तव्यों की लिस्ट थमाते रहें और आप निष्क्रिय होकर उसका लाभ उठाते रहें। आपका पुत्र भी चाहता है आप उसे घरेलु वस्तुओं की खरीदारी में यथा संभव मदद करें,उसके बच्चों को प्यार दुलार दें, उनके साथ खेल कर उनका मनोरंजन भी करें,बच्चों को स्कूल से लाने और ले जाने में सहायक सिद्ध हों,बच्चों के दुःख तकलीफ में आवश्यक भागीदार बने, बुजुर्ग महिलाएं गृह कार्यों और रसोई के कार्यों में यथा संभव हाथ बंटाएं,बच्चों को पढाने में योग्यतानुसार सहायता करें,परिवार पर विपत्ति के समय उचित सलाह मशवरा देकर लौह स्तंभ की भांति साबित हों। बच्चों अर्थात युवा संतान द्वारा उपरोक्त अपेक्षाएं करना कुछ गलत भी नहीं है, उनकी अपेक्षाओं पर खरा साबित होने पर परिवार में बुजुर्ग का सम्मान बढ़ जाता है, परिवार में उसकी उपस्थिति उपयोगी लगती है। साथ ही बुजुर्ग को इस प्रकार के कार्य करके उसे खाली समय की पीड़ा से मुक्ति मिलती है,उसे आत्मसंतोष मिलता है, वह आत्मसम्मान से ओत प्रोत रहता है। उसे स्वयं को परिवार पर बोझ होने का बोध नहीं होता।

कुछ विचारणीय प्रश्न

“क्या हम अपने बुजुर्गों को सहेज कर नहीं रख सकते? क्या वे हमारे मार्ग दर्शक नहीं बन सकते?”

“वर्तमान में युवावस्था के प्रत्येक व्यक्ति को अहसास होना चाहिए की कल वे भी आज के प्रौढों के स्थान पर खड़े होंगे”

बुजुर्गो का नजरिया अपनी संतान के प्रति

अक्सर देखा गया है की बुजुर्गों का अपने बच्चों के प्रति नकारात्मक नजरिया उनकी समस्याओं का कारण बनता है। वे अपनी संतान को अपने अहसानों के लिए कर्जदार मानते हैं। उनकी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपनी संतान को बचपन से लेकर युवावस्था तक लालन पालन करने में अनेक प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ा,जिसके लिए उन्हें अपने खर्चे काट कर उनकी सुविधाओं का ध्यान रखा, उनकी आवश्यकताओं के लिए अपनी क्षमता से अधिक प्रयास किये। ताकि भविष्य में ये बच्चे हमारे बुढ़ापे का सहारा बने। जब आज वे स्वयं कमाई करने लगे हैं तो उन्हें सिर्फ हमारे लिए सोचना चाहिए, हमारी सेवा करनी चाहिए। कभी कभी तो बुजुर्ग लोग संतान को जड़ खरीद गुलाम के रूप में देखते हैं।

बुजुर्ग लोग दुनिया में आ रहे सामाजिक बदलाव को अनदेखा कर युवा पीढ़ी के परंपरा विरोधी व्यव्हार से क्षुब्ध रहते हैं। उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी संतान को दोषी मानते हैं। वे उनकी तर्क पूर्ण बातों को बुजुर्गों का अपमान मानते हैं। वे युवा पीढ़ी की बदली जीवन शैली से व्यथित होते हैं। नयी जीवन शैली की आलोचना करते हैं। क्योंकि आज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों का सम्मान तो करना चाहती है या करती है परन्तु चापलूसी के विरुद्ध है। परन्तु बुजुर्ग उनके बदल रहे व्यव्हार को अपने निरादर के रूप में देखते हैं। बुजुर्गो के अनुसार उनकी संतान को परंपरागत तरीके से अपने माता पिता की सेवा करनी चाहिए, नित्य उनके पैर दबाने चाहियें उनकी तबियत बिगड़ने पर हमारी मिजाजपुर्सी को प्राथमिकता पर रखना चाहिए। उन्हें सब काम धंधे छोड़ कर उनकी सेवा में लग जाना चाहिए और यही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। यही संतान का कर्तव्य होता है। उनके अनुसार संतान की व्यक्तिगत जिन्दगी, उसकी अपनी खुशियाँ, उसका अपना रोजगार, उसका अपना परिवार कोई मायेने नहीं रखता। और जब संतान उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो वे उन्हें अहसान फरामोश ठहराते हैं।

बुजुर्गो के अनुसार आज की नयी पीढ़ी अधिक स्वछन्द और अनुशासन हीन हो गयी है। वह पहनावे के नाम पर अर्ध नग्न कपडे पहनती है, उसके परिधान अश्लील हो गए हैं,देर से उठना, देर से सोना, जंक फ़ूड खाना इत्यादि सब कुछ अप्राकृतिक हो गया है। ऐसे सभी जीवन शैली के बदलावों से पुरानी पीढ़ी खफा रहती है,आक्रोशित रहती है,और जब वे उन्हें बदल पाने में असफल रहते है तो कुंठा के शिकार होते हैं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है इस पर किसी का बस नहीं चलता। प्रत्येक बदलाव से जहाँ कुछ सुविधाएँ जन्म लेती है तो कुछ बुराईयां (बुजुर्गो के अनुसार)भी पैदा होती हैं। और होने वाले परिवर्तनों को कोई नहीं रोक सकता। अतः नए बदलावों को स्वीकार कर ही नयी पीढ़ी से सामंजस्य बनाया जा सकता है यह स्वीकृति ही बुजुर्गो के हित में है।

कभी कभी घर के बुजुर्ग व्यक्ति अपनी संतान के मन में उनके लिए सम्मान को, अपनी मर्जी थोपने के लिए इस्तेमाल करते हैं उन्हें भावनात्मक रूप से ब्लेक मेल करते हैं। इस प्रकार से यदि कोई बुजुर्ग अपने पुत्र या पुत्रवधू को अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाते हैं,जैसे उन्हें शहर से दूर कही रोजगार के लिए नहीं जाना है या विदेश नहीं जाना, (चाहे उन्हें मिला जॉब का आमंत्रण ठुकराना पड़े) वर्ना वे उसे कभी माफ़ नहीं करेंगे, या वे अनशन कर देंगे इत्यादि इत्यादि। इस प्रकार से वे अपनी संतान के भविष्य के साथ तो खिलवाड करते ही हैं, उनके मन में अपने लिए सम्मान भी कम कर देते हैं। और उपेक्षा के शिकार होने लगते हैं। अतः प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने हित से अधिक संतान के हित के बारे में सोचें ताकि उनके भविष्य को कोई नुकसान न हो या कम से कम हो।

अनेक परिवारों में देखा गया है की माँ ने अपना पूरा जीवन विधवा या परित्यक्ता होकर भी अनेक कष्ट उठा कर अपने परिवार का पालन पोषण किया होता है, या फिर पिता ने बिना पत्नी के अर्थात बच्चो की माँ के अभाव में अपने बच्चों को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर बड़ा किया होता है,परिवार में पिता की विधवा बहन रहती है जिसे पारिवारिक सुख नसीब नहीं हुआ, ऐसे परिवारों में जब बच्चे बड़े होकर अपने जीवन साथी के साथ सुखी पारिवारिक जीवन बिताना शुरू करते हैं है तो घर के बड़ों को सहन नहीं होता वे असहज हो जाते हैं। और पुरानी बातों को याद कर परिवार के वातावरण को बोझिल बना देते हैं। कभी कभी तनाव पूर्ण स्थिति भी बन जाती है। क्योंकि वे अपने परिवार के नवयुवक को अपनी पत्नी के साथ हंसी मजाक करते देख खीज का अनुभव करते हैं। जो उनके व्यव्हार से भी स्पष्ट होता रहता है। परन्तु अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं से संतान को आहत करना कितना उचित है? अपनी खीज व्यक्त कर अथवा तनाव पूर्ण वातावरण दे कर किसका भला हो सकता है? ऐसा व्यव्हार शायद आपको नयी पीढ़ी से अलग थलग कर दे। इस सन्दर्भ में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आपके हित में होगा। बल्कि आपको खुश होना चाहिय की आप की मेहनत और तपस्या का ही तो फल है,जो आज आपके बच्चों के जीवन में खुशियाँ आ पायीं। बच्चों की खुशियाँ, उनकी किलकारियां,आपकी ही महनत का परिणाम है। अतः उनके साथ खुश होना आपका सम्मान बढ़ाएगा। वैसे भी उनकी खुशियों के लिए ही तो आपने अपने जीवन साथी के न होते हुए भी अनेक कष्ट उठा कर उनको यहाँ तक ला पाए और बच्चे को अपने जीवन को हंसी खुशी जीने लायक बन पाए। अपने जीवन के दुखद क्षणों को भूलकर परिवार की खुशियों में अपना योगदान दें और वातावरण को प्रफुल्लित बनायें, उससे ही आपकी संतान के मन में आपके लिए श्रृद्धा भाव जागेगा। और हमेशा यही कामना करें की जैसा कष्टदायक जीवन अपने जिया है आपके बच्चों को उसकी परछाई भी न पड़े। उनके जीवन में दुनिया भर की खुशियाँ सदैव बनी रहें। वे समाज में सम्मान पूर्वक जियें और निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढते रहें। आपका अपने बच्चों के प्रति सकारात्मक नजरिया ही परिवार को प्रफुल्लित करेगा, और आपका शेष जीवन सुखद, शांति पूर्ण, एवं सम्मानजनक व्यतीत होगा।