बिखरने से पहले / शोभना 'श्याम'
"लो, फिर चले आ रहे है तुम्हारे पापा, देखते है आज क्या लेकर आते है, फूल, सीडी या फिर कोई फरमाइश" बालकोनी में चाय पीते शिरीष ने चुटकी ली। "
"तुम्हारे पेट में क्यों दर्द होता है वह जो भी लाते है मेरी सास के लिए ही तो लाते है।" मानसी चिढ़ कर बोली।
"अरे मेरी माँ पर डोरे डाल रहे है इस उम्र में, ठरकी कहीं के ।"
"शर्म करो शिरीष, इतनी घटिया बात तुम्हे शोभा नहीं देती"
"अच्छा? और तुम्हारे पापा को मेरी विधवा माँ से नज़दीकियाँ बढ़ाना शोभा देता है?"
"शिरीष इतने पढ़े लिखे होकर भी इतना संकुचित दृष्टि कोण है तुम्हारा? स्त्री-पुरुष की दोस्ती में बस एक ही कोण नज़र आता है तुम्हें? माना मेरी मम्मी आज शरीर से उनके साथ नहीं है पर उनके दिल में मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता। फ़िक्र मत करो, तुम्हारी माँ...सुरक्षित हैं"-मानसी ने व्यंग कसा।
"ओहो तो एक दिल में है और दूसरी नज़रों के सामने होनी चाहिए, हैं न"
" शिरीष, काश तुमने अपनी ही माँ के जीवन के खालीपन को महसूस किया होता, उन्होंने बताया था कैसे तुम्हारे बाबूजी ने उनके संगीत के शौक को गृहस्थी के नाम पर कुचल दिया था, माँ ने भी हमारे समाज की अन्य हज़ारों स्त्रियों की तरह अपने सपनों को रसोई, घर-गृहस्थी और बाबूजी के संग-साथ पर न्योछावर कर दिया था। अब एक ओर तो वह गृहस्थी की जिम्मेदारियों से निवृत हो गयी थी और उधर बाबूजी भी चले गए। ऐसे में संगीत सुनने के शौक़ीन मेरे पापा उनके जीवन के रिक्त स्थान को उन्ही के पीछे छूट गए संगीत से भरने की कोशिश कर रहे हैं तो तुम्हें तो खुश होना चाहिए। बाबूजी के स्वर्गवास के बाद गुमसुम रहने वाली, खाना पीना लगभग छोड़ चुकी माँ वापस जिदगी के पास आ रही हैं। आज उनके पहलु में मेरे पापा नहीं, उन्ही का कबाड़खाने से निकाला गया तानपुरा हैं। मुरझाने को तैयार दो फूल बस कुछ दिन और एक दूसरे की बिखरती पंखुड़ियों को संभालने की कोशिश कर रहे हैं शिरीष। मानसी का स्वर भीग गया था शिरीष निरुत्तर था।
ड्राइंग रूम से तानपुरे के साथ माँ के गाने की आवाज आ रही थी-"बोले रे पपीहरा ।"