बिछड़ गया रे दो हंसों का जोड़ा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 24 जुलाई 2020
दिलीप कुमार अपनी गुमशुदा याद के हिरण को वक्त की झाड़ियों के पीछे आंख से ओझल होते हुए महसूस कर रहे हैं। उनकी सह-सितारा वैजयंती माला अमेरिका में अपने नाती-पोतों की सेवा से स्वस्थ हो रही हैं। अतीत की यादें उन्हें संबल देती हैं।
उम्रदराज सितारे व आम आदमी भी यादों की माला हाथ में घुमाते हुए अपनी पीड़ा को प्रार्थना के स्तर पर पहुंचा देते हैं। ‘मरा-मरा’ कहते हुए व्यक्ति ‘राम-राम ‘कहने लगता है। कर्मों का हिसाब रखने वाले चित्रगुप्त स्वर्ग में बैठे दुविधा में पड़ जाते हैं कि ‘मरा-मरा’ को ‘राम-राम ‘कहने को किस खाते में जमा करें?
कुछ वर्ष पूर्व ही दिलीप कुमार की स्मृति जा चुकी है। अब उनके अवचेतन में स्थित डार्क रूम में वे किसी भी फोटो को जीवन की घटनाओं के रसायन में विकसित करते हैं, तो हर पॉजिटिव फोटो जाने कैसे मधुबाला का बन जाता है। मानव मस्तिष्क की क्षमताओं को जाना नहीं जा सकता। अपने गणित ज्ञान के लिए प्रसिद्ध शकुंतला देवी का जवाब, कंप्यूटर द्वारा दिए जवाब से न मिलने पर भी वे अपने द्वारा दिए उत्तर पर डटी रहीं, बाद में ज्ञात हुआ कि उनके द्वारा दिया उत्तर ही सही प्रमाणित हुआ। इसी तरह ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ में झोपड़-पट्टी में जन्में अनपढ़ बालक को गलत उत्तर देने के लिए प्रेरित करने वाला कार्यक्रम संचालक भी हैरान था कि बालक मार्ग से डिगा नहीं और उसने अपने जीवन के अनुभव से प्राप्त उत्तर ही दिया, जो सही था। संचालक की उससे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। उच्च वर्ग यह चाहता ही नहीं कि कोई गरीब धन कमाकर उनकी बिरादरी में शामिल हो। खबर यह है कि मुंबई की झोपड़-पट्टी के लोग कोरोना से बेहतर ढंग से लड़ रहे हैं।
मिट्टी पकड़ जुझारूपन ही उन्हें असमानता आधारित निर्मम व्यवस्था में सदियों से कायम रखे है। मूंगफली चबाने वाला बादाम खाने वाले पर भारी पड़ता है। दिलीप कुमार तीन कम सौ वर्ष के हो रहे हैं और उनकी धन्नो गंगा जमना, वैजयंती भी चार कम नब्बे की हो रही हैं। संभवत: वे अपनी यादों में मिलते होंगे। गुजरे हुए दिन गुजर भी बार-बार लौटकर आते हैं, मानो अवचेतन के खूंटे से बंधे हों। यह इश्क कराता है। आनंद बक्षी रचित ‘ताल’ का गीत, ‘डोर ये कच्ची डोर, डोर ये पक्की, गुड़ से मीठा इश्क-इश्क, इमली से खट्टा इश्क-इश्क, इश्क बिना क्या जीना यारों, इश्क बिना क्या मरना।’ वर्तमान में कलाकार जिम जाते हैं, प्रोटीन पीते हैं तैराकी तथा घुड़सवारी सीखते हैं। सभी जानते हैं कि अभिनय कला सीखना कतई जरूरी नहीं। यह हमारे दौर की विशेषता है कि अपने कार्य क्षेत्र में गुणवत्ता अर्जित करना जरूरी नहीं है। हम सफलता के पीछे भागते हुए स्वयं को योग्य भी घोषित कर देते हैं। मार्लिन ब्रेंडो मेथड स्कूल के कलाकार थे। अभिनय के इस स्कूल में भूमिका के लिए बार-बार रिहर्सल की जाती है। पात्र केे अवचेतन में पैठना होता है। दिलीप भी इसी स्कूल के कलाकार रहे। रियाज करते रहना ही उनकी आदत बन गई। एक फिल्म में पात्र के सितार बजाने के दृश्य के लिए दिलीप ने महीनों सितार बजाना सीखा। मोतीलाल चंद्रमोहन की परंपरा में संजीव कुमार स्वाभाविक अदाकारी करते रहे। उन्हें रिहर्सल पसंद नहीं थी। ज्ञातव्य है कि दिलीप के पिता अभिनय को भांडगिरी कहते थे। वे पुत्र को मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के पास ले गए और सारी बात बताकर मौलाना से कहा कि इस पेशावरी पठान को समझाएं की भांडगिरी न करे। मौलाना ने दिलीप से कहा कि जो भी काम करो, इबादत की तरह करना।
वैजयंती माला धन्नो अभिनीत करने के बाद फिल्म ‘संगम’ में राधा बनीं। देव आनंद के साथ ‘ज्वैल थीफ’ में काम किया और व्याकरण में प्रवीण फिल्मकार विजय आनंद ने ‘ज्वैल थीफ’ का एक लंबा नृत्य गीत एक ही शॉट में शूट किया। यह दुरूह कार्य वैजयंतीमाला जैसी निष्णांत कलाकार ही कर सकती थीं। याद आता है कि दिलीप और वैजयंती माला ने जन्म-जन्मांतर की प्रेम कथा ‘मधुमति’ में अभिनय किया है।