बिना टीन का टीन-बाजार चौक, दुमका / कमल

Gadya Kosh से
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टीन-बाजार चौक पर खड़े हो कर यदि आप टीन-छत या टीन-दीवार वाली दुकान अथवा मकान की तलाश में हैं तो भयंकर भूल कर रहे हैं। कालांतर में भले ही यहां टीन की छतें या दीवारें रही हो मगर अब सब इमारतें टीन विहीन हो चुकी हैं। डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत में जिस प्रकार विकास-क्रम के दौरान इंसानों की बंदरों वाली पूंछ गायब हो गई है, संभवतः कुछ-कुछ उसी तर्ज पर विकास-क्रम के दौरान आज टीन-बाजार से टीन गुम हो चुकी है और टीन-बाजार चैक बिना टीन का हो कर रह गया है। जबकि मैं मूर्ख यहां पहुंचने के बाद से ही बस इसके नाम को आधार बना कर टीन की खोज में इधर-उधर अपनी आँखें खराब कर रहा हूं। जबकि अब यहां कहीं टीन नहीं मिलेगी।

हां तो मेरे समर्थ और दीन-हीन दोनों ही आकार-प्रकार के बंधुओं! मेरे साथ-साथ आप सब भी सन् दो हजार के टपकने, मेरा मतलब है अंत से पहले, यानि कि पंद्रह नवंबर सन् दो हजार को बने नये-नवेले राज्य झारखंड की उप-राजधानी, दुमका के चांदनी चौक, ओ... कलम फिर फिसल गई, ठीक यहां की राजनीतिक-सत्ता की तरह जो कभी इसके तो कभी उसके हाथ में फिसलती रहती है फलतः छः साल में पांच मुख्यमंत्री बन चुके हैं, मेरा मतलब है कि टीन-बाजार चौक पर खड़े हैं।

वैसे दुमका के उप-राजधानी बनने का किस्सा भी कुछ कम मजेदार नहीं है। अविभाजित बिहार में राँची को उप-राजधानी का दर्जा मिला हुआ था। आजादी के पहले साहब बहादुर लोग अपनी गर्मियां बिताने वहां जाया करते थे (कहीं ऐसा तो नहीं कि उप-राजधानी को राजधानी बनाने के लिए ही झारखंड का निर्माण हुआ हो, दुमका वासी खुश हो सकते हैं)। ...तो जब झारखंड बन गया और जोर-शोर से उप-राजधानी की तलाश प्रारंभ हुई, गोया उप-राजधानी न मिली तो झारखंड का बनना ही निरर्थक हो जाएगा, कोई आफत आ जाएगी, तब तथाकथित जन-प्रतिनिधियों को दूर-दराज का यह कस्बे-नुमा शहर बहुत पसंद आया।

वैसे भी दुमका और दुमका के टीन-बाजार चौक पहुंचना कोई हंसी-खेल नहीं है। नाम का कुछ ऐसा ही चक्कर ‘म्हारों चौक’ पर है जो बस नाम का ही चौक है। कुछ लोग गा कर कह सकते हैं कि ...नाम-वाम में क्या रखा है, दरअसल इसका सही नाम ‘म्हारों-ट्रैन्गल’, (गैर कानूनी ड्रग रूट वाला गोल्डेन ट्रैन्गल नहीं) होना चाहिए, क्योंकि देवघर (क्या कहा, आप देवघर यानि की बैद्यनाथ धाम को नहीं जानते ? अरे भई, वही प्रसिद्ध बैद्यनाथ धाम जहां हर सावन में देश-विदेश से कांवर ले कर शिवलिंग पर जल चढ़ाने भक्तजन जुटते हैं) से जो सड़क यहां आती है, वह त्रिभुज का एक कोना बनाती है। दूसरा कोना सड़क को भागलपुर ले जाता है (वही भागलपुर जहां के पुलिसिया तेजाब कांड पर फिल्म गंगा- जल बनी है) और तीसरा कोना आपको सीधे दुमका ले जाता है। तो इस तरह तीन सड़कों का मिलन-विन्दु चौक हुआ या त्रिभुज इस पहेली को फिलहाल यहीं छोडि़ए, हमें तो अपने बिना टीन के टीन बाजार चौक से मतलब है।

दुमका पहुंच गये हैं इसका सबसे पहला तब पता चलता है जब दूर से ही चौराहे के बीचो-बीच बने ऊँचे से टावर पर घडि़यां नजर आने लगती हैं। इसे दुधानी-चौक कहते हैं। यहां रुकना नहीं है, यदि रुकना होता तो संभव है दो कवियित्रियों, डॉ. संध्या गुप्ता और निर्मला पुतुल से मुलाकात हो जाती। परन्तु हमें तो दाहिनी तरफ से आगे बढ़ना है जहां गांधी मैदान पड़ता है। यहीं पास ही डंगालपाड़ा में कवि, अनुवादक अशोक सिंह रहते है। जिन्होंने संताली से हिन्दी में कई अनुवाद किये हैं । खासतौर पर उन्होंने निर्मला पुतुल की कविताओं के अनुवाद किये हैं और जम कर किये हैं। परन्तु हमें तो यहां भी नहीं रुकना। आगे बढ़ने पर राह में सिंधी चौक मिलेगा, जहां पास में ही एक और कवि विनय सौरभ का कार्यस्थल (कविताएं लिखने वाला नहीं उनकी नौकरी करने वाला कार्यालय) है, जहां कविताएं लिखने वाली अपनी कलम रगड़-रगड़ कर वे प्रतिमाह एक बार अपने वेतन के जिन्न को जगा लेते हैं और कई साहित्यकारों की तरह वह वाहियात काम करते रहते है जो उन्हें दाल.रोटी तो दे देता है लेकिन कविताएं रचने की कीमत वसूल लेने के बाद। कविताओं वाले लोग तो मिले मगर कोई कहानीकार अभी तक नहीं मिला। खैर इस परन्तुक को यहीं छोड़ कर आगे बढ़ते हैं। यहां से आगे बढ़ने पर जहां सबसे ज्यादा चहल-पहल भरा और हृष्ट-पुष्ट बाजार मिलता है, उसे ही टीन-बाजार चौक कहते है। जिस प्रकार मुंबई के चर्च गेट पर कोई चर्च नहीं है, वैसे ही टीन-बाजार चौक पर टिन का कुछ नहीं है। इसलिए टिन की खोज में भटकने की कोई जरूरत नहीं। तो साहबान, कद्रदान यही है झारखंड की उप राजधानी दुमका की वह शानदार जगह जहां के लिए मैं सुबह-सुबह निकला था। यहां नोट करना आवश्यक है कि यहां से गुजरे बिना न तो आप दुमका को जान सकते है न ही दुमका आपको जानेगा।

तो फिर कुल जमा यह कि टीन-बाजार चौक से बच के कहां जाओगे, मैंने चारों तरफ ध्यान से देखा, मेरा काम शुरू हो चुका है। मन में ख्याल आया, एक खूंटा ठीक टीन-बाजार चौक के बीचो-बीच गाड़ूं और उससे एक फर्लांग लंबी मजबूत रस्सी बांध लूं (मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे, तो फिर मेरी चाल देख ले....’ यह वो गाना है जिसे एक बार झारखंड की सरकार गिरने पर उसे समर्थन दे रहे मुख्य-दल के मुखिया ने गा कर सी.एम. बनने की अपनी छोटी सी आशा प्रकट की थी)।

‘काहे खूंटा गाडलियों गाड़लियो ?’ अपनी खेठी बोली में एक पतला-दुबला, सांवला आदमी मेरे पास आ कर खड़ा हो गया।

मैं बुरी तरह चैंका, गजब का जादुई यथार्थ मेरे सामने खड़ा मुझे टोक रहा था। इसे मेरे मन की बात का पता भला कैसे चला ? कहीं वह विगत सौ वर्षों का एकांतवास बिता कर तो यहां नहीं आया या ठीक यहीं से सौ वर्षों के एकांतवास पर तो नहीं निकलने वाला ? मैंने उसे ऊपर से नीचे तक बड़े ध्यान से देखा, उसमें कुछ अनोखा ढूंढने का प्रयास किया, लेकिन मुझे उसमें कुछ भी खास नजर न आया।

‘मैं खूंटा कहां गाड़ रहा हूं ? मेरे पास न तो कोई सब्बल है न ही कोई खूंटा, देख लो !’ मैंने अपने दोनों खाली हाथ फैलाते हुए उसे बताया, ‘ मैं तो एक लेखक हूं। मुझे टिन बाजार चौक देखना है। इसीलिए यहां आया हूं। मेरी कोई बुरी मंशा नहीं है।‘

‘लागो छो कि तों बाहर से आयलछी’’ लेखक होने की बात और मेरी अलग-सी बोली सुन कर उसने नरम स्वर में पूछा। लिखने-पढ़ने वालों के प्रति उसका नरम रवैया संभवतः संतालों में साहित्य के प्रति खास लगाव के कारण रहा हो। मेरी जानकारी के अनुसार संताल-साहित्य एकमात्र ऐसा साहित्य है जिसे रोमन, बांग्ला, ओडि़या, देवनागिरी और अब ओलिचिकि पांच-पांच लिपियां मिली हैं।

‘हाँ !’ मेरा जवाब सुन कर उसने चाय वाले की ओर इशारा किया।

‘पहले वहां से चाय पी लीजिए, तब बात बनेगी।‘

चाय वाले को देख कर जब तक मैं उसे भी अपने साथ चाय पीने को कहने के लिए उसकी तरफ मुड़ा, वह गायब हो चुका था। मैं अकेला ही चाय वाले की ओर बढ़ गया। अगर आपको चाय पीने के पहले पानी से गला तर करने की आदत है तो वह यहां भी पूरी होगी। बस जरा अलग अंदाज से। पानी भरा मग मुँह की सीध में सर से ऊपर ले जा कर निशाने से पानी की धार को मुँह में सीधे गिराना पड़ेगा। दुमका का बच्चा-बच्चा पानी पीने की इस कला में माहिर है। अगर आप इसमें माहिर नहीं हैं तो बस कुछ घूंट आपकी कमीज पर छलक जाएंगे। परन्तु चिन्ता की कोई बात नहीं, भला यह कोई ‘नौकर की कमीज’ है जो आप परेशान होइए ! लेकिन पानी छलकते ही आपको देख रहे लोग आसानी से समझ जाएंगे, आप दुमका में नये हैं! दुकान में चाय के लिए काँच के ग्लास भी रखे हुए हैं, मगर चाय पीने का असली मजा लेना है तो मिट्टी के भाड़ में ही पीजिएगा। लालू जी ने यूं ही नहीं इसे भरतीय रेल दिखा दी। तो चाय का बड़ा भाड़ दो रुपये और छोटा एक रुपये में (जी हां दुमका में अभी भी चाय एक और दो रुपये में मिलती है)। मेरा काम तो बड़े भाड़ से नीचे नहीं चलता। सुना है, चाय सबसे ज्यादा नफासत से चीनी और जापानी पीते हैं। लेकिन विश्वास कीजिए, टिन बाजार चौक में भी चाय पीने के ढंग कम नफासत भरे नहीं हैं। अगर जल्दी है तो छोटा भाड़ लीजिए, सट्ट-सट्ट दो तीन घूंट मारिए एक रुपये का सिक्का थमाइये और भाड़ फेंक कर वो जाइए।

लेकिन बच के, जरा बचके मेरी जान ! ये है दुमका, ये है दुमका, ये है दुमका मेरी जान !! भाड़ को इधर- उधर नहीं फेंकना। नाली में तो बिल्कुल नहीं, वह जाम हो जाएगी। अगर आपने मिट्टी का भाड़ नाली में फेंक दिया तो आस-पास खड़े लोगों से प्रवचन (बाबा वाला नहीं, पब्लिक वाला) सुनने के लिए तैयार हो जाईए और फिर जवाब ढूंढते रह जाओगे। क्योंकि भाड़ फेंकने के लिए वहीं पास में बांस की बड़ी सी टोकरी है, उसमें क्यों नहीं फेंका ? वैसे अगर आपको जल्दी न हो तो आराम से चाय का आर्डर दे खड़े हो जाइए। अमेरिका से लेकर झारखंड तक की राजनीति, सानिया की छोटी स्कर्ट से ढोनी के लंबे बालों तक की बातें, मूलवासी और मूलविहीन वासियों के खतियान आदि किसी भी तरह की गप्प आपके आस-पास अपनी जवानी दिखा रही होगी। जिसमे भी रुची हो उधर खिसक जाइये। क्योंकि तब तक चाय वाले का छोकरानुमा असिस्टेंट (मेरा मन कहता है उसे मैं खलासी कहूं क्योंकि जिस प्रकार खलासी के बिना गाड़ी ठीक से नहीं चल सकती, उसी प्रकार उस असिस्टेंट के बिना चाय-दुकान नहीं चल सकती) आपके पास पहुंच जाएगा। उसके बांये हाथ में एक के ऊपर एक रखे पांच-सात भाड़ और दांये हाथ में गर्म चाय का छोटा सा मग होगा। मग से ढाल कर वह आपको चाय का भाड़ पकड़ा देगा। अब मजे से चाय पीजिए और गर्मा-गर्म बहसों का आनंद लीजिए। चाय पीने के बाद अपनी अंगुलियों से मीठेपन की चिपक उतारने के लिए उंगलियां उसी चाय-असिस्टेंट की ओर दिखाइये, कुछ बोलना आवश्यक नहीं है। इस बार वह आ कर आपकी अंगुलियों पर पानी डाल जाएगा। इस प्रकार आपकी नफासत भरी चाय पीने की प्रक्रिया हुई न पूरी।

अब टिन बाजार चौक भरी-पूरी जवानी में आपके सामने है। चाय पीते हुए मेरे मन मैं आया कि उन दिनों यह सड़क भले ही इस रूप में न रही हो, मगर रास्ता तो यही था। जहां से अंग्रेजों और सूदखोरों के शोषण के खिलाफ संताल स्त्री, पुरुष निकले होंगे। जिन्होंने मोरगो मांझी, बीर सिंह मांझी, सिद्धू-कानू, चाँद-भैरव आदि वीरों और फूलो-झानों जैसी वीरांगनाओं (जो महिलाओं के खिलाफ संताल-समाज की तमाम वर्जनाओं यथा छप्पर छाना, तीर-धनुष चलाना, उस्तरे का उपयोग, हल चलाना, खेत को समतल करना, बरमा से छेद करना, कुल्हाड़ी चलाना, बंसी-काँटा से मछली पकड़ना, कपड़ा-खटिया आदि बुनना आदि को अंगूठा दिखा बाहर आयी होंगी) के नेतृत्व में भीषण संताल-विद्रोह किये।

इसी राह संताली राष्ट्रीयता का गीत बन चुकी रचना ‘देबोन तेंगोन आदिबली वीर’ के रचयिता संताली कविवर स्व. साधु रामचांद मुरमू आदि साहित्य-प्रेमी कभी गुजरे होंगे। मेरे मन में उन सब आजादी के दीवानों और साहित्यकारों के प्रति स्वतः ही श्रद्धा उभर आयी, मैंने मन ही मन उन्हें नमन किया।

टिन बाजार से बस स्टैंड जाने वाली दिशा में एक मिठाई दुकान और विद्यार्थी बुक्स तथा भारती बुक स्टोर के बाद धर्मस्थान है। जहां सवेरे से श्रद्धालुओं (स्त्रियों की ज्यादा) की भीड़ पहुंचने लगती है। कुछ मंदिर के बाहर वाले दुकानदारों से और कुछ भीतर वालों से बेल-पत्र, फूल, अगरबत्ती आदि पूजन सामग्री खरीदते हैं। पूजन सामग्री के रेट अलग-अलग तय होते हैं। हर पूजा का अपना फिक्ड रेट। इससे सटी हुई घड़ी-दिशा वाली (क्लॉक-वाइज़) दूसरी सड़क जो जी.पी. साह मार्केटिंग कंप्लेक्स की ओर जाती है उस पर बहुत भीड़ है। वहां जुटे लोगों को देख कर ही पता चल जाता है कि वे सब दिहाड़ी मजदूर हैं जो अपने दिन भर की मजदूरी के लिए वहां इकट्ठा हुए हैं। इन मजदूरों को धर्मस्थान वाले भक्तों से तथा धर्मस्थान वाले भक्तों को उन दिहाड़ी मजदूरों की उपस्थिति से कोई मतलब नहीं दिखता। दोनों ग्रुप एक दूसरे से निर्लिप्त भाव से रोज सुबह अपनी-अपनी जगहों पर बिना नागा, आ जुटते हैं।

क्लॉक-वाइज तीसरी सड़क (बस-स्टैंड वाली के ठीक सामने) भागलपुर को जाती है इसी कारण इसे ‘भागलपुर रोड दुमका’ कहते हैं। इस रोड के मुहाने पर फल वाले और प्रदीप चैरसिया पान दुकान की बगल में कुन्नन बैंड तथा भारत बैंड वाले हैं। दोनों बैंड-वालों ने अब तक न जाने कितने दुमका वासियों का बैंड बजा, उन्हें अपना यार बताते हुए ‘आज मेरे यार की शादी है...’ की धुन पर विवाह करवा कर उन्हें दोपाया से चैपाया (दो पत्नी के) बना डाला है। बैंड वालों के साथ ही लटक रहे फूलों के गुच्छे और मालाएं बता रही हैं कि दूल्हे के लिए कार हो या घोड़ी, विवाह के दिन उसे सजाने के लिए कहीं दूर नहीं जाना पड़ेगा। दुल्हन के जेवर बनवाने के लिए ज्वेलर्स भी बगल में ही है।

अब जरा-सा और दाहिने घसक जाएं। टिन बाजार चौक के बाकी बचे आधे हिस्से में तीन सड़कें निकलती हैं। जो इस चैक का असल आकर्षण बनाती हैं। पहली सीधे टिन बाजार के बीसेक फिट भीतर जा कर कर्पुरी ठाकुर की प्रतिमा के पास पहुंचा देगी। वहां शहर भर के लिए ज्यादातर संताल औरत-मर्द और कुछ गैर-संतालों द्वारा लायी गई हरी, ताजी सब्जियों का सुबह-शाम बाजार लगता है। इस पतली सी सड़क के दायें-बायें नाश्ते और खाने के होटल है। खाने के एक होटल में मटर-पनीर के नाम पर ऐसी सब्जी मिलती है जिसे सिर्फ होटल वाले के ही बताने पर ही आप जान पायेंगे कि वह मटर-पनीर की सब्जी है। हालाँकि दुमका में खाने के कुछ अच्छे होटल भी हैं लेकिन अभी वहां नहीं पहुंचा जा सकता। वे सब एक फर्लांग की सीमा से बाहर हैं। ... और हमारी सीमा एक फ़र्लांग की है । इसलिए खाना है तो यहीं खाइये वर्ना भूखे रहिये उनकी बला से।

बगल वाली दूसरी सड़क भी टिन बाजार के भीतर जाती है लेकिन फलों की दुकानों के बीच से हो कर, इसलिए हमेशा मीठे फलों की महक से महकती रहती है। नाश्ते का एक होटल इस पर भी है जहां गर्मा-गर्म जलेबियांए सिंघाड़े ;समोसेद्धए आलू.चाॅप और ष्घुघनी.मूढ़ीष् मिलेगी। दुमका में अगर ‘घूघनी-मूढ़ी’ नहीं खायी तो क्या खाया ? ‘ झाल-मूढ़ी’ तो बंगाल के बाहर भी कई जगहों पर मिल जाती हैए लेकिन दुमका की ऐसी ‘घूघनी-मूढ़ी’ कहीं और नहीं मिलने वाली। इसे बड़े खास तरीके से बनाया जाता है। मूढ़ी में सिंघाड़ा, समोसा, आलू.चाप, चने की घुघनी, पकौड़ी, कच्चे प्याज और कुतरी हुई हरी मिर्च डाल अच्छी तरह सान कर इसे बनाया जाता है।

आगे जा कर वह सड़क गली में बदलती हुई मीट, मुर्गा और मछली की दुकानों में फैल जाती है (मुर्गा जरूर खाइये, मगर ज़रा बर्ड-फ्लू से बच कर)।

वहां पर कुछ लोग काफी प्रसन्न नजर आये। लेकिन उनमें एक के चेहरे पर कुछ मायूसी सी दिखी। मैंने बढ़ कर जानना चाहा तो प्रसन्न दिख रहे लोगों ने बताया कि उस दिन वे सब बिना दुम के हो गये हैं। जबकि वह बेचारा अब भी दुम सहित है। आदमियों की दुम ? पहले तो मैं चैंका, फिर बात खुली तो सब साफ हुआ। दरअसल वे सब सरकारी कर्मचारी हैं। बाकि सब का स्थानांतरण दुमका से दूर अपनी इच्छित जगहों पर हो जाने के कारण वे सब प्रसन्न थे। जबकि उस एकमात्र उदास नजर आ रहे व्यक्ति को अपनी पोस्टिंग के अनुसार अभी और दो साल और दुमका में बने रहना होगा अर्थात् और दो साल और उसे दुम लगी रहेगी। दुमका नाम को भले ही उप-राजधानी बन गया हो लेकिन नागरिक सुविधाओं की कमी के कारण सरकारी कर्मचारी वहां रहना कम ही पसंद करते है। यहां से ट्रांस्फर हो जाने पर खुशी मनाते हुए कहते हैं कि वे दुम के बगैर हो गये हैं। जिनकी यहां पोस्टिंग होती है वे कहते हैं कि उनकी दुम लग गई।

मायूस चेहरे वाला बोला, ‘दुमका जैसी जगहों पर राजधानी और उप राजधानी का केवल नाम आता है। असल चमक-दमक और सुख-सुविधा तो दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में ही सिमटी रहती है।’

दूसरे ने उसकी बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘ ठीक बोलते हो यार, उप राजधानी बनने के बावजूद यह रहेगा वही वाला दुमका और हम सब यहां लगाते रहेंगे, पूर्ववत् ठुमका !’

उनका वह सारगर्भित वार्तालाप सुनने से पहले मैंने इस सफरनामे का शीर्षक टीन-बाजार चौक, दुमका उर्फ दास्ताने उप-राजधानी’ रखना सोचा था। लेकिन उनके ठुमका लगाने के अंदाज ने मेरे उस शीर्षक को एक ही झटके में नेस्तनाबूद कर दिया।

आखिरी और छठी सड़क पर स्थित ‘अम्बर वाइन शाप’ के भीतर रंग-बिरंगी बोतलों में सजी अंगूर की बेटी सच में सब को नीले, नीले अम्बर पर पहुंचाने का दावा करती लगी। कविवर बच्चन के शब्दों में ‘ वैर कराते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला’ । आवश्यकता बस जरा-सा गला तर कर माहौल नशीला बनाने की है। लेकिन मैं आज उसकी ओर नहीं बढ़ पा रहा हूं। न... न... कोई इतवार, बृहस्पत, सावन या नवरात्रि की बंदिश नहीं है। ना ही ‘गालिब छुटी शराब’ की सी मनाही। दरअसल मुझे तो चमचमाती बोतलों में मदमाती शराब से भरी उस दुकान से कहीं ज्यादा सामने फुटपाथ पर बैठी सांवली, सलोनी, मेहनती संताल औरतों के द्वारा बूट-झंगरी से निकाले हरे चनों की ताजगी अपनी ओर खींच रही हैं। बोतल बंद शराब तो कहीं भी मिल जाएगी। हाथों की मेहनत से निकाले हरे चनों की मिठास वाली वैसी ताजगी कहीं-कहीं ही मिलेगी । मैं पलट कर उसकी ओर बढ़ जाता हूं।

‘की रकम देइछी चना ठो ?’ एक खरीददार मोल-भाव कर रहा था।

‘बारह टका पाव।‘

‘बड़ी मंहगा बेचेइछी, तोरा सनी। दस टका दीभीं तों ?’

‘अच्छा ले।‘ बेचने वाली ने तराजू उठाते हुए कहा।

वहां खड़े होने का मुझे यह फायदा मिला कि बगैर मोल-भाव के ही मुझे भी दस टका में एक पाव चने मिल गये। गदराये मोटे-मोटे दानों वाले हरे चने वाकई बड़े ताजा और मीठे थे। मैं तृप्त हो गया।

यही है बिना टिन का टीन-बाजार चौक, दुमका। यहीं दुमका की सुबह होती है और यहीं शाम भी। कुछ इस तरह कि अगर इसे दुमका से हटा दिया जाए तो उप राजधानी, दुमका में रात-दिन होने का चक्कर ही खत्म हो जाए। दुमका की सारी चहल-पहल यही आ कर आकार लेती है, कुछ इस तरह कि अगर इसे निकाल दिया जाए तो दुमका बिल्कुल मौन हो जाएगा, इसकी हर धड़कन बंद हो जाएगी।

मैं एक तरफ खड़ा हो कर चने खाने लगा। अभी उनका स्वाद मुंह में घुल ही रहा था कि वही आदमी फिर मिला। वह वैसे ही अचानक प्रकट हुआ जैसे चाय की दुकान दिखा कर अचानक गायब हो गया था।

‘देख लिया टीन-बाजार चौक ?’ उसने पूछा।

‘हाँ !’ मैंने खुशी-खुशी उत्तर दिया।

‘ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं। ... क्योंकि दुमका आ कर भी तुम ‘ततलोई’, जहां राजगीर से भी ज्यादा गर्म पानी का कुंड है। ‘मलूटी’, जिसे आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया ने गुप्त काशी का नाम दिया है और जहां पौराणिक गांव में आज भी उस समय के वंशज रहते हैं। ‘मसानजोर डेम’, जहां 23 अक्तूबर 1990 की सुबह सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ-यात्रा को बलपूर्वक बीच में ही रोक, उस रथ-यात्रा के हीरो को गेस्ट हाऊस के कमरा नंबर तीन और चार में आराम दिया गया था। ‘तारा पीठ’ का प्रसिद्ध मां तारा का मंदिर यह सब तो नहीं देख सके न !’ उसने सहानुभूति प्रकट की।

‘अरे, मुझे बताओ वह सब कहां है ? मैं देखूंगा।’ मैंने उत्सुकता दिखाई।

‘नहीं, तुम नहीं देख सकते !’ उसने चैलेंज करते हुए कहा।

‘क्यों भला ?’ मैंने पूछा।

‘ततलोई दस किलोमीटर, मलूटी और मसानजोर पच्चीस-तीस किलोमीटर और तारापीठ पचहत्तर किलोमीटर दूर हैं। सब के सब आपकी एक फ़र्लांग वाली सीमा से बाहर !’ वह मुस्कुराया और फिर से गायब हो गया।

मेरे मन में ख्याल आया, तीन सड़कों से बने ‘म्हारो ट्रैन्गल’ की तर्ज पर छः सड़कों से बने टिन बाजार चौक को चौक नहीं ‘टीन-बाजार छौक’ कह जाना चाहिए।

अगर किसी छोटे शहर अथवा कस्बे की गंदगी देखनी हो तो सवेरे के वक्त आबादी से दूर खेतों या जंगल की ओर निकल जाइए, लोग-बाग लोटा उठाये तेज गति से जाते और आराम से वापस आते दिख जाएंगे। यदि वहां की खूबसूरती देखनी हो तो सवेरे के वक्त टीन-बाजार चौक जैसी किसी जगह पहुँच जाइये। जहाँ पैदल, सायकिल, रिक्शा आदि पर स्कूलए कॉलेज को जाती सुबह की तरह तरो-ताज और सुंदर बालाएं सहज ही मिल जाएंगी। ‘टीन-बाजार चौक’ पर आज सुबह मुझे भी गोरे-गोरे और फूलों से खिले-खिले कई सुंदर चेहरे दिखे थे। मैं कल फिर यहां आऊँगा, शायद ‘ब्लादिमीर नोबकोव’ की तरह मुझे भी वहां कोई ‘लोलिता’ मिल जाए... ।

तभी कुन्नन बैंड की तरफ से शहनाई की आवाज आ कर कानों में रस घोलने लगी.

दिले नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है