बिना दर्द का खाना / सुषमा गुप्ता
वह थाने के कोने में ज़मीन पर घुटनों में सिर दिए बैठी थी। शरीर ज़ख्मों से बेहाल और आँखें रो-रोकर सूज चुकी थी। उम्र कोई नौ-दस के आसपास।
"साहब जी रिपोर्ट आ गई छोरी की। रेप तो हुआ है। माँ-बाप मरे पीछे रोटी ख़ूब वसूली है इसके कमीने चाचा ने। पड़ोसी ख़बर न करते तो इब तक तो छोरी मर लेती।"
"हम्म, तोड़ कमीने के हाथ पैर तबीयत से और चार्ज शीट दाखिल कर और इस छोरी को कुछ खिला-पिलाके कन्या आश्रम भिजवा दे।"
वह छोटी बच्ची टुकर-टुकर उन्हें देखने लगी। खाने को मिलेगा सुनकर जीभ ख़ुद ब ख़ुद होंठ पर आ गई।
तुकाराम ने एक पल लड़की को देखा, फिर हताश—सा बोला-"काई करे हो साहब। मासूम—सी बच्ची है, वहाँ तो कमीना रोज़ नया चाचा आएगा। अपने पेट खातिर किस-किस की भूख सँभालेगी। थम ते सब जाने हो।"
"तो ख़ुद पाल लूँ क्या? ऐसे तो घर कुछ दिन में अनाथ आश्रम बन जाएगा।"
"कोई तो हल निकालो साहब। छोरी बहुत छोटी है। कलेजा खींच रहो है।"
"अच्छा एक काम कर, देख इस वक़्त आश्रम का मेन केयर टेकर कौन है। रूलिंग पार्टी का या किसी इन्फ़्लुएंशल आदमी का हुआ, तो फिर भूल जा ये धर्म-कर्म। नहीं तो ख़ूब टाइट करके आइयो कि मरदुए कोई भी ग़लत कांड हुआ तो उल्टा टाँगके डंडे बजाएँगे तबीयत से इस बार।"
"पर साहब जी.।"
"चल ...अब घना देवता न बन और भी काम पड़े हैं।"
तुकाराम सिर झुका भारी कदमों से लड़की की तरफ़ बढ़ा।
लड़की ने धीरे से पूछा, "अंकल जी वहाँ बिना दर्द किए खाना मिल जाएगा न?"
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