बिन्नैयाँ / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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" बंडू काका आपका चौखट लगाने वाला काम पूरा हो गया क्या? '

" हाँ अम्मा होत जा रओ है, बस पंद्राक मिनट और लग हैं। '

बंडू बढ़ई अम्माजी के जबाब अपनी बुंदेली भाषा में ही दे रहा था। उसे हिन्दी आती ही कहाँ थी। अम्मा के घर का खानदानी बढ़ई था वह। उसके पिताजी भी इसी घर में काम करते रहे थे। शायद दादाजी भी करते थे परन्तु उसे ठीक से मालूम नहीं था। घर के लकड़ी सबंधी सभी काम वह करता था। चाहे कुर्सी की मरम्मत करना हो चाहे खटिया बनवाना हो या टेबिल की टूटी टांग जोड़ना हो, सभी काम बंडू के ही सुपुर्द था। बंडू की उम्र कोई अट्ठाइस तीस साल की ही होगी किन्तु अम्मा के बच्चे उसे बंडू काका कहकर बुलाते थे, अम्माजी भी उसे बंडू काका से ही सम्बोधित कर लेतीं थीं।

" बंडू काका आपको याद है न आज बिट्टू का शाळा में दाखिला कराने तुम्हें जाना है। उसके पापा तो गाँव में खेती बाड़ी के चक्कर में अभी तक फंसे हैं। तुम्हें ही जाना पडेगा।

"हाँ अम्मा हमें ख़बर है अब्बै ले जात हैं बिट्टू खों, दाखला कराबे में का देर लगत है। जे गए और बे आये। घंटा भर में तो सब हो जेहे। हमने अपने मौड़ा को कराओ तो परकी साल। बड़े मासाब ने हँसत-हँसत दाखला दे दयो तो।"

बंडू अम्मा के छोटे मोटे ऊपरी काम भी कर देता था। । अम्मा सबेरे से चार बासीं रोटी चाय नाश्ते में उसे दे देतीं थीं। ज्यादा प्रसन्न हुईं तो चार आने बीडी के लिए भी बंडू को अलग से मिल जाते।

बंडू बिट्टू को लेकर शाळा पहुँच गया था। बड़े मासाब लक्ष्मीशंकर दुबे को वह जानता था, इसलिए बिट्टू को लेकर सीधे ही वह उनके कमरे में दाखिल हो गया था।

बड़े मासाब ने उसे प्रश्न भरी नज़रों से देखा और पूछा' " क्या काम है बंडू?

"बिट्टू को पहली में दाखला कराउने है बड़े मासाब।" बंडू ने निखालिस अपनी भाषा में अपनी बात रख दी। हाँ-हाँ काये नईं अबैं करें देत हैं दाखला। बंडू तुम आये हो तो दाखला तो देने ई परहे। " बड़े मसाब ने बंडू को उसी की भाषा में जबाब दिया और ठहाका मारकर हंसने लगे।

"बेटा क्या नाम है तुम्हारा।" उन्होंने बिट्टू के सिर पर हाथ रखकर पूछा।

"बिट्टू, बिट्टू नाम है-है हमारा बड़े मासाब।" बिट्टू ने बिना हिचक जबाब दिया।

"अरे बिट्टू यह तो घर का नाम है ।यहाँ शाळा में क्या लिखें।" बड़े मासाब ने हँसते हुए पूछा।

"यही तो नाम है हमारा" बिट्टू फिर कुछ झिझक से बोला।

"बेटे यह नाम तो ठीक नहीं है, बड़े होने पर भी लोग तुम्हें इसी बिट्टू नाम से पुकारेंगे तो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा।" बड़े मासाब उसकी नादानी पर हंस पड़े थे।

"बड़े मासाब ईको नाम तो बिट्टू ई है आप केत हो तो रामलाल लिख लो।" बंडू ने अपनी नेक सलाह बड़े मासाब को दे दी।

ठीक है अब बात कुछ ज़मीं और उन्होंने रजिस्टर में राम लाल लिख लिया था।

"उम्र बताओ बिट्टू कितनी है? जन्म तारीख क्या है?"

"उम्र! बिट्टू अचकचा गया।" नईं मालूम मासाब। "

"सातक साल को तो हुइए मासाब।" फिर से कमान बंडू ने सम्हाली।

' अच्छा अपना दाहिना हाथ बताओ बिट्टू "ऐसा कहकर उन्होंने बिट्टू का हाथ उसके सिर के ऊपर से ले जाकर बाएँ कान पर रख दिया था।"

"हाँ सात साल का तो है बिट्टू। यह सन 1951 का जुलाई माह है, इसका जन्म दिनांक 5जुलाई 1944 लिखे देते हैं। इनकी अम्मा को भी बता देना, ठीक है।" इस तरह बिट्टू उर्फ़ रामलाल का दाखिल पहली कक्षा में हो गया था। वह कक्षा में जाकर दीवार से सटी फट्टी था पर बैठने लगा था।

"अरे बिट्टू यहाँ, मेरे पास आकर बैठो।" आवाज सुनकर बिट्टू ने पलटकर देखा तो वह चौंक गया। यह तो बिन्नैयाँ थी, उसके घर के पास ही रहती थी। कभी-कभी उसके घर भी अपनी माँ के साथ आई है, उसे याद आ गया। वह ख़ुशी से उसके पास आकर बैठ गया। बिन्नैयाँ ने ख़ूब सारी जगह उसे बैठने के लिए बना दी थी। पहले तो उनकी साधारण-सी ही जान पहचान थी किन्तु अब वे दोनों पक्के मित्र हो गए थे। मित्रता दिनों दिन बढ़ती गई। बिन्नैयाँ रोज़ सबेरे साढ़े दस बजे बिट्टू के घर आ जाती। बिट्टू तैयार होता, बस्ता उठाता और दोनों शाळा चल पड़ते। दोनों ख़ूब पढ़ते मन लगाकर, इसलिए शाळा के होशियार बच्चों में शुमार किये जाते थे। पहली कक्षा का प्रभार बड़े मासाब लक्ष्मीशंकर दुबे के पास ही था। दुबेजी का कहना था कि पहली कक्षा पढाई की नीव होती है इसलिए इसकी जुम्मेवारी वे ही उठाएंगे। वे बिन्नैयाँ और बिट्टू को बहुत चाहते थे। शाळा में भले ही नाम रामलाल लिखा था, परन्तु अक्सर सब उसे बिट्टू ही बुलाते थे। बड़े मासाब वैसे तो बहुत ही सरल स्वभाव के थे परन्तु अनुशाशन के मामले में उतने ही कड़क थे। यदि किसी विद्यार्थी ने गृह कार्य करने में लापरवाही की या सबक याद नहीं किया तो वे उसे छटी का दूध याद दिलाने में भी पीछे नहीं रहते थे। दो फुट लंबा लचकदार बेंत उनके हाथों में लपलपाता रहता था। बच्चों को बेंत देखकर ही नानी याद आ जाती थी। गृह कार्य तो करके लाना ही है, नहीं तो खैर नहीं। यह सब बच्चे जानते थे। इसलिए इस काम में कभी भी लापरवाही नहीं होती थी। जरा भी चूके तो बेंत का महा प्रसाद हथेली को चखना ही पड़ेगा, यह स्वयं सिद्ध था। । वैसे भी बच्चों के माँ बाप भी तो कहते ही रहते थे कि बड़े मासाब चाहे मारो चाहे दुलार करो, बच्चे को आदमी बना दो। और इसी आदमी बनाने के चक्कर में उनका डंडा चलता रहता था। इधर कई दिनों से बिट्टू के हाथों में खाज हो रही थी। पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया परन्तु जब खाज फदककर अँगुलियों से बढ़कर पंजों और हथेली तक पहुँच गई तो अम्मां ने कनेर के पत्ते lजलाकर मीठे तेल में मथकर घावों पर लगाना चालू कर दिया था। दवा धीरे-धीरे ही असर कर रही थी। वैसे तो बिट्टू दुबला पतला था, पर पढ़ने के साथ-साथ स्वभिमानी भी था। वह किसी की भी बेमतलब बातें सुनना सहन नहीं कर पाता था। ग़लत बात पर मित्रो से उलझ भी जाता था। बिन्नैयाँ कभी-कभी उसे तंगाने लगती थी "हाथ पाँव में दम नैयाँ, हम कौनौं से कम नैयाँ। [हाथ पैर में तो ताकत है नहीं और कहते हैं हम किसी से कम नहीं] वह उसकी बहादुरी पर हंसती। चूहे-सा शरीर और दहाड़ शेर जैसी। शाळा के बच्चे हाथों में खाज होनें के कारण बिट्टू से दूर भागने लगे थे। उसे देखते ही खजा आया, खजा आया कहकर उसे चिढ़ाते और दूर भाग जाते। कक्षा में भी उसे कोई पास नहीं बिठाता था। बस बिन्नैयाँ ही उसे बेख़ौफ़ अपने पास बिठाती और जो बच्चे उसे परेशान करने की कोशिश करते उन्हैं वह झाड़ देती। कहती" हमारे भैया खों जीने परेसान करो तो हम ऊखों सुधार देंहें। " उसके हाथ से सुधरना यानी की उससे मार खाना है। इस कारण उसके सामने बिट्टू से कोई भी कुछ नहीं बोल पाता था। वह उसकी सुरक्षा सैनिक थी। दुर्गा रूपी बिन्नैयाँ हमेशा उसकी ढाल बनी रहती। ए क दिन बड़े मासाब ने रोज़ की तरह कुछ गृह कार्य दिया था, सब बच्चों को। स्लेट पर एक पाठ लिख कर लाना था। उन दिनों तो खड़िया पेन्सिल से ही स्लेट पर लिखा जाता था। बड़े मासाब सबकी स्लेटें जांच रहे थे। जिसका काम ठीक था उन्हें शाबाशी और जो काम नहीं कर लाये थे उन्हें उनकी हथेली पर अपने लचकदार बेंत से प्रसाद बाँट रहे थे। अब बिट्टू का क्रम था जो उसके आगे बैठा था। बिन्नैयाँ ने देखा कि बिट्टू की स्लेट तो कोरी है। हे भगवान! अब तो उसे मार पड़ेगी उफ़! खाज वाली हथेली पर बेंत का प्रहार वह कैसे सहेगा। वह तिलमिला गई। शायद खाज के दर्द से वह गृह कार्य नहीं कर पाया होगा। अरे बताता तो मैं ही कर देती। अब? अब क्या करें। उसने झट से अपनी स्लेट बिट्टू को पकड़ा दी, वह तो अपना काम करके ले ही आई थी। बिट्टू कुछ समझता कुछ न समझता-सा बड़े मासाब के सामने पहुँच गया था।

"शाबाश बिट्टू कितना साफ़ सुथरा लिखते हो तुम" बड़े मासाब ने स्नेह वश उसका सिर सहला दिया था। बिट्टू भीतर तक काँप गया था। यह स्लेट तो बिन्नैयाँ की है। डरते-डरते वह अपनी जगह आकर बैठ तो गया था। परन्तु मन बहुत बैचेन हो रहा था। उसके बाद बिन्नैयाँ की बारी थी। वह कोरी स्लेट लेकर बड़े मासाब के पास जा पहुँची।

" खाली स्लेट! बिन्नैयाँ यह क्या है? बड़े मासाब तो जैसे बरसात के बादलों के सामान फट पड़े।

तुमने सबक नहीं किया। ? बिन्नैयाँ ने तो जैसे कुछ सुना ही नहीं मौन साध्वी-सी चुपचाप खड़ी रही और अपने हाथ की हथेली आगे बढ़ा दी।

"क्यों नहीं किया काम?" बड़े मासाब ने फिर पूछा। उन्हें बिन्नैयाँसे ऐसी उम्मीद थी ही नहीं, कि वह गृह कार्य न कर लाये। बिन्नैयाँ फिर भी चुप रही तो। उन्होंने छड़ी उसकी हथेली पर मारने के लिए ऊपर उठा ली।

"नहीं बड़े मासाब नहीं..." , बिट्टू चीख पड़ा था "उसे मत मारो"।

मासाब पर तो जैसे क्रोध का भूत सवार हो गया। जिंदगी में पहली बार उन्हें इस तरह किसी ने टोका था, वह भी पिद्दी से बालक ने। "क्यों? क्यों न मारें? इसने ... सबक ..."

"बड़े मासाब वह स्लेट मेरी है, मैंने काम नहीं किया है। बिन्नियाँ तो निर्दोष है। गलती मेरी है। मेरे हाथ में खाज है न इससे ..." बड़े मासाब का गुस्सा पल भर में ही हवा हो गया। बेंत एक तरफ़ फेक दिया, आँखों में अफ़सोस के भाव आ गए। वह सब कुछ समझ गए। क्रोध में अंगारे उगलने वाली आँखें छलक पड़ीं।

"कौन है बेटी तू? अहिल्या बाई है, गार्गी है, मैत्रयी है, मीरा है, कौन है तू। ?" इतना कहकर उन्होंने बिन्नैयाँ को हृदय से लगा लिया। बिन्नैयाँ को लगा जैसे वह बहती हुई गंगा कि तरह किसी विशाल सागर में समां गई हो। उसके पिता नहीं थे। आज बड़े मासाब ही पिता बनकर उसकी पीठ सहला रहे