बिमल राय की जन्मशती के नौ वर्ष पश्चात / जयप्रकाश चौकसे

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बिमल राय की जन्मशती के नौ वर्ष पश्चात
प्रकाशन तिथि : 12 जुलाई 2018


बिमल रॉय का जन्म 12 जुलाई 1909 में हुआ था और 1966 में उनकी मृत्यु हुई। अपने अंतिम दिनों में बिमल रॉय कुम्भ मेले की पृष्ठभूमि पर एक कथा फिल्म बनान चाहते थे। आश्चर्य की बात है कि कुम्भ पर कोई फिल्म 'आध्यात्मिक भारत' ने आज तक नहीं बनाई। सर रिचर्ड एटनबरो की तरह ही कोई विदेशी फिल्मकार इस विषय पर फिल्म बनाएगा। हमको हमेशा विदेशी ही 'खोजते' रहे हैं। बिमल रॉय के पूर्वज अपने जन्म स्थान से खदेड़े गए हैं और स्वयं बिमल रॉय कोलकाता से मुंबई आकर बसे जहां उन्होंने अपनी यादगार फिल्में बनाईं। एक जगह से दूसरे स्थान पर जाना सदैव चलता रहा है परंतु संकीर्ण राजनीति इसे मुद्दा बनाकर अपने अनचाहे लोगों को आज भी खदेड़ रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि बिमल रॉय की फिल्मों में विस्थापित लोगों के दर्द को अभिव्यक्त किया गया है। इसके साथ ही मनुष्य का अकेलापन भी उन्होंने अभिव्यक्त किया है।

बिमल रॉय बहुत कम बोलते थे। वे घंटों नि:शब्द रह सकते थे। उन्हें खामोशी पसंद थी और अपनी फिल्मों में भी वे न्यूनतम संवाद रखने का प्रयास करते थे। याद आता 'देवदास' का एक दृश्य जिसमें विलाप करता रिश्तेदार देवदास के प्रति सहानुभूति जताना चाहता है तो देवदास उसे हाथ के इशारे से अपने भाई के पास जाने का संकेत करता है। भंसाली का देवदास वाचाल है परंतु बिमल रॉय ने अपने देवदास को अपनी तरह ही खामोशी पसंद व्यक्ति की तरह प्रस्तुत किया। खामोशी पसंद करने वाले लोग अपने भीतरी जगत में खोए रहते हैं और बाहरी जगत के अस्तित्व को ही वे नकारते हैं। चहुं ओर हो रहा शोर पर्यावरण को भी हानि पहुंचा रहा है। शबाना आज़मी ने बताया था कि चेतन आनंद कैफी आज़मी से मिलने आते थे। दोनों बिना एक भी शब्द बोले एक साथ घंटों बैठा करते थे। इसी तरह की खामोश बैठकों ने जन्म दिया 'हकीकत' के गीतों को। कोई आश्चर्य नहीं कि एक गीत के बोल थे 'मैं यह सोचकर चला था कि वह वापस बुला लेगी मुझको, उसने न रोका, न ही मुझे बुलाया, इसी तरह मैं चलता ही गया और उससे जुदा हो गया'।

बिमल रॉय न्यू थियेटर्स के सहायक कैमरामैन के पद पर कार्यरत थे। बरुआ की सहगल अभिनीत 'देवदास' के सिनेमोटोग्राफर रहे और कोई बीस बरस बाद उन्होंने दिलीप, वैजयंतीमाला और सुचित्रा सेन अभिनीत 'देवदास' बनाई। बिमल रॉय की रिश्ते की बहन रोशनआरा के परिवार के एक सदस्य का विवाह सुचित्रा सेन से हुआ। गौरतलब है कि एक हिन्दू बंगाली परिवार की कन्या का नाम रोशनआरा था। ज्ञातव्य है कि रोशनआरा मुगल बादशाह शाहजहां की बेटी का भी नाम था।

रिश्तों के भंवर ऐसे ही मिलाते हैं और बिछुड़ भी जाते हैं। स्वयं सुचित्रा सेन को अपनी निजता इतनी पसंद थी कि वे दादा साहेब फालके पुरस्कार ग्रहण करने भी नहीं आई थीं। अपने जीवन के एक दौर में वे महीनों अपने घर से बाहर नहीं जाती थीं। इस तरह अकेलेपन को साधना आसान नहीं होता। इस तरह के अन्तर्मुखी लोग अपने अवचेतन में बसे संसार के नागरिक होते हैं जहां किसी आधार कार्ड की आवश्यकता नहीं होती।

बिमल रॉय के अंतरंग मित्र थे असित सेन, जिन्होंने एक हंसोड़ व्यक्ति का पात्र अभिनीत किया। इसी तरह प्राय: खामोश रहने वाले गुरुदत्त के भी निकटतम मित्र हंसोड़ जॉनी वाकर थे और खामोशी पसंद करने करने वाले दिलीप कुमार के सखा हंसोड़ मुकरी थे। व्यक्तिगत पसंद और नापसंद एक रहस्यमय संसार है।

बिमल रॉय सामंतवादी परिवार में जन्मे थे, जिसके अनेक सदस्य लम्पट और शराबी रहे परंतु बिमल रॉय को लम्पटता और शराबनोशी पसंद नहीं थी। बिमल रॉय के पिता के भाई हेमचंद्र उन्हें पसंद करते थे। हेमचंद्र भी खामोशी पसंद करते थे और अपने आक्रोश को पी जाते थे परंतु जब भी गुस्सा होते, ऐसा अहसास होता था मानो आकाश में कोई बादल फट गया हो। बिमल रॉय को शराब पीना पसंद नहीं था। उन्हें सिगरेट पीने का बहुत शौक था। यह संभव है कि सिगरेट के धुएं में स्वयं को खोजते हों। महान फिल्मकार ऋत्विक घटक ने बिमल रॉय के साथ काम किया था जब रॉय कोलकाता में रहते थे। वर्षों बाद मुंबई के एक अभिनेता-निर्माता के न्योते पर ऋत्विक मुंबई आए थे। वे अपने साथ अपने वृतचित्र के संगीतकार मानस मुखर्जी को भी साथ लाए थे। कुछ दिन पटकथा पर काम करने के बाद जब उन्हें मालूम पड़ा कि उनका यह मेजबान उनके द्वारा बनाई जाने वाली फिल्म में नायक की भूमिका भी अभिनीत करना चाहता है तब ऋत्विक घटक वहां से भाग गए, क्योंकि वे जानते थे कि उनका मेजबान एक कमजोर अभिनेता है और वे केवल उसे निर्माता मानकर आए थे। आजकल के लोकप्रिय गायक शान के पिता थे मानस मुखर्जी।

बहरहाल ऋत्विक घटक अपने पुराने साथी बिमल रॉय को मिलने गए। उन दिनों बिमल रॉय बॉक्स ऑफिस पर बड़ी सफल रहने वाली फिल्म के बारे में विचार कर रहे थे। ऋत्विक घटक ने उन्हीं के दफ्तर में बैठकर जन्म-जन्मांतर की प्रेम कथा 'मधुमति' लिखकर दी। बिमल रॉय के कॅरिअर की सबसे सफल फिल्म 'मधुमति' साबित हुई जिसका कुछ श्रेय सलील चौधरी और शैलेन्द्र को जाता है। ज्ञातव्य है कि शैलेन्द्र ने ही 'बंदिनी' के गीत भी लिखे थे और क्लाइमैक्स के लिए लिखे गीत की एक पंक्ति को भूल पाना संभव नहीं है 'मुझको तेरी बिदा का मर कर भी रहता इंतजार, मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूं इस पार, ओ मांझी मुझे ले चल उस पार'। शैलेन्द्र के शब्द 'मर कर भी रहता इंतजार' जीवन के रहस्य को समझने में सहायक होते हैं। शायद शैलेन्द्र के अवचेतन में यह बात गहरे पैठी थी। इसीलिए विजय आनंद की 'गाइड' के लिए भी उन्होंने लिखा 'आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है'।

जिस दिन बिमल रॉय की मृत्यु हुई, उनके शयन कक्ष में बिना जलाई हुई कुछ सिगरेट रखी हुई थीं। उनके सिनेमा और जीवन का रहस्य उनके द्वारा पी गई सिगरेटों और न सुलगाई सिगरेटों के बीच ही कहीं छुपा है।