बिमल रॉय, गुलजार और भैरप्पा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :08 जुलाई 2015
आजकल मध्यप्रदेश सरकार व्यापमं घोटाले के कुरूक्षेत्र और अगल वर्ष उज्जैन में होने वाले कुंभ की तैयारियों में फंसी है। एक ओर भ्रष्टाचार का मामला है, दूसरी ओर धर्म के महान अनुष्ठान की तैयारी चल रही है। व्यापमं के सुर्खियों में होने के कारण उज्जैन में पर्व की तैयारियों में लगने वाले विपुल धन में घपले की संभावनाएं निरस्त हो गई हैं। महान फिल्मकार बिमल रॉय अपनी मृत्यु के पूर्व के वर्षों में 'कुंभ' नामक पटकथा लिख रहे थे, जिसकी पूरी जानकारी उनके तत्कालीन सहयोगी गुलज़ार को है और वे अपने गुरु की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए उस फिल्म की शूटिंग उज्जैन में करें ऐसा निवेदन मध्यप्रदेश सरकार को करना चाहिए।
यह कितने आश्चर्य कि बात है कि किसी फिल्मकार ने आज तक कुंभ पर फिल्म नहीं बनाई, जहां एकत्रित होने वाले साधु-संत और उनके अखाड़ों के साथ ही अनगिनत श्रद्धालु अवाम भी होता है और हर इंसान की एक कहानी है अत: यह धार्मिक पावन अवसर साहित्य व सिनेमा के लिए असीमित अवसर प्रदान करता है। हिंदी के श्रेष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले उज्जैन में ही रहते हैं और इस अवसर पर उनकी कवि दृष्टि मनुष्य यातना की भीतरी सतहों को देख सकती है। हर मेला आनंद और अवसाद के संगम का त्यौहार है। हाल ही में मैंने अमेरिकन 'इनसाइड आऊट' देखी है, जिसमें किशोर वय की नायिका की दुविधा 'संशय' तथा उम्र के अलसभोर कमसिन वय का विवरण 'आनंद' और 'अवसाद' नामक पात्र करते हैं।
फिल्म में मनुष्य के सुख-दु:ख, डर, क्रोध, हिंसा इत्यादि भावों के प्रतीक स्वरूप पात्र गढ़े गए है। तब किशोर वय की बालिका अपने घर से भागी है, तब परिवार के सुखद दिनों की स्मृति जागने पर वह लौट सकती है। 'आनंद' स्मृति के उस उजियारे गोले को खोज लेता है और कंट्रोल टॉवर 'अवचेतन का केंद्र' में उस गोले की फीड करने से परिवार की आनंद की स्मृति उसकी घर वापसी करा सकती है परंतु आनंद अकेले कंट्रोल टॉवर नहीं जाना चाहता, वह विलंब के खतरे को मोल लेकर अवसाद को खोजने निकल पड़ता है ताकि दोनों मिलकर अवचेतन की सुखद स्मृति को जाग्रत कर सकें। फिल्मकार ने यह महान दर्शन प्रस्तुत किया है कि आनंद और अवसाद अवचेतन की गाड़ी के दोनों पहिए उसके लिए आवश्यक है, अत: आनंद और अवसाद जीवन के दिन और रात है। आज के मूल विषय से इसका रिश्ता तो नहीं है परंतु शादी के बाद नरगिस की एकमात्र फिल्म उनके भाई अनवर द्वारा बनाई 'दिन और रात' की नायिका दिन के समय बिल्कुल सद्गृहणी है, परंतु रात में वह शराब पीती है, क्लब में डांस करती है और पर-पुरूष की बांहों में भी जाती है। उसे दिन के समय रात की कोई घटना याद नहीं आती। यह एक मनोवैज्ञानिक बीमारी है, जिसका संपूर्ण इलाज भी संभव है।
बहरहाल, कर्नाटक के महान लेखक भैरप्पा का पुनर्जन्म आधारित उपन्यास 'अपनी-अपनी आस्थाएं' में नायक अपने विगत जन्म में इलाहबाद के कुंभ जाता है और एक विशेष संत की खोज करके कहता है कि इस वर्ष आपके बामन भोज का खर्च वह करेगा, क्योंकि यही उसका दायित्व है कि पिता के लालच की कीमत वह चुकाएं। वर्षों पूर्व नि:संतान पत्नी साधु-संतों से पुत्र जन्म का आशीर्वाद लेने का उपक्रम कई बार करती है और पति की श्रद्धा समाप्ह हो चुकी है। ऐसे ही अवसर पर इस संत ने पुत्र कामना के लिए अनुष्ठान किया था। एक रात उनके सो जाने पर पिता के उनके भारी डंडे के भीतर छुपी स्वर्ण मुद्राएं निकालकर उसमें पत्थर भर दिए। इसी पाप के प्रायश्चित स्वरूप पुत्र नदी में डूबकर अपने प्राण भी दे देता है। दरअसल, इस उपन्यास की अनेक सतहें हैं और यह अंधविश्वास का समर्थन नहीं करते हुए यह धारणा प्रतिपादित करता है कि पुनर्जन्म सत्य हो भी तो नए जन्म में धारण शरीर की अपनी इच्छाएं हो सकती हैं और अपनी विधवा कहलाने वाली चालीस वर्षीय 'पत्नी' के साथ सोलह वर्षीय कैसे रह सकता है। आत्मा का सत्य और शरीर धर्म के निर्वाह में द्वंद्व हो सकता है और तमाम वैचारिक दोष इस बात से जन्मे हैं कि लोकप्रिय अवधारण में आत्मा मानते हैं, वह मनुष्य मस्तिष्क का ही एक भाग है या समग्र का सार है।