बिरवा / मंगलमूर्ति
धुंधली-सी याद है उसे, बहुत-ही धुंधली, जैसे पानी से धुल गई लिखावट हो, या भोर के घने कुहासे में पेड़ों की छाया का बस एक आभास-जैसा हो। मिट्टी की फ़र्श वाला एक आयताकार आँगन। उसके एक सिरे पर एक छोटा-सा आँगन का पेड़। जैसे तुलसी का पौधा अचानक बढ़कर एक पेड़ बन गया हो। आँगन की लंबाई से लगा एक उंचा बरामदा जिससे आँगन में कुछ सीढ़ियाँ उतरती थीं। बरामदे से लगे दो-तीन कमरे जिनके बीच से बाहर की ओर जाने का एक छोटा-सा गलियारा। छत खपरैल की। याददाश्त की सबसे पहली तस्वीर यही है। उसके जीवन के रंगमंच की कुहरे में लिपटी एक पहली तस्वीर।
किसीने शायद ही कभी सुना हो, जाना हो या कहीं पढ़ा हो कि अपनी माँ के गर्भ में बीज के रूप में पड़ने की किसी शख़्स की एकदम सही घड़ी, उसका एक बिलकुल निश्चित स्थल और वह पूरा आलम किसी पिता ने अपनी कलम से कहीं तयशुदा दर्ज़ किया हो। लेकिन हुआ तो ऐसा ही था। हालांकि इसमें महत्त्व तफ़सील का नहीं, बस उस तहरीर का है, जो अब तक शायद न किसी ने जानी और न सोची भी होगी। कोई शिव-मंदिर गया था शाम की आरती में और वहाँ से लाकर एक गेंदे का फूल किसी की हथेलियों में डाल दिया। और उसी वक्त जीवन का एक मामूली लमहा आम से ख़ास बन गया।
बात उसी शहर की है जिसका नाम भी अब याद नहीं। उसी शहर का एक आम मुहल्ला, जिसकी वही गलियाँ, नाब दान और पनाले, और उनके बीच ज़िंदगी बसर करने वाले वही सारे मामूली लोग। यह एक ख़ास लमहा भी उसी गुमनाम शहर की गलियों में बहने वाली हवा का एक नन्हा-सा टुकड़ा था। हालांकि उस दिन उमस थी और इसी लिए उस नन्हें-से पेड़ के नीचे वह खाट लगाई गई थी, क्योंकि हवा उस दिन उस वक्त ख़ामोश होकर वहाँ कुछ देर के लिए थम गई थी। हाथ के पंखे की हवा का ही बस आसरा था। शाम बहुत पहले ही ढल चुकी थी और रात अभी पूरी बाकी थी।
पेड़ उसी तरह चुपचाप खड़ा दिन, हफ्ते महीने गिनता रहा। फिर सब कुछ वैसे ही हुआ जैसा उन दिनों होता था। रोज़ का रोज़नामचा। और इसी बीच उस आँगन में एक और नई पौध उग आई। अब वे तीन से चार हो गए। पिता सुबह से शाम तक, बल्कि देर रात तक लालटेन की रोशनी में, उसी तरह आँखें गड़ाए कलम घिसते रहे-क्या घर और क्या दफ़्तर। गर्मी आई तो पेड़ के नीचे वही खाट लग गई, जाड़ा आया तो वही खाट कमरे में चली गई। और इसी तरह महीने और कुछ साल बीतते गए। और उसके बाद मकान ही नहीं, वह शहर ही बदल गया। बल्कि शहर के साथ-साथ हैसियत भी बदली। अचानक एक मामूली-से खपरैल मकान से चल कर सब लोग एक बड़ी-सी हवेली में आ गए-दुमंजिली, बहुत बड़े-बडे बहुत सारे कमरों वाली एक हवेली, बरसात में जिसके ठीक पीछे नदी की बाढ़ पहुँच जाती थी, और इसीलिए हवेली के पीछे एक बहुत बड़ा चबूतरा भी था सीढ़ियों वाला जिसकी सीढ़ियों तक बाढ़ का पानी आ जाता था। हवेली किसी बड़े रईस की रही होगी क्योंकि उसके लंबे-चौड़े कई कमरों में आदमकद आइने टंगे थे, लेकिन अब उनमें रहने वाले सब गुज़र चुके थे, और बहुत दिन से खाली पड़ी उस हवेली में यही छोटा-सा चार बच्चों वाला परिवार अब आ गया था। उस हवेली के उपर-नीचे के कुछ कमरे तो बंद थे, और कुछ खुले-खाली कमरों में मकड़जालों में लिपटे शीशे के एकाध झाड़फानूस भी लटकते थे। सभी कुछ एक गहरी ख़ामोशी में डूबा हुआ। बीच का बड़ा-सा आँगन भी खाली- खाली। वहीं दाईं ओर के एक कमरे में फ़र्श पर बिछी एक चटाई पर चादर डालकर माँ लेटे-लेटे इस नवजात बच्चे कोअपने सूखे स्तन का दूघ पिलाने की कोशिश करती थी।
जब से यह बच्चा आया था वह ज्यादातर बीमार ही रहती थी। पिछले एक-दो साल से उसको कोई जनानाबीमारी हो गई थी जिसके बारे में अब वह बहुत फ़िक्रमंद नहीं रहती थी। पति की इस नई नौकरी से बढ़ी इज्ज़त और आफ़ियत से उसके ज़र्द चेहरे पर एक हल्की चमक ज़्ारूर आई थी, लेकिन वह मात्रा एक बुझते चिराग का आख़िरी उजाला-भर था। लोग कहते थे किसी दिन वह अकेले गुसलख़ाने में जाने पर अचानकडर गई थी। यों भी लोग कहते थे वह हवेली एक मनहूस हवेली थी जिसमें दिन में भी अंधेरा फैला रहता था, और उसका सन्नाटा उस अंधेरे को और गहरा बना देता था। कुछ लोग तो दबी जु़बान उस हवेली को भूतही तक बताते थे। उसके पिता शिव के भक्त थे और भूत-प्रेत में उनका कोई विश्वास नहीं था। माँ भी जादू-टोना कुछ नहीं मानती थी, और पति की गहरी धार्मिक प्रवृत्ति में उसका अटूट भरोसा था। यह सब बस एक धंुधली, बहुत ही धंुधली याद-भर है उसको। अभी तो वह मुश्किल से तीन साल का रहा होगा।
उसकी बहुत-सी यादें तो बाद में सुनी-सुनाई बातों से घुल-मिल कर तरह-तरह की तस्वीरों में बदल गई थींजो सचाई से ज्यादा कहानी लगती थीं। उन तस्वीरों के हर पहलू, उनके हर रंग, हर लकीर में एक जादुई झलक थी। वह एक ऐसी दुनिया थी जिसमें सुबह और शाम की कोई गिनती नहीं हुआ करती थी। उस के उपर समय का कोई आसमान नहीं था जो रंग बदलता हो। वह एक ऐसी दुनिया थी जो समय से परे थी।
मा के दिन लौटे थे। अब उसके पति को एक नया पद, नया सम्मान मिला था। उसकी ज़िंदगी एकबारगी नई खुशियों से भर गई थी। चार बच्चों से भरी-पूरी गोद। सबको सजाना-संवारना। और उस सूने आँगन में भी चारों बच्चों का खेलना-किलकना। संभ्रांत परिवार की महिलाओं से अब उसका बराबर मिलना- जुलना, आपस का आना- जाना। इससे ज्यादा उसे अब क्या चाहिए था। लेकिन लगता था उसके भीतर कुछ खोखला होता जाता था। उसका शरीर भीतर-भीतर घुलता जा रहा था। अपने सबसे छोटे बच्चे को सीने से सटाए वह बिस्तर पर सोए-सोए सुख-दुख के ताने-बाने में उलझी गहरी सोच में डूब जाती थी। उसको न जाने कहाँ-कहाँ की बातें याद आने लगती थीं।
उन यादों में भूलते-भटकते कभी उसकी आँखें भींग जाती थीं, और कभी उसके सूखे होठों पर उदास हंसी भी उतर आती थी। अपने-आप वह अपनी बाहों में अपने बच्चे को भींच लेती थी। आँखें पोछ वह बच्चे का सर चूम लेती, और सोए होने पर भी उसको थपकियाँ देने लगती। जबसे यह चौथा बच्चा आया था उसका शरीर गिरने लगा था। दवा-इलाज का भी कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हो रहा था। अपनी गिरती सेहतमें उसको अपने बच्चों की ही चिंता सताती रहती थी। उसमें भी सबसे छोटा-बच्चा तो अभी बिलकुल दुध मुंहाँ था।
उसको पुराने दिन याद आए। पिछले शहर का वह उंचे बरामदे वाला मकान। आँगन का वह पेड़। बड़ी दीदी का मंदिर से लौटना और उसके हथेली में शिवजी का प्रसाद - वह गेंदे का फूल देना। वह सकुचा गई थी, जैसे कोई झूठ पकड़ी गई हो। बड़ी दीदी तो उसकी माँ जैसी ही थी। उसको पाल-पोस कर बड़ा भी उसी ने किया था। वह तो सब कुछ जानती थी।
फिर उसको याद आईं शादी से पहले की बातें। गांव के पंडितजी ने ही उसकी शादी ठीक कराई थी। लगभग अधेड़, विधुर पति ने शादी से पहले कई शर्त रखी थीं। उस जमाने के लिए अनहोनी-अनसुनी शर्त्तें- खुद मिलकर पूछेंगे उसकी हामी, कि एक विधुर से शादी करना उसे मंज़ूर है या नहीं। पढ़ने-लिखने का भी कुछ शौक है कि नहीं। चिट्ठी लिखना आता हैद्व चिट्ठी लिखने पर जवाब मिल सकेगाद्व फिर शादीसेपहले वो सारी लंबी-लंबी चिट्ठियाँ जो पंडितजी के हाथ चुपचाप आया करती थीं। केवल बड़ी दीदी कीजानकारी में। लाल स्याही से सुंदर लेटर-पेपर पर मोती- जैसे अक्षरों में लिखी पातियाँ जिन्हें वह न जाने कि तनी-कितनी बार पढ़कर भी थकती नहीं थी। बड़ी दीदी की इजाजत से उसने एक-दो का तो जवाब भी लिखा था, जबकि शादी के अभी कई महीने बाकी थे। यह तो दस-बारह साल और पहले की बात थी। शादी से पहले ख़त-किताबत की बात तो आज भी अनहोनी-अनसुनी थी। उन प्रेम से सनी चिट्ठियों को पढ़कर वह एक जादू-भरी दुनिया में पहुँच जाती थी जहाँ सच और झूठ गलबहियाँ डाले झूमते थे।
उसको याद आया जब शादी के बाद एक नये शहर में पहली बार वह पति के एक कमरे वाले मकान में गई थी जो एक संकरी गली में था, ठीक भैरव बाबा के मंदिर के उपर। उंची-उंची कुछ सीढिंयाँ चढ़कर कमरे में जाना पड़ता था। वह एक छोटा-सा कमरा ही सोने और उठने-बैठने के काम में आता था। लकड़ीका चूल्हा बाहर की थोड़ी-सी जगह में जलाकर रसोई पकानी पड़ती थी। सोचते-सोचते उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कुराहट खिंच आती थी।
शादी के कुछ ही दिन बाद, अभी वह आई ही थी उस छोटे से एक कमरे वाले मकान में, जब उसके पति के एक साहित्यिक मित्रा उसे देखने आए थे। बड़े ही हंसोड़ और ठहाकेबाज़ किस्म के आदमी लगते थे। उसने पान बनाकर एक तश्तरी में उनके सामने रखा, और घूंघट की ओट से ही उनको देखा। लेकिन वह एकदम घबरा गई जब उसके पति ने कहा-इनसे लाज न करो, घूंघट हटाकर मुंहदिखाई करा लो। ये मेरेअत्यंत अंतरंग मित्रा हैं। और तब पत्नी के सकुचाकर सहम जाने पर पति ने खुद उसका घूंघट हटाया औरअपनी दोनों सुगंधित हथेलियों में थामकर उसका चेहरा उनके सामने कर दिया। पत्नी की आँखें तो अपने-आप बंद हो गईं, और घबराहट से उसे पसीना छूट गया। लेकिन उसी वक्त दो मिले-जुले ठहाके उस छोटे-से कमरे में जैसे चारों ओर उछलने लगे। उसने तुरत अपना घूंघट नीचे तक खींच लिया और एक ओर जा बैठी।
लेकिन धीरे-धीरे उसने अपने को अपने पति के रहन-सहन के मुताबिक ढाल लिया। अब उसके पति ने वहीं चौराहे के पास एक ज्यादा सुभीते का मकान ले लिया था। पति के साहित्यिक मित्र वहाँ भी आया हीकरते, और वह उनलोगों की साहित्यिक बातों को सुनती और समझने की कोशिश करती। एक दिन और एक लंबे-चौड़े डील-डौल वाले कविजी आए जिनके सिर पर चारों ओर लंबी, काली, घुंघराली लटे झूल रही थीं। पति ने उनको भोजन के लिए निमंत्रित किया था। वे भी उसे देखने आए थे, और शायद उसकी रसोई की परीक्षा भी थी उस दिन। उसने साग-सब्जी के अलावा पूआ-पूरी और खीर बनाकर उनके सामने परोसा। उसके पति वहीं चौराहे के पास के बूढ़े मशहूर महादेव मलाईवाले के यहाँ से मलाई का एक बड़ा पुरवा भी ले आए थे। मलाई खाते वक्त उन कविजी ने उसके पति से कुछ पूछा जिसे वह ठीक-ठीक समझ नहीं पाई, लेकिन वे दोनों जोर का ठहाका लगाकर हंसने लगे। बाद में उसे ऐसा लगा वे उसकेदांपत्य -जीवन की कुछ अंतरंग बातें करते हुए उसका आनंद लेने लगे थे। तब वह धीरे-से वहाँ से उठकर रसोई में चली आई, लेकिन उनलोगों के ठहाके उसी तरह गूंजते रहे।
वह अपनी छाती से चिपटे बच्चे का सिर चूमने-सहलाने लगी। बड़ा बेटा स्कूल से अभी आया नहीं था। बड़ी बेटी छोटी को नहलाकर कपड़े बदल रही थी। बड़ी को थोड़ा सर्दी-जुकाम था, इसलिए वह स्कूल नहीं गई थी। वह पास की ही एक पाठशाला में पढ़ने जाती थी, और छोटी को भी अपने साथ ले जाती थी। दोनों बहुत समझदार थीं और माँ को परीशान नहीं करती थीं। वे जानती थी माँ की तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती थी और पिताजी भगवान बाजार वाले डॉ. हाल्दार से माँ का इलाज करा रहे थे। इससे पहले जब पुराने शहर वाले घर में थे तब डॉ. खेर माँ का इलाज कर रहे थे। उससे माँ को कुछ फायदा भी हुआ था। बाबूजी - पिताजी को सब बच्चे बाबूजी ही कहते थे -कालेज में पढ़ाते थे और शाम तक धर आते थे। घर आने पर थोड़ा स्नान-ध्यान करने के बाद वे पास के शिव- मंदिर जाते थे और वहाँ से लौटने के बाद माँ के बगल वाले कमरे में अपने पढ़ने-लिखने में लग जाते थे।
गर्मी इतनी थी कि पंखा झलते-झलते माँ के हाथ दुखने लगते थे। कभी जब आँखें झिप जातीं तो पंखा हाथ से छूटने लगता और वह चौंक कर जाग जाती, और बच्चे को घीरे-धीरे थपथपाने लगती। पति का कॉलेज अब गर्मियों के लिए बंद होने वाला था और गर्मी छुट्टी में गांव जाने की बात थी। गांव का सफर लंबा होता था। कई जगह गाड़ी बदलनी पड़ती थी। जहाज या नाव से नदी पार करनी पड़ती थी। उसके बाद भी पांच-छः कोस बैलगाड़ी का रास्ता था। उबड़-खाबड़ सड़क के हिचकोलों से देह टूट जाती थी। रेल, जहाज और बैलगाड़ी के लंबे थकरउ सफर के बाद सुबह चलने पर शाम ढले पहुँचना होता था। उसका अपना मायका भी तो गांव में ही था, और वहाँ भी छोटी लाइन के स्टेशन से उतरकर दो-तीन कोस बैलगाड़ी से ही जाना पड़ता था। लेकिन गांव से एक बार निकलकर शहर में रहने लगने पर आदतें बदलने लगती थीं, और तब देहात का जीवन कुछ दिनों के बाद उबाउ होने लगता था। यों भी अब तो शहर में ही उसकी गृहस्थी बस गई थी, देहात का जीवन तो अब बहुत हद तक छूट ही चुका था। बस कभी महीना-बीस दिन का गांव जाना-आना-भर रह गया था।
धीरे-धीर ससुराल के गांव का पुश्तैनी घर उसकी आँखों के सामने उग आया। बीच में बड़ा-सा चौकोर आँगन। चारों तरफ खपरैल बरामदे और उनसे लगी कतारबंद कोठरियाँ। आँगन के बीचो-बीच बेल का एक बड़ा-सा पेड़ था, जिस पर सूरज डूबते ही चिड़ियों का शोर होने लगता था जो अंधेरा गिरते-गिरत धीरे-धीरे कम होता था। पूरा मकान अब तीन फ़रीकों में बंट चुका था। उत्तर-पूरब के कोने का हिस्सा मंझले भाई को मिला था और पूरब-दक्खिन कोने का हिस्सा उसके पति का था। सबसे छोटे भाई ने अपने लिए पच्छिम-उत्तर कोने वाला हिस्सा पसंद किया था। मंझले तो उसकी शादी के बाद ही गुज़र गये थे, और अब खेती-गृहस्थी का सारा इंतजाम छोटे भाई के जिम्मे आ गया था, क्योंकि उसके पति तो शुरू से बाहर-ही-बाहर रह गए, और उन्होंने तो अपने लिए लिखने-पढ़ने का जीवन अपना लिया जिसके लिए शहर में रहना ज्यादा जरूरी था। शादी की जब बात चली थी तो उसको लगा था कि अब उसका जीवन भी शहर में ही बीतने वाला था। रहन-सहन में भी उसको शुरू से ही सूफ़ियाना रंग-ढंग अच्छा लगता था। सीने-पिरोने और कशीदाकारी में उसका मन शुरू से लगता था, और अब तो उसके पहनने-ओढ़नेका अंदाज काफी शहरी हो चुका था। जब वह अपने मायके या ससुराल के गांव में जाती तो वहाँ वह सहज ही आकर्षण का केंद्र बन जाती। उसके बच्चों के कपड़े-लत्ते ज्यादा सलीकेदार होते और वह उनकीसफाई-सुथराई का बहुत ध्यान रखती। उसके पति तो खैर हद से ज्यादा सफाईपसंद थे। और जब से कॉलेज की नौकरी में आए थे, इत्रा से उनके कपड़े गमगम करते रहते।
अचानक छोटा बच्चा चिहुँक कर जाग गया और रोने लगा। उसको चुप कराने और सुलाने का उसके पासएक ही रास्ता था, अपना दूध उसके मुंह में डाल देना। फिर वह जल्दी-जल्दी पंखा झलने लगी, और थपकियाँ देने लगी। बच्चा जोर-जोर से दूध खींचने लगा और तुरत चुप होकर फिर सो गया।
गांव का जीवन उसको अच्छा लगता था। गांव के लोगों के बीच अपनापा बहुत महसूस होता। पूरा गांव ही जैसे एक बड़ा परिवार हो। ससुराल का गांव उसका बहुत बड़ा था। गांव के उत्तर एक पोखर था, औरपूरब थोड़ी ही दूर पर एक नदी भी थी। गांव के तीनों कोनंा पर तीन पक्के शिवालय थे, और गांव के बीच में एक बजरंगबली का मंदिर भी था। नदी की ओर एक बहुत पुराने बड़ के पेड़ के नीचे कालीजी का सातों बहिनियों का एक बड़ा-सा चबूतरा था जहाँ गांव की औरतों के साथ वह कई बार जाती थी। अपने लिए तो नहीं, पर वहाँ अपने पति और बच्चों के लिए वह बराबर मन्नतें माना करती थी, और चुंदरी, फूल, सिंदूर और गुड़ के गुलगुलों का प्रसाद वहाँ जरूर चढ़ाती थी। काली-स्थान जाते समय वह गांव की औरतों के साथ मइया के गीत भी भक्तिपूर्वक गाती थी। गाने में सबसे मीठा स्वर गंगिया की माँ का होता था जो रोज आँगन के कुंएं से पानी भरने के लिए आती थी, और अक्सर रात में आकर तेल की मालिश भी कर देती थी। उसने ननद-भावज का रिश्ता भी उसके साथ जोड़ लिया था। गांव में तो सभी से भाई-भौजाई, चाची, बुआ और मामी का रिश्ता सहज ही जुड़ा होता था। लेकिन परिवार में आकरयह अपनापा न जाने कैसे दुराव और अलगाव में बदल जाता था।
ससुराल के गांव जब वह जाती तो गांव के लोगों से तो बहुत प्यार और आदर पाती, पर अपने घर-आँगनमें उसकी दोनों देवरानियाँ जैसे उसका शहरी रंग-ढंग देखकर जली-भुनी रहतीं। उसके छोटे देवर ही धर केमालिक थे। लगभग सौ-सवा सौ बीघे की अच्छी काश्तकारी थी। घर में गाय-भैंस की भी आफियत थी, और कामगार-बनिहार भी थे। लेकिन छोटे देवर-देवरानी की ही पूरी मिल्कियत चलती थी। मझली देवरानीभी संपन्न काश्तकार घर की थी, लेकिन विधवा हो जाने के बाद, उसकी मिल्कियत छोटी के हिस्से में आ गई थी। इसलिए मझली और छोटी - जिनकी जिंदगी तो अब इस आँगन में ही सिमट कर रह गई थी -दोनों में बराबर झिकझिक होती रहती थी। मझली दबंग भी थी, और छोटी बहुत हकलाती थी, इसीलिए एक ही आँगन में रहते हुए उसको उनदोनों के बीच की बाता-बाती से एक अजीब तरह की बेचैनी होने लगती थी, और हालांकि पद में वह सबसे बड़ी थी, लेकिन अपने पति की तीसरी पत्नी के रूप में वह आई थी, इसलिए उमर में तो उन दोनों देवरानियों से छोटी ही थी। इसलिए भी वह किसी से कुछ कह नहीं पाती थी। और यों भी लड़ाई-झगड़े से तो वह हमेशा दूर ही रहती थी।
पति ने उसको शादी के बाद पहले कुछ दिनों में ही अपने घर का पूरा हाल बता दिया था। अपनी पहली दोनों मृत पत्नियों के बारे में भी विस्तार से सब कुछ बताया था। प्यार के क्षणों में अक्सर उसके पति उससे कहते कि पहली पत्नी के रूप में ही वह अब तीसरी पत्नी बनकर उनके जीवन में आई है। पहली पत्नी भी एक ज़मींदार घराने की थी, लेकिन शादी के कुछ ही महीनों बाद, गौना होने से पहले ही प्लेग सेउसकी मौत हो गई थी। पति ने उसी शोक में उसकी और अपनी सारी प्यार-भरी चिट्ठियाँ जला दी थीं। उसके मरने के साल-भर बाद उनकी दूसरी शादी हुई थी, और इस दूसरी पत्नी ने उनको पंद्रह-बीस साल का दांपत्य-सुख दिया था। एक प्यारी-सी बेटी भी उससे हुई थी। लेकिन आठ साल की होकर वह बेटीशीतला से मर गई, और उसी शोक में दूसरी पत्नी भी चली गई।
इस दूसरी पत्नी को भी इन्हीं देवरानियों ने बहुत सताया था। पति ने उसको सारी कहानी, उसके प्रति इन देवरानियों के दुर्व्यहार की एक-एक बात बताई थी। लेकिन बराबर यह भी समझाया था कि उसका पद बड़ा है तो उसको उसी तरह सबकी बात सहते हुए, सबके साथ प्रेम-भाव रखते हुए रहना चाहिए, जैसे वह दूसरी पत्नी रहती थी। उसके सेवा-भाव की बराबर तारीफ करते थे, और फिर यह जरूर कहते थे कि अब तीसरी पत्नी के रूप में उसे पाकर उनकी सारी लालसाएं पूरी हो गईं। शादी के बाद बहुत दिनों तक रोज शाम को फूल से उसका सिंगार करते थे, और देर-देर तक सामने बैठकर बस उसको एकटक निहारा करते थे। कहते थे मेरे शिव की तुम्हीं पार्वती हो।
यही सब सोचते-सोचते न जाने कब उसको नींद आ गई। अचानक हाथ से पंखा छूट गया और तभी बच्चे की नींद खुल गई। दूध पीना छोड़कर वह माँ की ओर देखने लगा। उसका पेट भर गया था, और नींद भी पूरी हो गई थी। बच्चे के जगते ही माँ की भी नींद खुल गई। बच्चा अब जगकर मुस्कुरा रहा था, और उठकर खेलना चाहता था। बच्चे को मुस्कुराता देखकर माँ के सूखे हाँठों पर भी मुस्कुराहट छा गई।