बिरादरी बाहर / राजेन्द्र यादव
बेंत की मूठ से कुंडी को तीन बार खटखटाया, तब जाकर भीतर बत्ती जली और चंदा ने आकर दरवाजा खोला। भिंचे गले से पारस बाबू ने डांटा, ‘‘सब-के-सब बहरे हो गए हैं? सुनाई ही नहीं देता?’’ डर था कहीं आवाज ऊपर न पहुंच जाए। हालांकि ऊपर से इतने जोर-शोर से बातें करने और ठहाके लगाने की आवाजें आ रही थीं कि उनमें, उनकी बात का सुना जाना असंभव ही था। पलटकर बैठक की कुंडी बंद करते हुए बोले, ‘‘आधी रात हो गई। तुम लोगों की हा-हा-ही-ही बंद नहीं हुई अभी तक?’’
चंदा ने आधी बात सुनी, आधी नहीं। उसे ऊपर भागने की जल्दी थी। एक हाथ में पीठ के पीछे ताश छिपाए थी। उसकी जगह कोई और न बैठ जाए, इसलिए अपने पत्ते साथ ही ले आई थी। मालती जीजी पत्ता चल चुकी होंगी। पीछे दरवाजे की तरफ चुप सरकती हुई बोली, ‘‘बाबूजी, हम तो सब आप ही की राह देख रहे थे। सभी लोग खाने को बैठे हैं...मुन्ना दादाजी के साथ खाने को कहता-कहता ही सो गया। आप ऊपर...’’
‘‘फेंक दो नाली में सुसरे को...मुझे नहीं खाना।’’ उन्होंने बेंत कोने में रखी, टोपी खूंटी से लटकाई और बोले।
इस बीच पीछे सरककर चंदा ने ताशवाले हाथ को चौखट पर टिका लिया था, पीछे तो बाबू जी देख लेंगे, कुछ छिपाए हैं। पूछेंगे क्या है? ऊपर सुनाई पड़ा, ‘‘मालती की चाल है। मालती, तुम पत्ता चलोगी?’’ वह अपराधी जैसी मुद्रा बनाकर और पीछे सरकी। झटके से मुड़कर सीढ़ियां चढ़ने को ही थी कि पारस बाबू का नाराज स्वर सुना, ‘‘जो बना हो सो यहीं दे जाओ...’’ घर में पकवानों की खुशबू छाई थी।
‘‘अच्छा, अभी लाती हूं।’’ ‘जान बची’ के संतोष और भली लड़की की तत्परता से वह बोली और सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आ पहुंची। डर था, कहीं बाबूजी फिर बीच से न बुला लें। उसके चलने से एक बार टट्टर ( आंगन पर पड़ा लोहे का जाल) झनझनाया, और फिर तरह-तरह स्वर आते रहे, ‘‘पत्ते लेकर कहां चली गई थी?... अपनी चाल चल जा, या पत्ते गौरी को दे दे...’’ ‘‘अम्मा, बाबूजी खाना नीचे ही मंगा रहे हैं...’’, ‘‘अब सभी को खाना लगा दे री गौरी, विजय की बहू तो रसोई में ही है...फिर क्या मिसरानी आधी रात तक बैठी रहेगी? सभी तो भूखे होंगे।’’ ‘‘जीजा जी को भूख क्यों होगी...विजय भैया के साथ उल्टा-सीधा खा आए हैं न...?’’ ‘‘चंदा, तू बाबूजी की थाली नीचे दे आ...’’, ‘‘आं-आं, अमें एक भीं बांजीं शांति से नहीं खेलने दीं एं...जब से किसी-न-किसी बहाने उठा रही हैं,’’ ‘‘ला, तेरी बाजी मैं खेल लूं। देख, नए आदमियों के सामने यों इतराते नहीं हैं! क्या कहेंगे जीजी जी? छोटी साली ऐसी है...’’, ‘‘उसे खेल लेने दीजिए न। मालती, तुम जाकर परोस दो। छोटी भाभी, आप बैठिए...’’, ‘‘अच्छा, मैं ही जाती हूं...’’ फिर टट्टर झनझनाया...
यह मालती का स्वर था। वही टेढ़े-टेढ़े पंजे रखकर टट्टर पर चलती रसोई में गई होगी...मालती खाना लेकर आई तो पारस बाबू खाना फेंक देंगे...। जोधपुरी कोट के सारे बटन खोलकर, दोनों हथेलियां इधर-उधर टिकाकर वे तख्त पर बैठ गए...मानो बहुत दूर से चलकर आए हों और सुस्ता रहे हों। फिर कोट उतारकर पास ही रख लिया और पीछे दीवार से पीठ टेक ली। सब-के-सब वहीं बहस कर रहे हैं, कोई हिलेगा नहीं। यह चंदा तो परले सिरे की कामचोर है! इसे ऊपर जाकर इतनी जोर से यह कहने की क्या जरूरत थी कि बाबू जी नीचे खाना मंगा रहे हैं? सब विजय की मां की शह है। इतना बिगाड़ दिया है बच्चों को कि कुछ न पूछो। अब पड़ी-पड़ी सब सुन रही होंगी, यह तो नहीं कि उठकर डांट दें। आंखों में ही तो दवा पड़ी हुई है...कान तो नहीं फूटे...मुंह में जबान तो बाकी है? कम-से-कम यह तो सोचना चाहिए कि नए आदमी के सामने तो नाम उजागर न हो घर का... गुस्से में ही झटके से उठकर, पारस बाबू ने कोट टांगा और बत्ती बुझा दी, अभी कौन-सा खाना आया जाता है। अभी तो तीन घंटे बहस होगी। पता नहीं क्यों बत्ती अच्छी नहीं लग रही है, फिर ऊपर से शायद नीचे बैठक का कुछ हिस्सा दीखता हो। चुपचाप दालान में निकल आए। गुसलखाने में अंदाज से ही हाथ धोए। दालान के पार आंगन है, उसी पर टट्टर पड़ा है। ऊपर के सामनेवाले दालान में ही चारपाइयों या मूढ़े-कुर्सियों पर बैठे-बैठे सब-के-सब ताश खेल रहे होंगे। ऊपर रोशनी है...नीचे अंधेरे में खड़े होकर ऊपर देखेंगे तो इन्हें कोई देख थोड़े ही पाएगा। पेशकार के पास बैठे-बैठे भी उन्हें अफसोस हो रहा था, एक बार इस ‘नए आदमी’ को देखें तो सही कि आखिर मालती ने इसमें ऐसा क्या पाया? वे जरा खंभे की आड़ में खड़े होकर ऊपर देखने लगे...दालान में आड़ी करके दो चारपाइयां डाली हुई हैं, बीच में मेज है, उसी पर ताश पड़ते हैं। हाथ उठते-गिरते दीखते हैं। टट्टर की ओर संजय और विजय आमने-सामने बैठे हैं...संजय के बाद हरे ब्लाउजवाली बांह है, मालती ही होगी। नहीं, शायद गौरी है। विजय के बाद एक कुर्ते का हिस्सा है...उसी ‘नए आदमी’ की बांह है...ठीक सामने आड़ करके, चंदा इस तरह खड़ी है, जैसे जाते-जाते रुक गई हो...फ्राकवाली पीठ ही दीखती है...इसके अलावा सब अनुमान करना पड़ता है...दो-एक सीढ़ियां चढ़कर देखें तो, शायद और भी कुछ दीखे। उस तरफ से चंदा की आड़ भी नहीं आएगी...वे अनजाने ही एकाध कदम उधर बढ़े भी। लेकिन ऊपर की रोशनी दो-एक सीढ़ियों पर आती थी। कोई देख लेगा तो क्या कहेगा! वे कंधे ढीले डालकर लौट आए।
फिर तख्त पर दीवार से टिककर आ बैठे तो पेशकार सक्सेना की बात नए सिरे से याद हो आई। इतनी देर पुल पर बैठे-बैठे, राजनीति की बातों से, महंगाई की बातों से और बढ़ती हुई आचारहीनता के बारे में बातें करके मन बहला रहे थे, लेकिन उस बात से गुस्सा और ताजा हो गया। दोपहर भर तो मंदिर के वाचनालय में बैठकर सारे अखबार पढ़े थे, फिर बैठे-बैठे, पीपल के हिलते पत्तों के पार नीले, साफ आसमान को देखते रहे थे। पतंगें उड़ती दीखीं तो खयाल आया सांझ हो आई है, चलो पेशकार की टाल का ही एक चक्कर लगा आएं। समय कुछ तो बीतेगा। जान-बूझकर लंबे रास्ते से ही बहुत धीरे-धीरे वे उधर चल दिए। गारे और ईंटों की कच्ची चिनाई से दीवारें खड़ी करके पेशकार ने टाल के भीतर ही टीन डलवाकर बरामदेनुमा कमरा-सा बनवा लिया है। वहीं तख्त पर एक मुंशियों वाला डेस्क रखकर, वह खुद बैठा रहता है। सामने दो-तीन मूढ़े, टीन की एक कुर्सी पड़ी है। टाल पर निगाह भी रहती है और बैठकबाजी भी चलती रहती है। डेस्क पर फैले रजिस्टर में लिखना छोड़कर पेशकार साहब बोले, ‘‘आइए, आइए, पारसनाथ बाबू, बैठिए, कहिए डॉक्टर ने क्या बताया? ऑपरेशन हो गया?’’
टाल के दूसरे सिरे पर कुल्हाड़ी चलने की आवाज गूंज रही थी। थके-से पारस बाबू बैठ गए। ‘‘कहां पेशकार साहब! ऑपरेशन तो परसों होगा....कल जाकर भर्ती कर देना है। बड़ी परेशानी है, तुम जानो...पैसा...पैसा...पैसा...हर आदमी पैसा चाहता है। डॉक्टर से सारी बातें तय हो गई हैं, सच बात है-मगर नर्स और कंपाउंडर लोग लगे हैं कि उन्हें भी कुछ अलग से मिल जाए...अंधेरा पहले भी था, लेकिन इनता तो हमारे-तुम्हारे जमाने में नहीं था।’’
तीस-पैंतीस साल के अनुभव भरकर पेशकार साहब हल्के-से मुस्कराए ‘‘अंधेरे की क्या बात है, पारसनाथ बाबू! अरे जिंदगी-मौत का सवाल होगा, आपको होगा; वो लोग अपना हक क्यों छोड़ें?’’
‘‘अरे बाबा, तो हम मना कब कर रहे हैं? देंगे भाई, सबको देंगे। पहले ऑपरेशन तो सही-सलामत हो जाने दो। मैं पूछता हूं, और ऑपरेशन बिगड़ गया, नहीं हुई आंखें ठीक-तब क्या डॉक्टर लौटा देगा? है कोई गारंटी आंखें ठीक होने की?’’
‘‘यह गारंटी कोई कैसे दे सकता है? डॉक्टर खुदा तो नहीं है।’’ पेशकार साहब भी शायद सारे दिन लकड़ियां तुलवाते-तुलवाते ऊब गए थे। कुछ चुप रहकर निहायत लापरवाही से पूछ बैठे, ‘‘मालती भी तो आई है न...?’’ बात उन्होंने जान-बूझकर आधी छोड़ दी।
‘‘हांऽऽऽ!’’ पारस बाबू का दुखता फोड़ा फिर रिस उठा। सांस लेकर बात टाल दी, ‘‘संजय, विजय कल आ गए थे।’’
‘‘अकेली आई है या...?’’ पेशकार साहब ने रजिस्टर सामने खींच लिया। हल्की-हल्की शैतान मुस्कराहट आंखों से छलकी पड़ रही थी।
एकदम पारस बाबू की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दें। उन्होंने पेशकार साहब की शैतानी भांपी तो तन-बदन तिलमिला उठा। मन हुआ सारा लिहाज ताक पर रखकर कोई कड़ी-सी बात तड़ाक् से कह दें...‘तू टके का पेशकार, मेरे सामने क्या जबान खोलता है? विलायत में तेरे बेटे ने मेम डाल ली है न, तो तू समझता है कि...नकटा तो चाहेगा ही कि सभी की नाक कट जाए।’ मन-ही-मन ये सारे सवाल-जवाब करने से उन्हें लगा कि पेशकार का सवाल बेकार चला गया है और उसका जवाब देने की अब जरूरत नहीं रही। मूढ़े के हत्थों पर धीरे-धीरे उंगलियां चलाकर दार्शनिक भाव से बोले, ‘‘पेशकार साहब, बहुत-सी बातें आदमी खुद करता है, बहुत-सी उसे करनी पड़ती हैं। विजय की मां ने सारा घर सिर पर उठा रखा था-महीनों से नींद हराम कर दी थी। ऑपरेशन कराने को तैयार ही नहीं होती थी। बोली, ‘एक बार इन आंखों से सारा परिवार देख लूं, क्या पता, ऑपरेशन के बाद आंखें रहें...न रहें...’ ’’
‘‘अरे कहां की बातें, पारस बाबू? आंखों का ऑपरेशन भी अब कोई ऑपरेशन रह गया है? आजकल तो लोग फेफड़े बदल देते हैं। अभी मैं उस दिन अखबार पढ़ रहा था।’’ पेशकार ने पानों की डिबिया खोली, गीले कत्थे से सना कपड़ा इधर-उधर किया और पान पारस बाबू को पेश किए।
पारस बाबू ने मना कर दिया, ‘‘नहीं आज नहीं। आज दाढ़ में कुछ दर्द-सा महसूस हो रहा है।’’ फिर अपनी बात पकड़ी, ‘‘मैंने तो बहुत समझाया, डांटा भी। एक साल टाल दिया, लेकिन आप जानो, औरत तो औरत ही है...आखिर गौरी, मालती, संजय, विजय सभी को बुला लिया...’’ दाढ़ में दर्द नहीं, अनिच्छावश उन्होंने मना किया था, लेकिन लगा, सचमुच दर्द होने लगा है।
‘‘संजय-विजय की बहुएं भी तो आई होंगी...?’’ पेशकार ने बात फिर सरकाई।
‘‘हां, बहू-बच्चे सभी आ गए हैं।’’
‘‘आपके यहां तो बहुएं पर्दा करती हैं?’’ पेशकार ने जरा डर के स्वर में पूछा।
‘‘हां जी, उनका बस चले तो सिर पर भी कपड़ा न लें, वो पर्दा क्यों करेंगी? मैं कराता हूं। इससे बहू पलटकर जवाब तो नहीं देती कम-से-कम...’’ इस बार जरा गर्व से पारस बाबू ने कहा। उन्हें पता था, पेशकार के बड़े लड़के की बहू उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाती है। उसके डर से वे सारा दिन टाल में पड़े रहते हैं।
उठती हुई गहरी सांस दबाकर पेशकार ने कहा, ‘‘तब तो अच्छी-खासी चहल-पहल होगी...तकदीरवाले हो पारस बाबू...’’
‘‘हांऽऽ!’’ मानो पहली बार पारस बाबू को सचमुच ज्ञान हुआ कि वे कितने तकदीरवाले हैं। बेटे-बेटियों की शादी-ब्याह हो गए-सब अपने-अपने घर सुखी हैं...लेकिन तभी एक कांटा कसक उठा, काश, मालती ने यह न किया होता!
उनकी विचारधारा को काटकर, बिना किसी प्रसंग के अचानक, चुटकी से पान के तंबाकू डालते हुए पेशकार ने कहा, ‘‘अड़े टुम बी क्या गांठ-बांठ कड़ बैठे हो, पाड़श बाबू...छोड़ो...लड़का अच्छा है, मालटी शुखी है...बश तुम्हें टो यही चाहिए ठा न? बाकी टो डुरियां बकटी ही है शाली। मुड्डत हो गई-डो शाल से ऊपर हो गया औड़ टुम हो कि...’’ और उठकर वे पीक थूकने दूसरे कोने की ओर झुक गए।
पहले तो इस बात पर पारस बाबू चौंके, लेकिन फिर जिद्दी बच्चे की तरह चुपचाप सिर झुकाए सुनते रहे। उत्तेजना से उनकी उंगलियां फड़कती रहीं। टाल के दूसरे सिरे पर लकड़ी का एक कुंदा जमीन पर डाले आमने-सामने खड़े दोनों मजदूरों की बार-बारी से पड़ती कुल्हाड़ियों की ठक्-ठक् उनके दिमाग पर पड़ती रही। उठने का उपक्रम करते हुए अचानक तैश से बोले, ‘‘तो सारे सामज-सुधार का ठेका हमने ही लिया है?’’
‘‘नहीं लिया है, तो मुझे बताओ अब क्या करोगे?’’ उतनी ही तेजी से बची पीक को घूंट भरकर पेशकार ने पूछा। फिर बड़ी आत्मीयता से समझाने लगे, ‘‘भैया मेरे, ये आजकल के बच्चे...!’’
सचमुच अब क्या करेंगे...? कई बार इन पिछले दो सालों में पारस बाबू ने यह सवाल अपने आप से किया है। खैर! एब बार संजय-विजय में से कोई ऐसा कर लेता तो शायद दर-गुजर भी कर जाते, लेकिन मालती से उन्हें ऐसी उम्मीद नहीं थी...यों जबानदराज और अव्वल नंबर की जिद्दी तो वह जन्म की है, लेकिन यहां तक बढ़ जाएगी-यह कल्पना के बाहर था।
ऐसा ही पता होता, तो क्यों वे उसे संजय के पास छुट्टियों में भेजते और क्यों उन्हें यह दिन देखना पड़ता? और तो और, संजय की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए थे? हिम्मत तो देखो, मुझे ही लिखता है, ‘लड़का अच्छा है...मालती खुद काफी समझदार है। गैर जाति का जरूर है, सो आजकल...’ वाह रे, आजकल दोनों लड़कों में से कोई भी सामने होकर ऐसा कहता तो जबान खींच लेते। गुस्सा तो ऐसा आया कि अगली ट्रेन से जाकर मालती का झोंटा पकड़कर खींच लाएं...बड़ी आई समझदार की बच्ची...! ये करेंगी लव-मैरेज...ला मैं निकालता हूं, तेरी लव मैरेज...
उन्हें याद है, उस दिन उन्होंने कैसे खाने की थाली टट्टर पर फेंक दी थी, कटोरियां, चम्मच सब झनझन करते नीचे आंगन में आ गिरे थे, और कैसे वे पांव पटक-पटककर विजय-संजय, उनकी मां, मालती और उस गैर जाति के लड़के को घंटों गालियां सुनाते रहे थे...‘‘तुम्हारे ही बिगाड़े हुए हैं, लो और देखो स्वर्ग।’’ कांपते हाथों से चिट्ठी को विजय की मां की आंखों के आगे झटकार-झटकारकर, जाने क्या-क्या बकते रहे, फिर पागलों की तरह तालियां बजा-बजाकर हंसते-गाते रहे... ‘‘अहा रे...मेरी बेटी, अहा रे मेरा बेटा...खूब नाम चमकाया है, पुरखों का...’’ उसी शाम उन्हें दिल का दौरा पड़ गया था।
टट्टर की झनझनाहट से ध्यान टूटा, अंधेरी बैठक में बैठे-बैठे उन्हें लगा, मानो पेशकार की टाल की कुल्हाड़ियां अभी तक उनके दिमाग में बज रही हैं। माथे पर हथेली फेरी और नाक के ऊपर एक मोटी-सी सलवट को मुट्ठी में पकड़े आंखें बंद किए रहे।
‘‘बाबू जी...’’ तभी झिझकता-सा स्वर सुनाई दिया, और भक्-से बिजली जल गई। हाथ का गिलास मेज पर रखकर चंदा ने बिजली जला दी थी। उसके दूसरे हाथ में परोसी हुई थाली थी। यह कब आ गई, उन्हें पता ही नहीं चला। ‘‘अरे, आप तो अंधेरे में ही बैठे हैं...मैंने समझा, हाथ-मुंह धोने गए होंगे...!’’
बिना मुंह की तनाव-भरी रेखाओं को ढीला किए, वे यों ही बैठे रहे। पहले तो चंदा को खुली आंखों और सूने मन से देखते रहे...हू-ब-हू मालती जैसी लगती है। वह भी तो फ्रॉक पहनकर ठीक ऐसी ही लगती थी। ग्यारह-बारह की हो गई है, इसे तो अब साड़ी पहननी चाहिए। ‘नया आदमी’ चला जाए तो विजय की मां से कहेंगे। जब मालती के यों शादी कर लेने का खत मिला, तभी उन्होंने चंदा के मास्टर को भी जवाब दे दिया था...नहीं, हमें नहीं पढ़वानी लड़की, बहुत भर पाए। स्कूल में तो पढ़ ही लेती है। ये लड़कियां देखने में ही छोटी और सीधी लगती हैं। उन्होंने एक बार फिर उठकर सीधे होते-होते चंदा की तरफ देखा। उसके अंग-अंग से ऐसी बेचैनी टपक रही थी कि कब रखे और कब भागे...दुष्ट-सी भावना, पारस बाबू के मन में जागी कि वे उसे एक के बाद दूसरा काम बताकर यहीं रोके रखें...कुछ ऊपर का ही हाल-चाल पूछते रहें। ऊपर बातों की कचर-पचर में संजय की बहू को पुकारता विजय का स्वर गूंजा, ‘‘भाभी, खाना यहीं भेज दो...वहां रसोई में कितने लोग आ पाएंगे...? यहां सब साथ ही बैठ जाते हैं...तू कहां भागती है मालती की बच्ची? शर्त हारी है, पैसे रखवा लूंगा…अरी चंदा, अपनी भाभियों को भी यहीं बुला ले न।’’ टट्टर पर दो-तीन लोगों के इधर-उधर जाने की झनझनाहट गूंजी...
पारस बाबू ने चौंककर देखा, तख्त पर ही थाली और गिलास रखकर चंदा ऊपर भाग गई है। थाली में दो पूरियां, सब्जी की कटोरियां, रायता, मीठा इत्यादि रखे हैं...अचार और नमक तो रख ही नहीं गई। ‘‘अरे चं...’’ सहसा पुकारते-पुकारते वे रुक गए। ‘नया आदमी’ क्या सोचेगा? कहीं उसकी थाली में भी तो ऐसा ही उल्टा-सीधा नहीं परोस दिया? इन बच्चों में तो किसी बात का सलीका नहीं है, हर वक्त, बस अपने खेलकूद, ऊधम-दंगे में मस्त। इस बार चंदा पूरी-साग देने आएगी तो शांति से समझाएंगे। ऊपर ताश की मेज पर थाली-कटोरियां लगाई जा रही हैं...‘‘अरे बैठो-बैठो भाभी, कहां जाती हो...? आज साथ ही खा लो,’’ ‘‘नहीं-नहीं अम्मा...तुम आंखें बंद किए अपने लेटी रहो, भाभी हम लोगों के साथ खा थोड़े ही रही हैं...’’ संजय खूब विस्तार से बाढ़ का वर्णन कर रहा था। शहर में कैसे सनसनी और भगदड़ मच गई थी उन दिनों...चूड़ियां खनकने और चलने-फिरने की आवाजें तेज हो गर्इ थीं...
आलथी-पालथी मारकर पारस बाबू, एक हथेली टेककर खाना खाने बैठ गए। ऊपर भी शायद सभी लोग बैठ गए हैं...‘‘हां...हां, इधर बैठ जाओ न...’’ ‘‘चंदा तू दौड़-दौड़कर खाना ला, चल, पीछे खाना...बच्चे पीछे खाते हैं...।’’ लेटे-लेटे विजय की मां कह रही थीं। ‘‘भाभी, शुरू करो न, या संजय भैया के हाथ से ही खाओगी...।’’ ‘‘मालती, अम्मा का तो खयाल करो।’’ यह नए आदमी का स्वर है।
...सुबह जब दौड़ी-दौड़ी चंदा ने आकर बताया, ‘‘बाबू जी...बाबूजी, मालती जीजी और जीजा जी आ गए...तांगा अभी इधर मुड़ा है।’’ तो उत्तेजना से उनकी छाती धड़-धड़ करने लगी, लेकिन वे एकाग्र भाव से आंखों के सामने अखबार ताने पढ़ने का बहाना बनाए रहे...धम्...धम्...धम् सीढ़ी से सब-के-सब उतरकर नीचे भागे। रोता-रोता मुन्ना सबके पीछे एक-एक सीढ़ी उतर रहा था। और कोई समय होता तो गठिया की चिंता न करके वे उसे गोदी में उठा लेते...लेकिन इस समय उत्तेजना से उनकी नस-नस तन आई थी-कैसे वे उस सारी स्थिति का सामना करेंगे? थोड़ी देर बाहर बातों की भनभनाहट होती रही, फिर सब लोग लौटे...शायद तांगेवाले बिस्तर संदूक लिए आया था...‘‘यहां नहीं, ऊपर-ऊपर, चलो न, दो आने ज्यादा दे देंगे...।’’ विजय की आवाज थी। ‘‘अरे, हम तो सुबह से ही राह देख रहे थे...’’ ‘‘सच्ची भाभी, ये तार भी कैसे भागते-भागते दिया है कि तुम्हें क्या बताएं...अच्छा, अम्मा की आंखों का ऑपरेशन हो गया?’’ मालती की ही आवाज है...बिल्कुल नहीं बदली। सब लोग उनके कमरे के सामने से गुजर रहे थे। ठिठककर कुछ घुसर-पुसर हुई...तब चूड़ियों की हल्की खनखनाहट के साथ ही एकदम पास ही उन्हें चौंकाता स्वर सुनाई दिया, ‘‘बाबू जी, नमस्ते...’’ मालती का स्वर सुनकर, उमंगकर उसे छाती से लगा लेने के आवेश को, अपने-आपको कैसे रोके रहे-यह वही जानते हैं। लेकिन उन्होंने जरा-सा अखबार सरकाने का बहाना किया, पढ़ने के चश्मे के कांचों के ऊपर से देखने की कोशिश की...और उतने-से में ही मालती का स्वास्थ्य, उसके शरीर के गहने, उसके कपड़े देखने चाहे कि ‘‘नमस्कार, बाबू जी...।’’ नए आदमी का स्वर आया। शायद मालती के पीछे खड़ा था। उन्होंने बिना अखबार से निगाहें हटाए जल्दी से कहा, ‘‘नमस्ते, नमस्ते। आ गए तुम लोग...तकलीफ तो नहीं हुई?’’ और प्रश्न को यों ही छोड़कर फिर अखबार में खो गए। शायद कुछ देर दोनों यों ही खड़े रहे, फिर चुपचाप खिसक गए। ऊपर फिर जोश-खरोश से बातें करने का कोलाहल गूंज उठा। न उन्होंने अच्छी तरह मालती को देखा, न उस नए आदमी को...कम-से-कम यही देख लेते कि मालती ने आखिर उस आदमी में क्या पाया?
‘‘अरी, इधर दे...उधर दे चंदा...।’’ विजय किसी की मनुहार कर रहा था।
दीवार पर झुककर बैठी बड़ी-सी परछाईं मुंह चला-चलाकर खा रही थी। ध्यान गया : कौर चबाने में मुंह कितना ज्यादा खुल जाता है! झटके के साथ मुंह चलाना बंद कर दिया। देर तक देखते रहे-परछाईं मुंह चलाती है या नहीं। फिर खुद ही हंसी आ गई। वे मुंह नहीं चलाएंगे तो परछाईं कैसे चलाएगी? वे कौर चबाने लगे...दुबारा संजय का पत्र आया था...‘‘लड़के को हम सब बहुत अच्छी तरह जानते हैं...विजय का तो क्लासफैलो ही रहा है। शादी रजिस्ट्री से करने का इरादा है; लेकिन बाद में अच्छी शानदार पार्टी कर देंगे...विजय, गौरी और रमा बाबू, सभी ने आने को लिख दिया है...इस संबंध पर सभी बहुत खुश हैं...आप आते तो कैसा अच्छा रहता... कम-से-कम अम्मा को ही भेज दें...अब जब होना ही है तो सारा काम ग्रेसफुली ही हो जाए...मालती को बहुत समझाया, नहीं मानती तो हमने भी सोचा, अपना आगा-पीछा खुद समझती है-बच्ची तो नहीं है। सच पूछें, तो हमें भी कोई बुराई नहीं दीखती...सभी जगह हो रही है...आजकल कोई जात-पांत नहीं पूछता...’’ चिट्ठी के उन्होंने टुकड़े-टुकड़े कर डाले। गुस्से के मारे उनका रोम-रोम खौल उठा। सारे दिन विजय की मां, लड़के-लड़कियों और नए जमाने को पांव पटक-पटककर आग लगाते रहे...उन्हें अपने एक-एक रिश्तेदार, एक-एक परिचित का चेहरा याद आता। इस समाचार की प्रतिक्रिया की कल्पना वे प्रत्येक चेहरे पर करते और गुस्सा नए सिरे से कई गुना होकर गरम सलाखें कोंचने लगता। उन्होंने कल्पना की कि वे बाजार में जा रहे हैं, लोग एक-दूसरे को कुहनी से टहोका मारकर पीछे से कहते हैं...‘इन्हीं पारस बाबू की लड़की ने गैर जाति के लड़के से शादी कर ली है...।’ बाजार का एक-एक आदमी उनके सामने आ खड़ा होता और वे पुराने अभिनेताओं की तरह हाथ-पांव झटकारते, पागलों की तरह बकते रहे-‘‘मेरी लाश पर मालती की शादी होगी...मांड़े से घसीट लाऊंगा...।’’ मुंह से झाग आते रहे। खयाल आया वहां मांड़े कहां होगा?...उन्हें फिर दिल का दौरा पड़ गया। खुद जाने या विजय की मां को भेजने का सवाल ही नहीं उठता था। मालती ने संक्षिप्त-से पत्र में पिता से आशीर्वाद मांगा था। जवाब में शादी वाले दिन वे घंटे-घंटे पर तार करते रहे-‘‘मां बेहोश है, शादी रोक दो...’’, ‘‘मां की हालत चिंताजनक है, फौरन आओ...’’, ‘‘मां मौत के किनारे है। शादी स्थगित कर दो...’’ सारी रात वे छत पर टहलते रहे...जाने कितनी बार मन में आया कि छत से नीचे कूद पड़ें...कहीं बहुत दूर चुपचाप निकल जाएं और कभी आकर मुंह न दिखाएं...किसी कुएं-बावड़ी में छलांग लगा लें...उस दिन उन्होंने घर में चूल्हा नहीं जलने दिया था और विजय की मां पड़ी-पड़ी उनकी भर्त्सनाओं पर रोती रही थी... सोच में खोए-खोए सारा हाथ थाली में घूम आया-नीचे देखा, पूरियां समाप्त हो गई थीं। अभी चंदा आती होगी। ऊपर लेटे-लेटे विजय की मां की कमजोर आवाज आई-‘‘भैया, जो कुछ जरूरत हो, मांग लेना...इस घर में, घर के लोग तो खुद मेहमान बन जाते हैं...।’’ किसी ने पुकारा, ‘‘चंदा, ये कटहल के बीजों की सब्जी लेती आना...’’ वे चंदा के सीढ़ियां उतरने की आहट की प्रतीक्षा करते रहे। यों तो घर में सबसे छोटी होने के कारण चढ़ने-उतरने का सारा काम वही करती है, लेकिन आज जैसे उसके पंख निकल आए हों...कच्ची उम्र है...बुरा असर भी ले सकती है। प्रतीक्षा का समय बिताने के लिए वे फिर अपनी परछाईं को देखने लगे। दीवार पर दो छिपकलियां एक-दूसरी के पीछे भागती हुई इधर से उधर गुजर गईं। उन्होंने एक घूंट पानी पिया। जाने क्यों, उन्हें दृढ़ विश्वास था कि शादी नहीं होगी, ऐन मौके पर कुछ-न-कुछ चमत्कार होगा। कोई अघटनीय घट जाएगा और शादी टल जाएगी। बाप का दिल दुखाकर क्या मालती यह शादी कर पाएगी? अब तो वे हवाई जहाज से भी जाएं तब भी नहीं पहुंच सकते...और हो सकता है, शादी में कोई भी शामिल न हो...। तब मालती, संजय, विजय अपनी गलती महसूस करेंगे। हो सकता है शादी का इरादा ही छोड़ दें। और भी जाने क्या-क्या संभव-असंभव उन्होंने सोचा। लेकिन बाद में सुनकर उन्हें सचमुच सदमा लगा कि शादी में आशा से अधिक लोग शामिल हुए और सभी कुछ हंसी-खुशी संपन्न हो गया...दो साल हो गए; मालती अपने घर सुखी है...जाने कितनी बार उन्होंने अपने को धिक्कारा...उस समय उनका हार्ट भी तो फेल नहीं हुआ, न खुद उनसे मरा गया...
हां, वे तो नहीं मरे, लेकिन उस दिन से मालती जरूर उनके लिए मर गई। दोनों बेटों से भी पत्र-व्यवहार बंद हो गया। एकाध बार विजय की मां ने कुछ कहना चाहा तो उन्होंने निहायत बेरुखी से डांट दिया, ‘‘खबरदार, मेरे सामने जो मालती का नाम लिया...बेटे समझते हैं, यों मुझे डरा लेंगे?’’ और उन दिनों एक अजब वैराग्य की भावना उनके मन-मस्तिष्क पर छाने लगी। कोई किसी का नहीं है, सब अपने-अपने मतलब के हैं...इन्हीं बच्चों के लिए उन्होंने क्या-क्या मुसीबतें नहीं उठाईं? आज कोई कभी सोचता तक नहीं है कि बुड्ढा मर गया या जिंदा है...नीचे बैठे-बैठे वे सारे दिन गीता के तरह-तरह के भाष्य और श्रीमद्भागवत पढ़ते रहते और मन-ही-मन प्रतीक्षा किया करते कि माफी मांगते हुए मालती का पत्र आएगा, ‘मैं बड़ी अभागिन हूं। मेरे कारण आपको इतना कष्ट हुआ...’ बरसात में गठिया के दर्द में पड़े-पड़े वे अक्सर अपने-आपसे कहते रहते, ‘देखो, एक साल हो गया...कमबख्त लड़कों ने मुझे खत तक नहीं लिखा...उनके लिए तो मैं जीते जी...’ फिर उनकी आंखों में आंसू उमड़ आते। वे विजय की मां के सामने पड़ने से कतराते। उन्हें लगता, चुप रहकर वह उन पर ही आरोप लगा रही है कि तुम्हारे ही कारण मेरे बेटा-बेटी आज मुझसे पराए हो गए हैं...। देखो, कैसा बदला लिया है इस मालती ने...! इसे कैसे प्यार से, कैसी चिंताओं से पाला-पोसा और कैसा भरे बाजार मुंह पर कालिख लगाकर गई है! कमबख्त...! अरे लड़का अपने से ऊंची जाति को होता, तब तो कोई बात नहीं...एक बार इस खून के घूंट को भी पी लेते! लेकिन यहां तो...गहरी सांस लेकर अपने-आप कहते, ‘कुछ नहीं...कुछ नहीं...कोई किसी का नहीं है...न किसी को प्रतिष्ठा की चिंता है, न मां-बाप की...लड़के अपनी बहुओं में, बच्चों में मस्त हैं...लड़कियां अपने-अपने घर देखती हैं...रह गई विजय की मां, सो बेपढ़ी, जाहिल...उसने कभी उनकी भावनाओं को समझा ही नहीं...उल्टा उन्हें पागल, घमंडी...इकलुसहा, जाने क्या-क्या समझती है। उसके लिए तो वह सही है, या उसके बच्चे। बाकी सारी दुनिया गलत है। लड़के-लड़कियां, नाती-पोते, घर मकान, पेंशन-किराया-यों उन्हें चिंता किस बात की है! वे सचमुच तकदीर वाले हैं। लेकिन लगता है वे दुनिया में अकेले और फालतू हैं, और किसी दूसरे के सुख को अनधिकारी की तरह भोग रहे हैं।’
हठात् ध्यान गया कि मुंह में कौर तो है ही नहीं, और वे परछाईं को लगातार देखते हुए लगातार खाली मुंह चलाए जा रहे हैं...चम्मच से एकाध सब्जी खाई और थाली में बिखरे पूरी की पपड़ी के टुकड़े उंगली की पोर से चिपकाकर एक-एक मुंह में रखते रहे...मैं भी देखता हूं कब तक इन कमबख्तों को मुझे खाना देने का ध्यान नहीं आता...सब अपने-अपने में मस्त हो रहे हैं, किसी को खयाल नहीं है कि कोई और भी बैठा खा रहा है...। समझते हैं, बुड्ढा पागल है, बके जा रहा है, एक खुद वे हैं कि उन्हीं लोगों के लिए मर जाते हैं...। इस बार कोई बहू आए, कोई बेटी जाए, किसी को एक पैसे का रूमाल नहीं देंगे...। अगर वे न चाहते तो मालती अपने इस गैर जाति के खसम के साथ इस घर में कदम रख लेती? अजी राम का नाम लो! रोती ही रहती जिंदगी-भर। उनके जैसा हठी और आत्मसम्मानी आदमी कहीं विजय की मां के रोने-चिल्लाने से पिघलता? लेकिन सारी गलती उन्हीं की है-क्यों मान गए विजय की मां की बात? आंखों के ऑपरेशन कराती, चाहे न कराती। लेकिन तब तो कमजोरी उनके मन में भी आ गई थी-कौन जाने, आंखें रहें, न रहें-एक बार बेचारी को अपना सारा परिवार देख लेने दें...वह रोती रही थी-‘एक बार अपनी भरी-पूरी फुलवारी को निहार लूं।’ लेकिन लड़कों ने लिख दिया, ‘हम तभी आएंगे जब मालती और उसके पति आएंगे...।’ नहीं आएंगे तो जाएं भाड़ में...न आएं! पर आखिर दो साल बाद वे भी पिघल गए...। शर्त रखी...मैं नहीं मिलूंगा। और आज विजय की मां एकदम भूल गई कि हफ्ते-भर पहले कैसी रो-गिड़गिड़ा रही थी! सब उन्हीं का कसूर है...क्या दोष दें किसी को...?
‘‘अरे लीजिए...लीजिए साहब, दो पूरियों में क्या होता है! रख-रख री चंदा...’’ संजय अनुरोध कर रहा था। साफ ही अनुरोध नए आदमी से था।...कैसा अनुरोध किया जा रहा है-वे हैं कि यहां नीचे बैठे हैं...सारे दिन मुंह छिपाते घूमते रहते हैं...दो घंटे पुलिया पर लेटे-लेटे बादलों का तैरना देखते रहे हैं...
‘‘फिर आप ही खाएंगे...मैं नहीं खाऊंगा...देखो चंदा...मत रखो...वरना तुम्हें ही खाना पड़ेगा...’’ ‘‘अब जिसे जरूरत होगी खुद ही पूरियां ले लेगा।’’ ‘‘यहीं रख दे...चंदा, तू भी इसी थाली में आ जा...जब से कह रही थी, मालती जीजी के साथ खाऊंगी...आज तो बड़ा काम किया है बेचारी ने...’’
यानी उनका सचमुच किसी को खयाल नहीं है...और सब एक ही थाली में बैठे हैं...! आखिर, यों वे कब तक बैठे-बैठे परछाईं को देखते रहेंगे?-चंदा भी अब खाना शुरू कर देगी...मन हुआ जोर से थाली बाहर आंगन में फेंक दें और कुल्ला करके सो जाएं...। वे रात-भर यों ही बैठे रहें, तब भी किसी को उनका ध्यान नहीं आएगा। गुस्सा फनफना उठा तो अनचाहे ही भर्राए गले से फटी आवाज में दहाड़ निकली, ‘‘चंदा!’’
ऊपर का सारा शोरगुल एक झटके के साथ रील टूटने की तरह खट से बंद हो गया। मानो सहसा सबको उनकी उपस्थिति का खयाल आ गया हो...सहसा टट्टर झनझनाया, सीढ़ियों पर थप्-थप् हुई और सहमी-हांफती चंदा पूरियां लिए चौखट पर आ खड़ी हुई। वे खूनी आंखों से उधर घूरते रहे। अपनी दहाड़ के परिणाम का खयाल था, लेकिन गुस्से से गुर्राकर बोले, ‘‘किसी को ध्यान ही नहीं है कि यहां भी कोई बैठा है...सबके कान फूट गए...’’ चंदा की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि सामने आकर पूरियां दे दे-लेकिन डरते-सहमते हाथ बढ़ाकर पूरी डाली और पीछे हट आई। चौखट की आड़ में आते ही ऐसी भागी, मानो कोई पीछा कर रहा हो। उसे खुद पता नहीं, पूरियां थाली में ही पड़ी थीं या तख्त पर और कटोरियों में सब्जी थी भी या नहीं...
अब जब तक पुकारेंगे नहीं, किसी को सब्जियां लाने का खयाल नहीं आएगा...वे फिर परछाईं को देखने लगे...ऊपर अब मिठाइयों के लिए आग्रह हो रहे थे और वे अपनी परछाईं से निःशब्द बोल रहे थे...