बिसात / राकेश बिहारी

Gadya Kosh से
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'हम किसी चमकदार रोशनी के पीछे तेजी से भाग रहे हैं और अँधेरे का एक बड़ा-सा वृत्त लगातार हमारा पीछा कर रहा है - रोशनी और अँधेरे की यह भाग-दौड़ आखिर कब तक चलेगी...? जिस दिन हम उजाले की आँख में आँख डाल उससे सवाल करना सीख जाएँगे, अँधेरा उलटे पाँव लौट जाएगा... और तब हमारी हैसियत प्यादे की नहीं वजीर की होगी...

...आज हैदराबाद विश्वविद्यालय विश्वनाथन आनंद को डाक्टरेट की मानद उपाधि नहीं दे सका - कारण कि प्रधानमंत्री कार्यालय के किसी अधिकारी ने यूनिवर्सिटी के प्रस्ताव को वापस करते हुए पूछा है कि क्या आनंद भारतीय नागरिक हैं? पिछले दस वर्षों से एक भारतीय के रूप में शतरंज की दुनिया की बादशाहत सँभालनेवाले इस शख्स का इससे ज्यादा और क्या अपमान हो सकता है कि एक सरकारी अधिकारी उसकी नागरिकता पर ही सवाल खड़े कर दे - हो सकता है उस अधिकारी ने भारत के झंडे के साथ शतरंज खेलते आनंद की कोई तस्वीर कभी किसी न्यूज चैनल या अखबार में न देखी हो लेकिन क्या उसे फाइल वापस करने से पहले अपनी शंका का समाधान किसी दूसरे तरीके से नहीं कर लेना चाहिए था? कम से कम उसकी शंका एक महान खिलाड़ी के अपमान का कारण तो नहीं बनती...

शतरंज को अपना ओढ़ना-बिछौना बनाने का सपना देखनेवाला सारांश जब कभी आहत या तनावग्रस्त होता है उसकी नसों में एक अजीब-सा उबाल आ उठता है और उसकी डायरी ऐसे ही सवालों से भर जाती है - 'इंटर-यूनिवर्सिटी चेस चैंपियनशिप' की तैयारी चल रही है और अगली सुबह उसे एकेडमी जाना है - एकेडमी यानी 'चैलेंजर्स चेस एकेडमी'... उसकी धमनियों में खून की तरह दौड़ता उसका सपना जो वहाँ आनेवाले लगभग दो दर्जन बच्चों की आँखों में जुगनू की तरह जगमगाता है - शतरंज सीखते उन बच्चों का उत्साह देखते बनता है जब सब के सब अपनी साइकिल लिए दिसंबर की ठंड में भी नियत समय से दस-पंद्रह मिनट पहले यानी सुबह सवा छह बजे ही एकेडमी पहुँच जाते हैं -

अपने स्कूल के दिनों में वह भी इसी वक्त मैथ्स का ट्यूशन पढ़ने जाया करता था - तब लड़कियों के लिए अलग बैच हुआ करते थे - चीजें भले ही धीरे-धीरे बदलें पर बदलती तो हैं ही - आज इतनी सुबह लड़कों के साथ-साथ दुपट्टे से सिर और कान लपेटे हुए साइकिल पर सवार लड़कियों को जब वह देखता है, फिजाँ में आया यह खुशनुमा बदलाव उसे एक नई ताजगी से भर देता है - पिछले सोमवार की सुबह जब वह एकेडमी पहुँचा बच्चे पहले से आ कर दरवाजे पर उसका इंतजार कर रहे थे - इस ठंड में उनका यूँ बाहर खड़ा रहना स्वेटर, टोपी और दस्ताने के बावजूद उसे ठिठुरा गया था - तब से उसकी हमेशा यह कोशिश रहती है कि वह छह बजे ही वहाँ पहुँच जाए - और वहाँ छह बजे पहुँचने के लिए उसका पाँच बजे जगना बहुत जरूरी है - उसने घड़ी की तरफ नजर दौड़ाई - साढ़े ग्यारह बजने को थे - उसे लगा अब उसे लाइट ऑफ कर के रजाई में घुस जाना चाहिए - उसने अपनी डायरी वहीं बंद कर दी -

आज प्रैक्टिस मैच खेला जाना था - सारांश की भूमिका आर्बिटर की थी - अन्वेषा उसकी टीम में नेशनल के लिए सबसे मजबूत दावेदार है - घर जाने से पहले वह एक गेम सारांश के साथ खेलना चाहती है...

'मैं तैयार हूँ - लेकिन एक शर्त है'

'वह क्या सर -?'

'हम प्रतिद्वंद्वी की तरह खेलेंगे - और वह भी इंटरनेशनल के स्टैंडर्ड नियमों के अनुरूप -'

'यह तो और भी अच्छा है, सर - बिल्कुल फुल ड्रेस रिहर्सल की तरह -'

'तो ठीक है, निकालो बोर्ड - और हाँ, यह एक रैपिड मैच होगा चालीस मिनटों का -' सारांश घड़ी और स्कोर-शीट निकालने के लिए आलमारी की तरफ बढ़ गया था -

देखते ही देखते शतरंज का बोर्ड युद्ध का मैदान बन चुका था - मोहरे सैनिक की शक्ल में अपनी पोजीशन ले चुके थे - अन्वेषा का राजा बेस रैंक के काले खाने में और सारांश का राजा सफेद खाने में बैठ चुका था - पिछले साल अंडर फिफ्टीन जीत कर आया नीलेश जहाँ आर्बीटर की भूमिका में था वहीं अन्य बच्चे दर्शक दीर्घा में अपनी जगह ले चुके थे - नीलेश के स्टार्ट कहते ही इधर सारांश की उँगलियों ने घड़ी की बटन दबाई और उधर अन्वेषा ने अपने राजा के आगे खड़े सिपाही को दो कदम आगे बढ़ने का निर्देश दे दिया -

स्कोर-शीट पर अन्वेषा की पहली चाल को लिखते हुए सारांश ने यह दर्ज किया कि यह भले ही एक सामान्य-सी चाल थी लेकिन अपने प्यादे को आगे बढ़ाती अन्वेषा की उँगलियों में गजब की थिरकन थी - मानो उसकी आँखों की सपनीली चमक और उँगलियों के पोर-पोर में समाई फुर्ती के बीच एक अनकही प्रतिस्पर्द्धा चल रही हो - जवाबी हमले में सारांश ने भी अपने राजा के ठीक सामने खड़े प्यादे को ही दो घर आगे बढ़ाया था - अपने-अपने राजा की सीधी सुरक्षा में खड़े दोनों सिपाही अब बिल्कुल आमने-सामने थे -

...वह भी लगभग इसी उम्र का रहा होगा जब 'ऑल इंडिया इंटर-यूनिवर्सिटी चैंपियनशिप' खेलने के लिए हरिद्वार गया था - यूनिवर्सिटी उसके खेल पर नाज करती थी - और वह उसकी उम्मीदों पर सौ फीसदी खरा उतर रहा था - छह राउंड तक शत प्रतिशत स्कोर करनेवाले पाँच खिलाड़ियों में एक नाम उसका भी था - उन पाँच खिलाड़ियों की याद भर से उसके भीतर एक टीस-सी उठती है - उनमें से दो आज ग्रैंड मास्टर का खिताब प्राप्त कर चुके हैं और अन्य दो भी राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाते हैं... पर सातवें राउंड तक आते-आते जैसे सारांश के लिए उस टूर्नामेंट की दिशा-दशा ही बदल गई थी - उसकी कठिन चाल के बाद उसके प्रतिद्वंद्वी के चेहरे पर शिकन की लकीरें साफ-साफ झलक रही थीं - जवाब में उसकी उँगलियाँ जिस दिशा में बढ़ना चाहती थीं उसे देख कर वह एक बार फिर संभावित जीत की पुलक से भर उठा था कि तभी विरोधी टीम के कप्तान ने उसके प्रतिद्वंद्वी के कानों में कुछ कहा था... उसके अस्फुट-से स्वर उस तक भी पहुँचे थे और प्रतिद्वंद्वी की उँगलियों ने अपना रुख बदल लिया था - बीच में ही खेल छोड़ कर अपनी शिकायत लिए वह आर्बीटर तक भागता हुआ गया था लेकिन उसकी एक न सुनी गई थी... 'आपको शिकायत करने का कोई हक नहीं है - ऐसा सिर्फ आपके टीम मैनेजर ही कर सकते हैं -' वह चाह कर भी उनसे नहीं कह पाया था कि उसके टीम मैनेजर लक्ष्मण झूला देखने गए हैं... वैसे भी टीम मैनेजरों के लिए तो ऐसे ट्रिप तीर्थाटन और घूमने-फिरने का बहाना भर ही हुआ करते थे - बहुत जोर-जुगाड़ बैठाने के बाद कोई प्राध्यापक टीम मैनेजर बन पाता था - हर की पौड़ी में डुबकी लगाने और मनसा देवी के दर्शन करने के सिवा उसके टीम मैनेजर के यहाँ आने का कोई दूसरा उद्देश्य भी कहाँ था... अपने कप्तान की मदद से उसका विरोधी सातवीं बाजी जीत तो नहीं पाया था, हाँ, उसे खेल ड्रा करने में सफलता जरूर मिल गई थी - लगातार छह जीत के बाद का यह ड्रा उसे परेशान कर गया - उसकी आँखें बोर्ड पर थीं लेकिन उसके दिमाग का घोड़ा खेल के मैदान से बहुत दूर किसी घने जंगल में अनेकानेक बाधाओं-अवरोधों से जूझता, लहू-लुहान होता किसी अज्ञात दिशा में भागा जा रहा था - उसी खीज और बेचैनी में टूर्नामेंट के अगले चार राउंड उसके हाथ से फिसल गए थे -

...अन्वेषा के किंग साइड में ऊँट और किश्ती के बीच खड़े घोड़े ने दो कदम सीधे चलने के बाद एक कदम बाएँ मुड़ कर ढाई घर का सफर पूरा कर लिया था - जवाब में क्वीन साइड के घोड़े को सी फाइल के छठे रैंक तक पहुँचाने के क्रम में सारांश को खयाल आया कि उस दिन उस विरोधी कप्तान ने उसके प्रतिद्वंद्वी को घोड़े की चाल ही सुझाई थी - एक के बाद एक तीन बाजी हारते हुए उसे अपने टीम मैनेजर राम प्रवेश सिंह पर जितना गुस्सा आया था उससे ज्यादा उसे नागेंदर बाबू की कमी खली थी - वह जानता था यदि नागेंदर बाबू उसके टीम मैनेजर होते तो ऐसा कतई नहीं होता - उसे याद है कि पटना में आयोजित पहले राज्य स्तरीय इंटर-यूनिवर्सिटी चैंपियनशिप 'एकलव्य' में जब उसकी टीम खेल रही थी अपने बच्चों के साथ वे परछाई की तरह लगे रहते थे - नागेंदर बाबू उसके कॉलेज में खेल-कूद और शारीरिक शिक्षा के प्राध्यापक थे - कायदे से उन्हें ही टीम मैनेजर बन के जाना चाहिए था - लेकिन विश्वविद्यालय की राजनीति में नॉन-टीचिंग स्टाफ को दूसरे दर्जे का नागरिक ही समझा जाता था- और ऊपर से यदि वह नॉन-टीचिंग स्टाफ नागेंदर बाबू की तरह किसी बैकवार्ड या दलित जाति से हुआ तो फिर तो उसका भगवान ही मालिक - शतरंज की भाषा में कहें तो उसकी स्थिति युद्ध के मैदान में खड़े उस पैदल सिपाही की-सी होती थी जिसे राजा की सुरक्षा के नाम पर जब चाहे कुर्बान किया जा सकता था - मतलब यह कि खेल के मैदान में उसके पसीने का नमक तो खूब बहता लेकिन जब किसी टीम को ले कर बाहर जाने के लिए ट्रेन के एसी टू कोच में आरक्षण कराने की बारी होती तो किसी न किसी फॉरवर्ड कास्टवाले का ही नंबर लगता - किसी टीम को ले कर पटना, दरभंगा, समस्तीपुर या अपने ही राज्य के किसी दूसरे शहर में जाने को तब बाहर जाना नहीं माना जाता था - कारण कि दो-तीन दिनों के उस टूर्नामेंट में जाने के लिए एक तो झारखंडी बसों में धक्के खाने होते थे; दूसरे, अन्य राज्यों के बड़े शहरों की तरह घूमने-फिरने या फिर यूनिवर्सिटी टूर के नाम पर पैसे बनाने का भी कोई स्कोप नहीं होता था... और फिर राम प्रवेश सिंह के पिता जी ने वर्षों पहले हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर में उनके प्रोफेसर बनने के लिए मनौती भी माँगी थी - राम प्रवेश सिंह प्रोफेसर तो बन गए थे लेकिन पिता जी की मनौती की गाँठ अब तक खोली नहीं गई थी - सरकारी खर्चे पर जा कर पिता जी की यह अधूरी इच्छा पूरी करने और उनके चरण चिह्नों पर चलते हुए अपने बेटे की नौकरी के लिए एक और गाँठ बाँध आने का इससे अच्छा मौका और क्या मिलता - राम प्रवेश सिंह ने टीम मैनेजर बनने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा दी थी -

जिस दिन हरिद्वार जानेवाली टीम की घोषणा हुई थी, सारांश ने अपनी डायरी में लिखा था... 'आज फिर एक राजा को बचाने के लिए एक सिपाही की बलि दे दी गई - मैंने जानबूझ कर पापा को यह नहीं बताया कि नागेंदर बाबू के बदले केमेस्ट्रीवाले रामप्रवेश सिंह टीम मैनेजर के रूप में हरिद्वार जा रहे हैं - वरना वे फिर कहते... - खेल में कैरियर बनाना इतना आसान नहीं है - ऊपर से इन 'भू-धातुओं' (भूमिहारों) के रहते तुम्हारे लिए तो और भी नहीं... हमारे जमाने में तो डॉक्टर-इंजीनियर बनना भी... सोचता हूँ जब पापा इंजीनियर बन गए तो मैं शतरंज का खिलाड़ी क्यों नहीं बन सकता? नागेंदर बाबू के बारे में सोच कर बहुत ज्यादा तकलीफ होती है - यदि प्रिंसिपल कोई बैकवार्ड होता तो शायद आज हमारे टीम मैनेजर वही होते...'

बोर्ड के ऊपर रोशनी का तना घेरा अन्वेषा और सारांश दोनों को अपनी परिधि में समेटे खामोशी से खड़ा था... अन्वेषा की निगाहें अपने राजा की दाहिनी तरफ खड़े ऊँट पर गईं - वह निर्बाध गति से तीसरे रैंक तक जा सकता था - लेकिन उसने उसे एक रैंक पहले ही रोक कर अपने गुरु के घोड़े पर आक्रमण कर दिया - सारांश ने किश्ती के सामने खड़े सिपाही को एक कदम आगे बढ़ा कर अन्वेषा के ऊँट पर जवाबी हमला किया था - अन्वेषा को एक-एक चाल चलने के पहले क्लास में सारांश की कही बातें याद आ रही थीं - उसने चोर निगाहों से सामने बैठे अपने गुरु के चेहरे की तरफ देखा - वहाँ गुरु का नामोनिशान नहीं था... उसकी जगह किसी प्रतिद्वंद्वी ने ले ली थी - उसने उस प्रतिद्वंद्वी के घोड़े पर हमला बरकरार रखते हुए अपने ऊँट को बचा लिया... सारांश अपनी शिष्या की चाल पर खुश हुआ था - लेकिन अन्वेषा की इस सधी चाल ने उसे अगले ही पल और चौकन्ना कर दिया -

अन्वेषा और उसके जैसे कई दूसरे बच्चों को देख कर उसे एक खास तरह के संतोष के साथ एक अजीब तरह की कसक भी महसूस होती है - अन्वेषा के पिता उसके कैरियर को ले कर काफी सजग हैं - वे अक्सर उसे एकेडमी छोड़ने आते हैं - साधन की कमी तो उसके पापा के पास भी नहीं थी - लेकिन उन्हें खेल में कभी कोई भविष्य दिखा ही नहीं - वे इंजीनियर थे और उसे भी इंजीनियर ही बनते देखना चाहते थे - सारांश के साथ पढ़नेवाले दूसरे बच्चे, जिनमें कई उसकी तुलना में कमजोर भी थे, बीआईटी-आईआईटी का इंट्रेंस निकाल कर इंजीनियर बनने का सपना लिए हर साल शहर छोड़ कर सिंदरी और रुड़की जा रहे थे - सारांश लगातार तीन साल इंजिनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में नाकामयाब रहा - पीसीएम (फिजिक्स, केमेस्ट्री, मैथ्स) के कठिन से कठिन सवालों को हल करने की काबिलियत उसमें भी थी लेकिन उसका मन हमेशा बोर्ड पर खड़े विरोधी राजा को असहाय करने की नई तरकीबें खोजने में लगा रहता -

पापा तब बहुत मुश्किल से उसे शतरंज खेलने देने के लिए राजी हुए थे - लेकिन सामयिक दबाव में जबरन ओढ़ा हुआ विश्वास कब तक ठहरता, डेढ़-दो साल में ही उनका धैर्य जवाब देने लगा था - वह तब तक डिस्ट्रिक्ट चैंपियन हो चुका था और उसके बाद से ही नेशनल के लिए भी चुना जाने लगा था - राष्ट्रीय दैनिकों के स्थानीय संस्करणों में उसकी तस्वीरें छपने लगी थीं - लेकिन यह सब पापा के लिए बेमानी थे... सारांश जब कभी अपने पापा के बारे में सोचता है उसे प्रख्यात अमेरिकी शतरंज खिलाड़ी रुबेन फाईन की याद हो आती है जिसने अपनी किताब 'द साइकॉलोजी ऑफ चेस' में राजा की तुलना पिता से की है... बेहद महत्वपूर्ण लेकिन कमजोर - पापा राजा की तरह ही बेहद संवेदनशील थे और उसे और उसके कैरियर को ले कर घर में सबसे ज्यादा असुरक्षित और आशंकित भी - उस दिन ऑनर्स के रिजल्ट के साथ पापा का नया फैसला भी आया था... इंजीनियरिंग में नहीं हुआ तो क्या, अब तुम आईएएस की परीक्षा देने लायक हो गए - दिल्ली जाने की तैयारी करो...

'जीत' और सिर्फ 'जीत', यही मायने रखती है अन्वेषा के लिए... यदि उसे अपने प्रिय खेल की दुनिया में बने रहना है तो उसे हर हाल में जीतते रहना होगा - वह हारी नहीं कि उसके डैड उसका शतरंज छुड़वा देंगे - उन्हें खेल से कोई दिक्कत नहीं है... अपनी बेटी के खिलाड़ी होने से भी नहीं - लेकिन हर जगह उसे अव्वल ही देखना चाहते हैं वे - शुरू-शुरू में तो वे उसे टेनिस, स्वीमिंग या एथलेटिक्स में जाने को कहते थे... ये खेल हमें फिजिकली फिट रखते हैं - शतरंज तो लड़कों का खेल है... शायद उनके दिमाग में पी.टी. उषा, सानिया मिर्जा और सायना नेहवाल जैसे नाम ही गूँजते होंगे... पर अन्वेषा को शतरंज के अलावा कभी कुछ और नहीं दिखा...

'कैसलिंग'... अन्वेषा को प्रतिद्वंद्वी बने अपने गुरु की बातें शब्द-दर-शब्द याद थीं... जिस तरह युद्ध में किसी राजा का बंदी बनाया जाना ही उसकी हार है - उसी तरह शतरंज में जीतने के लिए अपने राजा की सुरक्षा के साथ-साथ विरोधी राजा को बंदी बनाना भी बेहद जरूरी होता है... विरोधी राजा पर हमला करने के लिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा मोहरों को लड़ने के लिए तैयार रखा जाय और इसके लिए राजा को ऐसी जगह होना चाहिए कि उसकी सुरक्षा में कम से कम मोहरों की जरूरत हो - राजा और किश्ती की अदला-बदली इसी का एक तरीका है... अन्वेषा के राजा ने दो कदम दाहिनी तरफ चल कर खुद को एक सिपाही की ओट में कर लिया था - राजा के हरकत में आते ही दाहिने कोने पर खड़े किश्ती ने अपनी जगह बदलते हुए खुद को राजा के ठीक बाईं तरफ कर लिया - जवाब में सारांश ने क्वीन साइड के ऊँट को एक कदम आगे बढ़ा कर अपने राजा के ठीक सामने रख दिया था -

...उस रात सारांश से ठीक से खाया भी नहीं गया - पापा अब उसे और शतरंज खेलने नहीं देना चाहते यह उसके लिए कोई अप्रत्याशित खबर नहीं थी - लेकिन उसे दुख इस बात का था कि उन्होंने यह बात सीधे-सीधे उससे नहीं कही थी - इसके लिए उन्होंने उसके दोस्त अमित के पापा का सहारा लिया था - उस रात वह देर तक अपनी डायरी लिए बैठा रहा... मन के भीतर भयानक झंझावात था... बिसात के सारे मोहरे बेधड़क अपनी चालें चले जा रहे थे... घोड़ा ढाई घर चारों तरफ, किश्ती सीधा जहाँ तक जगह खाली मिले, ऊँट डॉयगनली जहाँ तक न थके... वजीर कभी हाथी की तरह तो कभी ऊँट की तरह... एक-एक कदम चलते सिपाही एक-एक कर शहीद हुए जा रहे थे... चौतरफे हमले से घिरा राजा कभी इस घर तो कभी उस घर बचने की कोशिश में पसीने से तर-ब-तर था... उस रात उससे अपनी डायरी में एक शब्द भी नहीं लिखा गया - वह देर तक डायरी के कई-कई पन्नों पर प्रश्नवाचक चिह्न और क्रॉस के निशान बनाता रहा...

यह सब सारांश की आँखों में इस तरह समाया था जैसे कोई कल की बात हो -

...अन्वेषा ने बाईं तरफ से खड़े अपने तीसरे सिपाही को एक कदम आगे बढ़ाते हुए घड़ी की बटन दबा दी - सारांश ने अपने मंत्री के ठीक सामने खड़े सिपाही को दो कदम आगे बढ़ाया - उसे पता था कि अन्वेषा का सिपाही उसके इस सिपाही को जिंदा नहीं छोड़ेगा लेकिन खेल पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अपने प्यादे का यह बलिदान उसे जरूरी लगा था - नागेंदर बाबू शब्द-दर-शब्द उसकी रगों में बह रहे थे... पैदल सैनिकों की हमेशा से बलि दी जाती रही है, शतरंज ही नहीं युद्ध में भी - मध्य काल में इन सिपाहियों को आम नागरिकों का प्रतिनिधि माना जाता था - तब पहला प्यादा किसान, दूसरा लोहार, तीसरा बुनकर, चौथा व्यवसायी, पाँचवाँ डॉक्टर, छठा भठियारा, सातवाँ सिपाही और आठवाँ जुआरी कहा जाता था लेकिन कालांतर में सब के सब सिपाही हो गए - नाम भले बदल दिए गए हों, सत्ता और शतरंज आज भी सबसे पहले इन्हीं आम नागरिकों की बलि माँगता है...

...उस रात जब सारांश की कलम के शब्द चुक-से गए थे, आँखों में गहरी नींद कहाँ से होती - सारी रात वह तरह-तरह के सपने देखता रहा था - वह दिल्ली जाने के लिए अपने सामान बाँध रहा है... पापा उससे उसका चेस बोर्ड छीन रहे हैं... वह बोर्ड ले कर सरपट पीछे की ओर भाग रहा है कि तभी उसे सामने से कोई आता दिखाई पड़ता है... आनेवाले शख्स का चेहरा चेन्नई से निकलनेवाली शतरंज की पत्रिका 'चेसमेट' में छपी बॉबी फिशर की तस्वीर जैसी है... उसे सपने में भी विश्वास नहीं हो रहा कि शतरंज का पहला अमेरिकी विश्व चैंपियन और उसका फेवरिट खिलाड़ी बॉबी फिशर उसके सामने खड़ा है... वह अपने हाथ उसकी तरफ बढ़ाना ही चाहता है कि उसकी आँखें खुल जाती हैं... सपने में बॉबी फिशर क्या आया था जैसे उसके इरादों को सुनहले पंख मिल गए थे - बाहर रात का घना अँधेरा था और भीतर कमरे में टेबल लैंप की पीली रोशनी में उसकी डायरी पर उसके शब्द जैसे एक नए उजाले की तहरीर लिख रहे थे... 'मेरा सपना कुछ देर और बना रहता तो क्या होता -? बॉबी फिशर महज चौदह की उम्र में अमेरिका का चैंपियन हो गया था - क्या उसकी राह में सिर्फ फूल ही फूल बिछे रहे होंगे -?'

उसने अपने साथ दिल्ली ले जानेवाले सामान की सूची बनाई - इस सूची में कुछ चीजें सबसे ऊपर थीं जिन्हें उसने अंडरलाइन भी कर दिया - शतरंज, जोश कैपाब्लांका की किताब 'फंडामेंटल्स ऑफ चेस' और एरॉन नेमजोविच की 'माइ सिस्टम' -

...अन्वेषा की चौकन्नी निगाहों ने अपनी किश्ती पर मँडरा रहे खतरे को पहचान लिया था - उसने उसे चार कदम पीछे खींचते हुए बेस रैंक में बैठे मंत्री के बगल में ला खड़ा किया - अब खेल में पहली बार कोई वजीर अपनी जगह से हिला था - सारांश ने अपने वजीर को बाईं तरफ तिर्यक जहाँ तक जगह थी दौड़ जाने दिया - दरअसल वजीर का इस तरह बेधड़क दुश्मन खेमे में जाना अगली चाल में एक दुश्मन प्यादे को मार कर विरोधी राजा पर हमले की तैयारी थी -

अन्वेषा को अपने गुरु की यह चाल चुनौतीपूर्ण लगी थी - उसे क्लास में कही सारांश सर की बातें याद हो आईं... 'अ थ्रेट इज ए मोर पोटेंट वीपन दैन इट्स एक्जेक्यूशन।' विरोधी खेमे का वजीर लगातार उसकी पेशानियों पर बल डाल रहा था... क्वीन बिसात का सबसे ताकतवर मोहरा होता है, यहाँ तक कि बादशाह से भी ज्यादा - शतरंज के इतिहास में इस मोहरे के विकास की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है - शुरुआत में तो यह मोहरा भी मर्द ही था... परसिया (यूनान) में इसे 'फर्जान' कहते थे जिसका मतलब होता है सलाहकार - तब यह उतना ताकतवर भी नहीं था, इसे राजा की सुरक्षा में बस एक कदम तिर्यक चलने की इजाजत थी - बाद में अरब से होते हुए जब यह खेल यूरोप पहुँचा, 'फर्जान' 'फर्स' में बदल चुका था - यूरोपियन्स 'फर्स' का मतलब नहीं समझ पाए थे और सिर्फ 'किंग' के बगल में होने के कारण इसे उन्होंने 'क्वीन' कहना शुरू कर दिया...

'सर, जब 'किंग' को हिंदी में राजा कहते हैं तो 'क्वीन' को रानी क्यों नहीं कहा जाता? हम इसे अब भी मंत्री ही क्यों कहते हैं?'

अन्वेषा के इस सवाल ने सारांश को कुछ परेशान किया था... मैं तुम्हारे इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं दे सकता लेकिन हाँ, इतना बता सकता हूँ कि 'क्वीन' को यह ताकत पंद्रहवीं शताब्दी में स्पेन में मिली - उस वक्त वहाँ औरतों की स्थिति हमारे देश की औरतों से ज्यादा अच्छी थी - वहाँ के लोग स्पेन की महारानी इसबेल्ला से गहरे प्रभावित रहे हों शायद...

...अन्वेषा की परेशानी बढ़ती जा रही थी और वह ठीक-ठीक नहीं समझ पा रही थी कि इस परेशानी का कारण बोर्ड पर विरोधी वजीर की यह चुनौतीपूर्ण चाल थी या फिर क्लास में बताई गई 'क्वीन' की ताकतें... गुरु ने क्लास में सिर्फ वजीर की ताकतें ही नहीं बताई थीं उनका काट भी बताया था - सारांश के बताए अनुसार अन्वेषा के लिए अभी जी-थ्री स्क्वायर पर खड़े सिपाही को आगे बढ़ा कर खतरे का सामना करना बहुत आसान था - लेकिन वह मंत्री की इस चाल का कोई मौलिक काट ढूँढ़ रही थी... उसे लगा उसने काट खोज ली है और उसने राजा की तरफ खड़े किश्ती के ठीक सामने के सिपाही को एक कदम बढ़ा कर हमलावर वजीर के ठीक आगे कर दिया -

सारांश के भीतर बैठा प्रशिक्षक अपनी शिष्या की इस चाल से दुखी हुआ था - क्लास में उसकी ऐसी गलती पर शायद वह चीख भी पड़ता - लेकिन उसके भीतर बैठा अनुभवी खिलाड़ी अपनी इस गुरुता पर कहीं न कहीं खुश भी था... - सारांश ने आठवें रैंक के सफेद खाने में खड़े काले ऊँट को बेधड़क आगे बढ़ाया और देखते ही देखते एक सफेद सिपाही धराशायी हो गया - जवाब में राजा के आगे खड़े अन्वेषा के सिपाही ने अभी-अभी अपने साथी को मार कर अकड़ रहे ऊँट को बिना पलक झपकाए मौत के घाट उतार दिया...

...सारांश ने एक बार फिर अपने वजीर को उम्मीद भरी निगाहों से देखा, उसे एक कदम आगे बढ़ाया और पलक झपकते ही काले ऊँट को मार गिरानेवाला सफेद सिपाही मैदान के बाहर -

वजीर जितना ताकतवर होता है सारांश उसका उतना ही खूबसूरत इस्तेमाल करता है- लेकिन पता नहीं क्यों जब कभी वह 'क्वीन' की कोई उम्दा चाल चलता है, खुश होने के बजाय वह असहज हो जाता है...सीमा दी घर में अकेली थीं जिन्होंने शतरंज खेलने या उसमें अपना कैरियर बनाने से उसे कभी मना नहीं किया - आज जब वह पीछे पलट कर देखता है तो उनके प्रति उसका मन कृतज्ञता से भर जाता है - उसके जीवन में शतरंज नहीं होता यदि समय-समय पर उन्होंने उसका हौसला नहीं बढ़ाया होता - जब उसने दिल्ली से लौट कर चेस एकेडमी शुरू करने की बात की थी, सीमा दी काफी उत्साहित थीं - लेकिन उस दिन उन्होंने उसे जो कहा था वह उसके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था... 'सारांश, 'क्वीन' शतरंज की सबसे स्ट्रांग पीस होती है लेकिन इस खेल में चैंपियन प्रायः पुरुष ही होते हैं - कितनी विरोधाभासी है यह बात कि जिस खेल में सबसे ताकतवर एक महिला होती हो उसमें सिर्फ और सिर्फ पुरुषों का वर्चस्व है - उम्मीद करूँ कि तुम्हारी एकेडमी इस खेल को कुछ सचमुच के 'क्वीन्स' देंगी -?'

दिल्ली से लौटना भी उतना आसान कहाँ था... 11 सितंबर 2002 की रात थी - वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अविश्वसनीय आतंकवादी हमला हुआ था - आग की तेज लपटों और काले-घने धुएँ के बीच खाक होती उस इमारत को देख उसे 1994 में हुए उस वर्ल्ड चैंपियनशिप की याद हो आई थी जब विश्वनाथन आनंद ने पहली बार गैरी कासपरोव को चैलेंज किया था - उस दिन देर रात तक टेलीविजन पर आँखें गड़ाए वह उस मैच का सीधा प्रसारण देखता रहा था - वह ऐतिहासिक मैच इसी इमारत में हुआ था - 11 सितंबर की वह रात उसके जीवन की सबसे बेचैन रातों में से एक थी - उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा था... 'आनंद के खूबसूरत कैरियर में आया एक यादगार मील का पत्थर आज तबाह हो गया... क्या मेरी जिंदगी भी एक दिन वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की तरह तबाही की धुआँते लपटों से घिर जाएगी? मैंने बहुत कोशिशें कीं... लेकिन शायद इससे आगे मैं नहीं जा सकता - हर महीने पापा का ड्राफ्ट समय से आ जाता है - वे सोचते हैं मैं आईएएस बनूँगा और मैं यहाँ 'सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल' की जगह 'चेसमेट' खरीदता हूँ... भूगोल और पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की किताबों से लाइब्रेरी भरी पड़ी है लेकिन मैं हर अगले दिन चेस से जुड़ी कोई नई किताब इश्यू करवा लाता हूँ - इन किताबों में छुपे ज्ञान की बदौलत मैं शतरंज के देशी-विदेशी सिद्धांतों पर किसी से बहस कर सकता हूँ - लेकिन बिना टूर्नामेंट्स खेले इन सिद्धांतों को व्यवहारिकी में कैसे उतारूँ -? टूर्नामेंट में भाग लेना खर्चीला है... ट्यूशन भी पढ़ा कर देख लिया - पैसे जोड़ने में लग जाओ तो खेल प्रभावित होता है और आगे खेलने के लिए पैसे चाहिए... आइएएस बनना मेरे सपने का हिस्सा नहीं है... पापा को इस तरह अँधेरे में रखना भी अच्छा नहीं लगता... हर बार ड्राफ्ट भँजाते हुए भीतर कचोटता है कुछ... अमित एमबीए करने जा रहा है - लाखों का खर्च आएगा और उसे लोन देने के लिए बैंको के बीच जैसे होड़ लगी है - लेकिन यहाँ तो इतनी अनिश्चितता है कि... आगे खेलना मुश्किल लगता है... मुझे अपना खेल छोड़ना होगा... जितनी जल्दी हो सके मुझे अपने शहर लौट जाना चाहिए...'

...सफेद बादशाह एक बार फिर खतरे में था - अन्वेषा ने उसे राइट कार्नर पर लगभग धकेलते हुए शह बचाने की कोशिश की - सारांश अपनी शर्तों के अनुसार पूरी तरह प्रोफेशनल था - उसने अन्वेषा को कोई रियायत नहीं दी - उसके घोड़े ने पहले एक सफेद सिपाही को फाँदा और एक कदम बाएँ जा कर विरोधी ऊँट पर कब्जा कर लिया...

...मुजफ्फरपुर से दिल्ली तक की यात्रा कर चुका एकलव्य अपने शहर लौट कर द्रोणाचार्य की भूमिका में आ गया था - खेल को ले कर होनेवाली राजनीति और उपेक्षा की कहानियाँ अब भी धुँधलाई नहीं थीं - लेकिन अभिभावकों का रुख अब बदलने लगा था - शहर के बच्चों में जैसे अर्जुन बनने की होड़ लगी थी... माहौल मे तैर रहे बदलाव की यह हल्की-सी खुशबू भी उसका हौसला बढ़ाने के लिए कम नहीं थी -

पापा उसके लौट आने से हैरान थे और दुखी भी - अगले साल उनकी रिटायरमेंट थी - उन्होंने उससे बोलना लगभग बंद कर दिया था -

पापा की चुप्पी और 'चैलेंजर्स चेस एकेडमी' में बच्चों की संख्या दोनों समान अनुपात में बढ़ रहे थे -

...सारांश जब कभी अकेले में होता उसे पापा की चुप्पी जोर-जोर से सुनाई पड़ती - वह उनकी चुप्पी की परतों को उघाड़ कर देखने की कोशिश करता और हर बार इसी नतीजे तक पहुँचता कि आज्ञाकारी पुत्र का अभिनय उसे बहुत पहले छोड़ देना चाहिए था, शायद पापा का दुख तब इतना घना नहीं होता -

...अन्वेषा ने एक और शह बचाने के लिए राइट कार्नर पर खड़े राजा को एक घर बाईं तरफ सरकाया था... सारांश ने एक और शह दिया - उसका वजीर एक कदम पीछे जा कर सफेद बादशाह के लिए फिर से खतरा बन गया था... सफेद बादशाह ने इस बार अन्वेषा की सलाह का इंतजार भी नहीं किया और अपने ठीक बाईं तरफ के खाली घर में भाग खड़ा हुआ - गुरु द्रोण का वजीर दो कदम दाएँ चल कर एक सफेद सिपाही को अपनी जमीन से बेदखल करते हुए विरोधी बादशाह के सामने आ खड़ा हुआ था - अन्वेषा इस शह को बचा नहीं सकी और गुरु के हाथों उसकी मात हो गई...

खेल बिसात पर खत्म हो गया था, दिमाग में नहीं... 'सर, बिना पोस्ट मैच अनालिसिस के तो...'

'गुड, मैं तुम से यही सुनना चाहता था -'

'सर, मुझसे कहाँ गलती हुई?'

'गलती नहीं, चौदहवीं चाल में तो तुमने ब्लंडर ही कर दिया - मुझे तो अब भी भरोसा नहीं हो रहा... तुम्हारे जैसी ब्रिलिएंट खिलाड़ी इतनी बड़ी भूल कैसे कर सकती है?' सारांश के भीतर की खीझ जैसे उबल ही आई थी -

'सर, मुझे आपकी बातें पूरी तरह याद थीं - मुझे जी-थ्री चलना चाहिए था - लेकिन मैं कुछ नया करना चाहती थी -' अन्वेषा के स्वर में एक खास तरह की दृढ़ता थी -

'मुझे यह जान कर अच्छा लगा कि तुमने कुछ नया करने की कोशिश की थी - लेकिन किसी टूर्नामेंट में इस तरह की जोखिम उठाने से बचना चाहिए - अपने समय में मैंने भी ऐसी कई गलतियाँ की हैं... नए प्रयोग तैयारी का हिस्सा होते हैं - मैच और टूर्नामेंट में तो...'

अगले दिन 'ऑल इंडिया इंटर-यूनिवर्सिटी चैंपियनशिप' के लिए पांडिचेरी जाना था - सारांश सामान ठीक कर रहा था और उसके मोबाइल की घंटी बजी थी... 'सर, डैड को ऑफिस के जरूरी काम से कल दिल्ली जाना है... उनकी छुट्टी कैंसिल हो गई है -' अन्वेषा की बातों ने सारांश को सकते में ला दिया था और इसी बीच फोन कट गया... सारांश देर तक उसका फोन लगाने की कोशिश करता रहा - रात की सियाही पर करियाए बादल और ज्यादा तह जमाने लगे थे - पैकिंग अधूरी छूट गई - मोबाइल की स्क्रीन पर नेटवर्क के पुनः बहाल होने की प्रतीक्षा में सारांश ने उस दिन की डायरी लिख डाली... 'क्या अन्वेषा ने जाने से मना करने के लिए फोन किया था -? क्या राजा आज एक और प्यादे की बलि ले लेगा -? वह टीम की सबसे मजबूत खिलाड़ी है - उसके बिना टीम कमजोर हो जाएगी - आखिरी समय में तो किसी और को भी नहीं ले जाया जा सकता... ऐसे समय में अन्वेषा के पिता को उसे जाने से नहीं रोकना चाहिए - मैं कल सुबह उनसे बात करूँगा -'

रात बहुत लंबी थी, बहुत गहरी... सारांश देर तक करवटें बदलता रहा - उसकी नींद अन्वेषा के फोन की घंटी से ही खुली... सर, डैड ने अपनी टिकट कैंसिल करा ली है - मैं अकेली ही चल रही हूँ...

...रात का धुँधलका हल्का हो आया था... सारांश की अटकी साँसें जैसे तेजी से वापस लौट रही थीं... उसे एक कहावत याद हो आई... 'एवरी पॉन इज ए पोटैन्शियल क्वीन'...प्यादा और ताकतवर हो गया था... इतना ताकतवर कि 'क्वीन' में बदल जाए... उसने तय किया अब से वह 'क्वीन' को वजीर या मंत्री नहीं, रानी कहेगा... सिर्फ रानी -