बिहटा की चीनी-मिल / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
यों तो सन 1932 ई. में ही बिहटा में चीनी बनाने की मिल का सूत्रपात हुआ। मिल के संचालक श्री रामकृष्ण डालमिया आदि ने मुझसे थोड़ी-बहुत मदद भी शुरू से कुछ दिनों तक ली। मगर उस मिल से मैंने जो कुछ सीखा और वहाँ जो कुछ मुझे करना पड़ा, वह मेरे जीवन-संघर्ष का एकमहत्त्वपूर्ण अंग है। वहीं मैंने सीखा है कि मालदार और स्थिर स्वार्थवाले पूँजीपति किस प्रकार चालाकी से जनता का शोषण करते हैं। बडे-बडे नेता और महात्मा उनके शिकंजे में किस प्रकार फँस के उनकी मदद भी इस शोषण में करते हैं! फिर भी समझ नहीं सकते कि वह ऐसा कर रहे हैं! प्रत्युत, उलटे यह मानते हैं कि वे पूँजीपतियों का प्रयोग जनता के लाभार्थ कर रहे हैं! हालाँकि, दरअसल पूँजीपति ही उनका प्रयोग अपने लाभ तथा पीड़ितों के शोषण के लिए करते हैं!
सबसे पहले मिल के लिए जमीन मिलने में उन्हें दिक्कत हुई। असल में बिहटा के जमींदार बड़े काइयाँ हैं। वे किसी की सुनते नहीं। मेरे पास मिलवाले पहुँचे कि सहायता करे। मैंने कहा,देखा जाएगा। इतने में एक दिन एक भलेमानस ने, जो दानापुर लोकलबोर्ड के वाइसचेयरमैन थे, मुझसे बात-बात में यों ही कह दिया कि आप आश्रम के लिए चंदे के पीछे हैरान क्यों हैं?मिलवालों को जमीन दिलवा दीजिए। फिर तो आपको पैसे की कमी न रहेगी! मेरे खून में यह सुनते ही आग लग गई। बस,चट उन्हें सुना दिया कि “तो क्या मिलवालों की नौकरी या गुलामी कर लूँ? या कि उनकी दरबारदारी करूँ?” वे बेचारे तो सकपका गए और उस बात का और ही मतलब लगाना शुरू किया। मैंने फिर कहा कि यदि मैं उचित यार कर्तव्य समझ के न कर सकूँगा,तो पैसों के लोभ से नहीं ही कर सकता। ऐसे पैसों पर पेशाब करता हूँ।
इस आखिरी बात का सिर्फ यह पहला ही मौका न था। 'लोक-संग्रह' के प्रेस के सिलसिले में ऐसी बात सुनाने का मौका आया था, जिसका उल्लेख हो चुका है। उसी प्रेस के सिलसिले में पटने के एक अच्छे जमींदार ने मुझे छ: सौ रुपए दिए थे। मगर मैंने उन्हें बचा रखा था। जब वह प्रेस मैंने कार्यी जी को सौंपा तो किसी के कहने-सुनने पर कुछ रंज हो कर उलाहना देते हुए उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि प्रेस में मैंने रुपए इसलिए नहीं दिए थे कि वह गैरों को दिया जाए। मैंने उन्हें भी यही लिखा था कि ऐसे रुपयों पर पेशाब करता हूँ, जो मुझ पर किसी प्रकार का दबाव डालें और मेरी आजादी संकुचित करें। आप जब चाहें,सूद सहित आपके रुपए लौटा दूँ। आपने जिस प्रेम से उपकार के लिए, दिया था, उसी प्रेम से मैंने उन्हें बचा रखा और इस आश्रम को सौंप दिया है। यह बात आश्रम की रिपोर्ट में आप देख सकते हैं। इस पर वह बुरी तरह झेंपे और मुझसे क्षमा माँगी।
खैर, मैंने जमींदारों से कह के जमीन तो दिलवा दी। उन्होंने कीमत आदि के लिए ज्यादा झमेला भी छोड़ दिया। मैंने समझा कि चीनी की मिलें तो अब विलायती चीनी पर प्राय: साढ़े छ: रुपए मन टैक्स लग जाने के कारण यहाँ खुलेंगी ही। लेकिन यदि कोई विदेशी आकर खोले तो उससे कहीं अच्छा यह डालमिया है, जो गाँधी टोपी तो पहनता और अपने को कांग्रेसी तो बताता है! लोग भी उसे ऐसा मानते हैं। मगर इसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ। उसे इससे हिम्मत हुई। फिर तो मुझे फँसाने के लिए उसने अनेक उपाय किए। शायद लोगों ने उसे कह दिया कि यह स्वामी विचित्र है। यों न सुनेगा। जाओ और धीरे-धीरे उससे हेलमेल करो, तो शायद चकमे में आ जाए। यों तो रुपए-पैसे का नाम लेने पर जूते से ही बातें करेगा।
यही हुआ और डालमिया परिवार ने धीरे-धीरे आश्रम में आना-जाना शुरू किया। फिर प्रस्ताव किया कि मेरी बहन का यह लड़का यहीं आश्रम में ही रहे। मैंने कहा,देखा जाएगा। बाद में लड़के की माँ और दादी से भी कहलवाया। मगर मैं टालता गया। एक दिन तो यहाँ तक बात उनने कह डाली कि मैं उसके लिए अलग मकान यहीं बनवा दूँगा। फिर आश्रम के एकाधा शुभचिंतकों से यह कह दिया कि अब लड़के को रखवाइए। उन्होंने 'हाँ' भी कह दिया। इस पर मैंने कह दिया कि “लेकिन बिना मेरी आज्ञा के वह यहाँ नहीं आ सकता।” इस पर वे लोग चकराए कि यह क्या? और जब एक दिन उन्होंने पूछा तो मैंने साफ कह दिया कि यहाँ गरीबों के लड़के रहते हैं, बारह मास सवेरे ही उठते हैं और आश्रम का सारा काम अपने हाथों ही करते हैं। यहाँ कोई नौकर है नहीं। आपका लड़का यह कर नहीं सकता। मैं उसके साथ रियायत करके परलोक में या दुनिया को क्या उत्तर दूँगा? मैं ऐसा कर नहीं सकता। इसलिए उसे यहाँ रख नहीं सकता। इस प्रकार यह बला टली।
फिर भी आना-जाना जारी रहा। वे लोग दस-बीस दिनों के बाद पाँच-छ: रुपए लड़कों के लिए दे जाते कि इनका भोज कर दीजिए। ये ब्रह्मचारी लोग खाएँगे। कारण बताते कि आज अमुक पूजा है, आज अमुक आदमी का जन्मदिन है, आज घर में ब्याह है, आज भोज है, आदि-आदि। मैंने सोचा कि यह दूसरी बला आई और अगर ऐसे ही महीने-पंद्रह दिन बाद बराबर इनके रुपए आते रहे तो अच्छा न होगा। क्योंकि इन रुपयों में बड़ी मोहनी शक्ति है। फलत:, मुझमें इनके प्रति मुरव्वत और रियायत धीरे-धीरे आ जायगी। इन्हें यहाँ मिल में मजदूरों से काम लेना और किसानों से ऊख लेनी है। उस समय जब ये मजदूरों और किसानों को कष्ट देंगे, उन पर ज्यादतियाँ करेंगे तो मेरे लिए ये रुपए खतरनाक और जाल सिध्द होंगे। इन्हीं के करते मुरव्वत के मारे बोलने की हिम्मत न होगी। कहते हैं कि चोर जब चोरी करने चलते हैं तो साथ में गुड़ ले लेते हैं और जब कहीं रास्ते में कुत्ते भूँकते हैं, तो वही गुड़ उनके आगे फेंक देने पर उनका भूँकना रुक जाता है। वे गुड़ खाने में फँस जो जाते हैं। ठीक यही बात ये पूँजीपति करते हैं। ये हमें भूँकनेवाले समझ पहले ही से गुड़ डालते हैं। इसलिए मैंने एक दिन बेमुरव्वत हो के कह दिया कि आप आइए, जाइए खुशी से। मगर खुदा के लिए वे रुपए न दिया कीजिए। नहीं तो एक दिन आप यहाँ गरीबों पर जुल्म करेंगे और इन रुपयों की मोहनी मेरा मुँह उस समय बंद कर देगी। उन्हें यह सुनकर आश्चर्य तो हुआ। मगर फिर उनने रुपए कभी न दिए। इस प्रकार यह दूसरी बला भी खत्म हुई।
मिल के संचालकों ने बाबू राजेंद्र प्रसाद को भी मिल का एक डायरेक्टर बना दिया। उसका उद्धाटन पं. मदनमोहन मालवीय करेंगे यह भी घोषणा हो गई। उधर यह भी प्रचार किया गया कि यहाँ तो मिल के मजदूरों के लिए आदर्श निवास स्थान बनेंगे। उनके बच्चों के पढ़ने के लिए स्कूल आदि का पूरा प्रबंध होगा। मुझ से बातों में वे यह भी कहा करते थे कि वेग सदरलैंड आदि अंग्रेजों की जो मिलें हैं उनमें खर्च ज्यादा होता है। हम तो खर्च कम करेंगे। फलत: किसानों को काफी पैसे देकर ऊख लेंगे, मजदूरों को पर्याप्त वेतन देंगे और इतने पर भी हमारी चीनी उनकी चीनी से सस्ती होगी। खैर, मालवीय जी तो नहीं आए।
इधर जब मिल बहुत कुछ बन गई तो एक दिन बातचीत में बोले किसान तो तीन आने मन की दर से ऊख देंगे! क्योंकि उन्हें पैसे की जरूरत जो है। हमने कहा कि वेग सदरलैंड तो छ: आने देता है। आप तीन ही आने की बात कैसे करते हैं? कहने लगे कि इतने ही में परता पड़ेगा। मेरे यह कहने पर, कि अभी तो कुछ दिन पूर्व कहते थे कि हमारा खर्च कम होने से हम काफी पैसे देकर भी सस्ती चीनी बेचेंगे। तो फिर आज क्या हो गया? बोले कि आमद और माँग (Supply and demand) का सिध्दांत भी तो देखना है। मैंने कहा, कि सिर्फ ऊख के बारे में ही यह वसूल लागू होगा या चीनी के बारे में भी? विदेशी चीनी पर गहरा टैक्स लगाने पर ही तो आपकी मिल खुल सकी है! यह बात भूल गए इतनी जल्दी? चीनी के बारे में भी यही सिध्दांत लगाकर मिल खोल लें तो देखूँगा। और अगर आपकी यही नीयत है तो मैं अभी से किसान को तैयार करूँगा कि मिल में ऊख न दें। तब कहने लगे आपकी कौन सुनेगा? वह तो गर्ज का बावला,खामख्वाह जिस दाम पर हम चाहें उसी दाम पर ऊख देगा ही। मैंने कहा,मैं मानता हूँ आपके पास पैसे हैं। इसलिए सरकार और पुलिस भी आपकी सहायता करेगी। आपको ऐसे लोग भी मिलेंगे जो किसानों को फुसलाएँगे। आप नोटिसें आदि छपवाकर और अखबारों के द्वारा भी अपना काम निकाल लेंगे और शुरू में ऊख पाजाएगे। फिर भी मैं अपना यत्न न छोडेगा। तब हँसकर कह बैठे कि,तो फिर यत्न से लाभ ही क्या, जब मुझे ऊख मिल ही जाएगी? इस पर मैंने सुना दिया कि पचास वर्ष पूर्व जब कांग्रेस बनी तो उसे कोई पूछता न था। मगर लगे रहने का फल हुआ कि आज सरकार को वह चैलेंज देतीऔर झुकाती है। यदि किसी के घर में लगातार दस-पाँच बार लोग बीमार हों और डॉक्टर,वैद्यादि के यत्न होने पर भी मरजाए,तो इसका अर्थ यह थोड़े ही होगा कि उसके बाद कोई बीमार पड़े तो डॉक्टर वगैरह बुलाए ही न जाए। इस पर वे चुप हो गए और मैं चला आया।
लेकिन बाघ के जबड़े का पता चल गया। और मैं पूरा सजग हो गया। मेरा प्रचार किसानों में खूब हुआ। बीसियों नोटिसों और सैकड़ों सभाओं के द्वारा मैंने उन्हें आगाह किया कि खतरा है। उधर उनने भी जोर लगाया। गुड़ बनाना किसान बंद कर दें तो मिल के गुलाम बन जाए, इस चाल से उन्होंने उनमें झूठे प्रचार करने में सारी ताकत लगा दी कि गुड़ न बनाओ। मैंने पूँजीवाद का नग्न रूप वहाँ देखा। ऐसे-ऐसे गंदे और झूठे प्रचार किसानों को धोखा देने के लिए किएगए कि मैं दंग रह गया। अंत में यह भी प्रचार हुआ कि मैं मिल से दो हजार रुपए माँगता था और न मिलने पर ही विरोधी बन गया। मगर”यहाँ कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं”। किसान तो मुझे खूब जानते हैं। फलत: उसकी एक न चली और गुड़ बनाना जारी रहा। यह मेरी पहली जीत पहले ही वर्ष हो गई। उसके बाद तो मैंने,उसी साल,और आगे भी, मिलवालों को मजबूर करवा के सात और आठ आने मन तक ऊख का दाम किसानों को दिलवाया। जबकि पाँच और छही आने दूसरी जगह मिलते थे। सरकार ने भी इतना ही नियत किया था। इस प्रकार,जानें कितने लाख रुपए मिल से छीनकर किसानों को दिलाया। यों मेरी जीत पर जीत रही। उनके साथ मेरी लड़ाई जारी हो गई। मैंने उनसे साफ कह दिया कि चैन से न रहने दूँगा।
उसके बाद वहाँ तीन हड़तालें हुईं, सन 1936 की जनवरी में पहली, सन 1938 की पहली जनवरी को दूसरी और सन 1938-39 में तीसरी। पहली तो सिर्फ किसानों की थी। उसमें महीनों ऊख बंद रही! लाखों रुपए उनके (मिल के) स्वाहा हो गए। बारह और चौदह आने मन ऊख की कीमत उन्हें दूर से मँगाने में पड़ी! फिर भी सूख गई! फलत: उनकी सब गर्मी उतर गई! किसानों के पाँव पड़ते-पड़ते बीता। तब कहीं हड़ताल टूटी। किसानों के साथ जो बदसलूकी मिलवाले करते थे,वह बहुत कुछ जाती रही। हालाँकि,वह हड़ताल सफल नहीं हुई। असल में मेरी अनुपस्थिति में बिना मुझसे पूछे ही एकाएक किसानों ने मिल की शैतानियत से ऊबकर वहीं मारपीट की और ऊख बंद कर दी। जब मैं लौटा तो हालत देखी। आखिर करता क्या?किसानों का साथ तो देना ही था। फलत: ऐसा संगठन,ऐसी पिकेटिंग और ऐसी मुस्तैदी महीनों रही कि पुलिस की मदद से गाँवों से ऊख की गाड़ियाँ मँगानी पड़ीं कितने ही स्वयंसेवक पिकेटिंग में पकड़े गए। हमने भी हड़ताल की पहली शिक्षा पाई।
दूसरी हड़ताल तो किसानों और मजदूरों─दोनों─की ऐसी सफल हुई कि 48 घंटे में मिलवाले थर्रा गए और मजदूर संघ के सभापति श्री श्यामनंदन सिंहएम.एल.ए. से सुलह करके मजदूरों की सभी शर्तें उनने मान लीं। मजदूरों की बात लेकर ही हड़ताल थी। मगर किसानों ने पूरा साथ दिया। जब हुक्म मिला तभी फिर मिल में ऊख आने लगी।
मगर इसके बाद भीतर-ही-भीतर मिलवालों ने बदला चुकाने की बंदिश की। कुछ नामधारी नेताओं को, जो गाँधीवादी और सोशलिस्ट सब कुछ बनते हैं और असेंबली एवं कौंसिल के कांग्रेसी मेंबर तथा पार्लिमेंटरी सेक्रेटरी भी हैं,बुलाकर एक नकली यूनियन खड़ी कर ली। इसके बाद दूसरी हड़ताल के बाद की गईशर्तें धीरे-धीरे तोड़ने लगे। टालमटूल में नाकों दम कर दिया। जब 1938-39 का सीजन (ऊख पेरने का समय) शुरू हुआ तो हमारी यूनियन के नेता लोगों ने केवल मजदूरों की हड़ताल कराई। मगर भीतर-ही-भीतर मार-पीट दबाव के करते सिर्फ दो-ढाई सौ के सिवाय और मजदूर हड़ताल न कर सके। फलत: वह विफल हुई। मुझे बड़ा कष्ट हुआ। यूनियन के काम से मेरा ताल्लुक न रहने से और उसके लिए समय न दे सकने के कारण मैं सारी बातें जानता न था। दूसरे साथी तो उसमें थे ही और उन्हीं पर मेरा विश्वास था, मगर वे लोग काम ठीक-ठीक करते न थे। इसी से गड़बड़ी हुई। अब तो शर्म के मारे वे लोग भागने को तैयार हो गए।
मुझे यह बात बर्दाश्त न हो सकी। मैंने कहा कि किसानों की ऊख बंद करवा के और रेल से आनेवाली ऊख की पिकेटिंग कर के मिलवालों को दुरुस्त करूँगा। मगर दोस्तों को इसमें विश्वास न था। वे इतने पस्त थे कि कहने लगे कि आप भी बेइज्जत होंगे। कोई सुनेगा नहीं और पचीस-पचास आदमी जेल में जाने के बाद टाँय-टाँय फिस हो जाएगा! मैंने दिन भर उनसे दलीलें करके उन्हें विश्वास दिलाना चाहा कि किसान ऐसा न करेंगे,मेरा विश्वास है। मगर मानने को वे लोग तैयार न थे। बड़ी दिक्कत के बाद शाम को माना। और मैंने घोषणा कर दी? फिर तो बिजली दौड़ गई और 48 घंटे के भीतर पिकेटिंग में दो-ढाई सौ आदमी जेल गए,ऊख की गाड़ियाँ कतई बंद हो गईं। मिलवालों ने फिर तो थर्रा कर सुलह की। वे मेरे पास दौड़े आए और सुलह की बात चलाकर मामला तय किया। इस प्रकार जैसे-जैसे मजदूरों की रक्षा पुनरपि किसानों ने की। सबकी इज्जत रख ली। पीछे तो साथी लोग भी शर्माए।
जनसमूह का काम करनेवालों को जनता में, अपने लक्ष्य में और अपने आप में अपार विश्वास रहना चाहिए। तभी सफलता मिलती है। मुझे तो किसानों में अमिट विश्वास है। फलत:, कभी भी मुझे निराश होना नहीं पड़ा है। उन्होंने बराबर साथ दिया है। पहली हड़ताल के समय तो बड़े-बड़े दलाल मिल की तरफ से मुझे ठगने आए। एक ने तो जरा गुस्ताखी भी की। गो बाकी लोग चालाकी से ही बातें करते रहे। उसने ज्यों ही कहा कि आश्रम को दस हजार रुपए एकमुश्त और दो सौ मासिक दिएजाएगे,कि मैं गुस्से में आकर तड़पा कि जबान खींच लूँगा रे नीच, नहीं तो भाग जा। मुझे ठगने आया है?किसानों के खून का पैसा लेनेवाला मैं? फिर तो सिटपिटाकर वह भाग गया।
मैंने मिल के साथ संघर्ष करके अनुभव किया है कि स्थिर स्वार्थवाले बड़े ही कमजोर होते हैं। यदि हिम्मत करके डटिए तो शीघ्र बम बोल जाते हैं। मैंने यह भी देखा किसानों और मजदूरों के परस्पर सहयोग के बिना सफलता नहीं मिल सकती। सबसे बड़ा अनुभव यह हुआ है कि नेताओं को ठगने का उनका तरीका मालूम हो गया! वह मीठी छुरी जैसा है। अगर मैं जरा सा ढीला पड़ता तो दो-चार सौ रुपए महीने और कुछ हजार एकमुश्त लेकर आश्रम में सुंदर मकान बनवा देता, कई पंडित रख के सैकड़ों लड़कों को पढ़वाता,सुंदर पुस्तकालय बनवा देता। फिर तो चारों तरफ इसका शोर हो जाता कि स्वामी जी बड़ा काम कर रहे हैं! मगर असल में क्या होता?यही न, कि मिलवाले आठ और बारह आने के बजाए तीन ही चार आने फी मन के हिसाब से ऊख खरीदते और मजबूरन किसान उन्हें देते। क्योंकि गुड़ बनना बंद हो जाने से उनके लिए दूसरा चारा रही नहीं जाता। चाहे सरकार कुछ भी दाम ठीक करती,मगर तिकड़मबाजी से मिलवाले बहुत कम पैसे देते। और मैं? मैं तो चुप रह के टुकटुक देखा करता, यह सारी लूट, यह सारी तबाही! मुझे हिम्मत न होती कि जीभ खोलूँ। क्योंकि फिर वे पैसे बंद हो जाते जो! अनेक लीडर वहीं यही बात कर भी रहे हैं। फल यही होता कि एक ही साल में किसानों के कितने ही लाख पैसे लुटकर मिलवालों को मिल जाते और उसी खून में से दो-चार बूँदें वे हमें देते रहते! यही बात सब जगह होती है। जो धनियों एवं पूँजीपतियों से पैसे लेकर सार्वजनिक सेवा का ढोंग रचते हैं वह गरीबों का खून इसी प्रकार लुटवाकर उसी में से दो-चार बूँदे पाते हैं। यह ध्रुव सत्य है।