बिहारी अस्मिता और बहुजन चिन्तन के पत्रकार / अरुण नारायण
सूर्यनारायण चौधरी बिहार के एक बहुत ही मेधावी, परिश्रमी और दूरदृष्टि संपन्न पत्रकार थे। किंतु अफसोस कि असमय उनका निधन हो गया। वे बिहार की अतिपिछड़ी ‘केवट’ जाति के थे। यह अकारण नहीं कि निधन के साथ ही उनका अवदान भी दफ्न कर दिया गया। वे विचारों में समाजवादी थे। जाहिर है समाजवाद के सिद्धांतों को ही राष्ट्र की बुनियादी समस्याओं का समाधान मानते रहे। एक सच्चे निष्ठावान कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न समाजवादी संगठनों के प्रचारात्मक एवं आंदोलनात्मक कार्यों में वे जीवन की अंतिम सांस तक सक्रिय रहे। ‘बिहार आंदोलन’ से लेकर अपने समय के कई ट्रेड यूनियन आंदोलनों से उनका गहरा जुड़ाव रहा। समाज सेवा की इसी ख्वाहिश में रेलवे की नौकरी छोड़ी। कई तरह के दुर्दिन सहे। अंततः बिहार विधान परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए, लेकिन इसी दरम्यान उनका निधन हो गया। 12 जनवरी, 1933 को मधुबनी जिले के मिर्जापुर गांव में पैदा हुए सूर्यनारायण चौधरी के पिता रामलखन चौधरी सामान्य गृहस्थ थे। जहां पठन-पाठन की पहले से बनी-बनाई कोई परंपरा न थी। उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया स्वयं के संघर्षों और उनसे प्राप्त अनुभवों की बदौलत।
1950 से 1954 तक सी.एम.कॉलेज दरभंगा में अपने कॉलेज अध्ययन अवधि में ही उनकी पक्षधरता तय हो गई थी। इस बात की पुष्टि विभिन्न छात्र संगठनों एवं समितियों में समाजवादी नेतृत्व स्थापित करने में उनकी प्रभावकारी भूमिका में नजर आती है। इसी संस्थान से उनकी बी.ए., बिशारद तक की पढ़ाई पूरी हुई। लेकिन यहां तक आते- आते यह पढ़ाई तो महज औपचारिकता भर रह गई थी। समाज निर्माण के लिए चल रहे संघर्सों में खुद को पूरावक्ती कार्यकर्ता के रूप में काम और सिर्फ काम यह उनका एक मात्र मकसद बन चुका था। समाजवादी नेता सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में संचालित भूमि आंदोलन में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया। 1969 में फणीश्वरनाथ रेणु के सहयोग से ‘रचना’ नामक साहित्यिक संस्था की स्थापना की। इसके सचिव के रूप में साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विषयों पर गोष्ठियाँ आयोजित की। ‘बिहार आंदोलन’ के समय रेणुजी के साथ मिलकर नुक्कड़ कवि सम्मेलनों, नाटकों एवं चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन किया।
1981 में कर्पूरी ठाकुर की प्रेरणा से श्री लालू प्रसाद एवं सच्चिदानंद के साथ मिलकर राजगीर में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों एवं राजनीतिज्ञों को एक मंच पर एकत्रित कर ‘संपूर्ण क्रांति एंव कौमी एकता’ सम्मेलन किया। ‘ऑल इंडिया रेलवे मेंस एसोसिएशन’ से भी वे गहरे जुड़े रहे। 1968 में रेल हड़ताल के समय गिरफ्तार हुए और जेल की सजा पाई। ‘प्रेस बिल विरोधी आंदोलन’ एवं ‘मंडल आयोग’ की सिफारिशों को लागू कराने के लिए आयोजित प्रदर्शनों में हिस्सा लेकर इन्होंने अपनी गिरफ्तारी दी। 1986 में ‘लोकदल’ की प्रांतीय कार्य समिति के सदस्य मनोनीत किए गए। 1989 में आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के घेराव कार्यक्रम में पुलिस ने इनकी बर्बरतापूर्ण पिटाई की। लेकिन इनकी पक्षधरता कभी कमी नहीं। आपातकाल में जहां बड़े-बड़े क्रांतिकारी की शिटी-पिटी गुम हो गई थी उस समय भी वे बहादुरी के साथ गुप्त साहित्य का प्रकाशन एवं उसका वितरण करने में लगे थे। जीविका निर्वहन के लिए उन्होंने रेलवे की नौकरी की। बहुत दिनों तक दानापुर में कार्यरत रहने के बाद यह नौकरी भी छोड़ दी। परिणामतः आर्थिक विपन्नता के दुर्दिन भरे दंश सहे। उनका यह संकट भी टला। जब 1990 के द्विवार्सिक चुनाव में ‘जनता दल’ के उम्मीदवार के रूप में विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित होकर बिहार विधान परिसद के सदस्य बने। 7 मई 1990 को उन्होंने सदस्य के रूप में शपथ ली। सुख का यह दिन आया ही था कि अचानक दिल्ली के बतरा हॉस्पिटल में हदय गति रूक जाने के कारण 14 अप्रैल, 1991 को उनका निधन हो गया। सूर्यनारायण चौधरी सामाजिक न्याय की लड़ाई के अपने समय के एक प्रतिबद्ध बौद्धिक थे। उनके लिए सामाजिक न्याय और बिहारी अस्मिता आज के मंडलवादी नेताओं की तरह परिवारवाद, अहमन्यता और छद्म बिहारी अस्मिता न होकर एक वास्तविक और सामूहिक
चिंतन की कसौटी थी, जो बहुसंख्यक आबादी को उनके वास्तविक हकों के संविधान के द्वारा लागू किए जाने की चिंता में बसती थी। वे जीवन और लेखन-दोनो में ही अद्भुत जीवटवाले इंसान थे। यह जीवटता उन्हें अपनी जातीय बिरादरी से विरासत में मिली थी। उनकी लिखी रपटें, भेंट वार्ताएं, संस्मरण और विश्लेषण ‘दिनमान’, ‘धर्मयुग’,‘रविवार’ जैसी पत्रिकाओं और ‘हिंदुस्तान’, ‘आज’, ‘आर्यावर्त’, ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ और ‘नवभारत टाइम्स’ जैसे दैनिक अखबारों में छपे। एक सजग आंदोलनकारी होने के नाते उन्होंने तत्कालीन बिहार की समस्या को बहुत गहरे महसूस किया था। यह अकारण नहीं कि उनकी लिखी ज्यादातर रपटें गंभीरता के साथ राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय हर तरह की समस्या को एक व्यापक फलक पर उद्घाटित करती हैं। इसकी तस्दीक उनके जीवनकाल में प्रकाशित पुस्तक ‘बिहार की अस्मिता’ में की जा सकती है। इस पुस्तक में शामिल लेखों की प्रकृति निबंध, संस्मरण, यात्रा वृतांत, गोष्ठी विवरण, रपट-रिपोर्ताज और भेंट वार्ता आदि कई रूपों में है। बिहार पर अपनी तरह की यह एक विरल पुस्तक है। जिसमें बिहार के छठे दशक से लेकर नौंवें दशक के आंरभिक वर्षों के राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक-सांस्कृतिक जीवन के लगभग सभी महत्चपूर्ण घटनाक्रम पर वस्तुनिष्ठ नजरिए से विचार किया गया है।
आंदोलनकारी होने के नाते रोजमर्रे की हलचलों से उनका गहरा नाता था। इसीलिए उनका सरोकार भी बड़ा था। गहरे सरोकार और गंभीर विश्लेषण से भरे उनके लेख तत्कालीन बिहार को समझने की एक बारीक सूत्र देते हैं। इन लेखों में श्री चौधरी ने एक विकसित राज्य के रूप में बिहार के विकास के रास्ते भी सुझाएं हैं। उनके हर आलेख गहरी तफ्तीश के बाद लिखे जाते थे। वे किसी भी विसय को एक पत्रकार के रूप में जब उठा रहे होते हैं तो उनकी हरसंभव यह कोशिश रहती है कि संबंधित विषय को कई स्तरों से जांच-परख लिया जाए, तभी किसी विषय व घटना के बारे में कोई सत्य का उद्घाटन किया जाए। उनकी कुछ भेंट-वार्ताएं बेहद दिलचस्प हैं, खासकर कर्पूरी ठाकुर, जेपी, बीपी कोईराला से जुड़ी वार्ताएं। इसी तरह लोहिया, रामानंद तिवारी और रेणु आदि पर लिखे संस्मरण व ‘बिहार आंदोलन’ बोधगया का भूमि संघर्ष और बिहार की महिलाओं पर लिखा उनका बहुचर्चित समाजशास्त्रीय लेख ‘पटना की महिलाओं की पहचान क्या है’ अपने समय में भी बेहद चर्चित रहे। साहित्यिक- सांस्कृतिक परिदृश्य और सामाजिक न्याय के सवाल पर उनकी गजब की पकड़ थी। ‘मिथिला के लोककथाकार मणिपद्म’, ‘काफी हाउस का गुजरा हुआ जमाना’ और ‘मुत्यु के बाद का कर्मकांड’ सरीखे बेमिशाल संस्मरण, विश्लेषण इसकी जीवंत बानगी कहे जा सकते हैं।
सूर्यनारायण चौधरी के समकालीन, पूर्ववर्ती कई पत्रकार हुए हैं। उनसे अनेक प्रतिभाशाली रहे हैं। लेकिन जो चीज उन्हें अलग करती है वह है उनका सच्चा, सरल और नियमित प्रतिबद्ध लेखन। अपनी धुरी पर इतनी नियमितता और पक्षधरता के साथ जो काम चौधरीजी ने किया, वह किसी ने नहीं किया। उन्होंने तत्कालीन बिहार की सताश्रयी और सामंती मिजाज की पत्रकारिता के बरअक्स मास पत्रकारिता की। उन्होंने नागर के समानांतर ग्रामीण, भ्रमणशील, सामाजिक न्याय और विचार की पत्रकारिता की। बिहारी अस्मिता की बात आज एक फैशन और नारे की तरह जुमलेबाजी का शिकार हो गई है। लेकिन औपनिवेशिक बिहार में सच्चिदानंद सिन्हा और आजाद बिहार में सूर्यनारायण चौधरी ऐसे पहले पत्रकार थे जिन्होंने बिहार की अस्मिता को लेकर ठोस और तार्किक विचार प्रस्तुत किए। श्री चौधरी ने ‘बिहार की अस्मिता’ शीर्षक लेख ही लिखा। बिहारी उपराष्ट्रीयता बनने के जो भी सूत्र हैं, उनकी एक सिलसिलेवार तार्किक निष्पत्ति दी। बिहार की अलग- अलग समस्याओं पर लिखी उनकी गंभीर व शोधपूर्ण खबरें तत्कालीन बिहार की राजनीति और उस समय के जनमानस की सोच के कई स्तरों को सामने लाती है। उस यथार्थ के साथ सामाजिक न्याय का जहां कहीं मर्दन होता है, वे सप्रमाण उसको टारगेट करते हैं। ‘दिनमान’ में उन्होंने जगजीवन राम के संसदीय क्षेत्र की एक रिपोर्ट ‘क्या आप सासाराम नहीं आएंगे? नाम से लिखी थी। एक अवसरवादी और दलित विरोध की भूमिका में वोट के लालच में उन्होंने किस तरह इलाके के अपनी ही जातियों के हितों का मर्दन किया, यह सच इस रपट में पढ़कर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। आज बहुतों के लिए जगजीवन राम दलित आइकान बने हुए हैं कोई जीवनी लिख रहा है तो कोई अन्य तरीके से उपकृत हो रहा है, लेकिन श्री चौधरी की यह रिपोर्ट और मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ ने इस दलित राजनीति के अवसरवादी एप्रोच को बहुत पहले ही पहचान लिया था।
सूर्यनारायण चौधरी ने भारत के संपूर्ण राज्यों की यात्रा कर संबंधित क्षेत्रों के जनजीवन का गहरा अध्ययन किया था। उनकी पुस्तक ‘समय की यात्रा’ में उनका यह एप्रोच अपने कई आयामों के साथ प्रकट हुआ दिखता है। उन्होंने ‘दिनमान’ में धारावाहिक रूप से पूर्वांचल के बारे में 5 आलेख लिखे थे, जो इंटरव्यू, यात्रा वृत्तांत आदि रूपों में छपे थे। उनकी इस यात्रा का उदेश्य था वहां के जनजीवन को करीब से देखना। अपने एक पत्र में उन्होंने स्वयं इसकी चर्चा करते हुए लिखा है, ‘अपने छात्र जीवन से ही समाजवादी आंदोलन के साथ जुड़े रहने के कारण और डा. लोहिया के पूर्वांचल संबंधी विचारों से प्रभावित होने के कारण मैंने अपने 40 दिनों की यात्रा में कई स्थानों पर उनके राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को एक साथ मिलाकर देखने की कोशिश की है। नहीं जानता, इसमें कहां तक सफल हो सका और कहां तक यह वृतांत और रपट आपके लिए उपयोगी सिद्ध हो पाएगा।’ अपने इसी पत्र में उन्होंने यह भी इच्छा प्रकट की है कि तीन-चार महीने तक पूरे पूर्वांचल में घूमें, लेकिन उनके जैसे स्वतंत्र-लेखक पत्रकार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं रही कि अपनी यह मुराद पूरी कर पायें। पूर्वांचल पर लिखे हुए इन अनुभवों को वे ‘पूर्वांचल का यात्री’ नाम से पुस्तक साया करना चाहते थे। लेकिन यह उनके जीते-जी संभव नहीं हो पाया। हालांकि इसकी पांडुलिपि
उन्होंने बना रखी थी। वह पांडुलिपि इस लेखक को कुछेक साल पहले उनके सुपुत्र विनोद चौधरी के सौजन्य से प्राप्त हुई। उसके साथ ही ‘समकालीन परिवेश की काली याद’ नामक पांडुलिपि भी, जिसमें लगभग 6 दशकों के बिहार में घटी अलग-अलग घटनाओं के सूक्ष्मतम ब्यौरे हैं। और कुछ कविताएं भी। इन दोनों किताबों का प्रूफ तक देखा जा चुका लेकिन बिहार के एक छोटे प्रकाशक के आलस्य के कारण यह किताब अभी तक अधर में लटकी है। कोई है जो इसे साया कर पाए? सूर्यनारायण चौधरी की तरह का प्रभावी लेखन समाज निर्माण की उत्कट आकांक्षा और उदेश्यपूर्ण जीवन से ही विकसित होती है। आज अगर वे जीवित होते तो 83 साल के होते। मैं सोचता हूं कि एक ऐसे समय में जब बिहार की पत्रकारिता सताचारी और नस्लीय दोनों ही संकीर्णताओं की होड़ में एक से एक कीर्तिैमान बनाने में लगी है, सूर्यनारायण चौधरी जीवित होते तो क्या करते? अपने समाजवादी साथियों की तरह ही वर्तमान सता की आरती उतारते? या कम्युनिस्ट साथियों की तरह मौन हो अपना मतलब निकालते? निश्चय ही वे इन दोनों ही रास्तों का निषेध करते हुए अपनी सही, सच्ची आवाज को मुखर कर रहे होते। नई पीढ़ी को अपने इस प्रखर, प्रतिबद्ध और विचारवान पत्रकार की आज सबसे ज्यदा जरूरत है, जो इस दिशाहीन समय में देश, समाज के बारे में आत्मचेतस पैदा कर सके।