बिहार एक एक्शन फिल्म है / जयप्रकाश चौकसे
बिहार एक एक्शन फिल्म है
प्रकाशन तिथि : 04 अप्रैल 2009
फिल्मकार प्रकाश झा की पहली फिल्म ‘दामुल’ से लेकर निर्माणाधीन ‘’राजनीति’ तक सभी की प़ष्ठभूमि बिहार रही है और राजनीतिक तरंग सतह के भीतर प्रवाहित रहती है। अब वे असल अखाडे में उतरे हैं और इस बार विगत चुनाव की तरह निर्दलीय नहीं हैं वरन लालू-पासवान गठबंधन के उम्मीदवार हैं। लालू ने अपनी पत्नी के भाई साधु यादव को अवसर नहीं दिया और साधु ने प्रकाश झा के खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लडने का फैसला किया है।
धुरधंर खिलाडी लालू ने अपने बदनाम साले से यह कहकर मुक्ति पा ली कि प्रकाश झा पासवान के उम्मीदवार हैं। दरअसल, लालू यादव बखूबी जानते हैं कि अब साधु यादव की दादागिरी वाली शैली नहीं चल सकती, क्योंकि सारे देश में चल रही परिवर्तन की हवाओं से बिहार सर्वथा अछूता नहीं है। इस बार के चुनाव में देश की उर्जा का अपव्यय करने वाले लोगों को भारी खामियाजा भुगतान होगा, बहुप्रचारित पावर ब्रोकरों को अपनी औकात पता चल जाएगी। अवाम ने अपने आक्रोश को अपने सीने में दबाकर रखा है। सडक पर हुडदंग मचाने वाले किराए के टटुओं से भी अवाम खफा है। बिहार विधानसभा के लिए हुए विगत चुनाव में प्रकाश झा ने लालू के खिलाफ नीतीश कुमार का साथ दिया था, परंतु उनका ख्याल है कि सत्ता में आकर नीतीश का लालूकरण हो गया है और बिहार को बदलने के बदले वह स्वयं वैसे ही हो गए जिनकी मुखालफत करते थे। यह भारतीय सत्ता का विचित्र प्रभाव है कि सबको एक जैसा कर देती है। कुर्सी के कुर्सीबल में चरित्रहीनता ही ढलती है।
प्रकाश झा की फिल्में ही प्रकाश का चुनावी मैनीफिस्टों हैं, उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का फैलाव है। सत्ता में आने पर वह अपनी सिनेमाई निष्ठा के अनुरूप ईमानदारी से काम करेंगें। वे गंगाजल उठाकर प्रतिबद्ध हैं कि नैतिकता का अपहरण नहीं होने देंगें। उनके प्रतिद्वंद्वी साधु यादव को अभी इस बात का अनुमान नहीं है कि बिहार के सिनेमा प्रेमी युवा प्रकाश झा के लिए कितना काम कर सकते हैं। यूं तो पूरा भारत ही फिल्ममय है, परन्तु बिहार से बडा सिनेमा प्रेमी और कोई प्रांत नहीं है। हिन्दी फिल्मों के साथ ही बिहार में प्रतिवर्ष लगभग सौ भोजपुरी फिल्में बनती है। कई बार भ्रम होता है कि बिहार का जीवन किसी फिल्मी पटकथा का ही हिस्सा है। कुछ इतनी अविश्वस्नीय बातें बिहार में घटित होती हैं कि वे फिल्मी ही लगती हैं।
बिहार प्राय: एक्शन अपराध फिल्म की तरह ही दिखाई पडता है, कभी सामाजिक फिल्म की तरह और कभी इत्तेफाक से एकाध बार प्रेमकथा की तरह लगता है। वहां के अनेक नेता गब्ब्र की तरह खैनी मलते हैं और उसी के अंदाज में बतियाते भी हैं। ग्रामीण अंचल में मोबंगों छाया रहता है। अधिकांश लोग रामपुरिया हैं और यह शब्द चाकू के लिए इस्तेमाल होता है। बिहार के सार्थक फिल्म् बनते ही इंडिया सचमुच शाईनिंग हो जाएगा।