बीए पास: पाठशाला अजब पाठ्यक्रम गजब / जयप्रकाश चौकसे

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बीए पास: पाठशाला अजब पाठ्यक्रम गजब
प्रकाशन तिथि : 02 अगस्त 2013


पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित कैमरामैन फिल्मकार अजय बहल की पहली फिल्म 'बीए पास' की साहसी कथा और तकनीकी गुणवत्ता के कारण उन्हें फिल्म कला में एमए पास माना जा सकता है। महेश भट्ट और विशाल भारद्वाज ने फिल्म की प्रशंसा की है। दरअसल, यह महेश भट्ट के सिनेमाई स्कूल की फिल्म है और विशाल भारद्वाज के अंधेरे से मुक्त है, परंतु समाज और सत्ता की राजधानी दिल्ली के उन संकरे गलियारों को प्रस्तुत करती है, जहां गरीबी है, फांकाकशी है और मजबूरियां हैं तथा सत्ता की भ्रष्ट व्यवस्था के कारण धनाढ्य अफसरों और अमीरों की आलीशान अट्टालिकाओं के अंधेरों को भी उजागर करती है। अनर्जित धन से उपजी नपुंसकता और कुंठित पत्नियों की काम लालसा के इस दस्तावेज में कमसिन युवा की मासूमियत के अपहरण को उसी अंदाज में प्रस्तुत किया है, जिस अंदाज में वेदव्यास द्रौपदी के चीरहरण को प्रस्तुत करते हैं। अंतर यह है कि यहां द्रौपदी के बदले अनाथ कमसिन वय का युवा है, जो एक सुशासित न्याय आधारित देश में शतरंज का राष्ट्रीय खिलाड़ी बन सकता था, परंतु सामाजिक कुंठाओं और इच्छाओं के दमन के वातावरण में स्वयं यह कमसिन एक पैदल मोहरा बन जाता है, जिसे जिंदगी की शतरंज पर अपनी वासना का शिकार बनाती है, एक भ्रष्ट आला अफसर की पत्नी।

कुछ बुजुर्ग और भावुक लोग नेहरू कालखंड को फिल्मों का स्वर्णकाल मानते हैं। आज के युग की विसंगतियों को प्रस्तुत करने वाली कुछ ऐसी फिल्में बन रही हैं, जो उस स्वर्णकाल में संभव नहीं थीं। वह मासूमियत का कालखंड था और यह मासूमियत पर नृशंस प्रहार का युग है। कालखंड फिल्मों को प्रभावित करता है और इस माध्यम के टूटे हुए आईने के हर टुकड़े में एक अलग तस्वीर उभरती है। आज 'विकी डोनर', 'पानसिंह तोमर' और 'बीए पास' संभव है, जिनकी पहले कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। दरअसल, इस सरल सीधी-सी दिखने वाली फिल्म में अर्थ की अनेक परतें छुपी हैं। मसलन फिल्म में एक कब्रगाह का केयर टेकर वृद्ध उस संकट में फंसे कमसिन वय के साथ शतरंज खेलता है तथा उसकी प्रतिभा का कायल भी है, परंतु कथा के अंतिम दौर में वह खुर्राट ऐसी चाल चलता है कि युवा मात खा जाता है। समाज के हर क्षेत्र में बूढ़े खुर्राट खिलाड़ी युवा वय के अनुभवहीन को शह और मात दे रहे हैं। एक और सतह पर भ्रष्टाचार में आकंठ आलिप्त अफसर अपनी पत्नी की अनदेखी करता है और अपनी सारी हेरा-फेरी तिकड़मबाजी के कारण अपने जीवन से प्रेम को खारिज कर चुका है तथा उसकी दमित पत्नी भी उसका विरोध करते हुए उस जैसी बनकर युवा किशोर की मेहनत से उपजी कमाई को हड़पना चाहती है।

दरअसल, दूसरों का धन लूटना संक्रामक रोग की तरह होता है और भ्रष्ट का अपना परिवार भी उससे बचता नहीं है। भ्रष्टाचार का विरोध परिवार से ही हो सकता है और उसके संक्रामक होने के कारण नहीं हो पा रहा है। कोई सख्त लोकपाल नहीं, वरन भीतर उभरते लोकपाल से ही इसका इलाज संभव है। इस कहानी को अजय बहल का दिल्ली की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत करना भी एक संकेत है कि देश की राजधानी में हर किस्म के अपराध हो रहे हैं। बसों और कारों में घटित अपराध के साथ ही मन के अंधेरे कोने में छुपे रक्तरंजित चाकू की ओर भी ध्यान देती है यह फिल्म।

इस फिल्म का केंद्र है कमसिन वय का युवा और आला अफसर की पत्नी। इस भूमिका में शिल्पा शुक्ला ने इस तरह डूबकर अभिनय किया है कि यह यकीन करना मुश्किल है कि इस कलाकार को हम शाहरुख अभिनीत 'चक दे इंडिया' में एक महत्वपूर्ण भूमिका में देख चुके हैं। सारे कलाकारों ने भूमिका में रमकर काम किया है। आप उस बूढ़े शतरंज खिलाड़ी को भी नहीं भूल पाएंगे। दीप्ति नवल ने अपनी संक्षिप्त भूमिका में सघन प्रभाव उत्पन्न किया है। अजय बहल ने ऐसी स्त्री का चरित्र प्रस्तुत किया है, जो वर्षों से कोमा में गए अपने पति की सेवा कर रही है। अपने जीवन की एकरसता में वह क्षणिक अंतर चाहती है। भीतर की अंधेरी गुफा में प्रकाश की एक क्षीण रेखा को देखना कोई अपराध नहीं है। कई बार मनुष्य एक स्पर्श के सहारे अंधेरे कुएं से बाहर के आकाश को छूने का प्रयास करता है। इस तरह के अनेक स्पर्श हैं फिल्म मे और यह सेक्स नहीं, संवेदना की कथा है। सेंसर ने फिल्म के शरीर को केवल वयस्क प्रमाण-पत्र दिया है। उसकी संवेदना उनसे अनदेखी रह गई