बीच का आदमी / अशोक भाटिया

Gadya Kosh से
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सुबह नौ बजे कॉलेज के प्रिंसिपल ने दफ्तर में फोन लगाया - ‘‘चौधरी को कहो कि मेरी क्लास आज वो ले लें। मैं थोड़ा लेट आऊँगा।‘‘

बाबू ने जाकर सूचना दे दी। चौधरी यूनियन का धड़ल्लेदार प्रधान था। यह सुनकर वह बाबू पर भड़क उठा - क्यों लूँ क्लास? क्या उसका नौकर लगा हूँ? भाग जा यहाँ से।‘‘

बाबू डाँट खाकर लौट आया।

बारह बजे प्रिंसिपल कॉलेज में पहुँचा। खबर पाकर चौधरी भी धमकता हुआ दफ्तर पहुँच गया। खड़ी मूंछों के साथ बोला - ‘हमें क्या नौकर समझ रखा है, जो दूसरों की कलासें लेते फिरें?‘‘

साहब पिघले- ‘‘अरे भई, मैंने कब कहा है?‘‘

बाबू को बुलाया गया। साहब ने पूछा -‘‘क्यों भई, क्या कहा था मैंने ?”

बाबू को काटो तो खून नहीं। प्रिंसिपल और चौधरी दोनों उसे आग्नेय नेत्रों से देख रहे थे। बाबू ने घबराते हुए कहा -‘‘सर, कुछ ऐसा बोला था कि क्लास लेनी है या आज नहीं लूँगा। आवाज़ साफ नहीं थी।‘‘

साहब पलभर में बर्फ से बिजली हो गए, ‘‘अजीब आदमी है। कभी अक्ल भी आएगी तुझे या टर्मिनेट ही करना पड़ेगा।‘‘

बाबू मुँह लटकाए हुए धीरे-धीरे चला गया।