बीच बहस में खाट का स्वदेश / देव प्रकाश चौधरी
आज एक शीर्षक समारोह में था। एक परिचित को पीएचडी करनी है। उत्तम विचार। लेकिन उपयुक्त शीर्षक के आभाव में टलता जा रहा था। दिन महीने बने। महीने साल। बात जब हद से और बर्दाश्त से बाहर हो गई तो उनके रिटायर्ड प्रोफेसर पिताजी 'दिल्ली मुखी' हुए। लपक के मामाजी ने भी 'दिल्ली दर्शन' का टिकट बुक कराया। बुलावा मुझे भी आया। अच्छा खासा समारोह जैसा हो गया।
पीएचडी शीर्षक नामकरण समारोह।
सब चाहते थे कि राजनीति सास्त्र और समाज को लेकर एक ऐसा धांसू शीर्षक चुना जाए कि अच्छे-अच्छे के कलेजे पर सांप लोटने लगे। थिसिस तो जब लिखा जाएगा, लिख ही जाएगा। देखते-देखते कमरे का माहौल किसी राजनीतिक पार्टी के उस कमरे जैसा हो गया, जहाँ टिकट बंटते हैं। किसे दें...किसे काटें। मामाजी अपने नए मोबाइल को समझने में व्यस्त हो गए कि इतनी बैटरी क्यों खाता है? शीर्षक की जिम्मेदारी उनके पिताजी और मुझपर आ गई। तभी पिजा ब्वॉय डिलीवरी देने पहुँचा। पिजा देखकर पिताजी संतुष्ट हुए। अच्छा मुझे भी लगा। बात फिर शीर्षक पर आ गई। मैंने कहा, अभी जो राजनीति में चल रहा है, शीर्षक वहीं से हो।
परिचित बोले, "अभी तो खाट चल रहा है। पत्रकार खटिया खड़ी कर रहे हैं।"
सुनकर उनके पुज्य पिताजी पल भर में रिटायर्ड प्रोफेसर साहब हो गए और शीर्षक के बदले बोले, "घोर कलि काल है।"
ऐसे मल्टीविटामिन वाक्य ने कुछ चमत्कार-सा किया। मन में एक साथ कई शीर्षक फूट पड़े।
मैंने कहा, थिसीस का शीर्षक अगर ' खड़ी खटिया में राष्ट्रबोध हो तो? "
शीर्षक सुनकर त्रिभंग मुद्रा में सोफा पर लेटे रिटायर्ड प्रोफेसर साहब अतिभंग मुद्रा में आ गए। भर्राए गले से कहा-"नोट कर लो भाई!" वैसे गला खटिया और देश के रिश्ते पर नहीं, खांसी से भर आया था।
उधर पिज्जा कम होता रहा, इधर हौसला बढ़ता रहा। मैंने और भी कई शीर्षक दागे।
"जनमानस को आवाज़ देती खाट"
"खाट की पुकार में बुजुर्गों के लिए जगह"
"बाहर पड़ी खाट का सामाजिक संदर्भ"
"बीच बहस में खाट का स्वदेश"
"खाट में संयम और आत्यनित्क निजता"
"खटिया और खटकर्म"
"खटियावास और खटमास का सौंदर्यशास्त्र"
"हर खाट कुछ कहती है"
"अपना खाट-सबका हाट"
"ऐतिहासिक संदर्भ में खड़ी खाट और बिछी खाट"
"खाट से राजनीति की वाट"
"खाट, एक ठिकाना"
"अपनी खाट उठा के चलो" आदि-आदि।
शीर्षक सुनकर और लिखकर परिचित और उनके पुज्य पिताजी अभिभूत हो गए। तब तक मामाजी को भी समझ में आ गया कि उनका नया मोबाइल इतना बैटरी क्यों खा रहा था? वे भी अभंग मुद्रा में सोफे पर पसर गए। अब मैं दफ्तर में हूँ। सोच रहा हूँ कौन-सा शीर्षक फायनल हुआ होगा। पता चलेगा तो आपको ज़रूर बताउंगा। ताकि सनद रहे।