बीजी / मधु संधु
बीजी वापिस घर नहीं लौटी। मेरा मन घबरा रहा है। सुबह सवेरे ही सरपंच-साहूकार का करिन्दा गुरप्रीत आया था। बिना चाय नाश्ते के ही बीजी चल पड़ी।
कह रहा था, "बीजी चलो तो, रास्ते में गरमागरम चाय पिलाऊंगा, खास विलायती बिस्कुटों के साथ।" रोकने पर बोला, "चिंता काहे की, मैं बीजी को ले जा रहा हूँ तो छोड़ भी जाऊंगा। बस! दस मिनट में गया और आया। गाड़ी पास है। इस वक्त भीड़ नहीं होती। वोट ही तो डालना है।"
नब्बे वर्षीय बीजी वापिस नहीं लौटी। सब लोग काम-धंधे से निकल गए। एक बज गया। क्या करूँ। मेरे पास न साईकल, न स्कूटर, न रिक्शा, न गाड़ी।
गुरप्रीत ने कैसे आराम से बीजी को गोदी में उठा कर गाड़ी में लिटा दिया था। यूँ तो बीजी करवट बदलने में भी कराहने लगती हैं, पर इस लड़के ने दस दिन में ही रोज आ-आ कर उन पर जादू-सा कर दिया था। बीजी सुबह से ही वोट के लिए गुरप्रीत का इंतजार कर रही थी।
दूरदर्शन से चुनाव के समाचार आ रहे हैं। दंगे और गोली चलने के दिल दहला देने वाले हादसे दिखा रहे हैं। गुरप्रीत का कुछ पता नहीं। शाम गहराने लगी है। दूर एक रिक्शा दिख रहा है। एक अजनबी के साथ बीजी! हे भगवान! सब ठीक हो।
"बहन जी सुबह आई थी बीजी और वोट डालने के बाद सारा दिन वहीं एक काठ के बेंच पर अर्ध बेहोशी की हालत में लेटी रही। वोट डलवाने के बाद लाने वालों को वापस पहुंचाने का होश कहाँ? मेरे साथी भी पते-ठिकाने ढूंढ कर और वृद्धाओं को छोड़ने गए हैं।" प्रिजाइडिंग आफिसर ने कहा।
बीजी के शरीर की एक-एक हड्डी उस रोज ऐसी हिली कि महीनों कि निरंतर सेवा भी अपना असर न दिखा सकी और मैं उनकी सेवा करते-करते खुद बीमार रहने लगी।