बीज / शोभना 'श्याम'

Gadya Kosh से
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गाँव की कच्ची धूल भरी पगडण्डी पर वह खोई खोई, डगमगाती-सी चली जा रही थी। मन में झंझावात-सा चल रहा था। आँखें बार-बार भर आतीं। एक पल दिल में हूंक-सी उठती और दूसरे ही पल एक अदृश्य शक्ति की लहर उसका तन मन कंपा जाती।

आज पड़ोस की कम्मो जीजी ने उसे गाँव में लगे स्वस्थ्य शिविर में जाने को मना ही लिया था। पार साल भी उसने आसपडोस में इसके बारे में कुछ उड़ता-सा सुना था लेकिन पों फटने से पहले से देर रात तक घर के कामों में खटती सुमित्रा को न तो कभी इतनी फुरसत मिली और न ही उसे पति और सास से इसके लिए इज़ाज़त मिलने की उम्मीद थी। उम्मीद थी तो सिर्फ़ एक घुड़की की। उसने तो बीमार पड़ने पर भी कभी गाँव के वैद्य तक की शकल नहीं देखी थी। बिना आराम किये सास के छोटे मोटे घरेलु नुस्खों और टोटकों से कैसे ठीक हो जाती है यह तो उसे भी नहीं पता। पता होगा तो उस ऊपर वाले को जिसने उसे एक हाड़ मॉस की मशीन बना कर भेजा है। शायद उसे भी इल्म है कि वह बीमार पड़ना वहन ही नहीं कर सकती।

मालूम नहीं विधि का कैसा खेल था कि आज बच्चों को स्कूल भेजने और दोपहर तक के कामकाज निबटाने के बाद कम्मो जीजी के आवाज़ लगाने पर कुछ कामों को अनदेखा कर छोटी को गोद में ले, खाट पर ऊंघती सास की नज़र बचा कर वह चुपके से घर से बाहर निकल ही आयी थी। मन हालाँकि धुकड़-धुकड़ कर रहा था। रस्ते भर कम्मो जीजी उससे क्या बात कर रही थीं उसे जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था वह तो बस यह सोचती जा रही थी कि वापस जाने पर सास के गुस्से का सामना किस झूठ से करेगी या नहीं भी कर पायी तो झेल लेगी बरसों की आदत जो है। शिविर देखने की उत्सुकता आज डर पर हावी हो गयी थी। लेकिन ।शिविर से लौटते हुए उस पर हावी था तो बस एक उन्माद और एक प्रश्न-क्या डाक्टरनी ने जो कुछ कहा वही सच है?

स्वास्थ्य शिविर में डाक्टरनी जी ने बाकायदा चित्रों की सहायता से बड़े ही आसान और रोचक ढंग से सब महिलाओं को समझाया था कि किस प्रकार एक औरत के गर्भ से बेटा जन्म लेगा या बेटी यह उसके पति यानी पुरुष पर निर्भर करता है। इसमें औरत की स्वयं की कोई भूमिका नहीं होती सिवाय उसकी किस्मत के इसलिए लड़की को जनम देने पर औरतों को खुद को दोषी नहीं मानना चाहिए। कुछ शब्द अंग्रेज़ी के भी थे जो किसी के समझ नहीं आये थे लेकिन उनका निचोड़ सबकी समझ में आ गया था। डाक्टरनी जी ने यह भी कहा था कि लड़का हो या लड़की, माँ की प्रसव-पीड़ा भी एक-सी होती है और उसके बाद उसकी खान-पान और आराम की ज़रूरत भी। लड़की को भी वैसा ही पोषण, वैसी ही देखभाल की ज़रूरत होती है जो लड़के को होती है। छ महीने तक तो बच्चे को चाहे वह लड़का हो या लड़की, माँ के दूध की ज़रूरत होती है। इस दौरान दूध पिलाने वाली माता को अपनी खुराक पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

सभी औरतें इन सभी बातों पर हैरान थी आज तक अपनी बड़ी बूढ़ियों को लड़की के जनम पर माँ को ही दोष देते देखा सुना था। स्वयं भी जो औरतें लड़कियों को जन्म दे चुकी थीं उन्हें " लड़की पैदा कर दी' जैसे तानो से दो चार होना पड़ा था। इसी तरह बेटी पैदा होने पर न तो जच्चा को कभी पूरा आराम करने दिया जाता है और न ही ठीक से खाने पीने को दिया जाता है। जबकि लड़का पैदा होने पर यथा शक्ति घी, मेवा, या अन्य ताकत बढ़ने वाली खुराक दी जाती है। एक आध अपवाद को छोड़ कर शिविर में आई सभी औरतों का यही अनुभव था। लेकिन उन सब पर इन बातों का बहुत असर पड़ा हो ऐसा भी नहीं लग रहा था। हमारी बरसों से चली आ रही सामाजिक मान्यताएँ और परम्पराएँ कितनी भी गल जाएँ पर उनकी जड़ें हमारे अंदर बहुत मजबूती से जमी होती हैं। उन्हें उखाड़ना इतना आसान नहीं होता, लेकिन ऐसी कोशिशें उन पर चोट कर उन्हें कमजोर तो कर ही सकती हैं। सुमित्रा के साथ भी शायद यही हुआ था।

वह एक के बाद एक तीन बेटियों को जन्म दे चुकी थी। पहली बेटी के जन्म के साथ लान्छ्नाओं और प्रताडनाओं का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह दूसरी बेटी के जन्म बाद दुगुना हो गया। तीसरी बेटी के होने बाद तो ये प्रताड़नायें यंत्रणाओं में बदल गयीं थीं। बेटियों को जन्म देने की दोषी औरत के लिए कोई भी सजा उसकी सास और पति को कम ही लगती थी। अच्छा खाना तो दूर पेट भर खाना खाने का हक भी वह खो चुकी थी। पों फटने से पहले उठ कर जो काम में लगती थी तो देर रात तक ही निबटती थी। एक क्षण का भी आराम उस जैसी करमजली के लिए निषिद्ध था और बात-बात पर मार खाना तो मामूली बात थी उसके लिए। सारा दुःख, अपमान, यंत्रणा और पीड़ा वह एक अपराधिनी की भांति झेल रही थी, बेटा न दे पाने की अपराधिनी।

सबसे बड़ी विडंबना तो ये कि यह सजा केवल सुमित्रा को ही नहीं बल्कि उसकी नन्ही-नन्ही बच्चियों को भी मिलती थी। दुधमुही बच्ची घंटो भूखी तड़पती रहती। सास सुमित्रा को एक के बाद एक इतने काम से लादे रखती कि उसे अपनी बच्चियों को दुलराना तो दूर दूध तक पिलाने का समय नहीं मिलता था। थोड़ा बड़ा होते तो कुछ न कुछ खाने की चीजें, रोटी के टुकड़े वगैरह उनके सामने डाल दिए जाते जो येन केन उनकी भूख का शमन कर देते। लेकिन चार पांच महीने तक तो उन्हें दिन भर भूख से बिलखना पड़ता। नन्ही बच्ची के रोने की आवाज से सुमित्रा कि सूखी छातियों में भी जो दूध उतरता वह बच्ची के मुँह तक न पहुँच पाने के कारन गांठों में बदल जाता था। लेकिन भूखी बच्ची के रुदन का दर्द इन गांठों के दर्द से भी अधिक पीड़ा देता था। उसकी आँखों से खून के आंसू छलक-छलक पड़ते थे। उधर सास दुधमुही बच्ची के मुँह से पानी की बोतल लगा देती और जोर-जोर से थपक-थपक कर सुला देती। बच्ची का रुदन थकान के कारन धीरे-धीरे हिचकियों में बदलता कम होता जाता और अंततः नींद में बिला जाता। सुमित्रा समझ ही नहीं पाती थी कि कैसा पत्थर का कलेजा है इस औरत का जो अपनी नन्ही-नन्ही पोतियों के रुदन से भी नहीं पसीजता। खैर वह तो दादी है जब इनका अपना बाप, जिसका अपना खून इन बच्चियों की रगों में बहता है, इस मासूमों के मन को हिला देने वाले रुदन से द्रवित नहीं होता। दिन भर की भूखी बच्चियाँ पूरी रात माँ को चूसती रहती। सुमित्रा भी अपनी दिन भर की थकान भूल उसे अपनी छाती से चिपकाए रखती। अगली सुबह मुंह अँधेरे फिर से बच्ची को जबरदस्ती अपने से अलग कर गृहस्ती के रणक्षेत्र में उतर जाती। दोनों बड़ी बेटियों का शैशव इसी यंत्रणा से गुज़र चुका था और अब तीसरी पर यही सब बीत रहा था। अब यही इनकी किस्मत है तो वह क्या कर सकती है यह सोच कर वह सब्र करती रहती। कितनी अजीब बात है न जिस किस्मत नाम की चिड़िया को किसी ने कभी देखा नहीं, छूया नहीं, वही हर दुःख-दर्द, अन्याय को सहने के लिए एक ताक़त की बूटी-सी बन जाती है। सदियों से औरत हर जुल्म को अपनी किस्मत मान कर ही तो सहती आई है चाहे स्वयं की सही निर्णय न ले पाने की कमजोरी हो या हिम्मत की कमी, वह हर प्रकार का दोष किस्मत के माथे मढ़ कर इस अमूल्य जीवन को जैसे तैसे दीन-हीन बन कर काट देती है फिर सुमित्रा जैसी गाँव की साधी-सादी स्त्री क्या इसका अपवाद होती। बेटा न जन पाने का हीन भाव उसे सब कुछ सहने को मजबूर किये था।

आज शिविर से लौटते हुए यह सारा हीन भाव एक आक्रोश में ढल रहा था। जैसे कोई बेगुनाह कैदी जेल की दीवारों से सिर टकरा रहा हो। छटपटाता मन चाह रहा था कि कोई हो जिसके गले लग कर खूब रोये वह, चोट खाने पर दर्द से निकलने वाला रोना नहीं, दर्द को बहा देने वाला रोना। एक अबूझ से आवेश में उसने गोद की रुनिया को इतनी कस कर जकड लिया कि छटपटाहट में उसकी चीख निकल गयी। रुनिया कि आवाज और कम्मो जीजी की प्रतिक्रिया "अरी क्या हुआ?" ने उसके होशोहवास को वापस उस पगडंडी पर ला खड़ा किया जहाँ वह चल रही थी। अचानक एक कोंध-सी हुई सुमित्रा के दिमाग में और वह कम्मो जीजी से बाज़ार का कुछ काम होने का बहाना कर बाज़ार की ओर चल दी।

अगले दिन मुंह अँधेरे ही सुमित्रा के पति ने उसे झिंझोड़ कर उठा दिया था। कई रोज़ से खेत की जुताई चल रही थी, आज बीज बोये जाने थे। खेत पर जाते समय बाकी सामान के साथ एक और झोला चुपचाप उठा लिया था सुमित्रा ने, जो अँधेरे में किसी ने नहीं देखा। नाश्ता पानी कर दिन निकलते जब पति खेत पर पहुँचा तो वह काफी बड़े हिस्से में बीज डाल चुकी थी। अचानक लगभग झपट्टा मारते हुए पति ने एक हाथ से उसके बीज डालते हाथ को पकड़ा और दूसरे हाथ से एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके मुंह पर दे मारा। "हराम की जनी! ये कौन से बीज डाल रही है? हमें तो जोआर बोना था। यह बाजरा काहे डाल रही है?"

" क्या फरक पड़े है मुनिया के बापू? बाजरा डालूं या जोआर, धरती मैया तो वही उगलेगी न जो हमें चाहिए?

"नासपीटी, ज़्यादा समझदारी न दिखा, जायका बीज पड़ेगा धरती की कोख में, वही तो जनेगी न, बाजरा डालेगी तो जोआर कहाँ से उगेगा?"

"अच्छा? फिर बेटी के बीज से मैं बेटा कैसे जनु? मुनिया, गुनिया और रुनिया के बापू!" सुमित्रा का चेहरा आक्रोश से लाल और आवाज़ कडुवी नीम हो रही थी। क्रोध और आवेश में उसके होंठ लरज़ रहे थे। उगते सूरज की किरणें सीधे उसके मुंह पर पड़ रहीं थी। इतने दिनों से जो बकरी बनी हुई थी वह शेरनी बन कर दहाड़ उठी। स्वयं की बेगुनाही के अहसास ने सुमित्रा के हौंसले बुलंद और डर काफूर कर दिया था। आज वह सीधे पति की आँखों में देख रही थी।

पति भौचक्का हुआ उसका यह रूप देख रहा था। दुबारा मारने को उठा उसका हाथ जहाँ का तहाँ जम गया था। पारसाल ही चौपाल में सरकारी डाक्टर यह समझा कर गए थे कि बेटा या बेटी पैदा होना औरत पर नहीं आदमी पर निर्भर करता है। वश तो दोनों का ही नहीं चलता वह तो भाग की बात है और भाग भी सिर्फ़ औरत का ही नहीं आदमी का भी होता है। अगर थोडा बहुत कोई जिम्मेदार है तो वह बाप है माँ नहीं। लेकिन मर्दानगी यह स्वीकार नहीं कर पा रही थी फिर डाक्टर ही ज़रूरी नहीं सब जानते हों। ये आजकल जो नयी हवा चली है न औरतो को पाँव के तले से उठा कर सर पर बैठाने की, बस इसी की खातिर नयी-नयी बातें निकाल कर उड़ा रहे है डाग्डर अपने झोले से। अरे जैसे करम और लक्खन होंगे औरत के तैसेई फल उसकी झोली में डालता है ऊपर वाला। हमारे पुरखे इतने गियानी ध्यानी ठहरे, ग़लत थोड़े ही बताएंगे। और जो सच भी हो तो सुमित्रा को यह क्या पता। ऊंह...' एक झटका दिया उसने सर को और जमीन से उठते हुए कपड़ों के साथ ही ये बेहूदी-सी सिक्सा भी झाड़ दी थी दिमाग से। इसके बाद भी सुमित्रा पर उसके अत्याचार कम नहीं हुए थे लेकिन आज वह जैसे आसमान से गिरा। शादी के आठ सालों में उसने सुमित्रा का यह रूप कभी नहीं देखा था। उसे लग रहा था आज धरती मैया जैसे फट जायेगी लेकिन यकीनन इस बार सीता के लिए नहीं ।