बीमारी में / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
काशी में रहने के समय अत्यधिक परिश्रम के करते सन 1909-14 के बीच कई बार बीमार पड़ने की नौबत आई। मगर दवा करने का तो मेरा स्वभाव था ही नहीं। न जाने क्यों वैद्यों, डाँक्टरों और हकीमों से आज भी मैं घबराता हूँ। मैं पसंद नहीं करता कि वे मेरा शरीर छुएँ। यही बात पहले थी। उधर दो-एक बार अनजान में कुनाइन और कच्चा लोहा खिलाए जाने के कारण मैं और भी सतर्क हो गया था। 'दूध का जला छाछ को भी फूँक कर पीता है की हालत थी।
जीवन में दो ही बार भाँग पीने का मौका मिला है। सो भी अनजान में। एक बार तो बचपन में किसी बारात में, जब कि उसके फलस्वरूप सभी साथी नशे में चूर हो गए। एक मैं ही उस नशे से न जाने कैसे बच गया। फलत: उन सबों की तथा उनके कपड़े-लत्तो की हिफाजत की। दूसरी बार काशी में अनध्याय के दिन कई साथी बाहर कुएँ पर ले गए कि घूमें और जल पीएँ। वहीं उनने ठंडई के नाम पर उसमें भाँग मिला कर मुझे भी पिला दी। मालूम तो हुई नहीं। पीछे वापस आ कर जब रात में मैं छत पर सोया था कि एकाएक नींद खुली। पता लगा कि सारी छत चक्कर काट रही हैं। घबरा कर औरों से कहा। चट उनने चावल धो के उसका पानी मुझे पिलाया और फौरन कै हो जाने से मुझे शांति मिली। फिर सो गया।
यह चावल का पानी कै कराने के लिए बड़ा ही मुफीद और सुलभ है। साँप काटने पर कै कराना बड़े काम का है और इससे आसानी से हो सकता है। नशे में तो कहना ही क्या? फिर चाहे वह भाँग का नशा हो, शराब का, या और किसी का। लेकिन फिर मैंने तय कर लिया कि भाँग के निकट भी न जाऊँगा। पान तो कभी खाया ही नहीं। बचपन की बात शायद हो कि कभी खाया हो। लेकिन अट्ठारह वर्ष की उम्र से ले कर आज तक तो उसे छुआ भी नहीं। यही बात तंबाकू की भी है। उसे तो कभी न मुँह से लगाया और न नाक से। मुँह के भीतर देने की कौन कहे?
जब कभी ज्वर से पीड़ित हो जाता तो यही करता कि चुपचाप पड़ा रहता। दवा-दारू का नाम भी नहीं लेता। जब कई दिन हो जाते और उससे पिंड छूटता नजर नहीं आता तो ज्वर की हालत में ही टमटम पर बैठ के स्टेशन जाता और गाड़ी से देहात में जा पहुँचता। कभी-कभी तो खूब तेज ज्वर में, लोगों के हजार मना करने पर भी, बाहर गया और या तो रेल में ही ज्वर से पल्ला छूटा या देहात में कहीं परिचित स्थान पर पहुँचते न पहुँचते ही। लेकिन यह ठीक बात है कि ज्वर जरूर छूट गया। मुझे भी आश्चर्य है कि जहाँ ज्वर में लोग हवा लगने से डरते हैं, बाहर जाना तो दूर रहे, तहाँ मैंने क्यों उलटा किया और फिर भी फल अच्छा ही हुआ। असल में जब मेरे मन में बार-बार यह होने लगता कि अब बाहर चलने से ही बुखार हटेगा तो फिर किसी की बात न मानता और बाहर चला ही जाता।
एक बार की बात तो खूब याद है कि ज्वर के वेग में ही ट्रेन में बैठ कर आजमगढ़ जा रहा था। मऊ जंक्शन पर ट्रेन बदली और उतरने के समय ज्वर के मारे गिर पड़ा। फिर किसी प्रकार ट्रेन में चढ़ा। लेकिन आजमगढ़ जाते-जाते चंगा हो गया। हालाँकि दर्द देह में था। पर, देहात में जाते ही वह भी छूट गया। इसी प्रकार तेज ज्वर की हालत में ही बड़ी लाइन से एक बार बक्सर गया। वहाँ पहुँचते-पहुँचते ज्वर तो भाग गया। अत: स्टेशन से पैदल ही गंगा पार कर के भरौली गया।
बीमारियों में मुझे तो ज्वर की ही शिकायत हुई चाहे जब कभी हो, और मैंने सदा नियमपूर्वक अनशन कर के ही उसे भगाया है। ईधर तो दस-बारह वर्षों से बीमार पड़ा ही नहीं। मगर इससे पूर्व साल में एक बार और कभी-कभी दो बार बीमार पड़ता था। प्राय: पंद्रह दिनों के अनशन से ज्वर मुक्त होता था। फिर दो-तीन मास में अनशन की कमजोरी दूर होती थी। लेकिन दूसरा चारा न था। जब से जलचिकित्सा जानी और उसका अभ्यास किया तब से तो उसके छूट जाने पर, जब कभी ज्वर मालूम हुआ तो स्टीम बाथ के बाद हिपबाथ ले लिया और दिन भर में तीन बार ऐसा कर के ज्वर को भगा दिया। औरों के ज्वर को भी इसी प्रकार भगाया है। ज्वर में नहाने से लोग घबराते हैं। मगर परिणाम देखने पर वह घबराहट स्वयमेव भाग जाती है।