बीया / उपमा शर्मा

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बीया

सूरज सिर पर चढ़ आया है। मैं भावनाओं के ज्वर में डूबी उतरी जा रही हूँ। प्रेम प्रिज़्म ही होता है जिससे फूटते हैं अनगिनत रंग। आँखों की परतों में समाता झीना-सा प्रेम। रातों को जगाता मीठा-सा प्रेम। समुद्र से सीपियाँ चुराता भोला-सा प्रेम। उछलती बारिश की बूँदों को हथेलियों में सहेजता उच्छृंखल—सा प्रेम।

लेकिन काला रंग किसी प्रिज़्म की उत्पत्ति नहीं। ये गाढ़ा काला रंग धीरे-धीरे कब मेरे जीवन में उतर आया पता भी नहीं चला। उसने मेरा हाथ थाम कब उस हाथ को परे धकेल दिया। तब से आज तक कितनी डूबी उतराई हूँ मैं।

प्रेम का एक कतरा आँखों से होकर मेरी लतिका के मन में चुपके से उतर आया और उसका जुगनू चुपके-चुपके रात की रस्सी पर चला भी गया।

बाहर क्यारियों में फैली लताएँ हवा के जोर से लड़ रही हैं। मैं उन्हें उठा बगल के पेड़ पर सहारा दे देती हूँ। लतिका चाय के दो प्याले ले मेरी ओर बढ़ आती है। आँखें रतजगे की चुगली खा रही हैं।

"फिर क्या सोचा लतिका?"

"किस बारे में माँ?"

"तू कब तक चकोर बनी रहेगी।"

"सोचना क्या है माँ? बढ़िया—सी जॉब है। सुंदर—सा घर है और सबसे बढ़कर तुम हो जिसके आँचल में आ दिन भर की थकान कब छू हो जाती है पता भी नहीं पड़ता।"

"लतिका! बेल बिन सहारे चल ही नहीं पाती। आवारा हवाएँ उसे उखाड़ देती हैं। जड़ से अलग हो सूख जाती है बेटा।"

" किसने कहा माँ मैंने चाँद को मुट्ठी में पकड़ा था। जुगनू था, उड़ गया।

कोई अच्छा मिलेगा तो जरूर सोचूँगी माँ लेकिन सिर्फ सहारे के लिए कैक्टस नहीं चुनूँगी। लड़कियाँ सिर्फ लता ही नहीं होती माँ बीज भी होती हैं। "