बीसवाँ अफ़ेयर और वेटिंग टिकिट / इन्दिरा दाँगी
रेल में चढ़ते ही हम अपनी आरक्षित बर्थ तलाशने लगे। हम यानी मैं, पति विशुद्ध और हमारा बच्चा आर्य। दो मिनट के स्टॉप वाले स्टेशन पर डिब्बे तक दौड़ने-चढ़ने की हड़बड़ी से हमारी सांसें और धड़कनें गहरी-गहरी हो रही थीं। पुराने यात्री हर नए यात्री की तरह हम पर भी पल भर की जिज्ञासा भरी नजर डालते और फिर खिड़कियों के बाहर-भीतर देखते, पीते-खाते, पत्र-पत्रिकाएं पलटते-पढ़ते अपने शरीरों को गाड़ी की गति पकड़ती लय में ढीला छोड़ देते। हम यहां-वहां अपनी सीट तलाश रहे थे। ओह ! जल्दबाजी में एक डिब्बा आगे चढ़ आए! हम उत्सुक-उदासीन यात्रियों के बीच से पिछले डिब्बे की ओर बढ़ने लगे। पति के कंधे पर ठसाठस भरा बैग, दोनों हाथों में वजनदार सूटकेस और चेहरे पर था परेशानी का मोहक भाव! परिश्रम से चमकते ललाट पर रोलीअक्षत का टीका घुलता-मिटता चेहरे पर खूबसूरत हिस्सा-सा हो गया था।
कैसी विचित्रता है, पुरुष बेबस कर्मठता ही उसके सौंदर्य का उन्मेष है। ऐसी यात्राओं में पुरुष अपने परिवार की रत्ती-रत्ती सेवा में मालिकाना दंभ से प्रस्तुत रहते हैं। परिवार का वजनदार लगेज उठाना, खाने-पीने की चीजें खरीद-खरीदकर देना, छोटे बच्चों को सूसू-छीछी करवाने ले जाना, रक्षक की मुस्तैद नजर के अदृश्य कवच में परिवार को भिखमंगों, धूर्ती, उठाईगीरों से सुरक्षित रखना आदि-इत्यादि, छोटे-बड़े दायित्व मुखिया पुरुष के चमकीले अहंकार में घुलकर गौरवानुभूतियों के नन्हें-नन्हें सुखों में बदल जाते हैं और असंख्य-असंख्य वैवाहिक जीवन इस तरह खुशी-खुशी निभ जाते हैं।
अब मेरी ही बात ले लीजिए, हर साल का यह किस्सा! बेटे के साथ छुट्टियां मनाने मायके जाती हूं तो सजने-संवरने के कपड़ों-लत्तों का एक सूटकेस भरा होता है, जिसे मेरा सैनिक-सा जवान छोटा भाई फूलों की टोकरी की तरह उठा लेता है, पर जब वापसी होती है लिवउआ (पति) के मुंह से बड़ा सच्चा-सा मजाक निकल जाता है —
“मैं या तो इन दोनों को ले जाता हूं या बैग-सूटकेसों को। “
और विदाई के पलों में अपनी रुलाई भरसक काबू करती मेरी बूढ़ी मां एक छोटे मनोविनोद में अव्यक्त ममत्व का मर्म उड़ेल देती है,
तो इस बार सिर्फ सामान ही ले जाइए कुंअर साब! रानी को और कुछ दिन रह लेने दीजिए। पर मां के कुंअर साहब न सामान छोड़ते हैं, न बेटी। विवाहित बेटियों पर मांओं का हक आंसुओं, यादों और उपहारों में सिमट जाता है। साल में एक बार आने वाली बेटी को मां कपड़े, श्रृंगार, पापड़-अचार और तमाम छोटे-बड़े घरेलू उपहार हार्दिकता से रच-रचकर देती है।
तो, मां की हार्दिकता से वजनी बैग-सूटकेसों से लदे-फदे हम जल्द-से-जल्द अपनी सीटों तक पहुंच जाना चाहते थे। वैसे भी अपनों से विदा लेते देह नम पड़ जाती है और कुछ छूट जाने के भाव से मन पलट-पलटकर पीछे देखता है। इस उदासी से मैं, मायके के छोटे स्टेशन पर जरा रुकने वाली रेल को पकड़ने और अपनी सीट तक पहुंचने की प्रक्रिया से गुजरते हुए ऐसे मुक्त हो जाती हूं जैसे — सर्प केंचुली उतारते-उतारते ही नया हो जाता है। छूटते स्टेशन पर हाथ हिलाकर विदा देते नन्हें भतीजों-भतीजियों के पास ही मैं बेटी-बहन-बुआ की चिलकदार केंचुल रख आती हूं और बेटे-पति के संग अपनी सीट तक पहुंचते-न पहुंचते अपनी त्वचा में, मैं बिल्कुल नई तरह से वही चिर-परिचित हो जाती हूं, स्कूटर पर सदा सवार स्टेपनी-सी पत्नी, हेलिकॉप्टर मां और घोर गृहस्थन!
रेल में चढ़ते ही हमने अपनी आरक्षित बर्थें तलाशना शुरु कर दिया। खिड़की से लगी सीट पर अपना आरक्षित नंबर देखकर मन हल्का-सा खिला है। हवा का नर्म झोंका तपते चेहरे को छू गया हो। सफर अच्छा कटेगा। दिल ने सोचा और मैं उस दुबली — श्यामल स्त्री से — जो अपने दो बच्चों और पति सहित हमारी सीटों पर थी — मुखातिब हुई, “इन सीटों पर हमारा रिजर्वेशन है। “
“चलिए खड़े हो जाते हैं। ” उसने नीची आवाज में अपने पति से कहा।
उत्तर में पति ने अजीब नजर से उसे देखा जिसका अर्थ हमारे लिए ये रहा कि वो परिवार हमारी सीटों से नहीं उठा, बस थोड़ा सिमट-सरक कर उन्होंने खिड़की के पास डेढ़ आदमी की जगह छोड़ दी। | मुझे बेतरह गुस्सा आया, पर विशुद्ध ने मेरे कांप उठे कंधे पर हाथ रखा और मैं दिल मसोसकर रह गई। गर्म तवे पर पानी के छीटों के छनछनाकर भाप हो जाने सरीखी तसल्ली से मैं खुद को चुप कराए थी, तो भी कसमसाकर बैठते हुए इतनी जगह तो ले ही ली कि डेढ़ आदमी की जगह फैलकर पौने दो आदमी की हो गई। विशुद्ध ने हम दोनों पर एक प्यार भरी नजर डाली और सामने सीट पर यात्रियों के बीच जगह बनाते बैठ गए।
सफर तय होने लगा। मुआयना करती एक सीधी नजर मैंने सहयात्री परिवार पर डाली ही थी कि मुखिया पुरुष कह उठा, हमारे पास वेटिंग टिकिट है। आठ रोज पहले ही टिकिटें करा ली थी, पर खोटी किस्मत ! सीटें कन्फर्म नहीं हुईं। उसकी मुद्रा सफाई देने की-सी थी।
मुझे लगा, उसकी बात से न सहमत हुआ जा सकता है, न असहमत सो चुपचाप खिड़की के बाहर देखने लगी, पर पूरा ध्यान उस परिवार में अटका रहा जैसे सिर पर भरे घड़े ले जाती पनिहारिन राह में भले इधर-उधर बतियाने लगे, पर उसका पूरा ध्यान घड़ों में होता है।
परिवार चुप और असहज था। गेंहुए स्थूल मुखिया पुरुष की उम्र पैंतीसेक साल रही होगी। आलू जैसा चेहरा। आधे-अधूरे बाल जो जतन से संवरे होने के बावजूद रीतती जा रही खोपड़ी को। ढंकने में ऐसे असमर्थ जान पड़ रहे थे जैसे किसी गरीब की आमदनी में उसका बड़ा परिवार। हल्की तोंद पर ढीली-ढाली ओपन शर्ट, सादा पैंट और पैरों में सेल की-सी चप्पलें। चेहरे पर दुनियादारी का पुख्ता रंग, मैंने अंदाज लगाया, छोटा-मोटा व्यापारी ! और स्त्री जैसा कि बता चुकी हूं — तन्वी — श्यामली। यही कोई बत्तीस-तैंतीस के बीच की। चेहरे पर शाकाहारी पशु जैसे भोलेपन का भाव था। उसकी गुलाबी साड़ी की किनारी पर हरी पत्तियों के बेलबूटे थे। जेवर बस नाम के, हाथों में कांच के लहरिया कंगन, कानों में महीन बालियां, नाक में मोती और गले में कुछ नहीं। पैरों में रंगीन बिछिया थे, पायल नहीं थी, पर उसके चेहरे पर संतुष्टि का संपन्न-सा भाव था। गुलाबी फूल-सी वो स्त्री मुझे गृहस्थन कम साध्वी ज्यादा लगी क्योंकि मेरे लक-दक बनाव-श्रृंगार को उसने अब तक घूरा नहीं था जैसा कि आम तौर पर होता है। स्त्रियां दूसरी स्त्रियों के कपड़ों, जेवरों, बनाव पर इस कदर गौर फरमाती है कि चेहरों से ज्यादा उन्हें दूसरों का पहनावा, सजावट और जेवरों की डिजाइन याद हो जाती है।
खैर लौटिए, परिवार में एक बेटा था। रहा होगा छह—साढ़े साल का। मां-सा सांवला, पिता की बनावट-सा छोटा आलू। चेहरे से घोर जिद्दी लग रहा था। उसकी पीली टीशर्ट पर लाल हर्फ़ों में लिखा था, सरप्राइज बॉय। काली जींस और पैरों में पिता की हैसियत से ऊंचे जूते। लड़के के बगल में, सबसे बीच दबी बैठी थी, उसकी छोटी बहन, पांचेक साल की सुंदर, स्वस्थ, मक्खन-सी गोरी। उसके गालों की ललाई कश्मीर के सेबों की याद दिला रही थी और आंखें बुंदेलखंड की चमकीली कत्थई चट्टानों-सी थी। उसके चेहरे का मुख्य भाव डांटकर चुप करा दिए गए किसी अबोध शिशु-सा था।
रेल के साथ वक्त आगे बढ़ा रहा और असहज दंपति के सहज बच्चे अपने हमउम्र, मेरे आर्य के साथ चेहरे छुपाने-दिखाने का खेल खेलने लगे। मुखिया पुरुष मेरे पति को बिना किसी परिचय—भूमिका के अप्रत्याशित अपनत्व से बताने लगा कि वे लोग आगरा से मुंबई जा रहे हैं और ये कि आठ दिन पहले ही उसने टिकिटें करवा ली थीं, पर खोटी किस्मत ! सीटें कन्फर्म नहीं हुईं। अपनी बातों पर जो ध्वनिमत वह चाहता था, सामने वाली सीटों के किसी चेहरे से उसे नहीं मिला, न विशुद्ध से, न रिटायर अधिकारीनुमा वृद्ध से और न ही छात्रों सरीखे दो नौजवानों से। छोटा व्यापारी परम असहजता से धूसर फर्श घूरने लगा। विशुद्ध का दूर बैठा होना मुझे झुंझलाहट से भर रहा था। चुभती धूप के चलते मैंने जालीदार खिड़की बंद कर दी थी। छत के पंखों की हवा नाकाफी लग रही थी। डिब्बे में तीखी उमस थी, शायद कुछ दिलों में भी ! केवल बच्चे थे जो पसीने में लथपथ खेलते हुए बीच-बीच में खिलखिला उठते थे। मेरी रूज-मस्कारा-लिपिस्टक घुल रही थी और रूमाल से बार-बार चेहरा पोंछती मैं कभी अपने विशुद्ध को देख रही थी, कभी वेटिंग टिकिट परिवार को।
ठंडा ले लो ठंडा कोल्डड्रिंक
ठंडा बेचने वाले की आवाज हवा में बहती आई और बच्चे खेल भूलकर उस ओर देखने लगे। बच्चों की नन्हीं लालची आंखें पढ़ते हुए कोल्डड्रिंक वाले ने ऐन हमारी बर्थों के बीच अपनी बाल्टी रख दी। बरफ के चमकीले टुकड़ों के बीच सजे कोल्डड्रिंक ऐसे दिख रहे थे जैसे लंबी तपस्या का मीठा फल। हम तीनों ने एक-एक बोतल ली। बुजुर्गवार ने भी एक खरीदी। देखादेखी उस परिवार के दोनों बच्चे भी ठुनके। पिता ने एक छोटी बोतल के दाम चुकाए और अपने सरप्राइज बॉय को कोल्डड्रिंक थमा दी। भाई-बहन बोतल को अपनी-अपनी ओर करने की जोर-आजमाइश करने लगे और मुझे लगा, ये परिवार सेकंड क्लास डिब्बे में सिर्फ लंबी यात्राएं ही करता होगा।
चिंकी, बोतल भाईसाब को दे दे।
पिता ने इतनी दबी जुबान में डांटना चाहा कि सहयात्री न सुन सकें, पर मुखिया पुरुष की वही खोटी किस्मत ! सभी ने सुन लिया और अपने हक़ के लिए जूझती चिंकी ने आदेश अनुसना कर दिया। अब पिता ने कड़ी नजर से मां को देखा। मां ने तुरंत चिंकी के नन्हें हाथों को ताकत से बोतल पर से हटाया और थैले से एक गिलसिया निकाल, उसमें बेटे से थोड़ा-सा कोल्डड्रिंक डलवाकर लड़की को थमा दिया। शेष तकरीबन पूरी भरी बोतल लड़का गटागट पीने लगा और पराजित बना दी गई चिंकी छोटे गिलास के घूँट भर कोल्डड्रिंक को देख-देख रुआंसी होने लगी। मैंने सोचा, जरूर नन्हीं गुड़िया ऐसे पक्षपातों की लंबी आदी है वर्ना इन मौकों पर छोटे बच्चे अपनी पूरी काबिलीयत से रोते-चीखते हैं। ये बच्ची एक दिन बिल्कुल अपनी मां-सी बन जाएगी, पर वो अमर्ष उसकी बड़ी-बड़ी आंखों से टप-टपकर गिरने लगा।
चुप कर मनहूस ! जब देखो, आंसू ढालती रहती है।
मां उसे पिता की ओर से ओट करते हुए कुड़बुड़ाई पर छोटी लड़की के भीतर मानो आंसुओं की उन्मत्त गंगा थी, जिसका विराट प्रवाह सख्त शब्द बांधों को बहाता चला आ रहा था। जब सब यात्रियों के चेहरे को उस नन्हीं मूक गंगा ने द्रवित कर दिया, पहले से ही असहज माता-पिता और ज्यादा अहसज हो गए। खिसियाए-से पिता ने बड़प्पन ओढ़ते हुए ऊंचे स्वर में कहा “बेटा हैप्पी ! बहन को और कोल्डड्रिक दो। “
हैप्पी कुनमुनाया। दुर्लभ-सी कोल्डड्रिंक की बोतल को उसने और कसके पकड़ लिया। मां ने दो-तीन मर्तबा दबी-दबी आवाज में बेटे को पुचकारा, पर सरप्राइज बॉय ने छोटी बहन को और दो बूंद कोल्डड्रिंक तभी दी जब पिता का स्वर कठोर आदेशात्मक हो गया।
रेल अपनी पूरी लय में थी और मैं सामने की सीट पर अखबार में लीन विशुद्ध को निहार रही थी, कसा बदन, भरी मुश्कों पर नई शर्ट, प्रबुद्ध चेहरा और कुल प्रभाव... खूब-खूब आकर्षक! मेरा मन हँस पड़ा, पति-पत्नी को साल में कम-से-कम एक बार तो जरूर ही एक-दूसरे से अलग हो जाना चाहिए ताकि जब वे पुनः मिलें, नए होकर मिलें, नया खिंचाव, नए स्पर्श... नई शर्म, और नया प्यार? बिल्कुल नए सिरे से शुरू होता हुआ ! दांपत्य का सौंदर्य एक ही इंसान से बार-बार प्यार-अफेयर-फ्लर्ट करने में है, और हां, वो इंसान आपका जीवनसाथी ही होना चाहिए (हा, हा, हा...)। बहरहाल, मैं मुग्ध थी, नया अफेयर शुरू हो रहा था। दिल तरसा, काश ! विशुद्ध साथ वाली सीट पर होते और मेरा हाथ उनके हाथों में होता। वे कह रहे होते कि मेरी गैरमौजूदगी में वे कितने अकेले थे ! कि बेटे और पत्नी के बिना घर घर नहीं लगता !... कि उन्हें रात-रातभर नींद नहीं आती थी ! ... कि पिछले डेढ़ महीने से मेरे हाथ का खाना खाने को वे तरस रहे हैं। ... कि..कि..कि..! मेरे दिल की आवाज हवा में गूंजी और अखबार पढ़ रहे विशुद्ध ने चौंककर मेरी ओर देखा। हम मुस्कुराए। मैंने ठंडी सांस छोड़ते हुए वेटिंग टिकिट परिवार पर नजर डाली। काश ! हम इन्हें अपनी आरक्षित सीट पर से उठा पाते ! डिब्बे की उमस मेरे रो-रोम में उतरने लगी। मैं दिल-ही-दिल बड़बड़ाई, क्या जरूरत थी मुझे इतना बन-संवरकर आने की? सितारों से जड़ी साड़ी, मेहँदी, जड़ाऊ कंगन और मेकअप... सब सत्यानाश ! क्या सुलगती गर्मी है, शरीर उबलते अंडे-सा महसूस हो रहा है।
एक और कोल्डड्रिंक बेचने वाला गुजरा। आर्य फिर ठनका। मैंने कठोरता से मना कर दिया। वेटिंग टिकिट परिवार का मुखिया पुरुष क्या जाने इसी प्रतीक्षा में था, उसने तुरंत दो बोतलें खरीदी और एक विजयी भाव सब ओर डालते हुए भरपूर भाव से भुगतान किया। आश्चर्य से मुंह खोले बच्चे कभी कोल्डड्रिंक कभी अपने पिता को देखते जो ऊंचे स्वर में आत्ममुग्ध-सा बोले जा रहा था, “अरे पियो पियो ! अभी तो तुम्हारे खाने-पीने के दिन है, खूब मजे करो, हमारी उमर में आओगे तो सिवाय कमाने के किसी काम में मजा नहीं आएगा। “
यात्रियों के उदासीन चेहरों पर इस बार भी अनुमोदन नहीं था।
पिया मिलन को दौड़ती प्रेम दीवानी-सी रेल भागी चली जा रही थी। बुंदेलखंड की तपती हवाओं, चट्टानी जमीन और कटीले जंगलों को पीछे छोड़कर हम मालवा के सुरम्य माहौल से गुजर रहे थे। जून का यह दूसरा सप्ताह मालवा में मानसून के स्वागत का मौसम है। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला किसी मुनि की बिखरी रुद्र माला के दानों सदृश्य थी। पर्वतों के मस्तकों को चूमती मेघ मालाएं, हवाओं के नम-पारदर्शी स्पर्श और काली मिट्टी के खेतों से उड़कर आती ताजी वर्षा की खुशबू, लगा जैसे कोई अदृश्य कलाकार अलौकिक कोलॉज रच रहा है और रेल का संगीत भी इस चित्र का हिस्सा है। यात्रियों के क्लांत चेहरे ठंडी-मीठी हवा की थपकियों से ऐसे शांत होने लगे थे जैसे रोते बच्चे को किसी सयाने ने दुलारा हो। बगल वाले दंपत्ति की असहजता भी कम हो गई। मैं और विशुद्ध तो खैर, एक-दूसरे को निहार ही रहे थे। विशुद्ध ने मुझे आंख मारी और मैं मुंह फेरकर मुस्कुराई।
भोजन का समय हो चला। वेटिंग टिकिट परिवार को अपनी सीट से उठाने का सुनहरा मौका था। खाने के बहाने, विशुद्ध को मैंने सीट पर आने को कहा। मुखिया पुरुष ने मेरे पति से सीट बदली, पर स्त्री दोनों बच्चों सहित हमारी ही सीट पर बैठी रही। अब वे तीन और हम तीन, एक ही लंबी सीट पर ठसे बैठे थे!
हद है! मैं झल्लाई।
स्त्री गरीब-सी सूरत बनाए खड़ी हो गई। अलबत्ता बच्चों को उसने सीट पर ही बैठे रहने दिया और अपने बैठने की गुंजाइश के लिए इधर-उधर की भरी सीटों पर नजरें दौड़ाने लगी। विशुद्ध ने मुझे बुरी तरह घूरा, फिर स्त्री से छोटे भाई के-से स्वर में कहा
“नहीं, नहीं बहनजी ! आप बैठी रहिए!”
“नहीं भाईसाहब ! आप लोग खाना खा लीजिए। तब तक मैं ऐसे ही...!“
“नहीं, आप बैठिए प्लीज!” विशुद्ध के हाथ का कौर हाथ में ही रुक गया।
“नहीं, मैं ठीक..”
“बैठ जा ज्योति !” मुखिया पुरुष ने बहुत ही संयत आवाज में कहा।
ज्योति बैठ गई। हम खाना खाते रहे। आर्य की नानी का प्यार अलग-अलग जायकों वाली खुशबुओं में बैग से निकल रहा था, पूड़ी... तरकारी... अचार... मठरी... भुजिया... बेसन के लड्डू... चिप्स! आर्य को मैंने खिड़की की ओर मुंह करके बिठाया और एक-एक कौर खिलाने लगी। विशुद्ध ने दो-चार कौर मुझे अपने हाथ से खिलाए, उन पलों में दिल बेतरह धड़का था और मुझे अपने शरमाते मन को याद दिलाना पड़ा कि हम रेल में हैं। अपनी शर्म, आकर्षण और उत्साह को दबाने के लिए मैंने वेटिंग टिकिट परिवार के बच्चों की ओर देखा। वे छोटे बच्चे लालायित-से अपनी मां का पल्लू पकड़े चुप-चुप तुनक रहे थे।
खाने के बाद, मैंने आर्य को पुनः उन बच्चों की ओर बैठा दिया (अपनी सुविधानुसार परिचय को अपरिचय और अपरिचय को परिचय में बदलने का महानगरीय हुनर मैंने खूब अच्छी तरह सीखा है) तो, आर्य उन बच्चों के साथ फिर खेलने लगा। ज्योति अपने थैले से खाना निकाल ही रही थी। कि केक-पेस्ट्री बेचने वाला हमारी सीटों के पास से आवाज लगाता गुजरा। मुखिया पुरुष ने पूरे परिवार के खाने लायक पेस्ट्रीज खरीदी जबकि पत्नी फुसफसा रही थी, सुनो जी, इत्ता खर्चा?
मुखिया पुरुष ने सबको पेस्ट्रीज दी,... हैप्पी, चिंकी, ज्योति, आर्य को भी ! और मैंने देखा कि उसने खुद के लिए पेस्ट्री नहीं खरीदी थी। बच्चे खुश होकर खाने लगे। अन्य यात्री उन्हें देखने लगे। डिब्बे की उदासीनता छंट रही थी। वेटिंग टिकिट परिवार के चेहरों पर धीरे-धीरे समानता का-सा भाव आता जा रहा था। इसी बीच सबसे नजरें बचाकर ज्योति ने अपने हिस्से की पेस्ट्री स्टील की डिबिया में बंदकर थैले में घुसा दी और आधी बोतल पानी गटागट पी गई। विशुद्ध और मैं दूसरों से भूले एक-दूसरे से सटे-संयत बैठे थे।
रेल बारिश की वादियों से गुजर रही थी जबकि सुस्त यात्रियों के टिकिट चेक करता टी.सी. हमारी ओर आया। जिनके पास रिजर्वेशन थे वे अमीरों की तरह टिकिट दिखा रहे थे। मुखिया पुरुष टी.सी. के पीछे लगा चला गया। ज्योति के चेहरे पर चिंता की हल्की लकीरें उभरीं जबकि बच्चे पेस्ट्री खाने में संसार भूले थे।
थोड़ी देर में मुखिया पुरुष ऐसा प्रसन्न लौटा जैसे पास होने की शंका लिए गया छात्र फर्स्ट डिवीजन का रिजल्ट लाया हो।
एक सीट मिल गई।
बड़ा अच्छा हुआ जी! चलो, अब रात में बच्चों को सोने को बर्थ तो होगी। ज्योति का स्याह चेहरा खिलकर तंबई हो गया था जैसे रात के कालेपन में भोर का हल्का उजास घुल गया हो।
“आप लोग कहां तक जा रहे हैं जी?” मुखिया पुरुष पहली बार अपनी स्वाभाविक आवाज में विशुद्ध से पूछ रहा था।
“भोपाल तक। “
“बढ़िया ! भोपाल स्टेशन तो आने ही वाला है। वहां से ये सीट हमारी है। ये खिड़की वाली लोअर बर्थ। “
अच्छा ! हममें से पता नहीं किसने कहा, पर मुखिया पुरुष भला क्यों सुनने लगा, वो जैसे किसी धुन में बोले जा रहा था, रात होने से पहले दूसरी बर्थ भी जुगाड़ लेंगे। इसी के तो टी.सी. ने चार सौ लिए हैं। दूसरी का मिलाकर आठ सौ खर्चा हो जाएगा, टिकिटों की कीमत ऊपर से ! अब क्या करें जी, परिवार के आराम के लिए रुपया तो खर्च करना ही पड़ता है फिर किस्मत खोटी निकली वर्ना हमने तो आठ दिन पहले ही टिकिटें करवा ली थीं।
खुशी में उसने अपने सरप्राइज बॉय को गोद में बिठा लिया और उस पर चुंबनों की वर्षा कर दी।
"पापा, मैं पोइम सुनाऊं?" पिता की स्नेह वर्षा से वंचित चिंकी ने कुछ फुहारें पाने की जुगत भिड़ाई।
मुझे अच्छा लगा, जरा-सी बच्ची को कितनी दुनियादारी आती है! ... अभावों, असमानताओं और अन्यायों की अग्नि में तपने वालों की योग्यता कुदन-सी निखरकर बाहर आती है। कष्ट से गुजरने का दूसरा नाम कला है।
चिंकी कविता सुनाने लगी। परिवार मनोरंजित होने के ढंग से खुश हो रहा था और यात्री सुरीली लड़की को यों सुन रहे थे मानो किसी लोकप्रिय फिल्म गायिका का लाइव कॉन्सर्ट चल रहा हो। यहां तक कि एकतारे पर रामधुन गाने वाला गुजरता साधु भिखारी भी मुग्ध भाव से ठहरा नन्हीं गायिका का काव्यपाठ सुन रहा था,
“मैं इक छोटी कठपुतली।
खाना बनाना आता नहीं,
चॉकलेट, आइसक्रीम खा लू मजे से...”
गौरवान्वित पिता की फरमाइश पर उसने भजन का आलाप लिया,
“छोटी-छोटी गईयां, छोटे-छोटे ग्वाल
छोटो सो मेरो मदन गोपाल....”
कवितामय हो गए माहौल में, मैं और विशुद्ध एक-दूसरे को महसूस कर रहे थे, कोई बीसवीं दफा इस खूबसूरत नौजवान से मेरा प्रेम प्रसंग शुरू हो रहा था और अब शादी के आठ सालों और बीस अफेयरों के बाद हम पति-पत्नी के चेहरे कुछ हद तक एक जैसे दिखने लगे हैं। प्यार वो ईश्वर है जो आत्माओं, दिलों और चेहरों को एकरूपता देता चला जाता है।
बहरहाल, भोपाल स्टेशन आ गया। मां की हार्दिकता से वजनदार बैग-सूटकेसों को समेटते-संभालते हम अपनी सीटों से खड़े हुए और पल के सौंवे हिस्से में वो परिवार पूरी लंबी सीट पर फैल गया। इसी बीच कोल्डड्रिंक बेचने वाला आया। वेटिंग टिकिट परिवार (जो शेष सफर के लिए एक सीट का मालिक बन चुका था। ) का सरप्राइज बॉय ठुनका और अपेक्षा के ठीक विपरीत मुखिया पुरुष ने पिता वाली रोबीली आवाज में उसे डांटा —बस, बहुत हो गया फालतू खाना-पीना ! अब मुंबई तक कोई चीज नहीं मांगना! तुम्हारी मम्मी जो खाना बनाकर लाई है, हम सब यही खाएंगे।
और डिब्बे को छोड़ते हुए हमने उन पति-पत्नी को पहली बार स्वाभाविक बर्ताव करते देखा। मुखिया पुरुष सहयात्रियों पर कतई ध्यान दिए बगैर कह रहा था।
“ज्योति, पूड़ियां निकाल, जोर की भूख लगी है। ”