बीसवाँ प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल

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बीसवाँ प्रकरण -जगत् के रहस्यों का उद्धाटन


अब यह देखना है कि विज्ञान के अनेक अंगों की अपूर्व उन्नति से जगत् के रहस्यों का कहाँ तक उद्धाटन हुआ है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि ईधर 100 वर्षों के बीच प्रकृति के नाना क्षेत्रों का जितना सूक्ष्म अनुसंधान हुआ है उतना पहले कभी नहीं हुआ था। बहुत से ऐसे नए नए शास्त्रों और विज्ञानों की स्थापना हुई है जिनकी ओर 100 वर्ष पहले किसी का ध्यान भी न गया था। अब विचारने की बात यह है कि ज्ञानविज्ञान की इस उन्नति से हम जगत् के नाना विधानों को समझने में अधिक समर्थ हुए हैं अथवा जैसे पहले थे वैसे ही हैं। मेरा कहना यह है कि हम कहीं अधिक समर्थ हैं। विज्ञान ने दिखा दिया है कि कार्यकारण का भौतिक नियम समस्त जगत् में चलता है और समस्त जगत् को चलाता है। कोई वस्तु उसके बाहर नहीं। मनुष्य का अन्त:करण भी इसी कार्यकारण परम्परा द्वारा उत्पन्न हुआ है और चल रहा है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए यह आवश्यक है कि विज्ञान के मुख्य मुख्य क्षेत्रों में जो अभूतपूर्व उन्नति हुई है उसका संक्षेप में उल्लेख कर दिया जाये।

1 ज्योतिर्विज्ञान की उन्नति

मनुष्य ने अपने विकास आदि का ज्ञान तो अब प्राप्त किया है पर आकाश के नक्षत्रों और ग्रहों की स्थिति के सम्बन्ध में सभ्य जातियों ने 5,000 वर्ष पहले भी बहुत जानकारी प्राप्त की थी। हिन्दू, चीनी, मिश्री इत्यादि प्राचीन पूर्वीय सभ्य जातियों को ज्योतिष की जितनी जानकारी थीं उतनी युरोप के ईसाइयों को उनसे 4,000 वर्ष पीछे भी नहीं प्राप्त थी। चीन देश में ईसा से 2697 वर्ष पहले एक सूर्य ग्रहण का ज्योतिष की रीति से विचार किया गया था और 1100 वर्ष पहले क्रान्तिवृत्ता का धरातल शंकु के प्रयोग द्वारा निश्चित किया गया था। बेचारे ईसा को ज्योतिष का कुछ भी ज्ञान न था। वे आकाश और पृथ्वी को किसी के हाथ की बनाई चीजें समझते थे। पृथ्वी ही को वे सम्पूर्ण जगत् का केन्द्र और मनुष्य ही को सब कुछ समझते थे। अत: ईसाई मत के कारण युरोप में ज्योतिष के सम्बन्ध में बहुत दिनों तक कुछ उन्नति नहीं हो सकी। अन्त में सन् 1500 में जब कोपरनिकस ने टालमी के सिद्धांत का खंडन करके यह सिद्धांत स्थापित किया कि सूर्य ही केन्द्र है जिसकी पृथ्वी इत्यादि ग्रहपिंड परिक्रमा कर रहे हैं, तब ईसाई धर्माचार्यों में बड़ा कोलाहल मचा, क्योंकि ईसाई मत की दृष्टि में पृथ्वी ही जगत् का केन्द्र है और मनुष्य ही उसका एकमात्र अधिष्ठाता देवता है। पीछे गैलीलियो और केप्लर ने कोपरनिकस के सिद्धांत को पुष्ट करते हुए ग्रहों की गति आदि का भौतिक नियमानुसार निरूपण किया। अन्त में सन् 1686 में न्यूटन ने अपने आकर्षण सिद्धांत द्वारा गति की मीमांसा की और आधुनिक ज्योतिर्विज्ञान की दृढ़ नींव डाली।

सन् 1755 में प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने सम्पूर्ण जगत् के प्राकृतिक विकास का क्रम न्यूटन के सिद्धांत के आधार पर निरूपित किया। लाप्लेंस अपनी स्वतन्त्र परीक्षाओं द्वारा उसी सिद्धांत पर पहुँचा जिस पर कांट पहुँचा था। उसने सम्पूर्ण जगत् की गति को प्राकृतिक या भौतिक विधान सिद्ध कर दिया और नए नए अनुसंधानों के लिए मार्ग खोल दिया। फोटोग्राफी और रश्मिविश्लेषण के द्वारा ज्योतिष के साथ भौतिक विज्ञान और रसायन का योग हुआ जिससे एक बड़ा भारी सिद्धांत निकला। यह स्पष्ट सिद्ध हो गया कि समस्त विश्व में एक ही द्रव्य का प्रसार है। जिस द्रव्य से हमारा यह भूपिंड बना है उसी द्रव्य से सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध इत्यादि सब ग्रह, नक्षत्र आदि बने हैं और उस द्रव्य के भौतिक और रासायनिक गुण हम यहाँ देखते हैं, वे ही सर्वत्र हैं।

ज्योतिष के साथ विज्ञान के मिलने से जिस ज्योतिर्विज्ञान की सृष्टि हुई उसकी सहायता से अब हमें निश्चय हो गया है कि समस्त विश्व वस्तुत: एक है, एक ही अद्वितीय तत्व का प्रसार सर्वत्रा है। यह नहीं है कि जिस द्रव्य को अनेक रूपों में हम इस पृथ्वी पर पाते हैं उससे परे या सर्वथा भिन्न कोई और तत्व दूसरे लोकों या ग्रह नक्षत्र पिंडों में है। द्रव्य के गुण जो यहाँ हैं वे ही अन्तरिक्ष के सब भागों में हैं। जो भौतिक नियम यहाँ चलते हैं वे ही सर्वत्रा चलते हैं। जगत् की गति नित्य है। उसके प्रत्येक भाग में रूपान्तर या परिवर्तन का क्रम सदा चलता रहता है। प्रकृति के भीतर विकृति का क्रम अलग अलग बराबर जारी रहता है। भारी भारी दूरबीनों से यदि हम अन्तरिक्ष में चारों ओर देखते हैं तो कहीं कहीं लपट के रूप का अत्यंत सूक्ष्म और पतला ज्वलंत वायु पदार्थ फैला दिखाई पड़ता है जिसे ज्योतिष्क नीहारिका कहते हैं। इसके ताप और तेज का अनुमान तक हमलोग नहीं कर सकते। इसी को हम हिरण्यगर्भ1 कह सकते हैं जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है। इसी तेज:पुंज के


1 हिरण्यगर्भ: सर्मवत्ताताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्। अर्थात पहले हिरण्यगर्भ था और उस हिरण्यगर्भ से सब सृष्टि उत्पन्न हुई। -ऋ 10-121-1


जमने से ग्रह, नक्षत्र आदि के पिंड बनते हैं। यह द्रव्य का वह प्रारम्भिक रूप है जो रासायनिक मूल द्रव्यों में विभक्त नहीं हुआ रहता। सबसे मूल साम्यवस्था में तो द्रव्य ग्राह्य अर्थात ईथर या आकाश द्रव्य इन दो रूपों में भी विभक्त नहीं रहता। जिस प्रकार आकाश में कहीं-कहीं लोकों के उपादान तेज:पुंज दिखाई पड़ते हैं उसी प्रकार कहीं-कहीं ऐसे तारे भी दिखाई पड़ते हैं जो ज्वलंत वायु पदार्थ के कुछ ठंढे पड़ने से देदीप्यमान द्रवपदार्थ जैसे गरमी से पिघलकर पानी से भी पतला होकर बहता हुआ लाल लोहा के रूप में हो गए हैं। कहीं ऐसे तारे मिलते हैं जो बिलकुल ठंढे पड़ गए हैं; जिनमें कुछ भी गरमी नहीं रह गई है। शनि के समान बहुत से ऐसे तारे भी देखे जाते हैं जो चारों ओर घूमते हुए ज्योतिर्वलय से वेष्ठित रहते हैं। ज्योतिष्कनीहारिका के ये वलय क्रमश: जमते जमते चन्द्रमा बन जायँगे जो उन तारों की परिक्रमा किया करेंगे। हमारा चन्द्रमा वलय के रूप में था जो जमकर पृथ्वी से उसी प्रकार अलग हुआ है जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य से अलग हुई है। कौन सा तारा विकास की किस अवस्था में है इसका बहुत कुछ पता हमें उसके रंग से लग सकता है।

बहुत से नक्षत्र, जिनके प्रकाश के यहाँ तक पहुँचने में हजारों वर्ष लगते हैं, हमारे सूर्य के ही समान हैं। उनके अधीन भी अनेक ग्रह, उपग्रह हैं जो उनकी परिक्रमा किया करते हैं। इन ग्रहों में हजारों लाखों ऐसे होंगे जो उसी अवस्था में होंगे जिस अवस्था में हमारी पृथ्वी है, अर्थात उनके ऊपर न तो इतना उग्र ताप ही होगा कि जल वाष्प के रूप में ही रहे, और न इतनी गहरी सरदी ही होगी कि वह ठोस होकर ही जमा रहे, उनमें भी जल द्रव अवस्था में होगा। जल की इसी अवस्था में अंगारक द्रव्य में वह अपूर्व संयोग सम्भव होता है जिससे कललरस का प्रादुर्भाव होता है। यही कललरस जीवनतत्व है। अत्यंत सूक्ष्म जीवाणु कललरस रूप ही होते हैं और अंगारक और नाइट्रोजन के संयोग विशेष से स्वत: उत्पन्न होते हैं। बहुत सम्भव है कि पृथ्वी से मिलती जुलती अवस्थावाले ग्रहों में भी जीवोत्पत्ति उसी क्रम में हुई हो जिस क्रम से पृथ्वी पर हुई है। जीवोत्पत्ति के लिए जल का द्रव रूप में होना आवश्यक है। जो तारे तरल तेज:स्वरूप हैं उनमें जल भाप के ही रूप में रहता है और जो नक्षत्र या सूर्य जीवनशक्ति का विसर्जन करके बिलकुल ठंढे हो गए हैं उनमें जल जब रहेगा तब ठोस बर्फ के रूप में। ऐसे तारों में जीव नहीं रह सकते। अपने वर्तमान ज्ञान के अनुसार हम नीचे लिखी बातों का अनुमान कर सकते हैं-

1- यह बहुत सम्भव है कि जिस प्रकार क्रमश: हमारी पृथ्वी पर जीवोत्पत्ति हुई है उसी प्रकार हमारे इस सूर्य के और ग्रहों में जैसे, मंगल और शुक्र तथा दूसरे सूर्यों के ग्रहों में भी हुई हो, अर्थात आदि में कललरस के अणुरूप जीव मोनरा और फिर उनसे एक घटक अणुजीव पहले अणूदि्भद और फिर कीटाणु उत्पन्न हुए हों।

2- यह बहुत सम्भव है कि इन एक घटक अणुजीवों से पहले घटकों के समूहपिंड जैसे, स्पंज आदि बने हों और फिर तन्तुजाल द्वारा एकीभूत अनेक घटक जीवों का प्रादुर्भाव हुआ हो।

3- यह बहुत सम्भव है कि पौधों में पहले निरवयव निष्पुष्प पौधो जैसे, भुकड़ी खुमी आदि जिनमें जड़, डाल, पत्ते, फूल आदि नहीं होते केवल घटकों की तह पर तह मात्र होती है, उत्पन्न हुए हों फिर दलकांडयुक्त निष्पुष्प पौधो जैसे, पानी के ऊपर की काई, सेवार आदि जिनमें डाल, पत्ते तो होते हैं पर जड़ नहीं होती और सबके पीछे पुष्पवान् पौधे होते हैं।

4- यह बहुत ही सम्भव है कि जंतुओं की उत्पत्ति भी इस क्रम से हुई हो अर्थात पहले कललात्मक अणुजीवों से कलात्मक अनेक घटक जीव जिनके शरीर में घटकजाल की दो झिल्लियों से बना केवल एक कोठा होता है, जैसे स्पंज, मूँगा आदि हुए हों और उनसे द्विकोष्ठ जीव जिनके शरीर के कोठे से पेट का कोठा अलग होता है, उत्पन्न हुए हों।

5- पर इसमें बहुत सन्देह है कि इस पृथ्वी पर जीवधारियों की भिन्न भिन्न शाखाएँ जिन जिन रूपों में प्रकट हुई हैं, ठीक उन्हीं रूपों में और ग्रहों पर भी प्रकट हुई हैं। सम्भव है कि जीवों की शाखाओं ने वहाँ भिन्न भिन्न रूप धारण किए हों वहाँ और ही आकार-प्रकार के जीव मिलते हैं।

6- कौन कह सकता है कि और ग्रहों पर रीढ़वाले जंतु हुए हों और उनमें फिर लाखों वर्ष के अनन्तर दूधा पिलाने वाले जंतु हुए हों, जिनमें सबसे श्रेष्ठ मनुष्य नाम का प्राणी हुआ हो। ऐसा कहने के पहले यह मानना पड़ेगा कि उन ग्रहों पर भी ठीक ठीक ब्योरेवार वे ही घटनाएँ हुई हैं जो यहाँ हुई हैं। पर ऐसा मानना कठिन है।

7- अस्तु, यह बात अधिक सम्भव जान पड़ती है कि ओर ग्रहों पर और ढाँचे के उन्नत जीव उत्पन्न हुए हों जो इस पृथ्वी पर नहीं पाए जाते। जैसे, यहाँ रीढ़वाले जंतुओं में मनुष्य हुआ वैसे ही सम्भव है वहाँ किसी और ही उन्नत शाखा से मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली और ज्ञानसम्पन्न जीव उत्पन्न हुए हों।

8- इस बात की कभी सम्भावना नहीं कि दूसरे ग्रहों के निवासियों के साथ कभी हमारी बातचीत हो सके क्योंकि एक तो वे बहुत ही दूर हैं, दूसरे पृथ्वी के और उनके बीच बराबर हवा नहीं है, केवल ईथर या आकाशद्रव्य मात्र है।

पहले बतलाया जा चुका है कि जिस प्रकार बहुत से तारे उसी अवस्था में हैं जिस अवस्था में हमारी पृथ्वी है उसी प्रकार बहुत से ऐसे भी हैं जो इस अवस्था को पार कर गए हैं और इतने जीर्ण हो गए हैं कि नष्ट होने के निकट हैं। यही दशा कभी हमारी पृथ्वी की भी होनेवाली है। बात यह है कि किसी लोकपिंड को लीजिए, उसके ताप का बराबर विसर्जन होता रहा है, उसकी गरमी निकल निकल कर बराबर आकाश में लीन होती जाती है। गरमी जब बिलकुल घट जायेगी तब सारा जल जमकर ठोस बर्फ के रूप में हो जायेगा और सम्पूर्ण प्राणियों, जंतु वनस्पति आदि सबका नाश हो जायेगा। घूमता हुआ लोकपिंड और भी ठोस होता जायेगा और उसके परिभ्रमण की गति बराबर मन्द पड़ती जायेगी। सूर्य से जितनी दूरी पर वह परिक्रमा कर रहा है वह बराबर घटती जायेगी और वह सूर्य के निकट आता जायेगा। यही दशा अन्त में सब ग्रहों और उपग्रहों की होगी। उपग्रह ग्रहों पर जा गिरेंगे और ग्रह सूर्य में जा पड़ेंगे जिससे वे निकले थे। इस घोर संघर्ष से अत्यंत प्रचुर परिमाण में फिर ताप उत्पन्न होगा। जिस द्रव्य से लोकपिंड बने थे वह चूर्ण होकर अन्तरिक्ष में दूर तक व्याप्त हो जायेगा और उसी से नए सूर्य और नए लोकों की उत्पत्ति का विधान फिर से चलेगा। इस प्रकार अनन्त लोकपिंड बनते और बिगड़ते रहते हैं। अन्तरिक्ष में कहीं नए सूर्य और नए लोकपिंड बन रहे हैं, कहीं पुराने सूर्य और ग्रहपिंड नाश को प्राप्त हो रहे हैं। उत्पत्ति और लय का यह क्रम सदा साथ-साथ चलता रहता है। द्रव्य कभी एक अवस्था में नहीं रहता। कहीं तेजस् या ज्योतिष्क निहारिका से नए लोकों का गर्भाधान हो रहा है, कहीं उससे बहुत दूर ज्योतिष्क नीहारिका से जमकर तरल अग्नि का बड़ा भारी घूमता हुआ गोला बन गया है। दूसरी ओर देखिए तो उसी प्रकार से घूमते हुए गोले के कान्तिवृत्ता से वलय टूटकर अलग हो गए हैं, जो क्रमश: जमकर उस बड़े गोले की परिक्रमा करनेवाले ग्रह के रूप में हो रहे हैं। कहीं वह गोला खासा सूर्य हो गया है जिसकी परिक्रमा अनेक ग्रह अपने चन्द्रमाओं या उपग्रहों के सहित कर रहे हैं। सारांश यह कि अन्तरिक्ष के बीच द्रव्य कहीं किसी अवस्था में और कहीं किसी अवस्था में पाया जाता है। पर जैसा कि पहले कहा जा चुका है एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने से द्रव्य के परिमाण में कोई घटती या बढ़ती नहीं होती। उत्पत्ति और लय का यह चक्र भिन्न भिन्न स्थानों में चलता है पर द्रव्य और शक्ति का योग विश्व में सदा वही रहता है। परमतत्व नित्य और अक्षर है।



2 भूगर्भशास्त्र की उन्नति

भूगर्भशास्त्र का यथार्थ ज्ञान न होने से प्राचीनों को पृथ्वी की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में पक्की जानकारी नहीं थी। बहुत दिनों तक लोग धर्मग्रन्थों में दी हुई कथाओं पर ही संतोष किए बैठे थे। यहूदी और ईसाई यही समझे हुए थे कि पृथ्वी को बने केवल 6,000 वर्ष हुए। पृथ्वी बनी किस प्रकार इसका उत्तर देने के लिए वे मूसा की कहानी का ही सहारा लेते थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि मूसा ने जो सृष्टिकथा लिखी है वह प्राचीन असुरों और हिन्दुओं की पौराणिक कथाओं से ली गई है। सन्1750 के उपरान्त पृथ्वी की नाना तहों की जाँच शुरू हुई जिससे बहुत सी नई बातों का पता लगा। भूगर्भशास्त्र के संस्थापक बर्नर का कहना था कि पृथ्वी की जितनी तहें हैं सब की सब जल के भीतर बनी हैं। पर 1788 में हटन आदि वैज्ञानिकों ने यह निर्धारित किया कि केवल पर्तवाली तहें या चट्टानें जल के भीतर बनी हैं, इसी से उनमें पूर्वकाल के प्राणियों के पंजर पाए जाते हैं। बाकी जो ढोंको की आग्नेय पर्वत श्रेणियाँ हैं उनकी चट्टानें आग से पिघले हुए द्रव्य के ठंढे पड़कर जमने से बनी हैं। सन् 1830 में लायल ने यह अच्छी तरह सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी का तल लगातार होनेवाले प्राकृतिक व्यापारों के द्वारा बहुत धीरे धीरे अपने वर्तमान रूप को पहुँचा है। फिर इस विश्वास के लिए कोई जगह नहीं रह गई कि किसी दैवी प्रेरणा से पृथ्वी बात की बात में बन गई।

सबसे बड़ा काम उन अस्थिपंजरों की परीक्षा द्वारा हुआ जो पृथ्वी की नाना तहों के भीतर पाए गए। पृथ्वी के भिन्न-भिन्न कल्पों का भोगकाल और उन कल्पों के प्राणियों का बहुत कुछ ब्योरा इस परीक्षा द्वारा मालूम हुआ। यह बात पूर्णतया निश्चित हो गई कि पृथ्वी की वह ठोस पपड़ी जिस पर हम लोग बसते हैं, द्रव्य अग्नि के गोले क्रमश: ठंढे पड़कर जमने से बनी है। कड़ी पपड़ी के सुकड़ने, पिघले हुए आग्नेय द्रव्य के ठंढी सतह पर आने तथा जल की क्रीड़ा से ही पृथ्वी की परतें और पहाड़ आदि बने हैं। ये शक्तियाँ अब भी बराबर कार्य कर रही हैं पर उनका कार्य इतने धीरे होता है कि हमें उसका कुछ भी पता नहीं लगता।

आधुनिक भूगर्भ विद्या की दो बातें तो सब दिन के लिए सिद्ध हो गईं। एक तो यह कि इस भूतल और उस पर के पहाड़ों आदि की रचना किसी भूतातीत चेतन शक्ति द्वारा बात की बात में नहीं हुई है। दूसरी यह कि इस सृष्टि को हुए जितना काल पैगम्बरी मतवाले समझते थे उससे कहीं अधिक काल एक एक पहाड़ या चट्टान की तह बनने में लगा है।

3 भौतिकविज्ञान और रसायन की उन्नति

इन 100 वर्षों के बीच विज्ञान में जो उन्नति हुई है वह किसी से छिपी नहीं है। भाप और बिजली के द्वारा मनुष्य के नाना व्यापारों में जो अपूर्व चमत्कार आ गया है उससे सत्यज्ञान का प्रभाव प्रत्यक्ष है। व्यवहार के जितने अंग हैं, क्या व्यापार, क्या कृषि, क्या शिल्प, क्या चिकित्सा सबमें विज्ञान द्वारा अपूर्व उन्नति हुई है। व्यवहारदृष्टि से भी कहीं अधिक तत्वदृष्टि से इस उन्नति का महत्त्व हमें स्वीकार करना पड़ता है। प्रकृति का अधिक ज्ञान होने से अब हम जगत् के रहस्यों पर पहले से कहीं अधिक ठीक विचार कर सकते हैं। विज्ञान द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर जो दार्शनिक सिद्धांत स्थिर किए जायेगे, वे कहीं अधिक सुसंगत होंगे।

4 प्राणिविज्ञान की उन्नति

इस विद्या का पहले लोगों को कुछ भी ज्ञान नहीं था। ईधर 100 वर्षों के बीच प्राणियों के सम्बन्ध में जितनी बातों का पता लगा है, पुराने समय के लोगों के अनुमान तक में वे नहीं आई थीं। अंगविच्छेद-शास्त्र, शरीर-व्यापार विज्ञान, वनस्पति-शास्त्र, जंतु-विभाग शास्त्र, जंतुविकासशास्त्र, जातिविकासशास्त्र में इतनी नई नई बातों का पता लगा है कि हमारी आँखें खुल गई हैं। प्राणिविज्ञान की उन्नति दो रूपों में हुई है, एक तो बहुत सी बातों के अलग अलग और ठीक ठीक ब्योरे मालूम हुए हैं जिनसे बहुत कुछ काम निकलता है। दूसरे इन बातों की संगति मिलाकर देखने से प्राणतत्व तथा उसके कारण आदि के सम्बन्ध में हम सुव्यवस्थित सिद्धांत स्थिर कर सकते हैं। इस क्षेत्र में डारविन ने सबसे बढ़कर काम किया। उसने यह दिखला दिया कि किस प्रकार सूक्ष्मअतिसूक्ष्म कललकणिकारूप जीवों में से प्राकृतिक ग्रहण द्वारा क्रमश: अनेक रूपों के जीव प्रकट हुए हैं। अब हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि क्षुद्र कीटाणुओं से लेकर मनुष्य तक में एक ही तत्व का विधान नाना रूपों में हुआ है, किसी में कहीं से और किसी अतिरिक्त तत्व की योजना नहीं हुई है। मनुष्य की उत्पत्ति किस प्रकार क्रमश: बनमानुसों से हुई है यह अब अच्छी तरह सिद्ध हो चुका है और आदिम क्षुद्र जीवों से लेकर मनुष्य तक की शृंखला दिखाई जा चुकी है।

उपसंहार

प्रकृति परिज्ञान की उन्नति होने से ईधर जगतसम्बन्धी बहुत से गुप्त भेद खुल गए हैं। अब केवल परमतत्व का भारी भेद रह गया है। वह सत्ता कैसी है जिसे वैज्ञानिक विश्व या प्रकृति कहते हैं, दार्शनिक परमतत्व कहते हैं और भक्तजन ईश्वर या कर्ता कहते हैं? क्या हम कह सकते हैं कि आधुनिक विज्ञान की अपूर्व उन्नति से इस 'परमतत्व का भेद' खुल गया है अथवा कुछ खुलनेवाला है? इस अन्तिम प्रश्न के विषय में यही कहना पड़ता है कि यह आज भी उसी प्रकार बना हुआ है जिस प्रकार 2,500 वर्ष पहले के तत्वज्ञों के सामने था। बल्कि यों कहना चाहिए कि ईधर इस परमतत्व के अनेकानेक व्यक्त रूपों का जितना ही अधिक ज्ञान हमें होता जाता है, उसके दृश्य व्यापारों का जितना ही अधिक पता हमें लगता जाता है, उतना ही उसका रहस्य हमारे लिए अभेद्य और अपार होता जाता है। वही कहावत है कि 'ज्यों ज्यों भीजै कामरी त्यों त्यों भारी होय।' इस नामरूपात्मक दृश्य जगत् की ओट में वस्तुत: क्या है यह हम न जानते हैं और न जान सकते हैं। पर इस 'वस्तुत:' के फेर में हम क्यों पड़ने जाये, उसके लिए हम क्यों हैरान रहें जबकि यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसका अस्तित्व तक है या नहीं। अत: इस काल्पनिक 'वास्तव सत्ता' के पीछे 'कल्पनात्मक दार्शनिक' ही पड़े रहें, हमें 'सच्चे वैज्ञानिकों' के समान प्रकृति के सम्बन्ध में अपने उत्तरोत्तर बढ़ते हुए ज्ञान पर आनन्द मनाना चाहिए।

वर्तमान समय में सबसे बड़ी बात यह हुई कि द्रव्य और शक्ति की अक्षरता सिद्ध हो गई। परमतत्व नित्य गतिशील और परिवर्तनशील है अत: विकास का चक्र भी नित्य और विश्वव्यापी है। सम्पूर्ण विश्व इस विकास नियम का वशवर्ती है। कोई वस्तु इससे परे नहीं, अत: प्रकृति की अद्वैत सत्ता हमें माननी पड़ती है। हमारा यह अद्वैतवाद इस बात की स्पष्ट घोषणा करता है कि समस्त जगत् प्रकृति के अटल और शाश्वत नियमों पर चल रहा है। हमारे इस अद्वैतवाद द्वारा द्वैतभावापन्न दार्शनिकों के पुरुषोत्तम रूप ईश्वर, आत्मा के अमरत्व और आत्मस्वातन्त्रय इन तीन वितंडावादों का खंडन हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि हममें से बहुतों का उन देवताओं के सब दिन के लिए विदा हो जाने पर बहुत दु:ख होगा जो हमारे पुरखों को इतने प्रिय थे। उनका वियोग हमें बहुत दिनों तक खटकेगा। पर अब यह समझकर ढाँढ़स बाँधना होगा कि पुरानी बातें सब दिन नहीं बनी रह सकतीं।

दु:ख की कोई बात भी नहीं है। यदि परोक्षवाद और अन्धविश्वास की पुरानी इमारत गिरी तो उसके स्थान पर विज्ञान की नई नींव पर प्रकृति का भव्य और विशाल मन्दिर खड़ा हुआ। यदि 'पुरुषविशेष ईश्वर, आत्मस्वातन्त्रय और अमरत्व' का विश्वास हमने खोया तो उसके स्थान पर 'सत्य, सत्व और रजस् अर्थात सौन्दर्य' की उपासना का प्रकृत धर्म स्थापित हुआ।

अब तक जो कुछ कहा गया उससे हमारे विज्ञाननुमोदित तत्त्वाद्वैतवाद की व्याख्या स्पष्ट रूप से हो गई। इस अद्वैततत्ववाद का आजकल के प्राय: उन सब वैज्ञानिकों ने अनुमोदन किया है जिनमें सुसंगत सिद्धांत स्वीकार करने का साहस है। पर अब भी बहुत से ऐसे दार्शनिक और विज्ञानवेत्ता हैं जो द्वैतभाव को नहीं छोड़ सके हैं; जो द्रव्य और शक्ति, शरीर और आत्मा, जगत् और ईश्वर, प्रकृति और पुरुष को परस्पर भिन्न और स्वतन्त्र कहते चले जाते हैं। इस दशा में भी इस बात की पूरी आशा है कि इस विरोध का आगे चलकर बहुत कुछ परिहास हो जायेगा और अन्त में एक अखंड, अद्वितीय सत्ता सबको मान्य होगी। सबसे विलक्षण बात तो यह है कि अधिकांश तत्ववेत्ता एक ओर तो प्रत्यक्षाश्रित विशुद्ध ज्ञान को स्वीकार करते जाते हैं, दूसरी ओर संस्कारवश परोक्षवाद और अन्धविश्वास के लिए मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं। पर विज्ञान द्वारा नए नए रहस्यों के उद्धाटन से हमारा प्रकृति सम्बन्धी ज्ञान दिन दिन बढ़ रहा है, जिससे आशा होती है कि यह विरुद्ध स्थिति न रहेगी, और एक ही अद्वितीय विश्व की भावना के भीतर सब भेदों का अन्तर्भाव हो जायेगा।