बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की हिन्दी कविताः एक पुनरावलोकन / सुरंगमा यादव

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अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली से प्रकाशित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ'बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और हिन्दी कविता' द्वितीय संस्करण 2020 को देखकर मन सुखद आश्चर्य से भर उठता है। लेखिका डॉ सुधा गुप्ता जी ने वर्षों के परिश्रम से कितनी ज्ञानवर्द्धक एवं ऐतिहासिक महत्त्व की सामग्री इसमें जुटायी है। इतनी लंबी कालावधि को सैकड़ों काव्य संग्रहों के अध्ययन के उपरांत आपने इस ग्रन्थ में लिपिबद्ध किया है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की हिन्दी कविता को व्यवस्थित ढंग से समझने के लिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। शोधार्थियों के लिए तो यह वरदान सदृश्य है। एक ही पुस्तक में 900 से अधिक काव्य संग्रहों का संदर्भ स्वतः इस बात का प्रमाण है कि इसको तैयार करने में लेखिका को कितना परिश्रम करना पड़ा होगा। यह सुधा गुप्ता जी की अध्ययनशीलता व लगन का सुफल है। इस ग्रन्थ को उनका महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट भी कह सकते हैं। आकर्षक कलेवर तथा 232पृष्ठों के इस ग्रन्थ के विषय में सुधा जी ने लिखा है, "पुस्तक का शीर्षक यद्यपि 'बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध' अर्थात पाँच दशकों के समय-फलक का संकेत करता है, तथापि इस अध्ययन में पाँच नहीं, छह दशकों का साहित्य (काव्य) स्वतः सिमट आया है। प्रयोगवाद 1943 से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति के समय रची जा रही कविता, स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात की कविता तथा अद्यतन कविता। लगभग 900 काव्य-संग्रहों का अध्ययन इस पुरावलोकन में संभव हुआ है-1.प्रथम सूची / काव्य संग्रह 739, हाइकु संग्रह 56, गीत-नवगीत संकलन54, ग़ज़ल संग्रह 40, दोहा संकलन 26 कुल योग 915 आता है। ...इसके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक / सामान्य अंकों से सामग्री मिली है, जिसका यथा स्थान उपयोग किया गया है। 400 से 450 के बीच बाक़ी संख्या है उन कवियों की, जिनकी कविता का अध्ययन सम्भव हुआ है।"

पुस्तक में मात्र तीन अध्याय हैं, प्रथम अध्याय 'विषय प्रवेश' दूसरा 'प्रयोगवादी धारा' तीसरा 'हिंदी कविता'। इन तीन अध्यायों में उन्होंने प्रयोगवाद: 1943 से लेकर बीसवीं शताब्दी के अंत तक की कविता का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। प्रथम अध्याय में आपने स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कविता का सामान्य परिचय दिया है। 1951-2000, पाँच दशकों की सुदीर्घ यात्रा में विभिन्न वादों के आगमन के फलस्वरूप कविता की बदलती प्रवृत्तियों के वर्णन के साथ-साथ यात्रा के दौरान कविता की गति का विश्लेषण किया है। बीसवीं शताब्दी की कविता अलग-अलग वादों तथा नामों से अभिहित होकर छोटे-छोटे कालखण्डों में बँटी है। लेकिन एक सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती कि अमुक स्थान या समय से कविता का रूप पूरी तरह परिवर्तित हो गया है। कविता के क्षेत्र में नये आंदोलनों के साथ कुछ एक पुरानी प्रवृत्ति भी समानांतर चलती रहती है। इस संदर्भ में लेखिका का कथन उल्लेखनीय है, "जिस प्रकार जलधारा की यात्रा होती है, ठीक उसी प्रकार कविता की यात्रा भी है-जल का प्रवाह एक अनंत तथा एक अनवरत क्रम है, उसे आप कहीं से काटकर, कहीं कोई रेखा खींच कर, स्थापित नहीं कर सकते कि पुराना जल यहाँ तक बह गया, नया जल यहाँ से शुरू हो गया। ठीक उसी भाँति कविता के जगत में भी बहुत-सी प्रवृत्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ साथ-साथ चलती रहती हैं। किसी एक बिन्दु पर यह कहना असंभव है कि बस, यहाँ के बाद पुरानी परिपाटी की कविता ख़त्म होती है; कि इसके बाद सब कुछ नया है। इतिहास इसका साक्षी है। छठे दशक में भी कई प्रकार से कविता रची जा रही थी। पुराने, स्थापित कवि भी जमकर काव्य-सर्जना कर रहे थे और नवीन के अभिलाषी कवि (अज्ञेय जी के शब्दों में राहों के अन्वेषी) भी अभिव्यक्ति के नए रास्ते ढूँढ रहे थे।" इस अध्याय में सुधा गुप्ता जी ने प्रत्येक दशक की कविता का विवेचन करने के उपरान्त प्रमुख कवियों, काव्य-संकलनों एवं संपादित प्रकाशनों का एक संक्षिप्त ब्यौरा दिया है, जो पाठक व शोधार्थियों के लिए उस दशक की कविता को समझने में अत्यंत सहायक है।

सन् 1951से 2000 ई0 तक की हिन्दी कविता का रूप बहुत शीघ्रता से परिवर्तित होता रहा। इस अवधि में अनेक काव्यान्दोलनों के कारण युगीन कविता को अलग 'वाद' और 'नाम' मिलते गये। सुधा गुप्ता जी का मानना है कि इन पाँच दशकों की हिन्दी कविता ने भले ही शीघ्र रूप व नाम बदले हों परन्तु उसमें एक बात समान रूप से देखने को मिलती है, वह है शब्द की महत्ता के प्रति जागरूकता-भाषा संस्कार की बात। उनके शब्दों में "इस काल का कवि गहरे स्तर पर 'शब्द' से जुड़ा है, यह शब्द की शक्ति से, उसकी अनंत सम्भावनाओं से परिचित है। 'कवि कर्म' को यह 'साधना' के रूप में ग्रहण करता है-वह अपने दायित्व से पूर्ण रूपेण परिचित है।"

दूसरा अध्याय जिसका नाम 'प्रयोगवादी धारा' है, के अंतर्गत प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, नवगीत आदि की विस्तृत चर्चा की है। इस अध्याय में सुधा गुप्ता जी ने आलोच्य कालखण्ड में लोकप्रिय हुईं कुछ विशेष विधाओं के बारे में भी बात की है। ग़ज़ल उर्दू शायरी में अत्यंत लोकप्रिय विधा रही है। उर्दू शायरी में एक से बढ़कर एक बड़े ग़ज़लकार हुए हैं और हो रहे हैं। अपने विशिष्ट गुणों के कारण उर्दू की ग़ज़ल को लोकप्रियता मिली। हिन्दी में ग़ज़ल विधा को लोकप्रिय बनाने का श्रेय प्रसिद्ध कवि व ग़जलकार दुष्यंत कुमार को है। उनकी ग़ज़लों में व्याप्त व्यंग्य व तंज ने गहरा प्रभाव छोड़ा है-

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए

कह चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।

बीसवीं सदी के अंतिम दशक में प्रकाशित श्रेष्ठ ग़ज़ल संग्रहों का संक्षिप्त विवरण भी लेखिका ने दिया है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में हिन्दी ग़ज़ल की भाँति ही दोहा हिन्दी साहित्यानुरागियों के लिए एक विशेष आकर्षण का छन्द बनकर प्रकट हुआ। इसका श्रेय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' को देते हुए डाॅ सुधा गुप्ता लिखती हैं, "इसका श्रेय प्रसिद्ध गीतकार देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' को जाता है जिन्होंने लगातार छह 'सप्तपदी' का संपादन करके दोहा छन्द की लोकप्रियता बढ़ाई। सप्तपदी प्रथम 1992, सप्तपदी द्वितीय 1994, सप्तपदी तृतीय 1995, सप्तपदी चतुर्थ 1997, सप्तपदी पंचम 1999 और सप्तपदी षष्ठ 2000 को मील का पत्थर माना जा सकता है।"

इसी अध्याय में लेखिका ने जापानी कविता हाइकु का विस्तार से वर्णन किया है। हाइकु का मूल, हाइकु का स्वरूप एवं विकास, हाइकु का काव्य शिल्प, हिन्दी में हाइकु कविता, शीर्षकों के अंतर्गत हाइकु का विश्लेषण किया है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों में हाइकु कविता का प्रचार-प्रचार-प्रगति के क्रम में लेखिका ने गहन छान-बीन करते हुए हाइकु के प्रचार-प्रसार में योगदान देने वाले साहित्य प्रेमियों, हाइकु कारों तथा हाइकु संग्रहों, संपादित संकलनों, विशेषांकों तथा पत्र-पत्रिकाओं का विवरण दिया है।

लेखिका ने 'प्रलम्ब कविता' के इतिहास पर भी प्रकाश डाला है। उनके शब्दों में, "आधुनिक हिन्दी कविता में प्रलम्ब कविता का इतिहास भी कम से कम अस्सी वर्ष पुराना है। अब लगभग सभी विद्वान समीक्षक-आलोचक इस बात पर एक मत हैं कि आधुनिक हिन्दी कविता में प्रथम प्रलम्ब कविता पन्त जी द्वारा रचित 'परिवर्तन' (प्रकाशन वर्ष-1923) थी।" समकालीन हिन्दी कविता में सबसे पहले 'लम्बी कविता' के विषय में गम्भीर एवं क्रमबद्ध चिंतन की शुरूआत डॉ नरेन्द्र मोहन ने की। सुधा जी यहाँ कुछ चर्चित लंबी कविताओं पर विचार भी किया है। इनमें हैं-असाध्य वीणा, अँधेरे में, प्रमथ्यु गाथा, मुक्ति प्रसंग, आत्महत्या के विरुद्ध, उपनगर में वापसी, पटकथा, आज या कल या सौ बरस बाद, सर्पमुख के सम्मुख, घाटी का आखिरी आदमी, अपने आप से एक लम्बी बहुत लम्बी बातचीत, घास का घराना, खण्ड-खण्ड पाखण्ड पर्व, बलदेव खटिक, आत्मबोध, शीर्षक की तलाश, एक अग्नि काण्ड: जगहें बदलता, मोतीलाल, अपना शव ढोती हुई संस्कृति की यात्रा।

इस प्रकार ग़ज़ल, दोहा, हाइकु तथा प्रलम्ब कविता पर पृथक-पृथक विचार किया जाना इस पुस्तक अपनी विशेषता है।

'हिन्दी कविता' नामक अंतिम अध्याय में लेखिका ने आलोच्य कविता के वैचारिक धरातल व शिल्पगत वैशिष्ट्य पर विचार किया है। वैचारिक धरातल के अंतर्गत हिन्दी कविता पर अस्तित्ववाद का प्रभाव, हिन्दी कविता और यथार्थवाद पर प्रकाश डाला है। शिल्पगत वैशिष्ट्य में हिन्दी कविता में शब्द संपदा, नवीन विशेषण, नवीन बिम्ब, कविता में नाद-सिद्धांत, प्रतीक योजना आदि की दृष्टि से कविता का मूल्यांकन किया है।

पाँच दशकों से भी अधिक समयावधि की हिन्दी कविता का इतनी समग्रता के साथ मूल्यांकन, विश्लेषण, विवेचन निश्चय ही श्रम साध्य कार्य है। सहृदय पाठकों एवं शोधार्थियों को एक ही स्थान पर प्रचुर सामग्री का मिलना एक उपलब्धि की भाँति है। डॉ सुधा गुप्ता जी का यह स्तुत्य कार्य इस कालखण्ड की हिन्दी कविता को समझने में निश्चय ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहेगा।

बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और हिन्दी कविता: डॉ. सुधा गुप्ता, पृ: 232, मूल्य 460/- , प्रथम संस्करण: 2004,द्वितीय संस्करण: 2020; प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली,नई दिल्ली-110030

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