बीसवीं सदी की आखिरी शाम / अशोक भाटिया
सेल्यूलर फोन जेब से निकाल लिया। बस का अपना ही काफी शोर था, इसलिए वह भी ऊँचा बोल रहा था। ड्राइवर ने कुछ देर सुना, तो उसे लगा कुछ गड़बड़ है।
बस रोककर उसने पूछा, ‘‘के बात है भाई, पीछे क्या झगड़ा - सा हो रहा है?‘‘
‘‘कुछ नहीं फोन कर रहे हैं।‘‘ ड्राइवर की नजदीकी सीट पर बैठे हुए एक यात्री ने बताया। खुश होकर ड्राइवर बोला, ‘‘बस में फोन! भई, बड़ी तरक्की की हिन्दुस्तान ने, कोई कोना नी छोड़ा। भई बीसवीं सदी में दुनिया बहुत आगे पहुँच गई है...”
ड्राइवर तरक्की की बातें किये जा रहा था। इस बीच उस आदमी ने फोन बन्द कर दिया था। बस में खड़ी उस स्त्री को किसी ने धीरे-से बता दिया था कि जिस सीट पर वह आदमी बैठा है, वह तो सिर्फ औरतों के लिए है। उस स्त्री ने आरक्षण के बारे में सुन रखा था। वैसे तो वह खड़ी ही रह जाती, पर वह अपने पैर पर लगी चोट से परेशान थी। उसने हिम्मत करके हाथ आगे बढ़ाकर उस आदमी से कहा, ‘‘यह सीट तो औरतों की है !‘‘
यह सुनकर वह आदमी उपेक्षित भाव से बाहर देखने लगा। आस-पास किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उसे कुछ कहे। ड्राइवर अब भी देश में हुई तरक्की का गुणगान किए जा रहा था। बस अपनी गति और शोर के साथ, मानो अँधेरी सुरंग में घुसी जा रही थी। सेल्यूलर फोनवाला वह आदमी इक्कीसवीं सदी शुरू होने का जश्न मनानेवाली मण्डली के साथ शराब-कबाब-शबाब का स्वाद लेने की कल्पना में मस्त, सीट पर और फैलता जा रहा था और एक पैर पर खड़ी वह स्त्री कारखाने में रात की शिफ्ट में जाने की हिम्मत जुटा रही थी।
वह इक्कीसवीं सदी से ठीक पहले की आखिरी शाम थी।