बीसवीं सदी की नायिका / कुसुम भट्ट

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फा...गुणीऽ...!

इतिहास की धूल के गाढ़े मटमैले गुब्बार भरे बादल को चीरकर प्रकट हुई वह हरी ऽगाल-सी लचकती देह पर हरी रेशमी साड़ी उस का चाँदी का बौडर फागुनी धूप में चमकता गोकि हरी पहाड़ियों पर हिंवाली काँठी सुराहीदार गर्दन पर गुलबन्द, दूधिया गोरे लम्बे चेहरे की सुतवां नाक पर भारी नथ, जिसके मोती धूप में दिप-दिप करते पतली कलाइयों में कोहनी भर साड़ी के मैच की काँच की चूड़ियाँ पांवों में चाँदी की पैजनियाँ छम-छम छमकाती चली आ रही है...

अभी उतरी हूँ भीड़ की गन्धाती आवाजों के नाकाबिले वर्दाश्त शोर को चीरती गो कि अथाह जल राशि को चीरता जहाजी बेड़ा ...! आवाजें जो लुटेरों-सी धमकर चेतना के किवाड़ धकियाती छल-बल से आकर बैठ गई है आलथी-पालथी मारकर-हमें यहीं रहना है... है किसी में हिम्मत कि निकाल फेंके बाहर... " ठसाठस भरी इस लम्बी बस की खिड़की से नीचे झाँकती गहरी खाई में धरती की सतह फोडकर आती अवाँछित आवाजें वहीं शताब्दियों की धूल उड़ाती अपनी नंगई में-हेऽ प्रभु! इतिहास से निकले कंकाल कब पीछा छोड़ेगे...? कब मुक्त हुँगी इनसे ... वही औरत ... वहीं जातिदंश ... वही आत्मा-देह का बलात्कार वहीं चीखें ... उफ! काश! एक पूरे दिन के लिये शून्य में हो सकती तो...जी जाती एक उमदा ज़िन्दगी ...

एक पल के वास्ते भी कब मुक्त किया। युगों का इतना शोर लगता कि पागल हो जाऊँगी-ये वर्तमान के यात्री हैं या भूत के ...?

गोया इतिहास एक अलग ग्रह है अंतरिक्ष में ... उसकी अपनी स्वायत्ता ... खगोल शास्त्री ने किसका कंकाल निकाला अभी...? मेरे पीछे की सीट पर बैठे दो युवक कई सौ वर्षों के तल पर जा बैठे हैं। पौराणिक कथाओं के प्रसंग में पहाड़ की स्त्री की व्याधि कथा ... मैं फट पड़ना चाहती थी-चुप रहो मूर्खों ... कुछ नहीं होगा... कभी कुछ नहीं बदलेगा... वहीं है सब कुछ ... थोड़ा काट छाँट कर ... थोड़ा आधुनिकता का जिरह बख्तर पहनाकर ... ये नहीं सुनते! ताज्जुब है मैंने आवाज़ का भारी पत्थर मारा फिर भी ...! तो मैं अपने ही अन्तर के तहखाने से सहला रही हूूँ वर्तमान का भेड़िया मुझे निगलने दौड़ रहा है... बीड़ी सिगरेट, कच्ची दारू पेट्रोल की मिली जुली दुर्गन्ध को फेफड़ों में भरने अभिषप्त मेरी साँसें, तेजाब भर रहा है भीतर ... किसी तरह भारी भरकम बैग को खींचती बीच सड़क में उलट दिया था... गोया सदियों का जमा अवाँछित ...

"गारगीऽ... आ गई बेटा...?" दो झुर्रीदार हथेलियों ने लपकना चाहा था बोझ... लेकिन रह गये कंपकंपाकर ...!

"लाइये मांजी ... हम उठा लेते हैं ... उस पार ही रखना है न...?" कुछ हाथ लपके थे बोझ थामने ... काँपते हाथों ने चैन की सांस ली "सुखी रहो बेटा... मुक्त कर दिया बोझ से ..., माँ के चेहरे की झुर्रियों के बीच धूप की रेखायें हैं" जब बोझ सहन करने की कूवत न रही ... इन्हीं मज़बूत हाथों ने थाम कर मुक्त कर दिया हमें। " धूप की रेखाओं के बीच पहाड़ की अनगिन माओं के चेहरे की धूप चैंधा मार रही हैं...! हम सब सामान ही थे रद्दी काश! समय की सड़क को पीछे मोड़ने की युक्ति मिल सकती ... तो हटा पाती वह अवाँछित ... किस ... किस पल में... कहाँ-कहाँ ... किस ... किस ने खिलने से रोके रखा था ज़िन्दगी का बेहतरीन फूल... जिसकी कोमल पंखुडियाँ कुछ झुलस गईं... जो कुछ बची जैसे तैसे ... वह चिंगारी बन गई ... इतिहास के राख के नीचे की चिंगारी ... अब सब जला डालने को बेचैन ...

तो सुलभा मैत्रैयी आकर बोली थी "इस कीचड़, काई को हमें ही धोना है, गारगी है... जहाँ-जहाँ कोने-कोने में अँधेरा दिख रहा है न पहाड़ में... हमें मशाल जलानी है ... वरना समय हमें कोसता रहेगा ..." तो हम तीनों ने अपनी संस्था का निर्माण कर लिया था, जिसके तहत मैं आई हूँ, वे दोनों हफ्ते भर से पहाड़ के उस अंधेरे हिस्से में हैं, जहाँ आज भी लगती हैं स्त्री की बोलियाँ ...! और आँखें करती हैं उन अंगो की तहकीकात... लम्बी लाइन दस से तीस चालीस वर्ष तक ...

"बीच रास्ते पर नहीं बेटा ... इधर ... इस तरह ..." माँ घबराई-सी मेरा हाथ खींचने लगी, लेकिन मेरी ज़िद वर्षों की मन के तहखाने में क्रूर हुई हाथ छुड़ाकर ठहरी ... जीप के भोंपू से विचलित ले गई नदी के ऊपर पुलिया पर एक टुकड़ा इतिहास इधर भी उलटने लगी हूँ। माँ फिर रोकती है "नदी के ऊपर नहीं गारगीऽ... किनारे हो जाऽ..." मैं नदी को देखती हूँ बहुत सालों बाद जैसे किसी सुखानुभूति को पकड़ने की कोशिश में ... कहाँ रीत गया इसका पानी? तब लबालब कितनी भरी लगती थी नवयौवना-सी इठलाती ... मान से भरी पूरी ... कहाँ ख़र्च हो रही है, पृथ्वी की दुर्लभ जीवन दायिनी शक्तियाँ ..." पूछना चाहती हूँ ...? आँखें भर आ रही हैं

और तुम्हारा पानी? कहीं से फूटता है स्वर

"मेरा पानी...?" डुबकी लगाती हूँ, अपने भीतर यहाँ पत्थर ही मिलते एक दूसरे से रगड़ खाते ... आग पैदा करते ..." मेरा पानी तो सूखते ... सूखते आग बन गया ... मुझे चक्कर आने लगा है युगों का चक्कर ... जाने कितने सौ साल बेताल से लटक रहे हैं पीठ पर

प्रजनार्थ महाभागाः पूजाही गृहदीप्तयः

स्त्रियः श्रियश्च गहेशु विशेषोडाान्ति कथन

अपत्य धर्मकायणि शुश्रूषा रतिरूतमा

द्वाराधीस्तधा स्वर्गः पित्रृणामात्मनश्च ह

यत्र नार्यीस्तु पूज्यन्ते रमन्ते यत्र देवता

यत्रैतास्तु न पूज्यते सर्वास्तात्राफला क्रिया

मनुः 3151

"सेठानीऽ... दादीऽ..." वह पास आ चुकी है माँ मेरी ज़िद से हताश दूसरी ओर लौट कर पुलिया पर बैठ गई है।

मैंने देख लिया था दूर से कि तुम हो ... पहचान लिया इतने वर्षों बाद भी... वह चिहुँकने लगी है, मैं हाथ में पकड़ी विसलरी की बोतल से बचे हुए पानी से छपाकें चेहरे पर मारती हूँ वर्षो की धूल धुल रही है। चेहरा साफ-साफ दिखने लगा है ... अब मैं प्रकृतिस्थ हूँ दुबली-सी वह बारह तेरह वर्ष की लड़की यहाँ... इस रूप में ...! मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं है, माँ उसके चेहरे को एकटक देख रही है ... यह देखना भी सतह के नीचे का कुछ तलाशना जैसा है "फागुणीऽ ...? कौन फागुणी?" वह झोला पुलिया पर रख माँ से कुछ दूरी पर बैठ गई है"फागुणी हूँ दादी खंत्या कि बेटी फागुणी तुम्हारे साथ मुहँ अंधेरे गोबर मिट्टी से खलिहान लीपा करती थी भूल गई ...? तुम्हारे साथ जंगल-जंगल दौड़ती थी ... वह हरी कुलबुली घास वह लकड़ियों के गट्ठर। वह माँ को देखती रही एक टक ... याद आया कुछ ...?" वह फिर कुहकी फंगुआई कोयल-सी ..., वही उसका पंचम स्वर! माँ असमंजस में अच्छा ... वोऽ ... खन्तया कि बेटी फगुणीऽ... वोऽ तो मर चुकी थी बल... खन्तया ही तो लाया था ख़बर कि उसकी बेटी ने नदी में छलांग लगा दी थी ...! हमने तो उसके लिये बेल भी (शोक) दे दी थी। चूल्हा नहीं जलाया था उस रात...? माँ इतिहास की सीढ़ियाँ उतरने लगी कि उचक कर ऊपर आ लगी"... और मेरी पगली बेटी ... रो-रो कर बुरा हाल था, इसका, कहती रही" तुम सबने मार दिया मेरी फागुणी को..."हम भला क्यों मारते उसे ... बेचारी लड़की उसने नदी में छलांग लगा ही दी थी तो कोई क्या कर सकता था। यही तो बोला था खन्त्या ने हमको रोते-रोते ... कच्ची दारू पीते ... उस पर कोदो की मोटी-मोटी रोटी भकोसते ...! हमने तो शोक मनाया उसकी बेटी के वास्ते ... और वह ... कमबख्त! छीऽ कैसा बाप था तेरा...!"

अतीत के धूल के कण मेरी आँखों में किरकिरी करने लगे हैं, बहुत देर खड़ी यात्री बस घर्रऽ... घर्रऽ आगे बढ़ रही है । थोड़ा आगे फिर धूल का बादल-सा छा गया है, ऊपर से पहाड़ काट कर सड़क बनाने की प्रक्रिया ...

स्मृतियों में क्यों नहीं पड़ती धूल? कुछ समय फूल-सी हल्की होकर जीवन का एक तिनका सुख बटोर पाती। हे प्रभु! हम कितने पराधीन हैं...!

"ए! बन्दर! बन्दर है पीछे ... झोला उठाने की फिराक में ..." चाय की गुमटी पर बैठा आदमी चिल्लाने लगा "बचा लोऽ... अपनी चीजें... बड़े धूर्त हैं यहाँ के बन्दर..."

' अपनी चीजें...? आवाज़ तीर की सनसनाहट लिये आत्मा कि नली पर आ लगी हो। बचाना तो चाहती थी।

वह पलटकर मुड़ी झोला कस कर पकड़ लिया "केला चाहिए... ?" झोले से केला निकाल कर फेंका बन्दर ने केला लपक लिया। डरा रहा ऊपर आम के पेड़ की टहनी पर झोले में जाने और क्या है वह खोंऽ-खोंऽ करते बन्दर पर ढेला फेंकने उठी " चल भाग ...

लुटेरे समय को भी युक्ति का ढेला फेंककर बचाई होगी ज़िन्दगी इसने ... मैं दूसरे छोर से माँ के पास आ बैठती हूँ। अफ़सोस कि फागुणी मुझे पहचानने में असमर्थ माँ से ही मुख़ातिब है, " वही तो बताने जा रही हूँ सेठानी दादी ...

"सेठानीऽ!" माँ को गोया गाली लगी हो "काहे के सेठ सेठानी? रेऽ फगुणी गया वह वक़्त जब हुआ करते थे ... अब तो खेत खलिहान बंजर हुए! कोठी कुठार चाट गई दीमक, बाग़ बगीचे जंगली सूअरों की थूथन उजाड़ गई ऐसी सेठानी, किसी को न बनाये भगवान ...! टूटी दीवारांे के घर में रहती हूँ..." माँ का गला भर्रा आया" भगवान की इतनी ही कृपा ठहरी कि फाका नहीं किया कभी, चल ही रहा है गुज़ारा किसी तरह...

मैं देख रही हूँ माँ को सच कबूलने में तकलीफ होती है क्यांे नहीं स्वीकार कर लेती कि फगुणीऽ... तुम्हारे ही कारण हमारे खेत सोने की फसलें उगाया करते थे, तम्हारी माँ, फूफू, पिता, काका हमारे खेतों को कोल्हू के बैल जैसे न जुटे रहते तो होती हमारी अच्छी फसलें? ... नहीं न? तुम्हारी माँ तो हरी घास के लालच में ढंगार सेे भी गिर गई थी। चारपाई पर उठा लाये थे गाँव के लोग बाद में चारपाई भी धुली थी ...! और लोग तो सर्दी के दिन भी बाप रे! ग्ंागा स्नान! ठिठुरते शीऽ ... शीऽ... उफ! तुम्हारे ही कारण हमारे ढलवां खेतों की सगवाड़ी, मेथी, आलू, पालक, राई, प्याज वगैरह से हरी गच्छ रहती थी! अन्नपूर्णा रसोई में क्या रस्याण (स्वाद सुगन्ध) आती थी कि राह चलने वाला बटोही ठहर कर देखने लगता था "सेठों की तिवारी...!" भाग्य से ईष्र्या भी होती थी। गाँव वालों को भी और बाहर वालों को भी ... वरना पहाड़ खोद कर सोने की खदाने तो मिली नहीं आज तक किसी को ...

माँ उसके गहनों को ताके जा रही है "सोने के हैं सारे...?" इस उम्मीद में कि कहेगी वह "नाऽ... नाऽ... सेठानी दादीऽ... सोना कहाँ अपने भाग में ... पीतल के हैं सारे ..." उसकी भारी भरकम नथ का सोना धूप में चम चमकता नथ पर लगे मोती की दीप्ति उसके गालांे को आलोकित करती... कौन कहेगा यह वही फगुणी है...! "आते-जाते यात्री लुभावनी दृष्टि से उसे पूछ रहे हैं।" ए! कहाँ से आई हो ...? कौन ग्रह की प्राणी हो...? पुरूषों की आँखांे में वहीं लोलुपता ... स्त्रियाँ ईष्यालू "इतना सोना बाप रे! नथ ही पाँच छह तोले की होगी ... दुखती नहीं इसकी पतली-सी नाक...हुं हंु गो कि बोझ इन्हें सहन करना पड़ रहा हो और गुलुबन्द! कहाँ गढ़ाया होगा ... कौन से सुनार से ...?" कोई पूछता भी है कौन गाँव के हो बटोइयों ...? कौन गाँव जाना है ..."

माँ आदतन अपनी समूची कुंडली बाँचने को होती है "वोऽ ... देखोऽ ... वोऽ... मेरा गाँव ... उस पहाड़ी पर ..." उंगली से इशारा करती बूढ़ी औरतें थैला पुलिया पर रख माथे पर हथेली की छाया कर उचक कर कह रही हैं" कौन-सी पहाड़ी उधर जहाँ घाम नहीं आता ...?

"हाँऽ... हाँऽ... वही गाँव वहीं हमारा बड़ा घर था, अब तो कमबख्त भूकंप से टूट रहा है ..." इन पहाड़ों पर भूकंप भी तो कैसा भयानक आता है ... बटोही स्त्रियों की आँखों में आतंक पसरने लगा है ...उस दिन भी तो भूकंप आया था ... इतना बड़ा भूकंप... गो कि धरती के अन्तस्थल को चीरकर ले गया था ... कैसी तबाही मची थी हेऽ प्रभु! कहीं न आये-ऐसा भूकंप... जिसके आने से देह साबुत रहे ... भीतर काँच-सा किरच-किरच टूटकर बिखरता रहे...

"तुम्हारी बेटी है ...?" फागुणी को इशारे से पूछ रही है बूढ़ी औरतें, मुझे तो अजनबी समझ रहीं हैं, जो उनके साथ बैठ गई हूँ ...

माँ का चेहरा फक्क बुझ गया अभी जिसमें टिमटिमा रही थी वही धुँधली रोशनी वाली लालटेन जिसे जला कर नीमदारी के आगे छज्जे की पठाल पर रख रही थी मैंऽ ...

"मेरी बेटी! मेरी बेटी दिखती है तुमको..." माँ की आवाज़ में पत्थर बजने लगे हैं"अरेऽ... दगण्यों (साथियांे) कुछ तो सोच समझ कर बोला करो ... ये तो हमारी औजियों की बेटी है ... इसका बाप ढोल दमाऊ बजाने वाला ठहरा ... माँ हमारे कपड़े सिलने वाली ठहरी ... ये ठहरे दास ..." माँ धारा प्रवाह बोल रही है"।

"बस्स!" मैने माँ को इशारा न किया होता आँखों से तो फागुणी की भी विवस्त्र होती काया ... "मेरी बेटी ... ये है ... देश में रहती है ... इसके जैसी औरतों के वास्ते काम करती है मेरी बेटी ... तुम्हारे जैसी बूढ़ी औरतों के लिये काम करती है मेरी बेटी ...! समझ गयी न ...?" इस दरकते पहाड़ के वास्ते काम करती है मेरी बेटी... क्या कहते हैं... उसे शो ... श... ल... वरक़ ...

वे तीनों उजबक माँ को ताके जा रही हैं ... उनकी समझ में नहीं आ रहा कि गंबई, गोरी, चिट्टी, ठिगनी, दुबली वाचाल बूढ़ी की लम्बी चैड़ी गदबदी सांँवली मर्दानी बेटी क्योंऽ ...? मेरे ब्वाय कट बाल उड़े रंग की (जीन्स) उस पर देर से पसरी चुप्पी ... गो कि जले भुने होंठ सिल दिये हों ... "वाचाल माँ की घुनी लड़की!" उनकी विस्फारित आँखें देख रही हूँ। साथ ही फागुणी का चिहुँकना भी सुन रही हूँ "ये अपनी दिशा है सेठानीऽ दादीऽ...?" फागुणी ने माँ के घुटने पर स्नेहिल हथेली का दबाव बनाया ही था कि माँ ने बिदक कर खिसका ली है पंचतत्वों की काया "अपनी औकात में रह छोरीऽ..." झुर्रियों के बीच चुंधी आँखों ने तमक कर गोली दागी हो गोया"गहने और रेशमी कपड़े पहन कर कोई भूल सकता है अपनी औकात ...? फागुणी अब मुझे देख रही है एकटक... उसे यक़ीन नहीं हो रहा ... मेरी तब्दीली देख चकित हिरणी आँखें कुछ खोज रही हैं" ये मर्दाना रूप क्यांेऽ...? उसकी चुप्पी से सवाल उछल कर आने लगा है। वह दुबली साँवली किशोरी पीठ पर लम्बे बालों की दो चोटियाँ झुलाती गाँव भर में उछल-उछल कर एक कोने के घर से दूसरे कोने के घर के भीतर संेध लगाती कभी सांवली शाम के आँचल में फागुणी की बाहें पकड कर पंचायती चैक में " ए! सुनो... फागुणी भी खेलेगी हमारे साथ ...

नीम अंधेरे में अपने घर के आगे एक छोटी लालटेन प्रतिमा भी रखती थी, जिसके इर्द गिर्द कई पतंगे आपस में टकराते और भी गायब करने लगते कालिख लगे काँच के भीतर से आती धुंधली वह रोशनी ...

प्रतिमा अफ़सोस जाहिर करते माथे पर हाथ मारती " हेऽ गारगी ... इस फगुणी लाई क्यांे ...? इसे खिला नहीं सकते हम ...

"मगर क्यों?" मैं पूछती

वह मेरे कान में फुसफुसाती " मेरी माँ ने देख लिया तो नहला देगी ठण्डे पानी से अभी...!

प्रतिमा कि माँ ऊपर के हिस्से में रसोई में लकड़ियों को गंगा जल से धोकर खाना बनाती थी। वह बेटी को भी रसोई में नहीं आने देती, इसी शंका के चलते कि जाने कब मासिक स्राव होने लगे ... प्रकृति के नियमों पर किसी का वश थोड़े ही चलता है ...! वह स्तनों पर धोती की गाँठ बाँधने से पहले ब्लाउज पेटीकोट उतार कर रख लेती थी। धोती से ऊपर हिस्सा ढकने की कोशिश में नीचे हिस्सा घुटनों तक अनावृत हो जाता तो घर में खेलते बच्चे बरामदे से देखते मुँह पर हथेली रखे हँसते और प्रतिमा को चिढ़ाते ...

प्रतिमा बच्चों को मारने दौड़ती " कुछ पता भी है ... मेरी माँ देवता कि बेटी है तुम्हें श्राप देगी तो भस्म हो जाओगेऽ ... हाँ...

प्रतिमा कि माँ का गाँव बहुत दूर था। हिंवाली कोठी के नीचे ऊँची चोटी पर, वहाँ एक पौराणिक मन्दिर के पुजारी की बेटी थी वह, कुछ संस्कृत के श्लोक कंठस्थ थे, कुछ रामायण के ... महाभारत, गीता, श्रीमद भागवत के कुछ प्रसंग मुख जुबानी याद थे। वह हमारे घर छाछ लेने आती तो फगुणी के कुनबे को सुनाकर ऊँची आवाज़ में गाती

" ठोल गंवार शूद्र पशु नारी,

ये सब ताड़न के अधिकारी।

सुनते सुनते खीझ कर एक बार मैं बोली थी "ताई तुम भी तो नारी ही हो ..." उसने मुझे उजबक देखा " बेवफूफ लड़की, मुझ जैसे नारियो के बारे में नहीं कहा तुलसी दास ने ...

दो क़दम आगे बढ़कर छज्जे की पठाल से चिहुँक कर कहती " इस्सऽ... हेऽ... हेऽ भुली! शान्ति तुम्हारे घर में खड़ा रहना भी मुश्किल ठहरा... धोती के पल्लू से नाक बन्द कर अदा से कहती...डुम्याण फैला दी तुमने छीऽ-छीऽ डूम गौं बन गया अपना गाँव । वह नदी से पूजा के लिये पानी लाती तो भूल से भी किसी का स्पृश हो गया तो गाली देकर पानी गिरा देती और दुबारा नदी से पानी भरते हुए आठ-दस बार पीतल की गागर को माँजती इसी सनक के चलते एक सुबह नदी में नहाते वक़्त गायब हो गई नदी किनारे सिर्फ़ धोती मिली थी, पत्थर पर हवा में फुरफुराती।

फागुणीऽ भी तो कुछ इसी तरह गायब हुई थी। अपने गाँव से कोसों दूर हरे पानी की नयार में उसकी लाल टेरालीन की साड़ी नदी किनारे गुब्बारे से फूल कर उड़ने को हवा में। मेरी स्मृति माँ की स्मृति की टहनी हिलोरने को बढ़ रही है। माँ, किसी ने कहा था न कि भंवर में डूब गई फगुणी। किसी ने कहा दल-दल भी होता है नदी में धंस गई होगी छोकरी ...! किसी ने कहा था, अटकी होगी नीचे पत्थर पर गिद्धो का निवाला बनने ... ताज्जुब है ये दोनों नहीं सुनती हैं मेरी आवाज। जाने क्या गुफ़्तगू कर रहीं है दोनांे...! उसकी याचना भरी आँखे खुबी रही वर्षों तक मेरी आत्मा कि तली पर गोया खंज़र की पैनी धारदार नोक ...! इस क़दर छिलती रही वर्षों वर्ष कि अपने एकान्त से भी डरने लगी थी मैं...! कितने ख़ौफ़नाक सपने रात में...! कितने ख़ौफ़नाक ख़्वाब दिन के उजाले में...! अस्फुट मेरे हांेठ बुदबुदाते " तेरा मांस कितने में बेचा तेरे बाप ने फगुणी...

मेरी बकरी भी बिकी सात सौ में। फगुणी ही होती मेरी चेतना पर छाई उन दिनांें नींद में सपनांे मंे आती ... दिन के उजाले में ख्वाबों, खयालों के रस्ते आती ...

माँ ने सोचा था फागुणी का प्रेत चिपक गया लड़की पर... और शुरू होता झाड़फूँक का दौर। गालियांे की बौछारें खन्त्या कि सात पुश्तों को... उस कुसमय को जब शरणागत हुए थे अपने ओबरे में वे निरीह प्राणी... जो अब सुनने में असमर्थ थे। इस घटना के बाद लापता हुए फिर कोई ख़बर नहीं मिली।

मैं जीवन से लबरेज इसकी हिरणी-सी आँखों में सवाल दागना चाहती हूँ, लेकिन यह लजीली-सी मुस्कान फेंक कर मुझसे तटस्थ कमबख्त एक बार भी मेरा नाम कहाँ आया इसकी जुंबा पर...! जैसे कि उस रात " मी इधर ही सो जाती... ठाकुरों एक टाट का टुकड़ा बस्स... उसकी खम्बे पर चिपकी थरथराती देह लालटेन भी धुंधली रोशनी में दिखी।

"अरेऽ फगुणी तू आई कब...?" लालटेन जलाकर नीमदारी के खम्बों के बीच पत्थर पर रखने की मेरी नियमित नियति के बीच मकड़ी-सी फसीं खन्त्या कि छोरी मुझे बुला रही है, मेरे नाम से! चिंहुक उठी थी मैं, अगर बाघ तुझे उठाकर ले गया तो...?

अमूमन वह मुझे ठाकुरों के सम्बोधन से ही बुलाती और झिड़की भी सुनती "देख खन्त्या कि छोरी, मुझे ठाकुर वाकुर मत बोला कर... हम दोनों तो सहेली ठहरी, खिलाती हूँ न तुझको अपने साथ... अपने मन की बात भी तुझी से कर पाती हूँ ... समझा कर खन्त्या कि छोरी ...? लाड से उस पर चपत भी लगाई थी शाम के धुंधलके में देखा था खन्त्या के साथ तीन अधेड़ मर्दों को! खन्त्या ने बोला भी था" पाहुने है सुबह-सवेरे चले जायंेगे ठाकुरों ... थोड़ा कोदो का आटा और मिल जाता तो ...?

बेवकूफ बनाया था अपने ठाकुरों को धूर्त खन्त्या ने उस रात! मुगें का रसा भात और कच्ची दास का पौवा पीकर जश्न मनाया था। दो अधेड़ मर्द और बूढ़ा चालाक क़िस्म की फुसफुसाहट के साथ घुसे थे। शायद फगुणी ने देख लिया था उनके भीतर छुपा हुआ बाघ! तभी तो जंगली बाघ से भी डरी नहीं छोरी! कमबख्त दृढ़ निश्चय के साथ बोली थी" बाघ खाता तो खाने दो-पण मी इधर ही सोती...

बाहर अमावस का घुप्प अँधेरा था, उसे चीरते, हुए इक्का दुक्का जुगनू लड़खड़ा कर गिर पड़े थे हमारे बीच, मिट्टी के फ़र्श पर...! मैं हथेली में उठाकर सहलाने लगी थी, फूँक से वह उड़कर लकड़ी के कुठार पर बैठा तो तुरंत युक्ति सूझी। इसके भीतर खाली जगह है। रद्दी कुठार नीमदारी के एक कोने पर पड़ा उपेक्षित। मैंने लपक कर ढकक्न खोला और अपनी होशियारी पर थपथपाई थी ख़ुद की पीठ! लम्बा चैड़ा कुठार इसके भीतर बाघों से सुरक्षित रहेगी फागुणी "अगर तुझे पेशाब लग गई तो...?" मेरी चिन्ता का विषय इतना ही था।

घर वाले भूख को तृप्त करने में लगे थे, चूल्हे के इर्द-गिर्द कड़कड़ाती ठण्ड में गरमागरम रोटियाँ गनीमत थी कि रसोड़ा दूर था वरना फागुणी को नीमदारी में देख भूचाल आ गया होता। "इतना क्या कम है कि गोबर मिट्टी लिपी कोठरी दे दी है इन्हें ..." दादी मुँह से नहीं कहती थी पर अहसास दिलाती रहती।

"मी तो रात को नी जाती पिशाब, कब्बी... नी लगती मुझको..." वह खुश थी एक रात की ही तो बात है। निश्चिन्त सो गई थी मैं... सुबह चिड़ियों के जागने पर कुठार का ठक्कन खोलना है। "बेचारी फागुणी हेऽ विधाता! क्यूँ भेजा इस प्यारी लड़की को इस खन्त्या के घर। मेरी बहन होती फागुणी! कल्पनायें करती रहीं थी। इतनी मीठी नींद! काली रात में जुगनू का पीछा करती गोया उड़ती जा रही थी अंधेरी पृथ्वी के ऊपर ओड़ मेरे प्यारे जुगनुओं मेरी हथेली मंे आ जाओ... मेरे आस-पास कितना अँधेरा है देखो न और मेरी आकुल पुकार पर अनगिन जुगनू तप्प-तप्प गिरने लगे थे हथेली पर... अब इस कालिख से भरी लालटेन को फोड़ दूँगी कितनी बार कहा था माँ से" मैं साफ़ कर दूँ इसका काँच...?

लेकिन अंधेरे में रहने की आदी माँ ने घूरकर बरज दिया था "रहने दे मैं खूद ही कर लूँगी तू तो फोड ही देगी इसे... एक ही लालटेन बची है..." माँ भी ठीक ही कह रही थी। दादी के हाथों टूटी थी दो लालटेन! कहा था झुंझलाकर "चिमनी जलाओ चिमनी हवा से बुझ भी गई तो कोई बात नहीं अँधेरा ज़ख़्म तो नहीं न देगा जैसे कि यह चुभता हुआ कांच आह! टीस मारती इसकी पीड़ा हे राम!" कितना सुन्दर सपना था! आधी रात के सन्नाटे में पहाड़ तोड़ती उस चीख ने तोड़ दिया। एकदम आँख खुली खिड़की से देखा तीन आदमी एक टाट की बोरी को घसीटते हुए ले जा रहे थे। अकबकायी-सी मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर निकली। वे अंधेरे में गायब हो गये। कुठार के पास पहुँची ढक्कन खोला तो खाली जगह पर छिपकली मरी पड़ी थी!

सुबह गाँव भर में अजीब सन्नाटा-सा दिखा लोग फुसफुसा रहे थे खन्त्या ने बेच दी लड़की बंद बोरी में ले गये फगुणी को जाने कहाँ... मर ही न गई हो घुटकर छोरी...! हे राम! लेकिन खन्त्या से किसी ने भी नहीं पूछा कि क्यांे किया ऐसा...? बहरहाल खन्त्या पौवा पीने में व्यस्त रहता, उसकी औरत कभी-कभी बेटी को याद करके ज़रूर रोती

... और एक दोपहर फागुणी वापस लौट आई "कब्बी नी जाती मी उधर ..." मौका मिलते ही गोठ मंे गाय की ओट में उसने उघाड़ा अपना बारह साला बदन / कंचे के आकार के वक्ष पर खिलते मांस को नाखून से नोचा गया बुरी तरह! घावों पर खून की बंूदें सूख कर चिपकी थी, किसी मंे मवाद खून की बूंद सूख कर चिपकी थी किसी में मवाद पड़ने लगा था पेट कमर पीठ पर अनगिन खरोंचे, "उफ! कौन था जालिम?" मेरे पूछने पर सिसक-सिसक कर उसने कहा तीन या चार थे ... पेट के नीचे का हिस्सा पेटीकोट से ढका था, अचानक उसने पेटीकोट ऊपर किया जाँघों पर भी ज़ख़्म जो, खुजली पीड़ा से टीस रहे थे। जाँघों के बीच वह हथेली से पीड़ा दबाते हुए कराह रही थी "मी तो नी जाती अब कब्बीऽ..."

खन्त्या भी बोला था "नहीं भेजता मैं अपणी छोरी को... सालों को जनाना पालना भी नी आता..." मेरे सामने समय का वह टुकडा वीभत्स हँसी हँस रहा है "देखा... पशुओं से भी बदत्तर जिन्दगी...! मैं अलसाकर उठने लगी हूँ" फगुणीऽ चा पिलाती तुझको चल पार चलते हैं उस दुकान में..." सहसा माँ को कुछ याद आया दुकान में बैठ कर फागुणी बता न पायेगी... माँ फिर बैठ गई है।

खन्त्या ने साल भर बाद फिर बेच दिया था फागुणी को...! कहता था अबकी अच्छा आदमी है, बूढ़ा ज़रूर है पर जनानी पालना जानता है, खेती बाड़ी है कुखड़ी (मुर्गियाँ) भी पालता है तो भैंस भी...

"बूढ़ा तो मर खप गया होगा अब ...?" माँ उससे पूछ रही है।

यह फिर चोर नजरों से देख रही है मेरी तरफ़ मुझे पूछना चाहिए इससे... लेकिन यह तो अपरिचितों-सा व्यवहार कर रही है कमबख्त बताती क्यांे नहीं मेरा धैर्य चुकने लगा है...

"बूढ़ा जिन्दा होगा या मर खप गया, मुझको तो ख़बर नी हुई उसको साल भर बाद ही छोड़ दिया था... पर सेठानी दादी बाबा ने ठीक ही कहा था जनाना पालना आता था बूढे को...! कुछ ही महीनों में गदरा गया मेरा बदन... कभी मुर्गी पकाता कभी दूध भात... मैं तो खेतों में चली जाती... और एक शाम मिल गया वोऽ..." बोल भी...? जल्दी बोल... कम्बख्त! हम सांस रोके सुनने को बेताब " वोऽ कौन...?

"रावत... ए गबरू जवान सड़क बनाता दिन भर रात को कुखड़ी (मुर्गी) की टंगड़ी चाहिए होती उसको और अंग्रेज़ी दारू ... गोरा लाल मुँह वाला मध्यम काठी का गोरखा रावत दूसरी पहाड़ी की गोद में उसकी भी खेती बाड़ी होती। एक शाम मुझ पर आँख पड़ गई तो हैरान" घाट पर जाने वाले बूढ़े की जनाना! सुखी है तू...? "

मेरी आँखे भर आई। तब मैं नी जानती थी रावत के पास सचमुच खजाना ही है, मालोमाल कर दिया उसने जो सुख मेरी सोच में भी नहीं था, उसने दिया मुझको बस एक बात का ग़म हुआ कि बूढ़े से झूठ बोलकर भाग आई इसके साथ! तो बूढ़े का तो मरना ही हुआ न दादीऽ...? उसको तो यही लगा होगा कि नदी में डूब गई उसकी जनानी... वह उठने लगी है"

तुमको भी दिखाती ... अपना घर... बिल्कुल तुम्हारे जैसा खेती विरसा गाय, भैंस, बकरियाँ ... मुर्गियाँ, बस्स एक ही कमी है, दादी, उसकी आवाज़ भीगने लगी। बच्चा नहीं हुआ अपना...!

फागुणीऽ...! अचानक ब्रेक लग गया। मेरा धैर्य चुकने लगा है उत्तेजना में मैं उसका हाथ पकड़ती हूँ "मुझे पहचान रही है...?" मैं गारगी... तेरी बचपन की सहेली ...

वह देख रहा है मुझे ऊपर से नीचे... उसके होंठ चुप हैं, आँखे कह रही हैं पहचान रही हूँ पण मर्दाना भेष क्यों... ठाकुरों? अपनी शक्ति पर विश्वास नहीं था क्या...?

मैं निरूत्तर उसे टुकर-टुकर देख रही हूँ और एक मार्मिक स्वर मेरे कानों में घुलता जा रहा है " एक टाट का टुकडा बस्स... इहाँ सो जाती मी... इस अंधेरे में ...