बीसवीं सदी की श्रेष्ठ लघुकथाएँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
विवादों से घिरे लेखक का अविवादित सम्पादन
एक समय ऐसा आ गया था जब लघुकथा और विवाद एक दूसरे के पर्याय जैसे लगने लगे थे। नित्य नए विवादों को हवा देने में जगदीश कश्यप कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे। उनका सारा संघर्ष था तो लघुकथा के लिए; लेकिन शनै: शनै: वह व्यक्तिगत हो जाता था। मित्रों और विरोधियों में अन्तर न करने के कारण वे सबसे अलग-थलग होते गए. सन् 2000 में सुकेश साहनी जब 'बीसवीं सदी: प्रतिनिधि लघुकथाएँ' का सम्पादन कर रहे थे, अपनी लघुकथा की स्वीकृति तो कश्यप जी ने दी; लेकिन एक शर्त लगाकर कि आपके संकलन में 'अमुक कबाड़ी' लेखक की रचना नहीं छपनी चाहिए । कोई भी सम्पादक ऐसी शर्त तो नहीं मानेगा, अत: उक्त संकलन में कश्यप जी की लघुकथा नहीं जा सकी। कश्यप जी के सम्पादित 'बीसवीं सदी की चर्चित हिन्दी लघुकथाएँ' संकलन में साहनी जी एवं उस लेखक की लघुकथाएँ तो मौजूद हैं ही, उनके किए गए कार्यों का भी निष्पक्ष भाव से उल्लेख किया है।
इस संकलन में कश्यप जी के चार, ओमप्रकाश कश्यप और विपिन जैन के एक-एक लेख हैं। ओमप्रकाश कश्यप का लेख 'जगदीश कश्यप: लघुकथा का सन्तरी' जगदीश कश्यप के व्यक्तित्त्व की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करता है। लघुकथा का यह सन्तरी यदि विवादों से खुद को अलग कर लेता, तो बहुत अच्छा काम कर सकता था। लघुकथा की शास्त्रीय अवधारणा पर जगदीश कश्यप ने अपने सुलझे हुए विचार प्रकट किए हैं। लघुकथा में गम्भीर लेखन करने वालों को यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए. लघुकथा के विकास को लेकर जगदीश कश्यप और विपिन जैन के लेख ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। जगदीश कश्यप ने उपलब्ध व्यक्तिगत और सम्पादित संकलनों पर निष्पक्ष भाव से अपने बेवाक विचार प्रकट किए हैं। यहाँ न कोई उनका विरोधी है और न मित्र। मूल्यांकन का वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण, उन्हे अविवादित समीक्षक के रूप में प्रस्तुत करता है।
इस संकलन में हिन्दी के चर्चित-अचर्चित 180 लघुकथाकारों की 180 लघुकथाएँ मौजूद हैं। इस संकलन में बलराम और डॉ कमल चोपड़ा की लघुकथा का न होना खटकता है। यह एक चूक भी हो सकती है। । इन लघुकथाओं में से कुछ का जिक्र करना समीचीन होगा।
हमारे सामाजिक जीवन में अभाव और भ्रष्टाचार पूरे उफ़ान पर हैं। भारत भूषण की 'आग' दफ़्तरी भ्रष्टाचार की पोल खोलती है। दफ़्तर में काले कारनामें आग के बहाने खत्म करने का प्रयास होता है; साथ ही सारा दोष दफ़्तर के कमज़ोर कर्मचारी को फँसा दिया जाता है। कर्मचारी का यह कहना-'इन अफ़सरों के भ्रष्टाचार के कारण फ़ाइलों का भीतर तो पहले ही जला हुआ था, मेरी गलती से तो सिर्फ़ इनके कवर जले हैं।' हमारी पूरी व्यवस्था में आए झोल को रेखांकित करता है। अभाव के कारण व्यक्ति का सही रूप कभी सामने नहीं आ सकता। अभाव से तात्पर्य है-एक सामान्य जीवन-यापन की हैसियत भी न हो पाना। पुष्पलता कश्यप ने 'कागज़ की नाव' में जीवन-यापन के लिए न्यूनतम सुविधाओं के लिए संघर्षरत अभावग्रस्त परिवार की बेबसी को विभिन्न छोटी-छोटी स्थितियों के सन्दर्भ में सधी हुई भाषा में अनुस्यूत किया है। अच्छे कपड़े पहनकर भीख भी नहीं मिल पाती इसलिए 'नियति-मनफूल वर्मा' का भिखारी कोट लौटाने के लिए आता है। कर्फ़्यूग्रस्त शहर में एक बेघर गरीब मज़दूर पुलिस की गोली का शिकार बनता है; क्योंकि पुलिस की चेतावनी-'एऽऽ, अपने घर भाग जाओ नहीं तो गोली मार दूँगा। के बावज़ूद वह कहीं नहीं जा पाता है; क्योंकि उसका कोई' अपना घर'है ही नहीं (अपना घर-धीरेन्द्र शर्मा) ।' हकीक़त'(रूप सिंह चन्देल) का बस का अभावग्रस्त मुसाफ़िर चाहकर भी टिकट खरीदने में दूसरे मुसाफ़िर की सहायता नहीं कर पाता है, जिसके पैसे कहीं गिर गए हैं। उसके पास आँख चुराने के अलावा कोई उपाय नहीं है।' लँगड़ा-पवन शर्मा'में सामाजिक मूल्यों के क्षरण की कथा है। इसमें रुपये छीनकर भागने वाला' दो पैर का लँगड़ा'अधिक ज़िम्मेदार है। ठीक यही महावीर प्रसाद जैन की लघुकथा' हाथ वाले'में एक युवक द्वारा चुपचाप पुस्तक चुराने पर विकलांग दूकानदार के इस कथन में-' चोरी, हाथ वाले ही तो कर सकते हैं'-गिरते सामाजिक मूल्यों की पीड़ा और विवशता झलकती है॥' बिदाई-सुरेश उनियाल' की लघुकथा शहरी स्वार्थपरता के खोखले सम्बन्धों की शल्य-क्रिया करती है। बिदा होकर जानेवाले को कोई भी मित्र स्टेशन पर नहीं मिलता। शहर छोड़ने का अवसर आते ही सारे सन्बन्ध, दुनियादारी की बहसें, ट्रेन छूटने से पहले ही बेदम और खोखले साबित हो जाते हैं। सम्बन्धों की सारी गर्माहट धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। हाथ हिलाकर बिदाई देता है, केवल वह भूखा मरियल किशोर, जिसको उसने कुछ देर पहले स्टाल पर पाव रोटी दिलाई थी।
'फ़र्क-मधु मोनालिज़ा' में लड़के और लड़की के बीच भेद करने का दोहरा मापदण्ड पिता की असमर्थता भी प्रकट करता है कि कुमार्गगामी बेटे पर वश नहीं तो कम से कम पुत्री तो पिता की बात की अवज्ञा न करे। । ऐतबार-रमाकान्त श्रीवास्तव'में बताया गया है कि पति-पत्नी के रिश्ते केवल विश्वास पर टिक सकते हैं।' बीच बाज़ार'(रमेश बतरा) में विद्या की आलोचना करने वाली अब उसी से अपनी बेटियों को भी कैबरे सिखाने का रास्ता पूछने लगी हैं।' मृत्यु की आहट'(अशोक लव) में गैस सिलेण्डरों के फटने से फैली अफ़रा-तफ़री के कारण नरेन्द्र घर पहुँचकर अपनी पत्नी और बच्चों को गाड़ी पर बिठाकर भाग निकलता है। पीछे उसकी माँ चिल्लाती रह जाती है। वह अनसुना कर देता है। आग का कोहराम थमने पर जब वह घर वापस आता है, माँ उसको देखकर भी अनदेखा कर देती है।' करवाचौथ' (कृष्ण चन्द्र महादेविया) में पति का सामन्ती स्वभाव और पत्नी का शोषित रूप बहुत सूक्ष्मता और मार्मिकता से प्रस्तुत किया गया है। यह लघुकथा आम भारतीय महिलाओं की दु; खद गाथा का बयान करती है, जो सब कुछ सहकर भी क्रूर पति के कल्याण की कामना करने के लिए सन्तप्त हैं।
कभी किसी धार्मिक प्रवर्तक ने भी नहीं सोचा होगा कि उसके अनुयायी उसकी शिक्षाओं में अपनी कट्टरता का विष भी मिला देंगे। ईश्वर से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण ईश्वर के रास्ते हो गए हैं। मनुष्य वहाँ बिल्कुल गौण हो गया है। साबिर हुसैन की लघुकथा 'रास्ते' इस बात को संक्षिप्त और संश्लिष्ट भाषा में व्यंजित करती है। यही कारण है कि सही सोच वाले व्यक्ति को भी धर्मान्धता की लाठी से ही हाँका जाता है (कसूर-इन्द्रा बंसल) । जहरीले बीज (ओमप्रकाश कश्यप) में सुनी-सुनाई बात को ही सत्य मानकर अपनी रुग्ण विचारधारा बनाने वालों की कमी नहीं है। फिर भी इस अन्धकार में कोई न कोई उजास बाकी है। सोमेश पुरी की लघुकथा 'बीजी की आवाज़' हमें शर्मिन्दा करने के लिए काफ़ी है। मंजीत की माँ सिक्ख दंगों की त्रासदी झेलकर भी अपना पड़ोसी धर्म नहीं भूलती। वह अपने हिन्दू पड़ोसी को सप्लाई का पानी पीने से मना करती है, क्योंकि उस पानी में ज़हर मिलाने की अफ़वाह फैली हुई है। वह अपनी उपेक्षा के बावज़ूद अपने नल से पानी ले जाने के लिए कहती है। जातिवाद का ज़हर घोर साम्प्रदायिकता से भी अधिक ख़तरनाक है। इसकी जड़ें धर्मान्धता से भी कहीं अधिक गहरी और मज़बूत हैं। 'जाति का जादू' (देवेश) में इसके ख़तरे का संकेत भर है, जो आने वाली त्रासदी से आगाह करता है।
सत्ता के पास वे सभी अधिकार हैं, जिनसे सताधारी लोगों के स्वार्थों का पोषण होता है (एकलव्य-अभिमन्य अनत) । हादसा (महेश दर्पण) रात अधिक होने पर भी पुलिस वाले की लिफ़्ट न लेना एक हादसे से बचने जैसा है। बिना कहे इस कथा में पुलिस की खतरनाक छवि बता दी गई है। यही लघुकथा की सबसे बड़ी सफलता है। 'अपराधी' (महेन्द्र सिंह महलान) के मास्टर जी को सभी फटकारने लगते हैं। भ्रष्टाचार का साथ न देना भी शायद अपराध की श्रेणी में ही आ जाए. भ्रष्ट को बचाने के लिए छोटे से लेकर बड़े अफ़सर तक एकजुट होकर एक ही भाषा बोलने लगते हैं।
दफ़्तरों का जीवन बहुत औपचारिक, दमघोंटू और असहज है। इसका प्रभाव कार्यालय के कामकाज, अधिकारी-कर्मचारी सम्बन्धों पर भी पड़ता है। अधिकारी भी मूलत: सामाजिक प्राणी है। दफ़्तरी औपचारिकता, झूठा दिखावा उसके अन्तर्मन की ऊष्मा को नष्ट कर देते हैं। 'धूप' लघुकथा में सुभाष नीरव ने इसी ऊष्मा की तलाश की है। लगता है अर्थ पिशाच सब तरह के सम्बन्धों, व्यसनों और वासनाओं से ऊपर है। सुकेश साहनी ने पैसे की मृग तृष्णा को 'काला घोड़ा' लघुकथा में बहुत ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। मिस्टर आनन्द को न बीमार माँ की चिन्ता है। उनके पास न बच्चे को प्यार करने के लिए समय है, न किसी और के लिए. बस समय है केवल काले धान को सफ़ेद में बदलने की मारामारी के लिए. उसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। इस कथा की वास्तविकता आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिल रही है। बरसों पहले लिखी यह लघुकथा और अधिक कटु सत्य की वाहक बनकर हमारे सामने आ गई है।
सभी दृष्टि से जगदीश कश्यप द्वारा सम्पादित यह लघुकथा-संग्रह, लघुकथा-जगत में अपनी अलग पहचान बनाने में सक्षम है।
बीसवीं सदी की चर्चित हिन्दी लघुकथाएँ: संपादक–जगदीश कश्यप, संस्करण-2009;पृष्ठ: 240 (सजिल्द) , मूल्य: 300 रुपये, प्रकाशक: नीरज बुक सेंटर, सी–32, आर्यानगर सोसायटी, प्लाट नं 91, दिल्ली