बीसवीं सदी को सलाम / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 जून 2019
21वीं सदी का पहला भाग चल रहा है और 20वीं सदी के उन आरंभिक वर्षों में पहला विश्व युद्ध लड़ा जा चुका था। हमारे वर्तमान में ईरान और भारत-पाक सरहदों पर युद्ध के बादल छाए रहते हैं। वे बरसते नहीं परंतु बिजलियां कौंधती रहती हैं। भय के चंदोबे तले कांपते-सहमते जिया जा रहा है। युद्ध से कहीं अधिक भयावह होता है युद्ध की आशंका में घिरकर जीना। हम सब सतत आईसीयू में पड़े मरीजों की तरह हैं। जीवन एक मॉनिटर द्वारा संचालित किया जा रहा है। कला, साहित्य, विज्ञान इत्यादि जीवन के सभी क्षेत्रों में विगत 19 सदियों में किए गए सारे कार्यों के जमा जोड़ से अधिक काम 20वीं सदी में हुआ है। उसे मनुष्य पराक्रम का सुनहरा दौर भी कहा जा सकता है। चलते-फिरते मनुष्य के चित्र लेने वाले कैमरे का आविष्कार 19वीं सदी के अंतिम दशक में हुआ था परंतु कथा फिल्में तो 20वीं सदी से ही रची गई और इतनी महान फिल्में इस सदी या कोई आने वाली सदी में रची जा सकेंगी इसकी आशा नहीं है।
प्रतिभा हर कालखंड में होती है परंतु प्रतिभा के चांद पर बाजार की ताकतों का ग्रहण लगा है। यह सिनेमा के साथ सही है परंतु काव्य रचना संसार में आज भी गुणवत्ता नज़र आती है। यह विडंबना भी गौरतलब है कि जबरदस्त विकास की 20वीं सदी में दो विश्व युद्ध लड़े गए और पर्ल हार्बर पर हमले से विक्षिप्त अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए। इसके आणविक विकिरण के प्रभाव आज तक भुगते जा रहे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध की घटनाओं से प्रेरित सर्वकालिक महान फिल्में जैसे 'बैलाड ऑफ ए सोल्जरalt39 और 'क्रेन्स आर फ्लाइंगalt39 रूस में बनाई गईं। अमेरिका में 'द लॉन्गेस्ट डे', 'शिंडलर्स लिस्ट' इत्यादि महान फिल्में बनाई गईं। 20वीं सदी में डेविड लीन जैसे फिल्मकार ने 'डॉ जिवागो' जैसी क्लासिक रची, जो आज भी आत्मा में गूंजती है। भारत दोनों महायुद्ध की आंच से बचा रहा। युद्ध के पहले भारत अंग्रेजों के अधीन था और उसने भारत की खदानों का कोयला और लोहा जापान को निर्यात किया। उसे क्या पता था कि इसी सामग्री से बने बम उन पर बरसाए जाएंगे। 20वीं सदी में बर्ट्रेंड रसैल, टीएस एलियट, ज्यां पॉल सार्त्र, एजरा पाउंड, सिमोन डी ब्वॉ, सआदत हसन मंटो, प्रेमचंद, पर्ल एस. बक, अल्बर्टो मोराविया, रजिंदर सिंह बेदी, रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र चटर्जी, नजरूल इस्लाम सक्रिय रहे। जब फ्रांस हिटलर के अधीन था, तब फ्रांस के कुछ लोग भूमिगत होकर गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने का प्रयास कर रहे थे। उन्हीं प्रयासों से प्रेरित थ्रिलर फिल्म 'फॉर्मेट' का जन्म हुआ। एक फिल्म में दिखाया गया कि एक ट्रक में हथियार भरे हैं और उन पर गोश्त लादा गया है ताकि यह कह सके कि गोश्त भेजा जा रहा है। उस ट्रक के तारपोलीन में एक छोटे से छेद से गोश्त के टुकड़े नीचे गिरने लगे। परिणाम स्वरूप कुत्ते पीछे पड़ गए और हथियार सहित ट्रक बरामद हुआ। 20वीं सदी में ही पंडित जवाहरलाल नेहरू, विंस्टन चर्चिल, जेएफ कैनेडी, जमाल अब्देल नासेर, सरहदी गांधी, निकिता ख्रुश्चेव, माओ त्से तुंग जैसे महान नेता हुए हैं। क्या वर्तमान के डोनाल्ड ट्रम्प की तुलना उनसे की जा सकती है। 20वीं सदी में ही सत्यजीत रॉय, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक, शांताराम, मेहबूब खान, राज कपूर, गुरुदत्त एवं विमल रॉय जैसे फिल्मकार हुए हैं। दरअसल, उसी सदी के महान लोगों के केवल नाम भर दर्ज करने के लिए हजार पृष्ठ की किताब बन सकती है। वर्तमान चंद पृष्ठों में समा सकता है। मानव इतिहास की हर सदी में विकास और विनाश का चक्र घूमता रहा है। केवल मेडिकल विज्ञान में सकारात्मक कार्य ही हुए हैं। इसी रफ्तार से मेडिकल ज्ञान में इजाफा होता रहा तो एक दिन मरना असंभव हो जाएगा। तब संसार में उम्रदराज लोग और कमजोर बच्चों की संख्या इतनी अधिक होगी कि आपको कुरुक्षेत्र के बाद के समय की याद आ जाएगी। 20वीं सदी में तर्क और भावना का सामंजस्य रहा है परंतु 21वीं सदी के पहले चरण में तर्कहीनता व सामूहिक पागलपन के लक्षण नज़र आ रहे हैं। जिन पूर्वगृह व सामाजिक कुरीतियों को हमने मरा हुआ समझ लिया था, वे सब दोगुनी शक्ति से पुन: उभर रही हैं। दरअसल, हमें हताश नहीं होना है, क्योंकि इस सदी का अभी दिखाई देने वाला मिजाज बदल सकता है। एक सार्थक लम्हा पूरी सदी को बदल देता है। हमें तो अवतार अवधारणा में विश्वास है। अतः महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, इत्यादि महान लोगों का पुनरागमन संभव है। यह भी संभव है कि हम अवतार अवधारणा से मुक्त होकर शैलेन्द्र को याद करें- 'आदमी है आदमी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर। 20वीं सदी के पास मधुबाला और एलिजाबेथ टेलर थीं, जिनका पुनरागमन संभव नहीं।